डेरिवेटिव्स चार प्रकार के होते हैं – फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स, फ्युचर डेरिवेटिव्स, ऑप्शन डेरिवेटिव्स और स्वैप डेरिवेटिव्स

इस लेख में हम फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स (Forward Derivatives) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें।

नोट – अगर आप शेयर मार्केट के बेसिक्स को ज़ीरो लेवल से समझना चाहते हैं तो आपको पार्ट 1 से शुरुआत करनी चाहिए।

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| डेरिवेटिव्स क्या है?

कोई भी ऐसा उपकरण (Instrument) जिसकी अपनी खुद की कोई वैल्यू नहीं होती है बल्कि उसकी वैल्यू किसी और ही चीज़ से प्राप्त होती है। उसे डेरिवेटिव्स (Derivatives) कहा जाता है।

जिस चीज़ पर उसकी वैल्यू निर्भर करता है उसे अंतर्निहित परिसंपत्ति (Underlying Assets) कहा जाता है। जैसे कि पनीर की वैल्यू दूध पर निर्भर करता है इसीलिए यहाँ दूध पनीर का अंतर्निहित परिसंपत्ति (Underlying Assets) है।

डेरिवेटिव्स (Derivatives) चार प्रकार के होते हैं – फॉरवर्ड (Forward), फ्युचर (future), ऑप्शन (Option) और स्वैप (Swap)। इस लेख में हम फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स को समझेंगे:

| फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स क्या है?

इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिये कि अभी मार्केट में गेहूं 20 रुपए प्रति किलो बिक रहा है। एक किसान है जो अपना गेहूं इसी रेट पर बेचना चाहता है लेकिन उसके पास समस्या ये है कि अभी उसका गेहूं तैयार नहीं हुआ है वो 2 महीने बाद तैयार होगा। किसान इस बात को लेकर चिंतित है कि अगर 2 महीने बाद मार्केट में गेहूं का रेट 20 रुपए से कम हो गया तो फिर ऐसे में वो क्या करेगा।

इसी तरह से एक ब्रेड बनाने वाली फैक्ट्री है जिसने देखा था कि पिछली बार गेहूं का दाम मार्केट में बहुत बढ़ जाने से उसकी ब्रेड महंगी हो गयी थी। इस बार भी उसे लग रहा है कि शायद गेहूं का दाम 2 महीने बाद 30 रुपए प्रति किलो हो जाएगा।

जबकि आज के डेट में उसकी बाज़ार कीमत सिर्फ 20 रुपए प्रति किलो है। अगर दो महीने बाद भी 20 रुपए प्रति किलो गेहूं मिल जाये तो फिर क्या ही कहने।

ये जो समस्या दोनों के पास आ रही है। इसी को समाधान करने का तरीका है फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स (Forward derivatives )। वो कैसे?

अब वो किसान और वो फैक्ट्री ये कर सकता है कि गेहूं के आज के रेट के हिसाब से 2 महीने बाद के लिए कांट्रैक्ट कर सकता है। यानी कि मार्केट में गेहूं का दाम चाहे घटे या बढ़े लेकिन 2 महीने बाद आज के ही रेट पर दोनों सौदा करेंगे। इसमें दोनों का ही फायदा है क्योंकि इससे दोनों का रिस्क कम हो जाएगा, इसे हेजिंग (Hedging) कहा जाता है।

कुल मिलाकर यहाँ किसान को ये डर है कि कहीं दाम इससे भी ज्यादा कम न हो जाये क्योंकि मार्केट में जब बहुत गेहूं आ जाएँगे तो स्वाभिविक है कि दाम कम हो जाये वहीं दूसरी तरफ फैक्ट्री को लगता है कि क्या पता अगर गेहूं की उपज कम हो तो गेहूं का दाम बढ़ जाएगा। ये दोनों की बस अपनी-अपनी सोच है। 2 महीने बाद क्या होगा ये कौन जानता है।

खैर दोनों ने यही सोचकर आज की कीमत पर 2 महीने बाद के लिए एक समझौता कर लिया। चूंकि डील तो आज हुई है लेकिन सामान की डेलीवरी दो महीने बाद होगी इसीलिए इसे फॉरवर्ड (Forward) कहा जाता है।

यहाँ पर आप करेंगे तो पता चलेगा कि यहाँ गेहूं के दाम को तय करने वाला फैक्टर उत्पादन है। इसीलिए इसे फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स कहा जा सकता है।

| फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स की समस्याएँ

फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स किसी भी दो व्यक्ति के बीच में हो सकता है लेकिन यहाँ पर समस्या ये होती है कि मान लीजिये कि अगर कांट्रैक्ट साइन हो लेकिन जब समय आए और गेहूं का रेट 20 रुपए से भी कम हो जाये और वो फैक्ट्री वाला उसे लेने से माना कर दें तो क्या होगा।

इसी तरह अगर गेहूं का रेट दो महीने बाद बढ़ कर 30 रुपए हो गया और किसान ने उसे बेचने से मना कर दिया तो। ऐसी स्थिति में बड़ी समस्या आ जाएगी क्योंकि यहाँ बीच में कोई मध्यस्थता नहीं कर रहा है।

कहने का अर्थ ये है कि स्टॉक एक्स्चेंज (Stock exchange) की इसमें कोई भूमिका नहीं होती है। ये बस दो पार्टियों के बीच किया गया एक कांट्रैक्ट है। इसीलिए कांट्रैक्ट होते हुए भी वो पूरा हो ही जाये इसकी कोई गारंटी नहीं होती है।

इसी समस्या को खत्म करने के लिए फ्युचर (Future) और ऑप्शन (Option) लाया गया। यहाँ पर इस तरह की कोई समस्या नहीं होती है क्योंकि ये स्टॉक एक्स्चेंज के देख-रेख में होती है और सब कुछ पारदर्शी तरीके से होता है।

तो कुल मिलाकर यही है फॉरवर्ड डेरिवेटिव्स (Forward derivatives), उम्मीद है समझ में आया होगा। हम फ्युचर (Future) और ऑप्शन (Option) को अगले लेख में कवर करेंगे। इसे आप ⏬नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

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| शेयर मार्केट सिरीज़

Article Based on,
अर्थव्यवस्था – रमेश सिंह
lectures
FAQS ON COMMODITY DERIVATIVES
Commodity exchange in India
https://www.sebi.gov.in/
Forward contract – Wikipedia Etc.