यह लेख अनुच्छेद 32 (Article 32) का यथारूप संकलन है। आप इसका हिन्दी और इंग्लिश दोनों अनुवाद पढ़ सकते हैं। आप इसे अच्छी तरह से समझ सके इसीलिए इसकी व्याख्या भी नीचे दी गई है आप उसे जरूर पढ़ें। इसकी व्याख्या इंग्लिश में भी उपलब्ध है, इसके लिए आप नीचे दिए गए लिंक का प्रयोग करें;

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Article 32

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📜 अनुच्छेद 32 (Article 32)

सांविधानिक उपचार का अधिकार
32. इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार – (1) इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।

(2) इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।

(3) उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोग करने योग्य किन्ही या सभी शक्तियों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए विधि द्वारा सशक्त कर सकेगी।

(4) इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 32—-
Right to Constitutional Remedies
32. Remedies for enforcement of rights conferred by this Part.— (1) The right to move the Supreme Court by appropriate proceedings for the enforcement of the rights conferred by this Part is guaranteed.

(2) The Supreme Court shall have power to issue directions or orders or writs, including writs in the nature of habeas corpus, mandamus, prohibition, quo warranto and certiorari, whichever may be appropriate, for the
enforcement of any of the rights conferred by this Part.

(3) Without prejudice to the powers conferred on the Supreme Court by clauses (1) and (2), Parliament may by law empower any other court to exercise within the local limits of its jurisdiction all or any of the powers exercisable by the Supreme Court under clause (2).

(4) The right guaranteed by this article shall not be suspended except as otherwise provided for by this Constitution.
Article 32

🔍 Article 32 Explanation in Hindi

हमारे संविधान में एक लोक कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए मौलिक अधिकारों पर काफी ज़ोर दिया गया है। पर जैसा कि हम जानते हैं कि शक्तियाँ राज्य के हाथ में होती है और हमारा संविधान संशोधनीय है यानी कि राज्य चाहे तो उसमें संसोधन कर सकती है।

ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है वो मौलिक अधिकारों को भी संशोधन करके हटा न दें। ऐसा बिलकुल संभव था और ये बात संविधान सभा भी अच्छे से जानती थी। इसीलिए अनुच्छेद 13 के माध्यम से यह व्यवस्था किया गया कि मूल अधिकारों को कम करने वाली कोई भी विधि उतनी मात्रा में खारिज हो जाएंगी।

⚫ अब आपके मन में एक बात आ सकता है कि अनुच्छेद 13 में जब ये प्रावधान है कि किसी भी विधि से मूल अधिकारों को कम या खत्म नहीं किया जा सकता है तो फिर अनुच्छेद 32 की जरूरत क्यों पड़ी?

इसके लिए आइये कुछ स्वाभाविक प्रश्न पर विचार करते हैं। मान लीजिये कि संसद को किसी मूल अधिकार को हटाना है पर अनुच्छेद 13 के कारण वो इसे हटा नहीं पा रहा है तो उसके पास एक रास्ता ये है कि, अनुच्छेद 368 जो कि संसद को संविधान में संशोधन की शक्ति देता है।

उसकी मदद से वो पहले अनुच्छेद 13 को ही हटा दें या उसमें संशोधन कर दें। जैसे ही ये होगा उसके बाद आसानी से वो मौलिक अधिकारों में जो चाहे वो परिवर्तन कर सकता है।

⚫ दूसरी बात ये है न्यायालय सिर्फ इसीलिए तो बैठा नहीं है कि सरकार कौन सा कानून बना रहा है उससे किसका कितना मूल अधिकार हनन हो रहा है।

ये तो नागरिक, किसी व्यक्ति या उसके समूहों को मिले अधिकार है और ये उसका काम है कि ऐसे अधिकारों के हनन पर आवाज उठाए, पर सवाल यही है कि संविधान ने मौलिक अधिकार को इतनी प्राथमिकता तो दी है पर अगर राज्य द्वारा इसका किसी भी प्रकार से हनन किया जाता है तो जनता जाये तो जाये कहाँ? बोले तो बोले किसे?

कहने का अर्थ ये है कि मूल अधिकार तब तक किसी काम का नहीं है जब तक उसे संरक्षण न मिले और जब तक उसे लागू कराने के लिए कोई प्रभावी मशीनरी न हो।

इसी को ध्यान में रखकर मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार) का प्रावधान संविधान में शामिल किया गया।

इसकी खास बात ये है कि ये खुद भी एक मूल अधिकार ही है और ये संवैधानिक उपचार का अधिकार प्रदान करता है। किस प्रकार का उपचार प्रदान करता है आइये इसे समझते हैं-

| अनुच्छेद 32 – इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार

जैसा कि हमने समझा, अनुच्छेद 32 का एकमात्र उद्देश्य संविधान द्वारा गारंटीड मूल अधिकारों का प्रवर्तन (Enforcement) है।

यहाँ समझने वाली बात ये है कि ये मूल अधिकारों के प्रवर्तन तक ही सीमित है और दूसरी बात ये कि अगर मूल अधिकार का हनन नहीं हुआ है तो फिर अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर नहीं की जा सकती; जैसे कि

अगर किसी कानून पर या उसके तहत दिए गए प्रशासनिक आदेश पर कोई व्यक्ति इस आधार पर आक्षेप (objection) करता है कि उससे मूल अधिकारों का हनन हुआ है तो फिर वो अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर सकता है।

अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर वो कानून या फिर वो आदेश कितना भी गलत क्यों न हो न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत उस कानून पर या आदेश पर हस्तक्षेप नहीं करेगा।

⚫ सरकार से कारोबार करना या उससे मान्यता प्राप्त करना कोई मूल अधिकार नहीं है इसीलिए ऐसे अधिकारों के उल्लंघन के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन याचिका दायर नहीं की जा सकती है।

⚫ अगर राज्य द्वारा अनुच्छेद 21 के तहत आपकी स्वतंत्रता का हनन होता है तो आप अनुच्छेद 32 का संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन अगर किसी प्राइवेट व्यक्ति ने आपको किसी कमरे में बंद कर दिया तो आप अनुच्छेद 32 का लाभ नहीं ले सकते हैं।

⚫ अगर किसी कानून के उपबंधों पर मूल अधिकारों के उल्लंघन से भिन्न किसी आधार पर आक्षेप किया जाता है तो अनुच्छेद 32 के अधीन कार्यवाही में इस आक्षेप पर विचार नहीं होगा।

इतना समझने के बाद आइये इस अनुच्छेद को खंडवार समझ लेते हैं;

अनुच्छेद 32 खंड (1) इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।

यह जो खंड है यह किसी व्यक्ति को मूल अधिकारों के हनन पर सीधे सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार देता है। और मूल अधिकारों का प्रवर्तन हो सके इसके लिए उच्चतम न्यायालय को रिट (Writ) जारी करने का अधिकार देता है।

अनुच्छेद के खंड (2) द्वारा प्रदत अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।

उच्चतम न्यायालय की यह जो शक्ति है इसे सिर्फ संविधान संशोधन के माध्यम से ही छीनी जा सकती है, किसी सामान्य विधि या प्रशासनिक आदेश से नहीं। वो भी तब जब सुप्रीम कोर्ट को लगे कि यह संविधान के मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है।

और दिलचस्प बात ये है कि अनुच्छेद 32 संविधान का मूल ढांचा है इसे दिल्ली ज्यूड़ीशियल सर्विस एसोशिएशन मामला 1991 द्वारा घोषित किया गया था।

और इसीलिए मूल ढांचे के सिद्धांत की स्वीकार्यता जब तक रहेगी तब तक संसद संविधान संशोधन करके भी इसे खत्म नहीं कर सकती।

मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालने का अधिकार भी मूल अधिकार है। इसीलिए अगर कोई व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट के पास याचिका लेकर आता है तो सुप्रीम कोर्ट उसकी सुनवाई करने से इंकार नहीं कर सकती।

खंड (3) के तहत उच्चतम न्यायालय को रिट जारी करने की शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद चाहे तो कुछ या सभी रिट जारी करने की शक्तियों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए दे सकती है।

हालांकि अभी तक ऐसा हुआ नहीं है अभी तो बस उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय को ही रिट जारी करने की शक्ति दी गई है।

अनुच्छेद 32 के खंड (4) के तहत, संविधान द्वारा जो उपबंधित है उसके सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा गारंटीकृत अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा। यानी कि अगर राष्ट्रपति चाहे तो राष्ट्रीय आपातकाल (National emergency) के दौरान अनुच्छेद 359 के तहत इसे स्थगित कर सकता है।

आपातकाल के समय ऐसा हुआ भी था कि अनुच्छेद 32 का संरक्षण प्राप्त करने पर रोक लगा दी गई थी। इसे विस्तार से समझने के लिए दिए गए लेख को पढ़ें; Habeas corpus case 1976

अनुच्छेद 32 [Article 32] के तहत सुप्रीम कोर्ट की शक्तियाँ क्या है?

संविधान ने मूल अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश, रिट या प्रादेश जारी करने की शक्ति दी है, जिसके तहत वे बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas corpus),  परमादेश (mandamus),  प्रतिषेध (prohibition),  उत्प्रेषण (certiorari) एवं अधिकार पृच्छा (quo warranto) रिट (Writ) जारी कर सकती है।

1.बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus): इसे लैटिन भाषा से लिया गया है इसका मतलब होता है ‘प्रस्तुत किया जाय या सामने लाया जाए (Be presented or brought forth),

अगर किसी व्यक्ति को राज्य द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा जबरन हिरासत में रखा गया है और उस व्यक्ति ने मूल अधिकारों के हनन के आधार पर याचिका दायर की है तो न्यायालय इस स्थिति में बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट जारी कर सकता है।

अगर न्यायालय हिरासत को कानून सम्मत (Lawful) नहीं पाता है तो फिर उस व्यक्ति को तुरंत ही रिहा कर दिया जाता है लेकिन अगर हिरासत कानून सम्मत है तो ये रिट जारी नहीं किया जा सकता।

◾ बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट किसी सार्वजनिक प्राधिकरण या किसी व्यक्ति दोनों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है। लेकिन ये कुछ मामलों में जारी नहीं किए जाते हैं जैसे,

(1) अगर हिरासत विधि सम्मत हो तो ये जारी नहीं किया जा सकता,

(2) अगर कार्यवाही किसी विधानमंडल या न्यायालय की अवमानना के लिए हुई हो,

(3) अगर हिरासत न्यायालय के न्यायक्षेत्र के बाहर हुई हो।

(4) अगर हिरासत न्यायालय के द्वारा ही हुआ हो।

1976 में एक बहुचर्चित मामला सुप्रीम कोर्ट आया था जिसे हीबियस कॉर्पस मामला या फिर ADM जबलपुर vs शिवकान्त शुक्ला मामला कहा जाता है।

ये एक जबरन हिरासत का मामला था पर सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय उस समय दिया, उसे सुप्रीम कोर्ट के सबसे खराब निर्णयों में गिना जाता है। क्या था पूरा मामला इसके लिए आप दिये गए लेख पढ़ सकते हैं।

2. परमादेश (Mandamus): इसका मतलब है ‘हम आदेश देते है (We order)’। यह एक ऐसा आदेश है जो सार्वजनिक इकाईयों (Public units), अधीनस्थ न्यायालयों (Subordinate courts), निगमों (Corporations), प्राधिकरणों (Authorities) और सरकार को जारी किया जाता है।

ये क्यों जारी किया जाता है? जब न्यायालय को ये लगता है कि ऊपर लिखित संस्था या संस्थान ठीक से अपना काम नहीं कर रही है या फिर, जब कोई व्यक्ति कोई काम लेकर इन संस्था या संस्थानों के संबन्धित अधिकारी पास जाते है और वे उसे करने से मना कर देते है।

ऐसी स्थिति में परमादेश जारी किया जाता है ताकि उनसे उसके कार्यों और उसे नकारने के संबंध में पूछा जा सकें और ऐसी गलतियों को सुधारा जा सकें।

इस रिट में यह जरूरी होता है कि जिसके विरुद्ध यह रिट जारी हो रहा है, उससे कार्य कराने का अधिकार याचिकाकर्ता को है। कहने का अर्थ है कि कोई काम किसी अधिकारी के दायरे में आता ही नहीं है फिर भी आप उससे वो काम करने को कहें और अगर वो मना कर दें तो फिर यह रिट जारी नहीं की जा सकती। यानी कि रिट जारी करने से पहले यह सिद्ध करना जरूरी होता है वह काम उस अधिकारी का ही है।

◾ वैसे यहाँ एक बात याद रखना जरूरी है कि परमादेश कुछ क्षेत्रों में जारी नहीं किया जा सकता, जैसे –

(1) निजी व्यक्ति या निजी कंपनी के विरुद्ध,

(2) ऐसे विभाग जो गैर-संवैधानिक है,

(3) भारत के राज्यों के राज्यपाल और राष्ट्रपति के विरुद्ध,

(4) उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध,

(5) ऐसे कार्य जिसका किया जाना विवेक पर निर्भर करता हो, इत्यादि।

3. प्रतिषेध (Prohibition): प्रतिषेध का शाब्दिक अर्थ होता है रोकना

इसे उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों या अधिकरणों को अपने न्यायक्षेत्र से बाहर के न्यायिक कार्यों को करने से रोकने के लिए जारी किया जाता है।

जैसे कि – अगर कोई अनुमंडलीय न्यायालय किसी दोषी को फांसी की सज़ा सुना दे तो उच्च न्यायालय उसे रोक सकता है। क्योंकि फांसी की सजा उसके न्याय क्षेत्र से बाहर की चीज़ है। यानी कि यदि कोई न्यायालय विधि के विपरीत न्याय करता है तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय उसे रोक सकते हैं।

◾ यहाँ ये बात याद रखने योग्य है कि ये सिर्फ न्यायिक और अर्ध-न्यायिक प्राधिकरणों के विरुद्ध ही जारी किए जा सकते है। किसी अन्य प्राधिकरणों या इकाईयों के विरुद्ध इसे जारी नहीं किया जा सकता।

4. उत्प्रेषण (Certiorari): इसका शाब्दिक अर्थ है ‘प्रमाणित होना (To be certified)’ या ‘सूचना देना (To inform)’ है।

ये भी कुछ -कुछ प्रतिषेध की तरह ही है पर इसमें जो मुख्य अंतर है वो ये है कि जहां प्रतिषेध किसी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा अपने न्यायिक क्षेत्र का अतिक्रमण रोकने के लिए जारी किया जाता है, वहीं उत्प्रेषण एक उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को या अधिकरणों को लंबित मामलों के स्थानांतरण के लिए जारी किया जाता है।

मतलब ये कि जब भी किसी उच्चतम न्यायालय को लगता है कि किसी खास मामले की सुनवाई और उसका पुनरावलोकन (Review) उसे खुद करनी चाहिए जबकि वो मामला किसी निचली अदालत में होता है तो ऐसी स्थिति में कोई भी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय उत्प्रेषण जारी कर वो मामला अपने पास मँगवा लेता है।

◾ यहाँ पर एक बात ध्यान रखने योग्य है कि ये न्यायिक प्राधिकरणों के अलावा, व्यक्तियों के अधिकार को प्रभावित करने वाले प्रशासनिक प्राधिकरणों के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है। हालांकि ये निजी व्यक्तियों या इकाइयों पर लागू नहीं होता है।

दूसरी बात कि अनुच्छेद 32 का प्रयोग करके उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के विरुद्ध उत्प्रेषण (Certiorari) नहीं निकाल सकता है। यानी कि अनुच्छेद 32 के तहत उच्च न्यायालय के निर्णय पर आक्षेप नहीं किया जा सकता है।

5. अधिकार पृच्छा (Quo Warranto): इसका शाब्दिक अर्थ है, ‘प्राधिकृत या वारंट के द्वारा (Authorized or by warrant)’। वैसे इसे Right of inquiry भी कहा जाता है।

जिसके तहत न्यायालय ये जांच कर सकता है कि कोई व्यक्ति जिस किसी भी सार्वजनिक पद पर है वो उस पद पर रहने के अधिकारी है या नहीं।

या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो उस पद पर रहते हुए जो निर्णय लिए है, वो लेने के अधिकारी है कि नहीं।

इसमें न्यायालय उस व्यक्ति से पूछ सकता है कि आप किस अधिकार के तहत या फिर किस शक्ति का प्रयोग करके किसी अमुक कार्य को किया है या फिर निर्णय लिया है।

उदाहरण के लिए – 65 वर्ष से अधिक उम्रवाले किसी व्यक्ति को लोक सेवा आयोग का सदस्य नियुक्त नहीं किया जा सकता। यदि इस नियम का उल्लंघन कर किसी को नियुक्त कर दिया जाता है न्यायालय उस पद को रिक्त करने का आदेश दे सकता है।

◾ इसे किसी मंत्री के कार्यालय या निजी कार्यालय के लिए जारी नहीं किया जा सकता। दूसरी बात ये कि इसे कोई भी इच्छुक व्यक्ति जारी करने के लिए कह सकता है।

उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के रिट संबंधी कार्य क्षेत्र में अंतर क्या है?

उच्चतम न्यायालय द्वारा जितने भी रिट (writ) जारी करने के अधिकार के बारे में हमने ऊपर समझा है, इन सभी को भारत के उच्च न्यायालय द्वारा भी जारी किया जा सकता है। लेकिन दोनों के रिट जारी करने के कार्यक्षेत्र में कुछ अंतर है, जो कि निम्नलिखित है –

1. उच्चतम न्यायालय को रिट जारी करने का अधिकार अनुच्छेद 32 के तहत मिला है (जो कि खुद एक मौलिक अधिकार है) और उच्चतम न्यायालय सिर्फ मूल अधिकारों के लिए ही रिट जारी कर सकता है।

जबकि उच्च न्यायालय की बात करें जिसे कि रिट जारी करने का अधिकार अनुच्छेद 226 के तहत मिलता है, वो मूल अधिकारों के अलावे किसी अन्य सामान्य कानूनी अधिकारों के लिए भी रिट जारी कर सकता है।

2. उच्चतम न्यायालय किसी व्यक्ति या फिर सरकार के विरुद्ध रिट जारी कर सकता है जबकि उच्च न्यायालय अपने राज्य के व्यक्ति या सरकारों के अलावे दूसरे राज्य के विरुद्ध भी जारी कर सकता है।

3. चूंकि अनुच्छेद 32 स्वयं में एक मूल अधिकार है इसलिए उच्चतम न्यायालय इसे नकार नहीं सकता है। मतलब ये कि कोई भी अगर मूल अधिकारों के हनन से संबन्धित याचिका उच्चतम न्यायालय में दायर करता है तो उच्चतम न्यायालय सुनवाई से इंकार नहीं कर सकता है।

वहीं अगर उच्च न्यायालय की बात करें तो वे अपने रिट संबंधी न्याय क्षेत्र के क्रियान्वयन को नकार भी सकता है क्योंकि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत मूल अधिकारों के हनन के मामले में सुनवाई करता है जो कि एक मूल अधिकार नहीं है।

इसके अलावा कोई अन्य आदेश भी दिया जा सकता है जो कि मूल अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक हो। कहने का अर्थ है कि न्यायालय ऐसे साम्यपूर्ण आदेश दे सकता है जो विशेषाधिकार रिटों की परिधि में नहीं आते हैं।

[Article 32] याद रखें,

⚫ अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन पहली बार में उच्चतम न्यायालय में हो सकता है। इसीलिए यह आवश्यक नहीं है कि पहले अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय में मामला उठाया जाए।

⚫ अगर मेरिट के आधार पर अनुच्छेद 226 के अधीन आवेदन उच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है तो उन्ही तथ्यों और उन्ही आधारों पर उच्चतम न्यायालय द्वारा रिट जारी नहीं कराया जा सकता।

⚫ अगर उच्च न्यायालय यह पाता है कि किसी मामले का विनिश्चय (decision) रिट कार्यवाही द्वारा नहीं की जा सकती है तो याचिकाकर्ता अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में आवेदन नहीं कर सकता है।

⚫ यदि अनुच्छेद 226 के अधीन आवेदन को संक्षेप सुनवाई में खारिज कर दिया जाता है और कोई सकारण आदेश भी नहीं दिया जाता है। या जिस प्रश्न पर कोई निर्णय ही नहीं लिया गया हो तो यहाँ पूर्व न्याय का सिद्धान्त (Res judicata) लागू नहीं होगा।

अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय निम्नलिखित नहीं कर सकता है;

◾ ऐसी घोषणाएँ नहीं कर सकता है जिसका याचिकाकर्ता के लिए कोई उपयोग ही नहीं है।

◾ उच्च न्यायालय के विरुद्ध उत्प्रेषण (Certiorari) नहीं निकाल सकता है। (जैसा कि हमने ऊपर भी समझा है)

◾ नीति संबंधी निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

◾ न्यायालय, किसी विधान मंडल या अधीनस्थ विधायी प्राधिकरण को कोई विशिष्ट विधि या नियम बनाने के लिए निदेश नहीं दे सकता।

अनुच्छेद 32 के अधीन कौन आवेदन कर सकता है?

◾ किसी भी व्यक्ति को अगर यह लगता है की संविधान द्वारा प्रदत मूल अधिकारों में से किसी का भी हनन हुआ है तो वह उच्चतम न्यायालय को रिपोर्ट कर सकता है।

यहाँ यह याद रखिए कि कुछ मूल अधिकार ऐसे हैं जो सभी व्यक्तियों पर लागू होता है जैसे कि अनुच्छेद 14, तो ऐसे मूल अधिकारों के हनन पर कोई भी अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन कर सकता है।

लेकिन कुछ अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों को ही उपलब्ध है, जैसे कि अनुच्छेद 15, 16, 19, 29 और 30। तो ऐसे में सिर्फ भारतीय नागरिक ही इसके लिए आवेदन दे सकता है।

◾ निगमित निकाय (Corporate body) भी अनुच्छेद 32 के तहत ऐसा कर सकता है। लेकिन जो अधिकार सिर्फ व्यक्तियों के लिए है उस मामले में यह ऐसा नहीं कर सकता है।

यहाँ यह भी याद रखिए कि कंपनी और उसके शेयर धारक अलग-अलग माने जाते हैं इसीलिए जब किसी कंपनी के किसी मूल अधिकार का उल्लंघन होता है तो उस अधिकार को पाने के लिए कंपनी को आगे आना होता है। शेयर धारक उसका स्थान नहीं ले सकता है।

लेकिन अगर राज्य के किसी निर्णय से या विधि से कंपनी के शेयर धारकों के मूल अधिकारों को भी क्षति पहुंचती है तो फिर शेयर धारक भी अनुच्छेद 32 के तहत आवेदन कर सकते हैं। उदाहरण के लिए आप आर.सी कूपर बनाम भारत सरकार का मामला देख सकते हैं।

◾ चूंकि संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की श्रेणी से हटा दिया गया है इसीलिए संपत्ति के अधिकार के हनन को लेकर कोई व्यक्ति उच्चतम न्यायालय नहीं जा सकता है।

जनहित याचिका (PIL) और Article 32

जनहित याचिका के अंतर्गत कोई भी जनभावना वाला व्यक्ति या सामाजिक संगठन किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के अधिकार दिलाने के लिए न्यायालय जा सकता है, अगर वो व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह निर्धनता, अज्ञानता अथवा अपनी प्रतिकूल सामाजिक-आर्थिक दशाओं के कारण खुद न्यायालय उपचार के लिए नहीं जा सकते।

जैसे कि हमने ऊपर भी समझा कि सामान्य रूप से कोई व्यक्ति अनुच्छेद 32 या अनुच्च्द 226 के तहत आवेदन तभी कर सकता है जब किसी विधि या आदेश द्वारा अधिकार के हनन का उस पर व्यक्तिगत रूप से प्रभाव पड़ा हो।

लेकिन सार्वजनिक या लोकहित को ध्यान में रखते हुए न्यायालय उस विषय में विशेष हित रखने वाले संगठन के किसी भी सदस्य को आवेदन की अनुमति देगा। इसे लोकहित वाद के नाम से भी जाना जाता है।

विस्तार से पढ़ें – PIL – जनहित याचिका : अवधारणा

तो कुल मिलाकर यही है अनुच्छेद 32 (Article 32) , उम्मीद है आपको समझ में आया होगा। दूसरे अनुच्छेदों को समझने के लिए नीचे दिए गए लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

अनुच्छेद-31(ख) – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(क) – भारतीय संविधान
—————————
अनुच्छेद 32 (Article 32) क्या है?

इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उपचार – (1) इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।
(2) इस भाग द्वारा प्रदत अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषन रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।
विस्तार से समझने के लिए लेख पढ़ें;

रिट (Writ) किसे कहते हैं?

रिट, उच्चतम और उच्च न्यायालय को प्राप्त एक प्रकार का विशेषाधिकार है जो कि उच्चतम एवं उच्च न्यायालय को मौलिक अधिकारों के हनन को रोकने एवं उसका प्रवर्तन (Enforcement) कराने की शक्ति देता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो रिट एक लिखित औपचारिक ऑर्डर है जिसे किसी प्राधिकृत संस्था द्वारा जारी किया जाता है। भारत में ये संस्था है उच्च और उच्चतम न्यायालय।

पूर्व न्याय का सिद्धांत (Res judicata) क्या है?

इस सिद्धांत के अनुसार अगर किसी विषय पर अंतिम निर्णय दिया जा चुका है तो यह मामला फिर से उसी न्यायालय या किसी दूसरे न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता।

| Related Article

अनुच्छेद 33
अनुच्छेद 34
अनुच्छेद 35
अनुच्छेद 28
अनुच्छेद 29
——-Article 32——-
भारतीय संविधान
संसद की बेसिक्स
मौलिक अधिकार बेसिक्स
भारत की न्यायिक व्यवस्था
भारत की कार्यपालिका
—–Article 32—-
अस्वीकरण – यहाँ प्रस्तुत अनुच्छेद और उसकी व्याख्या, मूल संविधान (नवीनतम संस्करण), संविधान पर डी डी बसु की व्याख्या (मुख्य रूप से), एनसाइक्लोपीडिया, संबंधित मूल अधिनियम और संविधान के विभिन्न ज्ञाताओं (जिनके लेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर ऑडियो-विजुअल्स के रूप में उपलब्ध है) पर आधारित है। हमने बस इसे रोचक और आसानी से समझने योग्य बनाने का प्रयास किया है।