डेरिवेटिव्स चार प्रकार के होते हैं – फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स, फ्युचर डेरिवेटिव्स, ऑप्शन डेरिवेटिव्स और स्वैप डेरिवेटिव्स

इस लेख में हम ऑप्शन डेरिवेटिव्स (Option Derivatives) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे, एवं इसके विभिन्न पहलुओं को समझेंगे,

नोट – अगर आप शेयर मार्केट के बेसिक्स को ज़ीरो लेवल से समझना चाहते हैं तो आपको पार्ट 1 से शुरुआत करनी चाहिए।

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| डेरिवेटिव्स क्या है?

कोई भी ऐसा उपकरण (Instrument) जिसकी अपनी खुद की कोई वैल्यू नहीं होती है बल्कि उसकी वैल्यू किसी और ही चीज़ से प्राप्त होती है। उसे डेरिवेटिव्स (Derivatives) कहा जाता है।

जिस चीज़ पर उसकी वैल्यू निर्भर करता है उसे अंतर्निहित परिसंपत्ति (Underlying Assets) कहा जाता है। जैसे कि पनीर की वैल्यू दूध पर निर्भर करता है इसीलिए यहाँ दूध पनीर का अंतर्निहित परिसंपत्ति (Underlying Assets) है।

डेरिवेटिव्स (Derivatives) चार प्रकार के होते हैं – फॉरवर्ड (Forward), फ्युचर (future), ऑप्शन (Option) और स्वैप (Swap)। इस लेख में हम ऑप्शन डेरिवेटिव्स को समझेंगे:

| ऑप्शन डेरिवेटिव्स क्या है?

इस लेख को समझने से पहले फ्युचर डेरिवेटिव्स (Future derivatives) को जरूर समझ लें क्योंकि ये भी एक प्रकार का फ्युचर कांट्रैक्ट ही है बस इसमें कुछ सुविधाएं और सहूलियतें बढ़ा दी गई है।

फ्युचर डेरिवेटिव्स (Future derivatives) वाले लेख में हमने पढ़ा था कि ये एक बाइंडिंग कांट्रैक्ट होता है यानी कि एक बार अगर आप इस कांट्रैक्ट का हिस्सा हो गए तो आप उसके एक्सपाइरी डेट तक वापस नहीं आ सकते हैं। यानी कि बीच में कांट्रैक्ट को छोड़ने का कोई ऑप्शन आपके पास नहीं होता है,

लेकिन ऑप्शन डेरिवेटिव्स (Option derivatives) जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इसमें आपके पास एक ऑप्शन होता है कि आप जब चाहे उस कांट्रैक्ट से बाहर आ सकते हैं। इसका क्या मतलब है आइये एक उदाहरण से इसे समझते हैं।

| ऑप्शन डेरिवेटिव्स उदाहरण

मान लीजिये आपको एक बाइक चाहिए जिसकी कीमत 1 लाख रुपए है। आप जब उस बाइक को लेने शो रूम जाते है तो आपको पता चलता है कि वो बाइक अभी मार्केट में उपलब्ध नहीं है। आपको शोरूम का मैनेजर कहता है कि वो बाइक 2 महीने में आ जाएगा।

आप उस बाइक को 2 महीने बाद खरीद सकते हैं लेकिन आपको शोरूम मैनेजर बताता है कि चूंकि उस बाइक का डिमांड बहुत ज्यादा है इसीलिए हो सकता है कि 2 महीने बाद जब वो बाइक मार्केट में आए तो उसकी कीमत 1 लाख 20 हज़ार रुपए हो जाये। ऐसी स्थिति में 2 महीने बाद आपको 20 हज़ार रुपए एक्सट्रा देने पड़ेंगे।

इसी से बचने के लिए मैनेजर आपको एक सलाह देता है कि आप 1000 रुपए एडवांस में जमा कर दीजिये ताकि दो महीने बाद अगर उस बाइक की कीमत बढ़ भी जाये तो भी आपको वो आज के प्राइस पर ही मिल जाएगा। आपने 1000 रुपए देकर उस बाइक की बुकिंग करा ली। इसे कहा जाता है बुकिंग अमाउंट या फिर प्रीमियम।

इससे होगा ये कि अब बाइक की कीमत कितना भी क्यों न बढ़े आपको वो 1 लाख रुपए में मिल जाएगा। लेकिन इस कांट्रैक्ट में आपके पास ऑप्शन ये है कि आप चाहे तो इस कांट्रैक्ट से बाहर भी आ सकते हैं। जैसे कि अगर 2 महीने बाद उस बाइक की कीमत बढ़ने के बजाय अगर घट जाये।

मान लेते हैं कि उस बाइक की कीमत 2 महीने बाद सिर्फ 80 हज़ार रुपए हो गई ऐसी स्थिति में आप उसे 1 लाख में क्यों खरीदना चाहेंगे। तो जाहिर है आप इस कांट्रैक्ट से बाहर आ जाएँगे।

अगर आप बाहर आ गए तो आपको सिर्फ 1 हज़ार रुपए का लॉस होगा क्योंकि बुकिंग अमाउंट नॉन-रिफ़ंडेबल होता है। फिर भी आपको 19 हज़ार का फायदा हो जाएगा क्योंकि आपको वो बाइक मार्केट में सिर्फ 80 हज़ार में मिल रहा है। यहीं है ऑप्शन डेरिवेटिव्स (Option derivatives) का मूल कॉन्सेप्ट।

| ऑप्शन डेरिवेटिव्स के प्रकार

ऑप्शन (Option) दो प्रकार का होता है – 1. कॉल ऑप्शन (Call option) 2. पुट ऑप्शन (Put option)। आइये इन दोनों को समझ लेते हैं।

1. कॉल ऑप्शन क्या है? (what is Call option?)

ऊपर वाले उदाहरण को ही लें तो इसमें हुआ दरअसल ये है कि जब हमें लगा कि आने वाले वक्त में बाइक की कीमत बढ़ने वाली है तो एक छोटी सी प्रीमियम चुकाकर हमने उसे आज के प्राइस पर ही बुक कर लिया। इसी ही कहते हैं कॉल ऑप्शन (Call option)। जिस प्राइस पर हमने वो बुक किया है उसे कहा जाता है स्ट्राइक प्राइस (Strike price)

अगर उस बाइक का प्राइस 2 महीने बाद सच में 1 लाख 20 हज़ार रुपए हो जाता है तो आपको 20 हज़ार का फायदा हो जाएगा। कैसे? क्योंकि आपको वो सिर्फ 1 लाख में मिला है लेकिन जब अब आप उसे बेचेंगे तो वो 1 लाख 20 हज़ार में बिक जाएगा, तो हो गया न 20 हज़ार का फायदा।

ये जो उस बाइक का प्राइस दो महीने बाद 1 लाख 20 रुपए हो गया है उसे कहा जाता है स्पॉट प्राइस (Spot price)। इस कांट्रैक्ट में जो ऑप्शन खरीदता है उसे ऑप्शन होल्डर (Option holder) कहा जाता है और जो ऑप्शन बेचता है उसे ऑप्शन राइटर (Option writer) कहा जाता है।

इसी कॉन्सेप्ट को आप शेयर में भी लगा सकते हैं जब आपको लगता है कि किसी शेयर का प्राइस कुछ महीने बाद बढ़ने वाला है तो आप उस शेयर को आज ही आज के प्राइस पर (जिसे कि स्ट्राइक प्राइस कहा जाता है) उस दिन खरीदने के लिए बुक कर सकते हैं। अगर सच में उसका प्राइस उस दिन बढ़ा (यानी कि स्पॉट प्राइस बढ़ा) तो आपको फायदा होगा और नहीं बढ़ा तो आपको सिर्फ बुकिंग अमाउंट का ही लॉस होगा।

जैसे कि मान लीजिये रिलायंस के एक शेयर का मूल्य आज के डेट में 1000 रुपए है और आपको लगता है कि 3 महीने बाद उसकी कीमत 1500 रुपए हो जाएगी, तो आप पूरे एक हज़ार रुपए देकर शेयर खरीदने के बजाय सिर्फ 100 रुपए देकर उसे 3 महीने बाद खरीदने के लिए बुक करा लेंगे।

अगर 3 महीने बाद उस शेयर का दाम सचमुच 1500 रुपए हो गया तो 400 रुपए का फायदा हो जाएगा। क्यों? क्योंकि 100 रुपए आपने बुकिंग अमाउंट भरी है और 1000 रुपए पर आपने कांट्रैक्ट साइन किया है। यानी कि आपका कुल 1100 रुपए जाएगा, अगर उस शेयर का दाम 1500 रुपए हो जाता है तो। फिर भी आपको 400 रुपए का फायदा तो होगा।

लेकिन जिस स्ट्राइक प्राइस पर आपने उस शेयर की बुकिंग कराई है अगर स्पॉट प्राइस उससे भी नीचे चला जाता है यानी कि आपने 1000 रुपए के स्ट्राइक प्राइस पर तो कांट्रैक्ट साइन की है लेकिन 3 महीने बाद अगर उसका स्पॉट प्राइस 500 रह जाता है तो जाहिर है आप उसे नहीं खरीदेंगे।

क्योंकि अगर आप उसे खरीद लिए तो आपको 600 रुपए का लॉस होगा लेकिन अगर आपने नहीं खरीदा तो ऐसे में आपको सिर्फ 100 रुपए का लॉस होगा।

उम्मीद है इस उदाहरण से आप समझ गए होंगे कि ऑप्शन (Option), फ्युचर (Future) से अलग क्यों है। आइये अब इसके कुछ टेर्मेनोलोजी (Terminology) को जान लेते हैं।

-: Option’s Terminology

◾ अगर स्पॉट प्राइस (Spot price), स्ट्राइक प्राइस (Strike price) से ज्यादा होता है तो ऐसी स्थिति में हमें फायदा होता है। इसे इन द मनी (In the money) या ITM कहते हैं।

◾ अगर स्ट्राइक प्राइस और स्पॉट प्राइस बराबर रहता है तो उस स्थिति में हमें सिर्फ बुकिंग अमाउंट का लॉस होगा क्योकि बुकिंग अमाउंट का पैसा तो वापस नहीं होता। इसे ATM यानी कि AT The Money कहा जाता है।

◾ अगर स्पॉट प्राइस, स्ट्राइक प्राइस से कम भी होता है तब भी हमें अपने बुकिंग अमाउंट का ही लॉस होगा क्योकि तब हम उसे खरीदेंगे ही नहीं। ऐसी स्थिति को Out of the Money यानी कि OTM कहा जाता है।

◾ लेकिन अगर स्पॉट प्राइस उतना ही बढ़ता है जितना कि स्ट्राइक प्राइस में बुकिंग अमाउंट जोड़ने पर होता है तो आपको न फायदा होगा और न ही लॉस। इसे ब्रेक ईवन (Break even) कहा जाता है।

2. पुट ऑप्शन क्या है? (what is Put option?)

इसी बाइक वाले उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं। मान लीजिये कि अब आपके पास बाइक पहले से है। और आप उसे 2 महीने बाद 80 हज़ार में बेचने वाले है।

लेकिन आपको लगता है कि अभी 2 महीने का समय है क्या पता इतने समय में गाड़ी खराब हो जाये या उसका एक्सिडेंट हो जाये और वो टूट जाये तो जाहिर है ऐसे में वो 80 हज़ार में तो नहीं ही बिकेगा।

ये सोचकर आप 1000 रुपए में गाड़ी का एक बीमा करा लेते हैं कि अगर गाड़ी 2 महीने के अंदर कभी भी खराब होता है तो बीमा कंपनी आपको उतने पैसे देगा।

इससे होगा ये कि अगर सही में इन दो महीने के अंदर आपका गाड़ी खराब होता है तो आपको 80 हज़ार रुपए तो बीमा कंपनी वाले से मिल ही जाएगा, इसके अलावे आपके पास बाइक तो है ही उसे कबाड़ में भी बेच दीजिएगा तब भी कुछ न कुछ तो फायदा हो ही जाएगा।

और आपकी बाइक अगर खराब नहीं होती है तो आपको उतना ही लॉस होगा जितना कि उस बीमा का प्रीमियम है क्योंकि प्रीमियम अमाउंट वापस नहीं होता। कुल मिलाकर यही इसका बेसिक्स है।

इसको अगर आप शेयर पर अप्लाई करे तो पुट ऑप्शन (Put option) लोग तब खरीदता है जब उसे लगता है कि शेयर का प्राइस भविष्य में गिरने वाला है। यानी कि कॉल ऑप्शन (Call option) में आपको फायदा तब होता है जब उस चीज़ का दाम स्ट्राइक प्राइस से ऊपर जाता है लेकिन पुट ऑप्शन में स्पॉट प्राइस, स्ट्राइक प्राइस से जितना नीचे जाता है उतना ही फायदा होता है।

क्योंकि आपने उसे इसीलिए खरीदी है क्योंकि आपको लगता है कि मार्केट नीचे जाएगा। लेकिन अगर ऊपर जाता है तो उस स्थिति में आपको उतना ही लॉस होगा जितना का आपने बीमा लिया है।

उम्मीद है आपको ऑप्शन डेरिवेटिव्स (Option derivatives) समझ में आ गया होगा। अब इसके आखरी भाग यानी स्वैप डेरिवेटिव्स को अगले लेख में समझेंगे। ⏬नीचे लिंक दिया हुआ है-

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| शेयर मार्केट सिरीज़

FAQS ON COMMODITY DERIVATIVES
Commodity exchange in India
https://www.sebi.gov.in/
Options Definition – Investopedia
Option – Wikipedia