यह लेख अनुच्छेद 31 (Article 31) का यथारूप संकलन है। आप इसका हिन्दी और इंग्लिश दोनों अनुवाद पढ़ सकते हैं। आप इसे अच्छी तरह से समझ सके इसीलिए इसकी व्याख्या भी नीचे दी गई है आप उसे जरूर पढ़ें। इसकी व्याख्या इंग्लिश में भी उपलब्ध है, इसके लिए आप नीचे दिए गए लिंक का प्रयोग करें;

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📜 अनुच्छेद 31 (Article 31)

31. [संपत्ति का अनिवार्य अर्जन] – संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 6 द्वारा (20-6-1979 से) निरसित।
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31. [Compulsory acquisition of property.].— Omitted by the Constitution (Forty-fourth Amendment) Act, 1978, s. 6 (w.e.f. 20-6-1979).
Article 31

🔍 Article 31 Explanation in Hindi

44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वारा अनुच्छेद 31 को ख़त्म कर दिया गया। इसीलिए अनुच्छेद 31 जैसा अब कोई अनुच्छेद संविधान में नहीं है।

हालांकि यहां याद रखिए कि विभिन्न संविधान संशोधनों की मदद से अनुच्छेद 31(क), 31(ख) और 31(ग) को बनाया गया। और ये तीनों अनुच्छेद आज भी अस्तित्व में है। और ये न केवल अस्तित्व में है बल्कि यह बहुत महत्वपूर्ण भी है।

इसीलिए इन तीनों को समझना बहुत जरूरी हो जाता है। तो आप नीचे दिए गए लिंक की मदद से तीनों को समझ सकते हैं;

अनुच्छेद-31(क) – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(ख) – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(ग) – भारतीय संविधान
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| अनुच्छेद 31 का विषय-वस्तु

अनुच्छेद 31 के तहत दो खंड थे – 31(1) और 31(2) आइये पहले इसके बारे में थोड़ा समझ लेते हैं;

अनुच्छेद 31 के खंड (1) के उपबंध (संपत्ति अर्जन का अधिकार) को बनाए रखा गया है किन्तु भिन्न रूप में। यानी कि अब वो मूल अधिकार नहीं है। इसे अनुच्छेद 300क में रखा गया है।

मूल अधिकार नहीं होने से फर्क ये पड़ता है कि अब अगर कार्यपालिका या पुलिस बिना विधि के प्राधिकार के किसी व्यक्ति की संपत्ति छीन लेती है तो उसे अनुच्छेद 32 के अधीन सीधे उच्चतम न्यायालय में जाने का अधिकार नहीं होगा।

हालांकि अनुच्छेद 300क में यह लिख दिया गया है कि बिना विधि के प्राधिकार के राज्य किसी को उसकी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकता है। लेकिन चूंकि अब ये एक मूल अधिकार नहीं है इसीलिए अगर ऐसा किया भी जाता है तो सुप्रीम कोर्ट से इसे बहाली की मांग नहीं की जा सकती।

हालांकि वह अनुच्छेद 226 के तहत हाइ कोर्ट जा सकता है और कानूनी उपचार प्राप्त कर सकता है। इसके अलावा एक और तरीका यह है कि उस मामले को किसी तरह से अनुच्छेद 14 या 19 से जोड़ कर दिखाया जाए, इससे ये होगा कि अनुच्छेद 13 एक्टिवेट हो जाएगा और सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुल जाएगा।

अनुच्छेद 31 के खंड (2) की बात करें तो इसे निरसित (Omit) कर दिया गया। लेकिन इसका जो दूसरा परंतुक (Proviso) था उसे जीवित रखा गया। और उसे अनुच्छेद 31 का हिस्सा बना दिया गया।

परंतुक (Proviso) मुख्य उपबंध का अपवाद होता है या शर्तें होती है। आमतौर पर जब मुख्य अनुच्छेद को ख़त्म किया जाता है तब परंतुक भी साथ ही ख़त्म हो जाता है। लेकिन अनुच्छेद 31(2) के मामले में ऐसा नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ, ये समझने वाली बात है;

अनुच्छेद 31 क्यों ख़त्म कर दिया गया?

1950 में भारतीय संविधान लागू हुआ और लागू होने के साथ ही कई संवैधानिक समस्याएं आनी शुरू हो गई। ये जो समस्याएं थी ये मूल रूप से मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व के बीच थी।

⚫ राज्य के नीति निदेशक तत्व को एक राह दिखाने वाली सिद्धांत (guiding principles) के रूप में संविधान का हिस्सा बनाया गया था। इस उद्देश्य के साथ कि आने वाले वक्त में राज्य (State) को यह याद दिलाता रहेगा कि अपनी नीतियों को किस तरह से डिज़ाइन करना है और कौन सी ऐसी चीज़ें हैं जिसे भविष्य में पूरी करनी है।

⚫ वहीं मौलिक अधिकारों की बात करें तो इसके तहत उन सभी अधिकारों को सुनिश्चित किया गया जो कि एक लोकतंत्र में अपेक्षित होता है या फिर इन्सानों के चहुमुखी विकास के लिए आवश्यक होता है।

मूल अधिकार प्रवर्तनीय या न्यायोचित (enforceable) है यानी कि उसका हनन होने पर सीधे उच्चतम न्यायालय जाया जा सकता है और मूल अधिकारों के संरक्षण की मांग की जा सकती है,

वहीं अनुच्छेद 37 के तहत राज्य के नीति निदेशक तत्व गैर-प्रवर्तनीय या गैर-न्यायोचित है लेकिन यही अनुच्छेद राज्य पर एक नैतिक बाध्यता भी आरोपित करता है कि राज्य विधि बनाते समय इन तत्वों को उसमें शामिल करेगा।

और यहीं से टकराव की स्थिति शुरू हुई क्योंकि बहुत सारे निदेशक तत्व ऐसे है जो मूल अधिकारों से मेल नहीं खाती। इसे उदाहरण से समझते हैं-

अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है। खासकर के अनुच्छेद 15 की बात करें तो ये राज्य द्वारा, लिंग, जाति, धर्म, जन्मस्थान या मूलवंश के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है।

अनुच्छेद 16 की बात करें तो यह राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति के लिए सभी के पास समान अवसर उपलब्ध सुनिश्चित करवाता है। यहाँ भी धर्म, जाति, लिंग, जनस्थान, या मूलवंश के आधार पर नागरिकों के साथ विभेद का प्रतिषेध किया गया है।

वहीं राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 46, मुख्य रूप से अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को समाज के मुख्य धारा में लाने के लिए उसके आर्थिक और शैक्षणिक हितों को प्रोत्साहन देने की बात करता है।

यहाँ अंतर्विरोध (contradiction) ये है कि – एक तरफ अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है तो वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 46 एससी और एसटी वर्ग के लिए विशेष प्रकार की सुविधा या यूं कहें कि आरक्षण की बात करता है।

अब फिर से यहाँ भी एक समस्या आती है अगर समानता की रक्षा करेंगे तो निचले तबके के लोग कभी भी मुख्य धारा में नहीं आ पाएंगे और अगर आरक्षण देंगे तो फिर समानता नहीं बचेगा।

दूसरा उदाहरण देखें तो अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत संपत्ति के अधिकार को सुनिश्चित किया गया था। यानी कि यह अनुच्छेद सार्वजनिक और निजी दोनों उद्देश्यों के लिए सरकार या राज्य द्वारा निजी संपत्ति की मनमानी जब्ती से व्यक्तियों की रक्षा करता है।

वहीं दूसरी ओर राज्य के नीति निदेशक तत्व के तहत आने वाली अनुच्छेद 39 (ख) सामूहिक हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों के सम वितरण पर बल देता है, और 39(ग) धन और उत्पादन के संकेन्द्रण को रोकने पर बल देता है।

कहने का अर्थ है कि अनुच्छेद 39 राज्य पर यह नैतिक कर्तव्य डालता है कि राज्य लोगों के हित में भौतिक संसाधनों का सम वितरण (Equal distribution) करें, और किसी एक ही व्यक्ति या सिर्फ कुछ ही व्यक्ति के पास धन के इकट्ठा होने से रोकें। वहीं मौलिक अधिकार कहता है कि जितना मन हो संपत्ति रखो, क्योंकि संपत्ति रखना मौलिक अधिकार है।

⚫ अब सरकार के पास यही समस्या थी कि करें तो करें क्या बोले तो बोले क्या। क्योंकि देश की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति ठीक नहीं थी। और अगर सरकार के द्वारा कुछ एक्सट्रा अफ़र्ट नहीं लगाया जाता तो स्थिति सुधरने वाली भी नहीं थी।

ऐसे में सरकार को कुछ न कुछ तो करना ही था, बिहार सरकार ने बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 लाया ताकि जमींदारों से उसकी संपत्ति लिया जाए और गरीबों में बांटा जाए या उस संपत्ति का इस्तेमाल समाज सुधार में किया जाए।

लेकिन कामेश्वर सिंह नामक एक जमींदार को अच्छा नहीं लगा कि संपत्ति रखना एक मौलिक अधिकार है तो सरकार इसे छीन क्यों रही है! इसीलिए कामेश्वर सिंह ने इस कानून को पटना हाइ कोर्ट में चुनौती दी।

और कामेश्वर सिंह बनाम बिहार प्रांत (1951) के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि इसने मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया था।

⚫ इसी तरह से एक दूसरा मामला है चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला 1951

जब मद्रास सरकार ने मेडिकल कॉलेज में नीति निदेशक तत्व को ध्यान में रखकर विभिन्न वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की तब इस व्यवस्था के कारण चंपकम दोराइराजन नामक एक ब्राह्मण लड़की को एड्मिशन नहीं मिल पाया। तो उसने मद्रास उच्च न्यायालय में अपने मूल अधिकारों के हनन को लेकर एक याचिका दायर की।

चंपकम दोराइराजन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अनुच्छेद 15, 16 और अनुच्छेद 29(2) के तहत ऐसा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ये तो मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

सरकार ने DPSP के अनुच्छेद 46 का हवाला देते हुए कहा कि चूंकि उसके आधार पर सीटों को आरक्षित किया जा सकता है, इसीलिए किया गया। और अनुच्छेद 37 भी तो यहीं कहता है कि इसे लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समुदाय के आधार पर दिया गया आरक्षण मूल अधिकारों का हनन करता है इसीलिए राज्य एड्मिशन के मामले में जाति या धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर सकता है, क्योंकि इससे अनुच्छेद 16(2) और अनुच्छेद 29(2) का हनन होता है।

कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि जब भी कभी मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में टकराव होगा तो उस स्थिति में मूल अधिकार को ही प्रभावी माना जाएगा न कि DPSP को।

इस तरह से 1951 के अप्रैल माह में ये फ़ाइनल हो चुका था कि अब सरकार DPSP को आधार बनाकर कुछ करेगी तो मूल अधिकार हर बार रोड़ा बनकर रास्ते में आएगा और जब यह सुप्रीम कोर्ट जाएगा तो मूल अधिकार की ही जीत होगी। और समाजवाद के लक्ष्य को कभी पूरा ही नहीं किया जा सकेगा।

उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो कि एक समाजवादी विचारधारा के नेता थे, समझ गए कि अब संविधान में संशोधन करना ही पड़ेगा।

और इस तरह से पहला संविधान संशोधन अस्तित्व में आया, जिसके तहत अनुच्छेद 31क और अनुच्छेद 31ख को संविधान में डाला गया। अनुच्छेद 31क की मदद से जमीन अधिग्रहण को आसान बना दिया और न्यायालय इसमें हस्तक्षेप न करे इसीलिए अनुच्छेद 31ख के तहत नौवीं अनुसूची बना दी।

⚫ इस तरह से अनुच्छेद 31 और अनुच्छेद 19(1)(f) के प्रभाव को कम कर दिया गया। लेकिन जैसे-जैसे केंद्र और राज्य सरकार भूमि-सुधार को लागू करने लगे, वैसे-वैसे इन क़ानूनों को चुनौती भी दी जाने लगी।

शंकरी प्रसाद मामला, सज्जन सिंह मामला, गोलकनाथ मामला, केशवानन्द भारती मामला कुछ बहुत ही प्रसिद्ध मामले हैं।

इतना काफी नहीं था कि साल 1971 में इन्दिरा गांधी की सरकार ने 25वें संविधान संशोधन अधिनियम की मदद से अनुच्छेद 39 (ख) और (ग) को लागू करने के लिए संविधान में अनुच्छेद 31ग को अन्तःस्थापित (insert) कर दिया।

कुल मिलाकर देखें तो सरकार इससे काफी परेशान हो रही थी क्योंकि लगभग सभी मामले न्यायालय में जाते थे। तो सरकार ने जितना हो सके अनुच्छेद 31, अनुच्छेद 19(1)(f) आदि को कमजोर किया।

⚫ 1975 में आपातकाल लगाई गई और 1976 में इन्दिरा गांधी ने हरेक उस प्रावधान को संशोधित किया जो वो करना चाहती थी। हालांकि उन्होने अनुच्छेद 31 और अनुच्छेद 19(1)(f) मूल अधिकार से नहीं हटाया।

ये काम किया मोरार जी देशाई की सरकार ने। जब आपातकाल के बाद 1977 में मोरार जी देशाई सत्ता में आए तब उन्होने 1978 में संविधान में 44वां संशोधन किया और अनुच्छेद 31 और अनुच्छेद 19(1)(f) मूल अधिकार से बाहर कर दिया गया।

अनुच्छेद 31 को अनुच्छेद 300क के तहत रख दिया गया और इस तरह से अब यह एक संवैधानिक अधिकार बनकर रह गया।

कुल मिलाकर 44वें संवैधानिक संशोधन ने 1978 द्वारा इस अधिकार को “मौलिक अधिकार” की सूची से इसीलिए हटा दिया क्योंकि इसने समाजवाद और समान आर्थिक वितरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में कई चुनौतियां पेश कीं।

याद रहें, संपत्ति का अधिकार अभी भी नागरिकों के लिए उपलब्ध है, लेकिन केवल कानूनी अधिकार के रूप में, मौलिक नहीं।

तो उम्मीद है आपको अनुच्छेद 31 (Article 31) समझ में आया होगा। दूसरे अनुच्छेदों को समझने के लिए नीचे दिए गए लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

अनुच्छेद-31(क) – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(ख) – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(ग) – भारतीय संविधान
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अनुच्छेद 31 (Article 31) क्या है?

[संपत्ति का अनिवार्य अर्जन] – संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 6 द्वारा (20-6-1979 से) निरसित। विस्तार से समझने के लिए लेख पढ़ें;

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——–Article 31——
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——Article 31——
अस्वीकरण - यहाँ प्रस्तुत अनुच्छेद और उसकी व्याख्या, मूल संविधान (नवीनतम संस्करण), संविधान पर डी डी बसु की व्याख्या (मुख्य रूप से) और संविधान के विभिन्न ज्ञाताओं (जिनके लेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर ऑडियो-विजुअल्स के रूप में उपलब्ध है) पर आधारित है। हमने बस इसे रोचक और आसानी से समझने योग्य बनाने का प्रयास किया है।