प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है और इसमें संविधान के प्रतिबिंब को देखा जा सकता है। वैसे ये है तो मुश्किल से पचासी-छियासी शब्दों का लेकिन एक-एक शब्दों का अर्थ इतना बड़ा है कि इस पर किताब लिख दिया जाए !
इस लेख में हम प्रस्तावना (preamble) की सरल और सहज समीक्षा करेंगे और उस की मदद से संविधान को समझने की कोशिश करेंगे। संविधान की बेहतर समझ के लिए इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें –
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प्रस्तावना क्या है?
प्रस्तावना (preamble) का मतलब होता है परिचय या इंटरोंडक्शन। यानी कि ये संविधान की परिचय अथवा भूमिका हैं। इसमें संविधान का सार होता है। पूरे संविधान में है क्या, उसी का ही एक सूक्ष्मतम रूप है- प्रस्तावना। आसान भाषा में कहें तो अगर पूरा संविधान एक सिनेमा है तो प्रस्तावना उसका ट्रेलर है।
प्रस्तावना की जरूरत क्यूँ पड़ी?
प्रस्तावना इसीलिए जरूरी है ताकि कोई भी व्यक्ति पूरे संविधान को पढे बिना समझ सकें कि हमारे पूरे संविधान का दर्शन क्या है? इसका उद्देश्य क्या है? हम कैसे राज्य की स्थापना करना चाहते है? किन आधारों और किन मूल्यों पर हम भारत को स्थापित करना चाहते हैं? आदि।
प्रस्तावना के मूल तत्व
इसके एक-एक शब्द को बड़े सलीके से वाक्यों में गढ़ा गया है। इसका सारा सार इसके शब्दों में ही छुपा है। एक बार इसके मुख्य शब्दों में छिपे गूढ़ अर्थ को समझ गए तो इसका मतलब संविधान के दर्शन को समझ गए, संविधान में क्या है उसको समझ गए, संविधान की बेसिक्स को समझ गए। इससे पहले की इसे समझे, एक बार प्रस्तावना को अच्छे से पढ़ लीजिये।
प्रस्तावना |
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हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए और इसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुत्व बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख दिनांक 26 नवम्बर 1949 को एतत द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। |
प्रस्तावना से मोटे तौर पर हमें तीन चीजों का पता चलता है जो कि संविधान के मर्म को समझाने में सफ़ल भी होता है;
1. संविधान के अधिकार का स्रोत
2. भारत की प्रकृति
3. संविधान के उद्देश्य
1.संविधान के अधिकार का स्रोत
प्रस्तावना कहती है कि संविधान भारत के लोगों से शक्ति अधिग्रहित करता है। यानी कि संविधान की शक्ति का स्रोत भारत की जनता है। भारत की जनता को ही यहाँ ”हम” कहा गया है।
प्रस्तावना के पहले कुछ शब्द है – हम भारत के लोग (we the people of india), ये लाइन भारत में रहने वाले लोगों के महता के बारे में बताता है। ये भारतीय लोगों की एकजुटता और सामूहिक सोच के बारे में बताता है, ये अन्य सभी पहचान के होते हुए भी पहले हम भारतीय हैं; इसको दर्शाता है।
किसी संविधान के सफल होने की एक कसौटी ये भी है कि वहाँ के लोगों की आस्था उस संविधान में है कि नहीं। इस संदर्भ में प्रस्तावना के अंतिम लाइन (इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं) को देखें तो ये सत्यापित हो जाता है कि हमने इस संविधान को खुद अपने लिए बनाया है, हमने खुद अपने आप को नियमों में बांधा है, हमने खुद इसे आत्मिक स्तर पर स्वीकारा है तथा इसके अनुरूप ही अपने जीवन मूल्यों को विकसित करने का प्रण लिया है।
कुल मिलाकर कहें तो इस पूरे संविधान के केंद्र में हम है और हम से ही ये संविधान है। हमने ही इसे सर्वोच्च बनाया है और हम इसे के द्वारा शासित होना चाहते हैं। इसीलिए हम संविधान के प्रति आस्था रखते हैं।
2.भारत की प्रकृति (Nature of india)
भारत किस प्रकार का देश है या फिर ये किस प्रकार का देश बनने की ईच्छा रखता है यह संविधान में लिखी इस वाक्य से पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है – कि भारत एक संप्रभु (Sovereign), समाजवादी (Socialist), पंथनिरपेक्ष (Secular), लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक राजव्यवस्था वाला देश है।
इसका एक-एक शब्द काफी गूढ़ अर्थ लिए हुए है। इस पूरे वाक्य को समझने के लिए जरूरी है कि हम इसके शब्दार्थ के साथ-साथ इसके भावार्थ को भी समझे। आइये एक-एक करके समझते हैं।
संप्रभुता (Sovereignty)
संप्रभु (Sovereign) शब्द का आशय है – अपने मन का मालिक होना, अपना निर्णय स्वयं लेना यानी कि स्वयं को संचालित करने के लिए किसी अन्य पर निर्भर न रहना ।
देश के संबंध में इसका मतलब है कि, भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है।
यानी कि भारत किसी देश के अधिकार क्षेत्र के अंदर नहीं है और न ही कोई और देश भारत का प्रशासन चलाता है। इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने आंतरिक अथवा बाहरी मामलों का संचालन करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है।
समाजवादी (Socialist)
समाजवाद (Socialism) का मूल अर्थ यही है कि व्यक्ति से ज्यादा समाज को महत्व देना, मतलब ये कि एक समाज के रूप में सभी व्यक्ति समान है, और अगर ऐसा नहीं है तो राज्य की मदद से समानता स्थापित करने का प्रयास किया जाएगा। (नोट – यहाँ राज्य का मतलब देश से है।)
अब ये समानता स्थापित करने के कई तरीके हो सकते हैं, एक तो ये हो सकता है कि राज्य उत्पादन और वितरण के सभी साधनों को अधिगृहीत का लें और फिर समानता स्थापित करें।
यानी कि राज्य ही उद्योग धंधे चलाये, उत्पादों का वितरण भी राज्य ही करें और जनता बस टकटकी लगाए राज्य से मदद की उम्मीद करते रहें। इसीलिए इस तरह के समाजवाद को साम्यवादी समाजवाद (Communist socialism) या राज्याश्रित समाजवाद (State dependent socialism) कहते हैं। उदाहरण के लिए चाइना को ले सकते हैं।
दूसरा ये हो सकता है कि उत्पादन और वितरण के साधनों पर राज्य के साथ-साथ निजी क्षेत्र का भी अधिकार हो। यानी कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र साथ-साथ काम करें।
ये एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का निर्माण करता है। और चूंकि इसमें राज्य के साथ-साथ लोगों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाती है इसीलिए इसे लोकतांत्रिक समाजवाद (Democratic socialism) कहा जाता है।
उदाहरण के लिए भारत को ले सकते हैं। हालांकि उदारीकरण के बाद पूंजीवाद बढ़ता गया है लेकिन फिर भी आज भी राज्य समानता लाने के लिए ढेरों गतिविधियां करती है जैसे कि एलपीजी कनैक्शन मुफ्त देना, रहने के लिए घर की व्यवस्था करना एवं अन्य प्रकार की सब्सिडियां।
◾ यहाँ पर एक बात याद रखने योग्य है कि मूल प्रस्तावना में समाजवादी (Socialist) शब्द नहीं था। इसे वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन के द्वारा जोड़ा गया।
पंथनिरपेक्ष (Secular)
कहीं-कहीं पंथनिरपेक्ष की जगह धर्मनिरपेक्ष का भी इस्तेमाल किया जाता है। वैसे इंग्लिश में दोनों के लिए एक ही शब्द ”Secular” का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन हिन्दी के मामले में बात थोड़ी अलग है। दरअसल धर्म का अर्थ बहुत ही व्यापक है। कैसे है?
◾क्योंकि इसका इस्तेमाल स्वभाव के सेंस में होता है। जैसे कि आतंकवादी का तो धर्म ही है युवाओं को गुमराह करना और उससे गलत काम करवाना।
◾इसका इस्तेमाल कर्तव्य के सेंस में भी होता है। जैसे कि वो तो अपने आप को मेरा मित्र कहता है पर कभी भी उसने मित्रधर्म नहीं निभाया।
◾धर्म का अर्थ जीने की शैली से भी होता है। जैसे कि धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना; धर्म के 10 लक्षण है जो मनुस्मृति में बताए गए हैं।
कहने का अर्थ ये है कि अभी ऊपर जो धर्म के तीन आयाम बताए गए हैं क्या इससे निरपेक्ष हुआ जा सकता है। जवाब होगा – बिल्कुल नहीं। राज्य इससे खुद को अलग कर ही नहीं पाएगा और करना भी नहीं चाहिए।
पर इसके साथ ही धर्म का एक और मतलब पूजा पद्धति (System of worship) या धार्मिक क्रियाकलापों से भी होता है। तो कुल मिलाकर जब हम कहते हैं धर्मनिरपेक्ष तो इसका मतलब पूजा पद्धति या धार्मिक क्रियाकलापों से निरपेक्ष होना होता है।
इसी पूजा पद्धति, धार्मिक क्रियाकलाप या धार्मिक विश्वास के लिए पंथ का इस्तेमाल किया जाता है। जो कि इसकी सही व्याख्या करता है। इसीलिए पंथनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल किया जाता है ताकि चीज़ें एकदम स्पष्ट रहें।
पंथनिरपेक्ष (Secular)– तो कुल मिलाकर पंथनिरपेक्ष का मूल अर्थ यही है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और समान्यतः राज्य धार्मिक मामलों से दूर रहेगा। इसका दूसरा अर्थ ये भी है कि चूंकि राज्य का कोई धर्म नहीं है इसीलिए सभी धर्म उसके लिए समान है।
इसकी पुष्टि संविधान के कई अनुच्छेदों से होती है। जैसे कि धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार के तहत अनुच्छेद 26 में ये बताया गया है कि जनता के टैक्स के पैसों का इस्तेमाल राज्य किसी धर्म विशेष की अभिवृद्धि के लिए नहीं कर सकता है।
पाकिस्तान एवं बांग्लादेश जैसे देशों का राष्ट्रीय धर्म इस्लाम है इसीलिए ये पंथनिरपेक्ष देश नहीं है।
▪️ यहाँ पर ये याद रखिए कि पंथनिरपेक्ष शब्द को भी 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया।
लोकतांत्रिक (Democratic)
संविधान की प्रस्तावना में एक लोकतांत्रिक राजव्यवस्था कि परिकल्पना की गयी है। यानी कि जनता के जनता के द्वारा चुने गए सरकार का शासन। यह व्यवस्था प्रचलित संप्रभुता के सिद्धांत (Principles of sovereignty) पर आधारित है अर्थात सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथ में हो।
चुनने की प्रक्रिया के आधार पर लोकतंत्र दो प्रकार का होता है – प्रत्यक्ष (direct) व अप्रत्यक्ष (indirect)।
भारतीय संविधान में अप्रत्यक्ष और संसदीय लोकतंत्र (parliamentary democracy) की व्यवस्था है, जिसमें कार्यकारिणी (Executive) अपनी सभी नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति जवाबदेह है।
गणतंत्र (The republic)
एक लोकतांत्रिक राजव्यवस्था को दो वर्गों में बांटा जा सकता है – राजशाही (Monarchy) और गणतंत्र (republic)। राजशाही व्यवस्था में राज्य का प्रमुख उत्तराधिकारी व्यवस्था (Successor system) के माध्यम से पद पर आसीन होता है। यानी कि राज्य के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति को चुना नहीं जाता है। जैसा कि ब्रिटेन में
वहीं गणतंत्र व्यवस्था में राज्य का प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिए चुनकर आता है, जैसे अमेरिका और भारत में। भारत का संवैधानिक राष्ट्र प्रमुख यानी कि राष्ट्रपति चुनकर आता है, इसीलिए हम एक गणतंत्र है और गणतंत्र दिवस को इतनी प्राथमिकता देते हैं।
तो प्रस्तावना के अनुसार ये रहा भारत की प्रकृति कि – भारत किस प्रकार का राज्य है या फिर किस प्रकार के राज्य होने का दावा करता है। अब बात करेंगे कि भारत के संविधान का उद्देश्य क्या है?
3.संविधान के उद्देश्य (Objectives of the constitution)
प्रस्तावना के अनुसार न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व संविधान के उद्देश्य हैं। आइये इन उद्देश्यों को एक-एक करके देखते हैं।
न्याय (The justice)
न्याय, लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक मूल अवधारणा है। इसी को सुनिश्चित करने हेतु प्रस्तावना में तीन रूपों में न्याय की बात कही गयी है – सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक।
सामाजिक न्याय का अर्थ है – एक भेदभाव रहित समाज की स्थापना दूसरे शब्दों में कहें तो, हर व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर बिना भेदभाव किए समान व्यवहार।
आर्थिक न्याय का अर्थ है – आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। तथा आय व संपत्ति जनित असमानता को दूर करने का प्रयास किया जाएगा।
राजनीतिक न्याय का अर्थ है – हर व्यक्ति को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे, चाहे वो किसी सार्वजनिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो या फिर राष्ट्रपति बनने की…
स्वतंत्रता (Freedom)
स्वतंत्रता का मतलब है – लोगों की गतिविधियों पर किसी भी प्रकार का कोई रोक-ठोक का न होना। प्रस्तावना हर व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकारों के जरिये पाँच प्रकार के स्वतंत्रता की बात करता है- विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना।
मतलब ये कि हर व्यक्ति को सोचने और सपने देखने की आजादी है।
अपने सोच को अभिव्यक्ति करने की यानी कि लोगों के सामने अपने विचार को रखने की आजादी है।
अपनी इच्छानुसार किसी भी चीज़ पर विश्वास कर सकने की आजादी हैं।
किसी भी धर्म का पालन करने की आजादी हैं और अपनी इच्छानुसार पूजा-पद्धति को अपना सकने की आजादी है।
इन सभी की चर्चा आगे विस्तार से ↗️मूल अधिकार वाले लेख में किया गया है। विस्तार से समझने के उसे जरूर विजिट करें।
समता (Equality)
समता का अर्थ है – समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने के उपबंध। प्रस्तावना में प्रतिष्ठा और अवसर की समता की बात कही गयी है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करती है। इसके लिए संविधान में ढेरों प्रावधान हैं। जैसे कि मूल अधिकार के तहत समता का अधिकार (Right to Equality), जिसकी चर्चा संविधान के अनुच्छेद 14 से लेकर अनुच्छेद 18 तक किया गया है।
इसी प्रकार अनुच्छेद – 325; जिसमें कहा गया है कि धर्म, जाति, लिंग अथवा वर्ग के आधार पर किसी व्यक्ति को मतदाता सूची में शामिल होने के अयोग्य करार नहीं दिया जाएगा।
अनुच्छेद – 326; जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं के लिए वयस्क मतदान का प्रावधान किया है। (इसे विस्तार से समझने के लिए चुनाव आयोग वाला लेख पढ़ें।)
आर्थिक समता को स्थापित करने हेतु राज्य के नीति निदेशक तत्व के अंतर्गत पुरुष और महिला का समान कार्य के लिए समान वेतन सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य बनाया गया है।
⚫ प्रस्तावना में व्यक्ति की गरिमा (Dignity of person) की बात भी कही गयी है।
व्यक्ति के गौरव या गरिमा का अर्थ है कि संविधान न केवल वास्तविक रूप में भलाई तथा लोकतांत्रिक तंत्र की मौजूदगी सुरक्षित करता है बल्कि यह भी मानता है कि हर व्यक्ति का व्यक्तित्व पवित्र है। प्रस्तावना का एक अंतिम महत्वपूर्ण शब्द है – बंधुत्व
बंधुत्व (Fraternity)
बंधुत्व का अर्थ है – भाईचारे की भावना। संविधान एकल नागरिकता व्यवस्था के माध्यम से भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है।
मौलिक कर्तव्य या अनुच्छेद 51 (क) भी कहता हैं कि यह हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय अथवा वर्ग विविधताओं से ऊपर उठ सौहार्द और आपसी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करेगा।
प्रस्तावना साफ-साफ कहती है कि बंधुत्व में दो बातों कों सुनिश्चित करना होगा। पहला, व्यक्ति का सम्मान और दूसरा, देश की एकता और अखंडता।
▪️ यहाँ पर एक बात जानना जरूरी है कि ”अखंडता” शब्द को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया।
इस तरह से हमने देखा कि तीन शब्द (समाजवादी, पंथनिरपेक्ष एवं अखंडता) को 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया। यानी कि मूल प्रस्तावना में ये नहीं लिखा हुआ था।
प्रस्तावना का महत्व (The importance of the preamble)
⚫ प्रस्तावना में उस आधारभूत दर्शन और राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मौलिक मूल्यों का उल्लेख है जो हमारे संविधान के आधार है ।
⚫ इसमें संविधान सभा की महान और आदर्श सोच उल्लिखित है। इसके अलावा यह संविधान की नीव रखने वालों के सपनों और अभिलाषाओं का परिलक्षन करती है।
⚫ संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संविधान सभा के अध्यक्ष सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने कहा है- ‘संविधान की प्रस्तावना हमारे दीर्घकालिक सपनों का विचार है।’
क्या प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है?
संविधान सिर्फ वो पुस्तक नहीं है जिसमें 22 भाग एवं 12 अनुसूचियाँ है। बल्कि संविधान में जितने भी संशोधन होते हैं वे भी संविधान है, संविधान के किसी प्रावधान की व्याख्या या कोई निर्णय जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी जाती है वो भी संविधान का अंग है,
संविधान की सही समझ या व्याख्या प्रस्तुत करने के लिए जो विधिक भाष्य (Legal Commentary) या टिकाएँ लिखी जाती है वो भी संविधान है, यहाँ तक कि संवैधानिक परम्पराएँ जो कहीं लिखी नहीं होती है उसे भी संविधान का अंग माना जाता है। तो इसी तरह से क्या प्रस्तावना भी संविधान का अंग है?
जी हाँ, पर ये याद रखिए कि बेरुबाड़ी मामले 1960↗️ में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है। दरअसल मामला ये था कि 1958 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री फिरोज़शाह नून से बेरुबाड़ी नामक जगह को पाकिस्तान को सौंपने का समझौता कर कर लिया।
अब पंडित नेहरू ने समझौता तो कर लिया लेकिन उसे किस कानून के तहत सौंपा जाएगा ये एक सवाल खड़ा हो गया। ये विवाद कुछ मामलों को लेकर प्रस्तावना पर शिफ़्ट हो गया।
जैसे कि प्रस्तावना में बताया गया है कि भारत एक संप्रभु राष्ट्र है यानी कि भारत जो चाहे अपनी मर्जी से फैसले ले सकता है लेकिन सवाल यही था कि क्या इसको आधार बनाकर देश के टुकड़े को किसी और देश को सौंपा जा सकता है।
दूसरा प्रश्न लोकतांत्रिक को लेकर था जिसका मतलब है कि जनता सर्वोच्च है और जनता ने ही सरकार को चुना है। फिर यहाँ भी सवाल ये था कि जिन लोगों ने सरकार को चुना है क्या उन लोगों को उनकी भूमि सहित दूसरे देश को सौंपा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इससे पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है ही नहीं इसीलिए उसमें क्या लिखा उससे क्या फर्क पड़ता है।
इसे सुप्रीम कोर्ट का एक गलत निर्णय माना जाता है क्योंकि संविधान सभा ने प्रस्तावना को संविधान के एक हिस्से के रूप में माना था। इस निर्णय को 1973 में केशवानन्द भारती मामले में सुधारा गया और अब ये संविधान का सिर्फ अंग ही नहीं बल्कि अभिन्न अंग है।
क्या प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है?
तो जैसा कि अभी हमने ऊपर समझा कि बेरुबाड़ी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा ही नहीं है इसीलिए प्रस्तावना में संवैधानिक संशोधन होगा ही क्यों।
लेकिन केशवानन्द भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे दुरुस्त करते हुए कहा कि चूंकि प्रस्तावना संविधान का अंग है इसीलिए इसमें संशोधन भी किया जा सकता है। लेकिन इसके साथ ही एक प्रावधान जोड़ दिया कि संशोधन के माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को संशोधित नहीं जा सकता है।
अब जबकि प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता था तो हमारे तब के प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने इसे ट्राइ भी किया और 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में 3 शब्द जुड़वा दिये (समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता)। चूंकि ये तीनों शब्द संविधान को मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचाते है इसीलिए ये अभी भी प्रस्तावना का हिस्सा है।
प्रस्तावना में मूल ढांचा क्या है?
प्रस्तावना में लिखे हुए – संप्रभुता, लोकतंत्र, गणराज्य, पंथनिरपेक्ष, एकता एवं अखंडता संविधान का मूल ढांचा है। यानी कि कोई भी सरकार संविधान संशोधन के माध्यम से इसे हटा नहीं सकता है। इसके अलावा अन्य शब्दों में संशोधन किया जा सकता है जब तक कि सुप्रीम कोर्ट उसे संविधान का मूल ढांचा मान नहीं लेता।
क्या प्रस्तावना प्रवर्तनीय है? (Is the preamble enforceable?)
इसका मतलब ये है कि जिस तरह मूल अधिकार प्रवर्तनीय है, यानी कि इन अधिकारों के हनन को लेकर सुप्रीम कोर्ट जाया जा सकता है। क्या उसी तरह से प्रस्तावना में लिखी हुई बातों के हनन पर न्यायालय जाया जा सकता है?
जवाब है अपने आप में नहीं, यानी कि ये संविधान के किसी अन्य प्रावधान के आधार पर प्रवर्तनीय हो सकता है। जैसे कि मूल अधिकार प्रवर्तनीय है और स्वतंत्रता का अधिकार उसका एक भाग है, तो इस के तहत प्रस्तावना में जो स्वतंत्रता का अधिकार का जिक्र है वो भी प्रवर्तनीय हो जाएगा।
तो कुल मिलाकर प्रस्तावना संसद को न तो कोई शक्ति देती है और न ही शक्ति को कम करती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट संविधान की व्याख्या करते समय प्रस्तावना को एक संदर्भ के रूप में ले सकती है।
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प्रस्तावना – Quiz
आपने ऊपर जो भी पढ़ा या सुना अब उसे जांचने का समय आ गया है, तो आइये एक इस टॉपिक पर इस अभ्यास प्रश्न को हल करने की कोशिश करते हैं;
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42nd Constitutional Amendment 1776↗️
NCERT Class 11th Part 1↗️