यह लेख अनुच्छेद 21 (Article 21) का यथारूप संकलन है। आप इसका हिन्दी और इंग्लिश दोनों अनुवाद पढ़ सकते हैं। आप इसे अच्छी तरह से समझ सके इसीलिए इसकी व्याख्या भी नीचे दी गई है आप उसे जरूर पढ़ें। इसकी व्याख्या इंग्लिश में भी उपलब्ध है, इसके लिए आप नीचे दिए गए लिंक का प्रयोग करें;

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अनुच्छेद 21
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📜 अनुच्छेद 21 (Article 21)

21. प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण – किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
—-अनुच्छेद 21—-
21. Protection of life and personal liberty — No person shall be deprived of his life or personal liberty except according to procedure established by law.
Article 21

🔍 Article 21 Explanation in Hindi

स्वतंत्रता यानी कि किसी व्यक्ति पर बाहरी प्रतिबंधों का अभाव। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने जीवन और नियति का नियंत्रण स्वयं करना तथा अपनी इच्छाओं और गतिविधियों को आजादी से व्यक्त करने का अवसर बने रहना, स्वतंत्रता है।

भारत की बात करें तो स्वतंत्रता यहाँ एक मौलिक अधिकार है। दरअसल भारतीय संविधान का भाग 3 मौलिक अधिकारों के बारे में है। इसी के अनुच्छेद 19 से लेकर अनुच्छेद 22 तक “स्वतंत्रता का अधिकार” की चर्चा की गई है। (जैसा कि आप चार्ट में देख सकते हैं) हम यहाँ अनुच्छेद 21 (Article 21) को समझने वाले हैं;

स्वतंत्रता का अधिकार
⚫ अनुच्छेद 19 – छह अधिकारों की सुरक्षा; (1) अभिव्यक्ति (2) सम्मेलन (3) संघ (4) संचरण (5) निवास (6) व्यापार
⚫ अनुच्छेद 20 – अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण
अनुच्छेद 21 (Article 21) – प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता
⚫ अनुच्छेद 21क – प्रारम्भिक शिक्षा का अधिकार
⚫ अनुच्छेद 22 – गिरफ़्तारी एवं निरोध से संरक्षण
Article 21

| अनुच्छेद 21 – प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण

पूरे संविधान के सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद में से एक है- प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता या जीने की आजादी। जो कि कहता है – किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

कुल मिलाकर यहाँ तीन टर्म्स है – प्राण की स्वतंत्रता (liberty of life), दैहिक स्वतंत्रता (Personal Liberty) और विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (procedure established by law)। आइये इसे एक-एक करके समझते हैं;

प्राण के अधिकार का मतलब प्राण के अधिकार का अर्थ मानव की गरिमा और सभ्यता के अनुसार जीवन जीने का अधिकार है।

⚫ प्राण के अंतर्गत वो सब आता है जो किसी मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाता है। जैसे, उसकी परंपरा, संस्कृति, विरासत और उस विरासत को पूर्ण संरक्षण।

⚫ जीविकोपार्जन का अधिकार (right to livelihood) भी इसी के तहत आता है। आपको पता होगा कि राज्य, विधि द्वारा किसी को उसकी संपत्ति से वंचित कर सकता है लेकिन अगर उसकी संपत्ति के छीनने से उसके जीविका पर आंच आता है तो अनुच्छेद 21 एक्टिव हो जाएगा, क्योंकि अब मामला प्राण के अधिकार का हो जाएगा।

⚫ अनुच्छेद 21 के तहत राज्य प्रत्येक व्यक्ति के जीवन की रक्षा के लिए बाध्य है भले ही वह व्यक्ति किसी अपराध के लिए दोषी ही क्यों न हो।

⚫ चूंकि प्रदूषण से प्राण के अधिकार को ख़तरा होता है इसीलिए प्रदूषणरहित जल और वायु के उपभोग का अधिकार भी अनुच्छेद 21 के तहत आता है। दिल्ली का कोई व्यक्ति इस बात को लेकर चाहे तो सुप्रीम कोर्ट जा सकता है, और सुप्रीम कोर्ट को इसकी सुनवाई करनी पड़ेगी।

दैहिक स्वतंत्रता का मतलब – ए के गोपालन मामले में दैहिक स्वतंत्रता को शारीरिक बंधन के अभाव के रूप में माना गया, जो कि एक प्रकार से नकारात्मक परिभाषा थी।

फिर आगे चलकर मेनका गांधी मामले में इसे विस्तार दिया गया और सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया कि दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सिर्फ शारीरिक बंधनों तक सीमित नहीं है बल्कि ये मानवीय सम्मान एवं इससे जुड़े अन्य पहलुओं तक भी विस्तारित है।

इससे हुआ ये कि आवागमन का अधिकार, विदेश यात्रा का अधिकार एवं एकांतता का अधिकार (right to privacy) आदि भी दैहिक स्वतंत्रता का एक अंग बन गया।

विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (procedure established by law) का मतलब – अनुच्छेद 21 कहता है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया‘ के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।

दरअसल इसका मतलब ये है कि कानून बनाने की सही प्रक्रिया को अपनाकर अगर कोई कानून बनाया गया है तो उसके तहत किसी व्यक्ति को प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है।

यानी कि कानून सही है या नहीं उससे कोई मतलब नहीं है बस कानून बनाने की प्रक्रिया सही होनी चाहिए। लेकिन अनुच्छेद 13 के अनुसार अगर कोई कानून मूल अधिकार का हनन करती है तो उसे उतनी मात्रा में ख़ारिज़ किया जा सकता है।

यानी कि अनुच्छेद 13 विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of Law) की बात करती है यानी कि कानून में अगर कुछ गड़बड़ी है तो उसे ख़ारिज़ करना और ये सभी मूल अधिकारों पर लागू होता है लेकिन सिर्फ अनुच्छेद 21 में विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की बात कही गई है।

तो सवाल यही था कि क्या ऐसा हो सकता है कि सभी मौलिक अधिकार विधि की सम्यक प्रक्रिया (due process of law) पर चले जबकि सिर्फ अनुच्छेद 21 विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर?

⚫ ये जो टर्म है विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Process established by law)↗️ और विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of Law) इसका अर्थ बहुत ही व्यापक है। इसीलिए इसे अलग से एक लेख में समझाया गया है। अनुच्छेद 21 के मूल तत्व को समझने के लिए उसे जरूर पढ़ें।

लेकिन यहाँ इतना समझिए कि विधि की सम्यक प्रक्रिया अमेरिका में चलता है और इसके तहत होता ये है कि न्यायालय सिर्फ विधि बनाने की प्रक्रिया नहीं देखता बल्कि उस विधि का कंटेंट क्या है, वो भी देखता है।

तो गोपालन मामले में तो न्यायालय ने यह मान लिया कि अनुच्छेद 21 बिल्कुल सही है और उसका विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर चलना भी एकदम सही है। और दूसरी बात ये कि अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 19 दोनों अलग-अलग अनुच्छेद है और दोनों को एक साथ नहीं मिलाया जा सकता।

⚫ लेकिन हुआ ये कि 1970 में बैंक राष्ट्रीयकरण के जुड़ा एक मामला सुप्रीम कोर्ट में आया, जिसे कि आर. सी. कूपर बनाम भारत सरकार मामला कहा गया। इसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने एक नई व्याख्या दी कि अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 और 22 को एक दूसरे से बिलकुल अलग नहीं रखा जा सकता है।

विस्तार से पढ़ें – आर. सी. कूपर बनाम भारत सरकार मामला

जब ये फैसला आया तो जाहिर है पहले वाला फैसला शिथिल पड़ गया। इसीलिए मेनका गांधी मामले (1978) में गोपालन मामले में सुनाए गए फैसले में सुधार किया और कहा कि

(1) यदि प्रक्रिया स्वेच्छाचारी, तानाशाही या मनमानी है तो वह कोई प्रक्रिया नहीं है। जैसे कि अगर किसी व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से फांसी दी जाती है तो उसे सही प्रक्रिया नहीं मानी जा सकती।

(2) यदि प्रक्रिया अयुक्तियुक्त (non rational) है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह अनुच्छेद 14 के अनुरूप है।

और इस तरह से मेनका गांधी मामले से ये स्पष्ट हो गया कि अनुच्छेद 21 को भी विधि की सम्यक प्रक्रिया (due process of law) के लेंस से देखा जाएगा।

उपरोक्त विरोधाभास को सही से समझने के लिए ए.के.गोपालन (1950) और मेनका गांधी (1978) के मामले को समझना बहुत ही जरूरी है। तो आइये इसे समझ लेते हैं;

ए के गोपालन मामला 1950

ए के गोपालन या AKG, एक भारतीय कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञ थे। वह 1952 में पहली लोकसभा के लिए चुने गए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 16 सदस्यों में से एक थे। वह माकपा CPI (M) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश वर्चस्व के खिलाफ सक्रियता में वृद्धि को प्रेरित करने के लिए गोपालन को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन 1942 में वह जेल से भाग गया और 1945 में युद्ध के अंत तक सक्रिय रहे।

युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी वह सलाखों के पीछे था।

लेकिन हद तो तब हो गया जब केंद्र सरकार ने निवारक निरोध अधिनियम 1950 (Preventive Detention Act 1950) बनाया और मद्रास सरकार ने एक आदेश के तहत उनकी गिरफ्तारी को इस नए बनाए एक्ट के तहत ला दिया। इससे वे क्रुद्ध होकर, न्याय के लिए उच्चतम न्यायालय पहुंचे।

निरोध (detention)
मुख्य रूप से निरोध (detention) दो तरह की होती है –
(1) दंडात्मक निरोध (Punitive detention) – इसका आशय, अपराध के बाद किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करके स्वतंत्रता से वंचित कर देने से है।
(2) निवारक निरोध (Preventive detention) – इसका आशय, भविष्य में कोई व्यक्ति अपराध न कर बैठे इसीलिए उसे पहले ही गिरफ्तार करके उसकी स्वतंत्रता छीन लेने से है। यहाँ यहीं चर्चा के केंद्र में हैं।
इसके बारे में हम अनुच्छेद 22 में विस्तार से पढ़ेंगे

ए के गोपालन का पक्ष

अभी हमने समझा कि कानून बनाने की सही प्रक्रिया को अपनाकर अगर कोई कानून बनाया गया है तो उसके तहत किसी व्यक्ति को प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। यानी कि कानून सही है या नहीं उससे कोई मतलब नहीं है बस कानून बनाने की प्रक्रिया सही होनी चाहिए।

लेकिन अनुच्छेद 13 के अनुसार अगर कोई विधि मूल अधिकार का हनन करती है तो उसे उतनी मात्रा में ख़ारिज़ किया जा सकता है जितनी मात्रा में मूल अधिकार का हनन करता है,

यानी कि अनुच्छेद 13 एक तरह से विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of Law) की बात करता है जिसके तहत कानून में अगर कुछ गड़बड़ी है तो उसे ख़ारिज़ किया जा सकता है।

अनुच्छेद 13 सभी मूल अधिकारों पर लागू होता है लेकिन अनुच्छेद 21 में विशिष्ट रूप से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की बात कही गई है।

तो गोपालन का सवाल यही था कि क्या ऐसा हो सकता है कि सभी मौलिक अधिकार विधि की सम्यक प्रक्रिया पर चले जबकि सिर्फ अनुच्छेद 21 विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर?

दूसरी बात, अगर विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर चले तो निवारक निरोध अधिनियम 1950 के द्वारा छीनी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता जायज था,

लेकिन अनुच्छेद 19(1)(d) जो कि देशभर में अबाध संचरण (free movement) की बात करता है उसके तहत तो गोपालन को आजाद किया जा सकता था क्योंकि वो तो विधि के सम्यक प्रक्रिया के तहत आता है और इस आधार पर निवारक निरोध अधिनियम 1950 को तो खारिज किया जा सकता था?

कुल मिलाकर गोपालन ने दावा किया कि निवारक निरोध अधिनियम अनुच्छेद-19 (स्वतंत्रता का अधिकार), अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद-22 (गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार) के साथ असंगत था।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

इस मामले में 6 न्यायाधीशों की एक बेंच बैठी और 4-2 से फैसला सुनाया कि

(1) विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं और दोनों को एक नहीं समझा जा सकता।

(2) अनुच्छेद 21 बिल्कुल सही है और उसका विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर चलना भी एकदम सही है।

(3) अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 19 दोनों अलग-अलग अनुच्छेद है और दोनों को एक साथ नहीं मिलाया जा सकता।

कुल मिलाकर अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निवारक निरोध कानून की वैधता को बरकरार रखा और स्पष्ट कर दिया कि उक्त सभी अनुच्छेद (अनुच्छेद- 19, 21, और 22) पूर्णतः अलग विषय वस्तु से संबंधित हैं और इन्हें एक साथ नहीं पढ़ा जाना चाहिए।

लेकिन उसके बाद 1970 में आ गया आर सी कूपर का मामला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कह दिया कि अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 और 22 को एक दूसरे से बिलकुल अलग नहीं रखा जा सकता है।

इससे निर्णयों में विसंगति आ गई और उच्चतम न्यायालय ने उसे ही मेनका गांधी मामले के माध्यम से सुधारा। क्या है मेनका गांधी मामला, आइये देखते हैं।

मेनका गांधी मामला 1978

1976 में आपातकाल के दौरान ही 1 जून को मेनका गांधी ने अपना पासपोर्ट (पासपोर्ट अधिनियम 1967) के अनुसार बनवाया। लेकिन 2 जुलाई 1977 को क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय (नई दिल्ली) ने उन्हें अपना पासपोर्ट सरेंडर करने का आदेश दिया। दरअसल जनता पार्टी सरकार को शायद ये डर था कि ये विदेश न भाग जाए।

कुल मिलाकर याचिकाकर्ता को सार्वजनिक हित का हवाला देते हुए विदेश मंत्रालय ने ये फैसला लिया और इस मनमाने और एकतरफा फैसले का कोई कारण भी नहीं बताया।

तो याचिकाकर्ता (मेनका गांधी) ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और दलील दी कि अनुच्छेद 21 की गारंटी के अनुसार राज्य में उसके पासपोर्ट को जब्त करने का अधिकार उसके व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal freedom) पर सीधा हमला है।

मेनका गांधी का पक्ष

▪️ क्या अनुच्छेद 21, 14 और 19 के तहत प्रावधान एक-दूसरे से जुड़े हैं या वे परस्पर अनन्य (Mutually exclusive) हैं? इनका कहना था कि अनुच्छेद 14, 19 और 21 में दिए गए प्रावधानों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और परस्पर अनन्य होना चाहिए।

क्योंकि अगर अनुच्छेद 19(1)d अबाध संचरण की स्वतंत्रता देता है एवं अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है और अनुच्छेद 21 दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है तो फिर तीनों को एक साथ क्यों नहीं पढ़ा जा सकता है।

▪️ क्या विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को तर्कशीलता के आधार पर परीक्षण किया जाना चाहिए जो इस मामले में 1967 के पासपोर्ट अधिनियम द्वारा निर्धारित प्रक्रिया थी?

यानी कि भारत ने शायद “विधि की सम्यक प्रक्रिया” की अमेरिकी अवधारणा को नहीं अपनाया है, फिर भी, विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया निष्पक्ष और न्यायसंगत होनी चाहिए, और मनमानी नहीं होनी चाहिए।

दूसरी बात कि पासपोर्ट अधिनियम की धारा 10 (3) (सी) अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती है क्योंकि यह इस अनुच्छेद द्वारा गारंटीकृत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है।

▪️ देश के बाहर यात्रा करने का अधिकार अनुच्छेद 21 का हिस्सा है या नहीं? इसे स्पष्ट किया जाना चाहिए

▪️ एक विधायी कानून द्वारा जीवन के अधिकार को छीनना क्या उचित है?

उच्चतम न्यायालय का फैसला

उच्चतम न्यायालय की 7 न्यायाधीशों की बेंच ने इस फैसले को 7-0 से सुनाया कि

(1) अनुच्छेद 21 में लिखा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया अपनी जगह पर सही हो सकता है लेकिन उसे तर्कसंगत होना चाहिए न कि मनमाना और अतार्किक। दूसरे शब्दों में इसे कहें तो अब अनुच्छेद 21 को भी विधि की सम्यक प्रक्रिया के तहत देखा जा सकता है।

(2) ए के गोपालन मामला त्रुटि युक्त था। क्योंकि अनुच्छेद 14, 19 और 21 का आपस में विशिष्ट संबंध है और तीनों को एकसाथ रखकर देखा जा सकता है।

(3) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सिर्फ शारीरिक बंधनों तक सीमित नहीं है बल्कि ये मानवीय सम्मान एवं इससे जुड़े अन्य पहलुओं तक भी विस्तारित है। (इसके परिणामस्वरूप कालांतर में ढ़ेरों बातें अनुच्छेद 21 में जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के तहत जोड़ा गया जिसका कि लिस्ट आप नीचे देख सकते हैं)

(4) विदेश यात्रा करना अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है।

प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता में सम्मिलित किए गए बातों की लिस्ट

Right to life and personal freedom
1. निजता का अधिकार (Right to privacy) (जिसे कि 2017 में इसमें जोड़ा गया)
2. स्वास्थ्य का अधिकार (Right to health)
3. 14 वर्ष की उम्र तक नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार 
4. नि:शुल्क कानूनी सहायता का अधिकार 
5. सूचना का अधिकार (जिसे कि 2005 में इसमें जोड़ा गया) 
6. सोने का अधिकार (Right to sleep)
7. खाने का अधिकार (Right to eat)
8. बिजली का अधिकार (Right to electricity)
9. प्रदूषण से मुक्ति का अधिकार (Right to freedom from pollution)
10. प्रतिष्ठा का अधिकार (Right of reputation)
11. सुनवाई का अधिकार (Right of hearing)
12. सामाजिक, आर्थिक सुरक्षा का अधिकार
13. महिलाओं के साथ आदर और सम्मानपूर्वक व्यवहार करने का अधिकार
14. विदेश यात्रा करने का अधिकार
15. आपातकालीन चिकित्सा सुविधा का अधिकार।
16. देर से फांसी के विरुद्ध अधिकार
17. बंधुआ मजदूरी के विरुद्ध अधिकार
18. हिरासत में शोषण के विरुद्ध अधिकार
19. सरकारी अस्पतालों में में समय पर उचित इलाज़ का अधिकार
20. बार केटर्स के विरुद्ध अधिकार
21. सार्वजनिक फांसी के विरुद्ध अधिकार
22. सामाजिक सुरक्षा एवं परिवार के संरक्षण का अधिकार
23. अकेले कारावास में बंद होने के विरुद्ध अधिकार
24. हथकड़ी लगाने के विरुद्ध अधिकार
25. अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध अधिकार
26. कैदी को जीवन की आवश्यकताओं का अधिकार आदि।
Article 21

यहाँ यह याद रखिए कि इस अनुच्छेद का संरक्षण नागरिकों के लिए भी है और अन्य व्यक्तियों के लिए भी। जो दोषसिद्ध (Convicted) व्यक्ति जेल में है उसे भी इसका संरक्षण मिलता है।

तो कुल मिलाकर यही है अनुच्छेद 21 (Article 21), उम्मीद है आपको समझ में आया होगा। दूसरे अनुच्छेदों को समझने के लिए नीचे दिए गए लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

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—–Article 21–
भारतीय संविधान
संसद की बेसिक्स
मौलिक अधिकार बेसिक्स
भारत की न्यायिक व्यवस्था
भारत की कार्यपालिका
——Article 21—
अस्वीकरण - यहाँ प्रस्तुत अनुच्छेद और उसकी व्याख्या, मूल संविधान (नवीनतम संस्करण), संविधान पर डी डी बसु की व्याख्या (मुख्य रूप से) और संविधान के विभिन्न ज्ञाताओं (जिनके लेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर ऑडियो-विजुअल्स के रूप में उपलब्ध है) पर आधारित है। हमने बस इसे रोचक और आसानी से समझने योग्य बनाने का प्रयास किया है।