यह लेख Article 356 (अनुच्छेद 356) का यथारूप संकलन है। आप इस मूल अनुच्छेद का हिन्दी और इंग्लिश दोनों संस्करण पढ़ सकते हैं। आप इसे अच्छी तरह से समझ सके इसीलिए इसकी व्याख्या भी नीचे दी गई है आप उसे जरूर पढ़ें, और MCQs भी सॉल्व करें।

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📜 अनुच्छेद 356 (Article 356) – Original

भाग 18 [आपात उपबंध]
356. राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध— (1) यदि राष्ट्रपति का किसी राज्य के राज्यपाल 1*** से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा, यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा –
(क) उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य और 2[राज्यपाल] में या राज्य के विधान-मंडल से भिन्‍न राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या कोई शक्तियां अपने हाथ में ले सकेगा :
(ख) यह घोषणा कर सकेगा कि राज्य के विधान-मंडल की शक्तियां संसद्‌ द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोक्तव्य होंगी ;
(ग) राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी से संबंधित इस संविधान के किन्हीं उपबंधों के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिए उपबंधों सहित ऐसे आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध कर सकेगा जो उद्घोषणा के उद्देश्यों को प्रभावी करने के लिए राष्ट्रपति को आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों :

परन्तु इस खंड की कोई बात राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य किसी शक्ति को अपने हाथ में लेने या उच्च न्यायालयों से संबंधित इस संविधान के किसी उपबंध के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिए प्राधिकृत नहीं करेगी ।

(2) ऐसी कोई उद्घोषणा किसी पश्चातवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकेगा;

(3) इस अनुच्छेद के अधीन की गई प्रत्येक उद्घोषणा संसद्‌ के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और जहां वह पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है वहां वह दो मास की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद्‌ के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं कर दिया जाता है;
परन्तु यदि ऐसी कोई उद्धोषणा (जो पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है) उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोक सभा का विघटन इस खंड में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है।

(4) इस प्रकार अनुमोदित उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, 3[ऐसी उद्घोषणा के किए जाने की तारीख से छह मास] की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी :

परन्तु यदि और जितनी बार ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प संसद्‌ के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है तो और उतनी बार वह उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, उस तारीख से जिसको वह इस खंड के अधीन अन्यथा प्रवर्तन में नहीं रहती, 4[छह मास] की अवधि तक प्रवृत्त बनी रहेगी, किन्तु ऐसी उद्घोषणा किसी भी दशा में तीन वर्ष से अधिक प्रवृत्त नहीं रहेगी :

परन्तु यह और कि यदि लोक सभा का विघटन 4[छह मास] की ऐसी अवधि के दौरान हो जाता है और ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्धोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उक्त अवधि के दौरान पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात्‌ प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं कर दिया जाता है :

5[परन्तु यह भी कि पंजाब राज्य की बाबत] मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा की दशा में, इस खंड के पहले परन्तुक में “तीन वर्ष” के प्रति निर्देश का इस प्रकार अर्थ लगाया जाएगा मानो वह 6[“पांच वर्ष”] के प्रति निर्देश हो।]

7[5) खंड (4) में किसी बात के होते हुए भी, खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा के किए की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति से किसी अवधि के लिए ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प संसद्‌ के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जाएगा जब-

(क) ऐसे संकल्प के पारित किए जाने के समय आपात की उद्घोषणा, यथास्थिति, संपूर्ण भारत में अथवा संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग में प्रवर्तन में; और
(ख) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर देता है कि ऐसे संकल्प में विनिर्दिष्ट अवधि के दौरान खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखना, संबंधित राज्य की विधान सभा के साधारण निर्वाचन कराने में कठिनाइयों के कारण, आवश्यक है:]

8[परन्तु इस खंड की कोई बात पंजाब राज्य की बाबत 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा को लागू नहीं होगी।]
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1. संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “या राजप्रमुख” शब्दों का (1-11-1956 से) लोप किया गया।
2. संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “यथास्थिति, या राजप्रमुख” शब्दो के स्थान पर प्रतिस्थापित।
3. संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम 1976 की धारा 50 द्वारा (3-1-1977 से) “छह मास” के स्थान पर प्रतिस्थापित और तत्पश्चात संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 38 द्वारा (20-6-1979 से) “खंड (3) के अधीन उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाले संकल्पों में से दूसरे के पारित हो जाने की तारीख से एक वर्ष” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
4.   संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 38 द्वारा (20-6-1979 से) “खंड (3) के अधीन उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाले संकल्पों मैं से दूसरे के पारित हो जाने की तारीख से एक वर्ष” के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 50 द्वारा (3-1-1977 से) मूल शब्द “छह मास” के स्थान पर “एक वर्ष” शब्द प्रतिस्थापित किए गए थे।
5. संविधान (चौसठवां संशोधन) अधिनियम, 1990 की धारा 2 द्वारा (16-4-1990 से) अंतःस्थापित।
6. संविधान (सड़सठवां संशोधन) अधिनियम, 1990 की धारा 2 द्वारा (4-10-1990 से) प्रतिस्थापित और तत्पश्चात्‌ संविधान (अड़सठवां संशोधन) अधिनियम, 1991 की धारा 2 द्वारा (12-3-1991 से) संशोधित होकर वर्तमान रुप में आया।
7. संविधान (अड़तीसवां संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 6 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (5) अंतःस्थापित और तत्पश्चात संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 का धारा 38 द्वारा (20-6-1979 से) खंड 5 के स्थान पर प्रतिस्थापित।
8. संविधान (तिरसठवां संशोधन) अधिनियम, 1989 की धारा 2 द्वारा (6-1-1990 से) लोप किया गया जिसे संविधान (चौंसठवां संशोधन) अधिनियम, 1990 की धारा 2 द्वारा (16-4-1990 से) अंतःस्थापित किया गया था ।
अनुच्छेद 356 हिन्दी संस्करण

Part XVIII [EMERGENCY PROVISIONS]
356. Provisions in case of failure of constitutional machinery in States—(1) If the President, on receipt of a report from the Governor 1*** of a State or otherwise, is satisfied that a situation has arisen in which the Government of the State cannot be carried on in accordance with the provisions of this Constitution, the President may by Proclamation—

(a) assume to himself all or any of the functions of the Government of the State and all or any of the powers vested in or exercisable by the Governor 2*** or any body or authority in the State other than the Legislature of the State;
(b) declare that the powers of the Legislature of the State shall be exercisable by or under the authority of Parliament;
(c) make such incidental and consequential provisions as appear to the President to be necessary or desirable for giving effect to the objects of the Proclamation, including provisions for suspending in whole or in part the operation of any provisions of this Constitution relating to any body or authority in the State:

Provided that nothing in this clause shall authorise the President to assume to himself any of the powers vested in or exercisable by a High Court, or to suspend in whole or in part the operation of any provision of this Constitution relating to High Courts.

(2) Any such Proclamation may be revoked or varied by a subsequent Proclamation.

(3) Every Proclamation under this article shall be laid before each House of Parliament and shall, except where it is a Proclamation revoking a previous Proclamation, cease to operate at the expiration of two months unless before the expiration of that period it has been approved by resolutions of both Houses of Parliament:

Provided that if any such Proclamation (not being a Proclamation revoking a previous Proclamation) is issued at a time when the House of the People is dissolved or the dissolution of the House of the People takes place during the period of two months referred to in this clause, and if a resolution approving the Proclamation has been passed by the Council of States, but no resolution with respect to such Proclamation has been passed by the House of the People before the expiration of that period, the Proclamation shall cease to operate at the expiration of thirty days from the date on which the House of the People first sits after its reconstitution unless before the expiration of the said period of thirty days a resolution approving the Proclamation has been also passed by the House of the People.

(4) A Proclamation so approved shall, unless revoked, cease to operate on the expiration of a period of 3[six months from the date of issue of the Proclamation]:

Provided that if and so often as a resolution approving the continuance in force of such a Proclamation is passed by both Houses of Parliament, the Proclamation shall, unless revoked, continue in force for a further period of
4[six months] from the date on which under this clause it would otherwise have ceased to operate, but no such Proclamation shall in any case remain in force for more than three years:

Provided further that if the dissolution of the House of the People takes place during any such period of 4[six months] and a resolution approving the continuance in force of such Proclamation has been passed by the Council of States, but no resolution with respect to the continuance in force of such Proclamation has been passed by the House of the People during the said period, the Proclamation shall cease to operate at the expiration of thirty days from the date on which the House of the People first sits after its reconstitution unless before the expiration of the said period of thirty days a resolution approving the continuance in force of the Proclamation has been also passed by the House of the People:

5[Provided also that in the case of the Proclamation issued under clause (1) on the 11th day of May, 1987 with respect to the State of Punjab, the reference in the first proviso to this clause to “three years” shall be construed
as a reference to 6[five years].]

7[(5) Notwithstanding anything contained in clause (4), a resolution with respect to the continuance in force of a Proclamation approved under clause (3) for any period beyond the expiration of one year from the date of issue of such Proclamation shall not be passed by either House of Parliament unless—
(a) a Proclamation of Emergency is in operation, in the whole of India or, as the case may be, in the whole or any part of the State, at the time of the passing of such resolution, and
(b) the Election Commission certifies that the continuance in force of the Proclamation approved under clause (3) during the period specified in such resolution is necessary on account of difficulties in holding general elections to the Legislative Assembly of the State concerned:]

8[Provided that nothing in this clause shall apply to the Proclamation issued under clause (1) on the 11th day of May, 1987 with respect to the State of Punjab.]
======================
1. The words “or Rajpramukh” omitted by the Constitution (Seventh Amendment) Act, 1956, s. 29 and Sch. (w.e.f. 1-11-1956).
2. The words “or Rajpramukh, as the may be” omitted by the Constitution (Seventh Amendment) Act, 1956, s. 29 and Sch. (w.e.f. 1-11-1956).
3. Subs. by the Constitution (Forty-second Amendment) Act, 1976, s. 50, for “six months” (w.e.f. 3-1-1977) and subsequently subs. by the Constitution (Forty-fourth Amendment) Act, 1978, s. 38, for “one year from the date of the passing of the second of the resolutions approving the Proclamation under clause (3)” (w.e.f. 20-6-1979).
4. Subs. by s. 50, ibid., for “six months” (w.e.f. 3-1-1977) and further subs. by s. 38, ibid., for “one year”, respectively (w.e.f. 20-6-1979).
5. Ins. by the Constitution (Sixty-fourth Amendment) Act, 1990, s. 2 (w.e.f. 16-4-1990).
6. Subs. by the Constitution (Sixty-seventh Amendment) Act, 1990, s. 2 (w.e.f. 4-10-1990) and subsequently subs. by the Constitution (Sixty-eighth Amendment) Act, 1991, s. 2 (w.e.f. 12-3-1991).
7. Ins. by the Constitution (Thirty-eighth Amendment) Act, 1975, s. 6 (with retrospective effect) and subsequently subs. by the Constitution (Forty-fourth Amendment) Act, 1978, s. 38, for cl. (5) (w.e.f. 20-6-1979).
8. Omitted by the Constitution (Sixty-third Amendment) Act, 1989, s. 2 (w.e.f. 6-1-1990) and subsequently ins. by the Constitution (Sixty-fourth Amendment) Act, 1990, s. 2 (w.e.f. 16-4-1990).
Article 356 English Version

🔍 Article 356 Explanation in Hindi

भारतीय संविधान का भाग 18, अनुच्छेद 352 से लेकर अनुच्छेद 360 तक में विस्तारित है जैसा कि आप देख सकते हैं यह पूरा भाग आपात उपबंध (EMERGENCY PROVISIONS) के बारे में है।

भारतीय संविधान के आपातकालीन प्रावधान विशेष शक्तियों का एक समूह हैं जिन्हें राष्ट्रीय या संवैधानिक संकट के समय भारत के राष्ट्रपति द्वारा लागू किया जा सकता है। ये प्रावधान सरकार को कुछ मौलिक अधिकारों को निलंबित करने और संकट से निपटने के लिए अन्य असाधारण उपाय करने की अनुमति देते हैं।

आपातकालीन प्रावधानों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है:

राष्ट्रीय आपातकाल: यह सबसे गंभीर प्रकार का आपातकाल है और इसकी घोषणा तब की जा सकती है जब राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाएं कि भारत या इसके किसी हिस्से की सुरक्षा को युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरा है।

राष्ट्रपति शासन: यह तब घोषित किया जा सकता है जब राष्ट्रपति इस बात से संतुष्ट हो कि किसी राज्य का शासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है।

वित्तीय आपातकाल: यदि राष्ट्रपति संतुष्ट हो कि वित्तीय संकट मौजूद है या होने की संभावना है तो इसे घोषित किया जा सकता है।

उपरोक्त सारे आपातकालीन प्रावधानों को अनुच्छेद 352 से लेकर अनुच्छेद 360 तक में सम्मिलित किया गया है; और इस लेख में हम अनुच्छेद 356 को समझने वाले हैं;

⚫ ◾ राष्ट्रपति शासन और बोम्मई मामला (President Rule)
Closely Related to Article 356

| अनुच्छेद 356 – राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध (Provisions in case of failure of constitutional machinery in States)

विपरीत परिस्थितियों में देश की संप्रभुताएकता, अखंडता एवं लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था की गई है।

अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा की बात की गई है। जिसके तहत हमने समझा कि किस तरह से बाह्य आक्रमण के आधार पर आपातकाल लगाया जा सकता है। पहले आंतरिक अशांति के आधार पर भी लगाया जा सकता था लेकिन अब सशस्त्र विद्रोह के आधार पर लगाया जा सकता है। हालांकि सशस्त्र विद्रोह भी आंतरिक अशांति को जन्म देता है।

अनुच्छेद 355 के तहत बताया गया है कि बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से राज्य की संरक्षा करना संघ का कर्तव्य है। लेकिन अगर संवैधानिक तंत्र विफल हो जाता है तो फिर ऐसी स्थिति में क्या होगा इसी के बारे में अनुच्छेद 356 बात करता है।

अनुच्छेद 356 के तहत कुल 5 खंड है। आइये इसे समझें;

अनुच्छेद 356 के खंड (1) के तहत बताया गया है कि कैसे राष्ट्रपति शासन लगता है। हमारा देश संवैधानिक सर्वोच्चता (Constitutional supremacy) वाला देश है। ऐसे में संविधान ठीक से चलता रहे और संविधान के अनुसार सबकुछ ठीक से चलता रहें, इसकी जिम्मेवारी राष्ट्रपति पर होती है।

राष्ट्रपति बकायदे संविधान को बचाने की शपथ भी लेते हैं। इसलिए जब जरूरत पड़ती है तो वे बचाते भी है। राष्ट्रपति शासन भी उसी संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने का एक तरीका है।

इसका उल्लेख अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 में किया गया है। अनुच्छेद 355 में कहा गया है कि केंद्र सरकार का ये कर्तव्य है कि प्रत्येक राज्य संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप कार्य करें।

अगर कोई राज्य संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप कार्य न करें या फिर किसी भी वजह से राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाये तो, अनुच्छेद 356 के तहत केंद्र उस राज्य को अपने नियंत्रण में ले सकता है। यानी कि राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) लगाया जा सकता है।

अनुच्छेद 356 (1) के अनुसार, राष्ट्रपति को उस राज्य के राज्यपाल द्वारा रिपोर्ट मिलने पर या फिर राष्ट्रपति अगर खुद ही आश्वस्त हो जाये कि उस राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) लगा सकता है।

ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा निम्नलिखित तीन चीज़ें कर सकेगा;

(क) राष्ट्रपति, राज्य सरकार के सभी या किसी भी कार्य और राज्यपाल या राज्य के विधानमंडल के अलावा राज्य में किसी भी निकाय या प्राधिकरण में निहित या प्रयोग की जाने वाली सभी या किसी भी शक्ति को अपने ऊपर ले लेगा;

(ख) राष्ट्रपति यह घोषित कर सकता कि राज्य के विधानमंडल की शक्तियां संसद के अधिकार के तहत या उसके द्वारा प्रयोग योग्य होंगी;

(ग) राष्ट्रपति ऐसे आकस्मिक और परिणामी प्रावधान कर सकता है जो राष्ट्रपति को उद्घोषणा के उद्देश्यों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों, जिसमें राज्य में किसी भी निकाय या प्राधिकरण से संबंधित इस संविधान के किसी भी प्रावधान के कार्यान्वयन को पूर्ण या आंशिक रूप से निलंबित करने के प्रावधान शामिल हैं:

यहाँ यह याद रखिए कि इस खंड में कुछ भी राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय में निहित या प्रयोज्य (exercisable) शक्तियों में से किसी को स्वयं ग्रहण करने, या उच्च न्यायालयों से संबंधित इस संविधान के किसी भी प्रावधान के संचालन को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से निलंबित करने के लिए अधिकृत नहीं करेगा।

अनुच्छेद 356 के खंड (2) के तहत बताया गया है कि ऐसी कोई उद्घोषणा किसी पश्चातवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकेगा;

राष्ट्रपति शासन को समाप्त करना बहुत ही आसान है। इसमें कोई संसद के अनुमोदन की जरूरत नहीं पड़ती है। बस राष्ट्रपति को ये घोषणा करना पड़ता है कि अब राष्ट्रपति शासन समाप्त हो गया। और घोषणा के साथ ही वो समाप्त हो जाता है।

अनुच्छेद 356 के खंड (3) के तहत बताया गया है कि राष्ट्रपति शासन की संसदीय अनुमोदन एवं समयावधि क्या होगी।

दरअसल राष्ट्रीय आपातकाल की तरह राष्ट्रपति शासन को भी संसद से अनुमोदन की आवश्यकता पड़ती है। पर बस कुछ अंतर है, और वो इस कुछ इस प्रकार है;

◾ राष्ट्रपति शासन के घोषणा होने के दो माह के भीतर संसद के दोनों सदनों से इसका अनुमोदन (Approval) करवाना पड़ता है।

◾ अगर राष्ट्रपति शासन तब जारी होता है जब लोकसभा का विघटन हो गया हो, या फिर लोकसभा हो लेकिन दो महीने के अंदर अनुमोदन करने से पहले ही विघटित हो जाये तो, ऐसी स्थिति में जब फिर से लोकसभा का गठन होगा उसके पहली बैठक से तीस दिन तक वो घोषणा बना रहेगा। और इसी तीस दिन के भीतर लोकसभा में उसे पास कराना होगा। हालांकि उससे पहले राज्यसभा से वो अनुमोदित होना चाहिए।

इस तरह यदि दोनों सदनों से ये अनुमोदित (Approved) हो जाये तो यह छह महीने तक जारी रह सकता है। इसी के बारे में अगले खंड में बताया गया है;

उपरोक्त खंड के अनुसार यदि संसद से अनुमोदित (Approved) उद्घोषणा, वापस नहीं ली जाती है तो, ऐसी उद्घोषणा के किए जाने की तारीख से छह मास की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी : यानि कि यह छह महीने तक जारी रह सकता है।

यहाँ यह याद रखें कि राष्ट्रपति शासन को अधिकतम 3 साल तक के लिए बढ़ाया जा सकता है लेकिन हर छह महीने में संसद की स्वीकृति जरूरी है।

यहाँ पर एक बात और याद रखिए कि 3 साल तो बढ़ाया जा सकता है लेकिन 38वें संविधान संशोधन 1975 के द्वारा इस पर दो प्रतिबंध लगा दिया गया है। यानी कि एक साल तक तो राष्ट्रपति शासन आराम से चल सकता है लेकिन अगर एक साल के बाद इसे फिर से छह महीने बढ़ाना हो तो, दो स्थितियों में ही बढ़ायी जा सकती है।

पहली स्थिति ये है कि यदि पूरे भारत में अथवा पूरे राज्य या उसके किसी भाग में राष्ट्रीय आपात की घोषणा की गई हो, तथा,

दूसरा ये कि, चुनाव आयोग यह प्रमाणित करें कि संबन्धित राज्य में विधानसभा के चुनाव के लिए कठिनाइयाँ उपस्थित हैं।

लेकिन क्या हो अगर छह महीने इसे और बढ़ाना हो लेकिन उस अवधि में लोकसभा ही भंग हो जाये।

ऐसी स्थिति में फिर से जब लोकसभा का गठन होगा, उसकी पहली बैठक से 30 दिनों तक वो प्रस्ताव लागू रहेगा।

अगर उसे फिर से बढ़ाना है तो इसी अवधि में फिर से उसे अनुमोदित करना होगा। लेकिन याद रहे कि इससे पहले राज्यसभा से वो अनुमोदित हो चुका होना चाहिए।

जहां राष्ट्रीय आपातकाल को विशेष बहुमत की जरूरत पड़ती है। वहीं राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) को संसद में सामान्य बहुमत से पारित किया जा सकता है। [यहाँ से पढ़ें – विभिन्न प्रकार के बहुमत↗️ ]

यहाँ यह भी याद रखिए कि पंजाब में 1980 के दशक के राजनीतिक अस्थिरता की दशा में पाँच वर्षों तक राष्ट्रपति शासन लगा रहा था, और इसे एक अपवाद स्वरूप माना गया है। क्योंकि इस खंड के तहत 3 वर्षों से अधिक राष्ट्रपति शासन नहीं लगा सकती है। यानि कि इस बीच में चुनाव कराना ही होगा।

इस खंड में जो बताया गया है इसके बारे में हमने इससे पहले के खंड में समझा है। इस खंड में कहा गया है कि खंड (4) में किसी बात के होते हुए भी, खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा के किए की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति से किसी अवधि के लिए ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प संसद्‌ के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जाएगा जब –

(क) ऐसे संकल्प के पारित किए जाने के समय आपात की उद्घोषणा, संपूर्ण भारत में अथवा संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग में प्रवर्तन में हो; और

(ख) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर देता है कि ऐसे संकल्प में विनिर्दिष्ट अवधि के दौरान खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखना, संबंधित राज्य की विधान सभा के साधारण निर्वाचन कराने में कठिनाइयों के कारण, आवश्यक है।

हालांकि इस खंड की कोई बात पंजाब राज्य की मामले में 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा को लागू नहीं होगी।

अनुच्छेद 356 भारत के राष्ट्रपति को कुछ परिस्थितियों में किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार देता है। इसे एक चरम उपाय माना जाता है और राज्य की स्वायत्तता और संघवाद पर इसके प्रभाव के कारण इसका कम से कम उपयोग किया जाता है।

  • आह्वान के लिए आधार:
    • किसी राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता: इसमें कानून और व्यवस्था का टूटना, विद्रोह, या चुनाव कराने में असमर्थता जैसी स्थितियां शामिल हो सकती हैं।
    • प्रशासन के ख़राब होने या संवैधानिक मशीनरी के पतन जैसी स्थितियों के बारे में राज्यपाल की रिपोर्ट।
    • अन्यथा संतुष्टि के अलावा, राज्यपाल की रिपोर्ट के बिना भी राष्ट्रपति अपनी संतुष्टि के आधार पर राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं।
  • आह्वान के परिणाम:
    • राज्य विधानमंडल का निलंबन।
    • मंत्रिपरिषद बर्खास्त।
    • राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त सलाहकारों की सहायता से प्रशासन अपने हाथ में लेता है।
    • केंद्र सरकार राज्य प्रशासन पर नियंत्रण रखती है।
  • सुरक्षा उपाय:
    • राष्ट्रपति शासन लगाने के दो महीने के भीतर संसद की मंजूरी जरूरी।
    • संसद राष्ट्रपति शासन को एक बार में छह महीने के लिए बढ़ा सकती है, लेकिन कुल अवधि नई उद्घोषणा के बिना तीन साल से अधिक नहीं हो सकती।
    • राज्य विधान सभा को राष्ट्रपति द्वारा भंग किया जा सकता है।
    • चुनौती मिलने पर सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति शासन लगाने की समीक्षा कर सकता है।

अनुच्छेद 356 की आलोचनाएँ:

  • दुरुपयोग: ऐसे उदाहरण हैं जहां राजनीतिक कारणों से राष्ट्रपति शासन लागू किया गया है, जिससे राज्य की स्वायत्तता और संघवाद कमजोर हो गया है।
  • अलोकतांत्रिक: विधायिका और केंद्रीय नियंत्रण का निलंबन लोकतांत्रिक घाटे के बारे में चिंता पैदा करता है।
  • अप्रभावीता: अक्सर एक अस्थायी समाधान के रूप में देखा जाता है जो राज्य की समस्याओं के मूल कारणों का समाधान नहीं करता है।

वर्तमान परिदृश्य:

  • हाल के वर्षों में अनुच्छेद 356 के उपयोग में काफी गिरावट आई है, जो सहकारी संघवाद पर बढ़ते जोर को दर्शाता है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए सख्त दिशानिर्देश भी तय किए हैं।

यूपीएससी अभ्यर्थियों के लिए अनुच्छेद 356 से संबन्धित टॉपिक्स:

  • भारत में संघवाद और इसकी चुनौतियों की समझ का परीक्षण?
  • लोकतंत्र के लिए संभावित दुरुपयोग और निहितार्थ के गंभीर विश्लेषण की आवश्यकता ?
  • अनुच्छेद 356 पर सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों का परीक्षण करें।
  • राष्ट्रपति शासन के विशिष्ट उदाहरणों और उनके प्रभाव का विश्लेषण करें।
  • अनुच्छेद 356 में सुधार या यहां तक कि उसे समाप्त करने पर विभिन्न दृष्टिकोणों की तुलना करें और तुलना करें।

तो यही है अनुच्छेद 356, उम्मीद है आपको समझ में आया होगा। दूसरे अनुच्छेदों को समझने के लिए नीचे दिए गए लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

◾ राष्ट्रपति शासन और बोम्मई मामला (President Rule)
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Question 1: Under Article 356 of the Indian Constitution, the President can impose President’s Rule in a state if:

(a) The Chief Minister resigns from office.
(b) The ruling party loses its majority in the State Legislature.
(c) The Governor reports a failure of constitutional machinery in the state.
(d) Both (b) and (c).

Answer: (c) Explanation: Article 356 empowers the President to invoke President’s Rule only if the Governor of a state reports a failure of constitutional machinery, such as breakdown of law and order or inability to hold elections. Political events like loss of majority are not grounds for invocation.

Question 2: Which of the following is NOT a consequence of the imposition of President’s Rule in a state?

(a) Suspension of the State Legislature.
(b) Dismissal of the Council of Ministers.
(c) Dissolution of the State Legislative Assembly by the President.
(d) Assumption of administrative control by the Governor with the assistance of Central Government officials.

Answer: (d) Explanation: While the Governor takes over administration under President’s Rule, control rests with the President and Parliament. Advisors appointed by the President assist the Governor, not Central Government officials.

Question 3: One of the major criticisms of Article 356 is that it:

(a) Promotes cooperative federalism and strengthens state autonomy.
(b) Provides a swift and effective mechanism to address emergencies in states.
(c) Undermines state autonomy and allows for misuse by the Central Government for political gains.
(d) Has been frequently used despite stricter guidelines laid down by the Supreme Court.

Answer: (c) Explanation: A major criticism of Article 356 is the potential for misuse by the Central Government to topple state governments for political reasons, thereby undermining state autonomy and democratic principles.

Question 4: The safeguards against the misuse of Article 356 include:

(a) Mandatory requirement of prior approval by the Supreme Court.
(b) Need for a two-thirds majority in Parliament to approve its imposition.
(c) Parliamentary review and approval within two months of the proclamation.
(d) All of the above.

Answer: (c) Explanation: While the Supreme Court can review the invocation of President’s Rule after its imposition, there is no requirement for prior approval. However, Parliament’s approval within two months and its ability to extend or revoke President’s Rule act as important safeguards.

Question 5: In recent years, Article 356 has been invoked:

(a) More frequently due to increased political instability in states.
(b) Less frequently reflecting a shift towards cooperative federalism.
(c) Regularly without any significant changes in its application.
(d) Only by state governments requesting its imposition for administrative reasons.

Answer: (b) Explanation: There has been a significant decline in the use of Article 356 in recent years, indicating a move towards increased emphasis on cooperative federalism and respect for state autonomy.

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अनुच्छेद 357 – भारतीय संविधान
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Next and Previous to Article 356
भारतीय संविधान
संसद की बेसिक्स
मौलिक अधिकार बेसिक्स
भारत की न्यायिक व्यवस्था
भारत की कार्यपालिका
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अस्वीकरण – यहाँ प्रस्तुत अनुच्छेद और उसकी व्याख्या, मूल संविधान (उपलब्ध संस्करण), संविधान पर डी डी बसु की व्याख्या (मुख्य रूप से), प्रमुख पुस्तकें (एम. लक्ष्मीकान्त, सुभाष कश्यप, विद्युत चक्रवर्ती, प्रमोद अग्रवाल इत्यादि) एनसाइक्लोपीडिया, संबंधित मूल अधिनियम और संविधान के विभिन्न ज्ञाताओं (जिनके लेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर ऑडियो-विजुअल्स के रूप में उपलब्ध है) पर आधारित है। हमने बस इसे रोचक और आसानी से समझने योग्य बनाने का प्रयास किया है।