इस लेख में हम राज्य के नीति निदेशक तत्व और मूल अधिकार में अंतर को सरल और सहज भाषा में समझेंगे, एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं पर विचार करेंगे, तो लेख को अंत तक जरूर पढ़ें।

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राज्य के नीति निदेशक तत्व और मूल अधिकार में अंतर
मूल अधिकारों की चर्चा संविधान के भाग 3 के अंतर्गत अनुच्छेद 12 से लेकर 35 तक की गयी है।
वहीं राज्य के नीति निदेशक तत्वों की चर्चा संविधान के भाग 4 के अंतर्गत अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक की गयी है।
मूल अधिकार एक राजनैतिक अधिकार है और इसका उद्देश्य देश में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करना है।
वहीं निदेशक तत्व का उद्देश्य सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।
इस प्रकार से देखें तो इन दोनों की भूमिका काफी अहम हो जाती है एक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करने में।
मूल अधिकार एक तरह से नकारात्मक प्रकृति का होता है क्योंकि ये राज्य को बहुत से काम करने से रोकता है। बेशक ज़्यादातर समय ये अच्छे के लिए ही होता है।
पर राज्य के नीति निदेशक तत्व की प्रकृति सकारात्मक होती है। क्योंकि ये राज्य को एक लोककल्याणकारी राज्य बनाने की ओर अग्रसर करता है।
मूल अधिकार वाद योग्य होते है यानी कि इसके हनन पर कोर्ट में याचिका दायर की जा सकती है। और उसे न्यायालय द्वारा लागू करवाया जा सकता है।
पर राज्य के नीति निदेशक तत्व वाद योग्य नहीं होते हैं। मतलब कुल मिलाकर देखें तो मूल अधिकार कानूनी रूप से मान्य है वही नीति निदेशक तत्व को नैतिक एवं राजनीतिक मान्यता प्राप्त है।
मूल अधिकार व्यक्तिगत कल्याण को प्रोत्साहन देते हैं, इस प्रकार ये वैयक्तिक है।
वहीं निदेशक तत्व समुदाय के कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं, इस तरह ये समाजवादी है।
मूल अधिकार को लागू करने के लिए विधान की आवश्यकता नहीं, ये स्वतः लागू हैं।
जबकि निदेशक तत्व को लागू करने के लिए विधान बनाने की आवश्यकता होती है, ये स्वतः लागू नहीं होते।
अगर न्यायालय को लगता है कि कोई कानून मूल अधिकारों का हनन कर रहा है तो वे उस कानून को गैर-संवैधानिक एवं अवैध घोषित कर सकता है।
जबकि निदेशक तत्वों के मामले में न्यायालय ऐसा नहीं कर सकता।
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