यह लेख अनुच्छेद 79 (Article 79) का यथारूप संकलन है। आप इसका हिन्दी और इंग्लिश दोनों अनुवाद पढ़ सकते हैं। आप इसे अच्छी तरह से समझ सके इसीलिए इसकी व्याख्या भी नीचे दी गई है आप उसे जरूर पढ़ें।

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Article 79
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📜 अनुच्छेद 79 (Article 79)

संसद
79. संसद का गठन — संघ के लिए एक संसद होगी जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी जिनके नाम राज्य सभा और लोक सभा होंगे।
—-अनुच्छेद 79—-

PARLIAMENT
79. Constitution of Parliament —There shall be a Parliament for the Union which shall consist of the President and two Houses to be known respectively as the Council of States and the House of the People.
Article 79

🔍 Article 79 Explanation in Hindi

अनुच्छेद 52 से लेकर 151 तक भारतीय संविधान के भाग 5 के तहत आता है। भाग 5 को 5 अध्यायों में बांटा गया है। इसी का दूसरा अध्याय है – संसद (Parliament)

संसद के तहत अनुच्छेद 79 से लेकर 122 तक आते हैं। और इस भाग के अंतर्गत संघ के संसद की चर्चा की गई है। जिसके तहत राष्ट्रपति (President), लोकसभा (Lok Sabha), एवं राज्यसभा (Rajya Sabha) आते हैं।

तो इस अध्याय के तहत आने वाले अनुच्छेदों में हम संसद (Parliament) को विस्तार से समझने वाले हैं। यहाँ यह याद रखिए कि संविधान के भाग 5 को संघ या The Union के नाम से भी जाना जाता है।

कुल मिलाकर संविधान के भाग 5 के अध्याय II अंतर्गत अनुच्छेद 79 से लेकर अनुच्छेद 122 तक आता है। इस लेख में हम अनुच्छेद 79 (Article 79) को समझने वाले हैं;

अनुच्छेद-52 – भारतीय संविधान
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| अनुच्छेद 79 – संसद का गठन

भारत की संसद भारत में सर्वोच्च विधायी निकाय है, जो राष्ट्रपति (President), राज्यसभा (राज्यों की परिषद) और लोकसभा (हाउस ऑफ पीपल) से मिलकर बनी है।

भारतीय संसद एक द्विसदनीय विधायिका (Bicameral legislature) है, जिसमें राज्यसभा (Rajya Sabha) ऊपरी सदन के रूप में और लोकसभा (Lok Sabha) निचले सदन के रूप में कार्य करती है।

संसद कानून बनाने, वित्तीय प्रणाली को विनियमित करने और सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है।

◾लोकसभा 545 सदस्यों से बनी है, जिसमें अभी फिलहाल 543 निर्वाचित सदस्य होते हैं। साल 2020 तक दो सीटें एंग्लो-इंडियंस के लिए आरक्षित होता था जिसे कि 104वें संविधान संशोधन अधिनियम की मदद से खत्म कर दिया गया।

◾दूसरी ओर, राज्य सभा में अधिकतम 250 सदस्य होते हैं, जिसमें 238 सदस्य राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की विधानसभाओं द्वारा चुने जाते हैं और 12 सदस्य भारत के राष्ट्रपति द्वारा नामित किए जाते हैं।

◾ अनुच्छेद 83 के अनुसार, लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है और हरेक 5 साल बाद वह भंग हो जाता है पर राज्यसभा कभी भंग नहीं होता है। अनुच्छेद 83(1) के अनुसार राज्यसभा का विघटन नहीं होगा, यानी कि ये एक निरंतर चलने वाली संस्था है।

◾ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के आधार पर इसके सांसदों का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है और व्यवस्था ये है कि प्रत्येक 2 वर्ष में एक तिहाई सदस्य सेवानिवृत हो जाता है।

इसीलिए हर 2 वर्ष में लगभग एक तिहाई सीटों के लिए चुनाव होता है। सेवानिवृत व्यक्ति जितनी बार चाहे उतनी बार चुनाव लड़ सकता है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनयित व्यक्ति अगर सेवानिवृत हुआ है तो उसे हर तीसरे वर्ष के शुरुआत में राष्ट्रपति द्वारा भरा जाता है।

◾ भारत के उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। राज्यसभा के सभापति का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है, जबकि राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है।

◾भारत की संसद भारतीय लोकतंत्र का एक आवश्यक स्तंभ है। यह लोगों के सर्वोत्तम हित में कानूनों का मसौदा तैयार करके और पारित करके देश के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

संसद एक प्रहरी के रूप में भी कार्य करती है, सरकारी गतिविधियों की छानबीन करती है और कार्यपालिका को जवाबदेह ठहराती है।

◾संसद के पास संघ सूची (union list) के भीतर किसी भी विषय पर कानून बनाने की शक्ति है, जिसमें रक्षा, विदेशी मामले, मुद्रा और बैंकिंग जैसे विषय शामिल हैं।

इसके पास समवर्ती सूची (Concurrent list) के विषयों पर कानून बनाने की भी शक्ति है, जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरण जैसे विषय शामिल हैं।

◾भारतीय संसद की अनूठी विशेषताओं में से एक इसका प्रश्नकाल है। इस घंटे के दौरान सांसद मंत्रियों से सवाल पूछ सकते हैं और उन्हें उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहरा सकते हैं। सरकार में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण उपकरण है।

◾संसद के पास संविधान का उल्लंघन करने के लिए भारत के राष्ट्रपति, भारत के उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और अन्य उच्च पदस्थ अधिकारियों पर महाभियोग चलाने की शक्ति भी है।

भारतीय संसद का इतिहास (History of Parliament):

भारतीय संसद का विकास एक आकर्षक कहानी है कि कैसे एक विविध और जटिल राष्ट्र ने शासन की एक लोकतांत्रिक प्रणाली विकसित की जो अपने लोगों की आकांक्षाओं और मूल्यों को दर्शाती है।

भारतीय संसद ने अपनी स्थापना के बाद से देश के बदलते राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को दर्शाते हुए कई बदलाव और सुधार किए हैं।

ब्रिटिश शासन काल के दौरान से आधुनिक भारतीय संसदीय व्यवस्था का उद्भव देखा जा सकता है। हालांकि ये बहुत ही धीरे-धीरे लगभग 100 सालों के दौरान विकसित हुआ। जिसे की नीचे देखा जा सकता है।

चार्टर अधिनियम 1833 – इसी अधिनियम के माध्यम से बंगाल के गवर्नर जनरल के स्थान पर भारत का गवर्नर जनरल की व्यवस्था शुरू की गई थी।

पिट्स इंडिया एक्ट 1784 द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद के सदस्यों को कम करके तीन कर दिया गया था, उसे फिर से बढ़ाकर 4 कर दिया गया।

हालांकि चौथे सदस्य के पास सीमित शक्तियाँ ही थीं। और ये चौथा सदस्य कोई और नहीं बल्कि लॉर्ड मैकाले ही था। पहली बार गवर्नर-जनरल की सरकार को भारत सरकार कहा गया और परिषद को भारत परिषद (इंडियन काउंसिल) कहा गया।

इसी इंडियन काउंसिल के कारण भारत में केंद्रीय विधानमंडल की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। इस काउंसिल में तीन सदस्य थे और ये विधि निर्माण के लिए अलग बैठक करते थे और प्रशासनिक कार्यों के लिए अलग बैठक। चौथे सदस्य के रूप में लॉर्ड मैकाले को शामिल किया गया था जो कि विधि विशेषज्ञ थे।

हालांकि ये आज की तरह नहीं था लेकिन फिर भी केन्द्रीय विधानमंडल की शुरुआत हो चुकी थी ऐसा तो कहा ही जा सकता था।

चार्टर अधिनियम 1853 – इस अधिनियम ने पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग-अलग कर दिया। और इसके साथ ही परिषद में छह नए पार्षद और जोड़े गए, जिसे कि विधान पार्षद (Legislative Councilor) कहा गया।

दूसरे शब्दों में, इसने गवर्नर जनरल के लिए नई विधान परिषद (legislative council) का गठन किया, जिसे भारतीय (केंद्रीय) विधान परिषद कहा गया। परिषद की इस शाखा ने छोटी संसद की तरह कार्य किया। इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गईं, जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थीं। (आज के संसद की नींव आप यहाँ से पड़ते देख सकते है)

  • इस अधिनियम के तहत विधि सदस्य (यानी कि चौथा सदस्य) को भी मतदान के अधिकार के साथ पूर्ण सदस्य बना दिया गया।

इस तरह से इस काउंसिल में गवर्नर जनरल को छोड़कर 10 सदस्य हो गया। बाद में इसमें कमांडर इन चीफ़ को भी शामिल कर लिया गया। इस नए काउंसिल के द्वारा उसी तरह काम करने की कोशिश की गई जैसे कि ब्रिटिश संसद में होता है।

इंडियन काउंसिल अधिनियम 1861 – ये अधिनियम इस मायने में खास है कि इसके तहत कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल किए जाने की शुरुआत हुई।

नोट – भारत शासन अधिनियम 1858 के द्वारा गवर्नर जनरल पद को खत्म करके वायसराय पद की शुरुआत की गई। यानी कि अब गवर्नर जनरल वायसराय कहलाने लगा।

दरअसल इस अधिनियम के तहत वायसराय को अपने काउंसिल में कम से कम 6 और ज्यादा से ज्यादा 12 सदस्य शामिल करने की छूट दी गई थी।

इसी के तहत उस समय के वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों – बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को काउंसिल में शामिल किया।

इस अधिनियम के तहत एक और खास बात ये हुआ कि तीन प्रांतीय विधान परिषदों का गठन किया गया। बंगाल में 1862 में, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में 1866 में और पंजाब में 1897 में।

कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि आज के राज्य विधानमंडल की नींव यहाँ पड़ चुकी थी। दूसरी बात कि इस काल खंड में (1885 में) काँग्रेस का भी गठन हुआ जिसका शुरुआती उदेश्य यही था कि प्रांतीय परिषदों की संख्या बढ़ें और उसमें भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ें। और वे अपने मकसद में कामयाब भी होते दिखे।

इंडियन काउंसिल अधिनियम 1892  जैसा कि काँग्रेस चाहता था; ये अधिनियम भारतीय प्रतिनिधित्व को विधान परिषदों में बढ़ाने के लिए लाया गया था।

इसके तहत ये व्यवस्था थी कि वायसराय की काउंसिल में 16 सदस्य तक शामिल किया जा सकता था। इसी के तहत वायसराय की काउंसिल में (यानी कि भारतीय विधान परिषद में) 5 सदस्य शामिल किए गए। जिसमें से 4 को प्रांतीय विधानपरिषदों से चुनकर भेजा गया और 1 को कलकत्ता वाणिज्य मंडल द्वारा।

हालांकि इस सब के बावजूद भी बहुमत सरकारी सदस्यों का ही होता था। यानी कि गैर-सरकारी सदस्य मिल कर भी ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे।

लेकिन फिर ये अधिनियम इस मायने में खास था कि सदस्यों को चुनने के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था को अपनाया गया और विधान परिषद के सदस्यों को प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।

इंडियन काउंसिल अधिनियम 1909  ये अधिनियम भी काँग्रेस द्वारा चलाये गए अभियानों का ही नतीजा है। इसके तहत विधान परिषद में सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। इसी तरह प्रांतीय विधान परिषद में भी सदस्यों की संख्या दोगुने से अधिक बढ़ा दिया गया।

हालांकि केन्द्रीय विधान परिषद में अब भी बहुमत सरकारी सदस्यों का ही था लेकिन प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्य भी बहुमत में आ सकते थे। साथ ही परिषद के सदस्यों के अधिकारों में भी वृद्धि की गई जैसे कि बजट पर मतदान करने का अधिकार, अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार आदि।

इस अधिनियम की सबसे खराब बात ये थी कि इसने चुनाव की व्यवस्था तो की लेकिन सांप्रदायिक आधार पर। यानी कि मुस्लिम प्रतिनिधि को मुसलमान ही चुन सकता है आदि।

भारत शासन अधिनियम 1919 – इस अधिनियम की सबसे बड़ी विशेषता ये थी इसके तहत केंद्र में द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया। एक था राज्य परिषद (जिसे कि आज हम राज्यसभा कहते हैं) और दूसरा था विधान सभा (जिसे आज हम लोकसभा कहते हैं)

राज्य परिषद में अधिकतम 60 सदस्य हो सकते थे जिसमें से सिर्फ 20 ही सरकारी सदस्य हो सकता था। विधान सभा में सदस्यों की संख्या 60 से बढ़ाकर अस्थायी रूप से 140 कर दी गई। जिसमें से 100 को चुनाव के माध्यम से चुना जाना था।

इस अधिनियम के तहत दो सूची बनाई गई और इस तरह से केंद्र और प्रांत के विधायी विषयों को पृथक कर दिया गया। (जैसा कि आज के व्यवस्था में होता है)

कुल मिलाकर इस अधिनियम से बहुत हद तक एक संसदीय व्यवस्था जैसी व्यवस्था आकार ले चुका था। क्योंकि अब केन्द्रीय बजट और प्रांतीय बजट भी अलग-अलग हो चुका था। सिविल सेवकों के लिए लोक सेवा आयोग का गठन किया गया आदि।

भारत शासन अधिनियम 1935  इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में एक संघीय व्यवस्था कायम करना था। इसके लिए इस अधिनियम द्वारा 6 प्रान्तों में द्विसदनीय व्यवस्था शुरू की गई। मताधिकार को आबादी के 10 प्रतिशत लोगों तक बढ़ा दिया गया।

केंद्र में वायसराय को सहायता और सलाह के लिए मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई। मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक कि स्थापना की गई। 1937 में एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई, आदि।

हालांकि इस अधिनियम के बहुत सारे प्रावधान कभी अस्तित्व में नहीं आ पाया। लेकिन इस अधिनियम के बहुत सारी अच्छी बातों को हमारे संविधान में शामिल किया गया है।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 – इस अधिनियम के तहत भारत में ब्रिटिश राज समाप्त हो गया और 15 अगस्त, 1947 से भारत एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बन गया। और 4 नवम्बर 1948 को संविधान का प्रारूप पेश करते हुए डॉ. बी आर अंबेडकर ने संसदीय शासन प्रणाली को अपनाने की बात कही।

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ और इस तरह से भारत एक संसदीय व्यवस्था वाला देश बन गया। 1951-52 में इस आधार पर पहली बार चुनाव हुआ और आज तक भारत उसी व्यवस्था के तहत चल रहा है।

विस्तार से समझें – भारत पर आज़ादी पूर्व के घटनाओं का प्रभाव [यूपीएससी]

भारतीय संसद के घटक

अनुच्छेद 79 के अनुसार, भारतीय संसद, देश का सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है जो अपने तीन घटकों के द्वारा संचालित (या गठित) होता है- राष्ट्रपति (President) और दो सदन—राज्यसभा (Rajya Sabha) एवं लोकसभा (Lok Sabha)

राष्ट्रपति (President) – राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रमुख है और अपने कार्यों का संचालन राष्ट्रपति भवन से करता है। ये संसद का एक अभिन्न अंग है और इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि संसद द्वारा पारित कोई भी विधेयक तब तक अधिनियम नहीं बनता है जब तक राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति न दे दें।

दूसरी बात ये कि कार्यपालिका जो कि संसद के ही बहुमत प्राप्त दल के कुछ सदस्य होते हैं; अपना सारा काम राष्ट्रपति के नाम पर ही करते हैं। [ज्यादा जानकारी के लिए – राष्ट्रपति↗️ पढ़ें या अनुच्छेद 52 से पढ़ना शुरू करें]

लोकसभा (Lok Sabha) – संसद के निचले सदन को लोकसभा कहा जाता है। इसकी चर्चा अनुच्छेद 81 में की गई है। इसके सदस्यों को जनता प्रत्यक्ष रूप से चुन कर भेजती है।

फिलहाल लोकसभा में 543 सीटें हैं। लोकसभा इस मायने में खास है कि सरकार यही बनाती है। [ज्यादा जानकारी के लिए लोकसभा↗️ पढ़ें]

राज्यसभा (Rajya Sabha) – संसद के ऊपरी सदन को राज्यसभा कहा जाता है। इसकी चर्चा अनुच्छेद 80 में की गई है। इसे बुद्धिजीवियों का सभा भी कहा जाता है क्योंकि आमतौर पर यहाँ ऐसे ही लोगों को भेजने की परंपरा है।

इसका चुनाव जनता सीधे नहीं करती है और ये निरंतर चलते रहने वाली सदन है। फिलहाल अभी इसमें 245 सीटें है। [ज्यादा जानकारी के लिए राज्यसभा↗️ पढ़ें]

[Article 79] समापन टिप्पणी

भारत की संसद एक महत्वपूर्ण संस्था है जो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसके सदस्य कानून बनाने, जवाबदेही सुनिश्चित करने और लोगों के हितों की रक्षा करने के लिए जिम्मेदार हैं।

भारतीय संसद देश के बदलते राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य को प्रतिबिंबित करने के लिए समय के साथ विकसित हुई है। भारतीय संसद एक जीवंत और गतिशील संस्था बनी हुई है जो लगातार विकसित हो रही है और राष्ट्र की आवश्यकताओं के अनुकूल है।

संसद उन लोगों के बैठने की जगह है जो जनता के किसी खास हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। संसद का मुख्य काम है कानून या विधि बनाना या फिर अप्रासंगिक एवं गैर-जरूरी क़ानूनों को खत्म करना या उसमें बदलाव करना; ताकि एक ऐसी व्यवस्था बनी रहे जो उस समय-काल के हिसाब से तर्कसंगत एवं न्यायसंगत हो।

भारतीय संसद पर टॉपिक वाइज़ लेख पहले से ही साइट पर उपलब्ध है। यहाँ से अब हम इसे अनुच्छेदवार (Article Wise) समझने वाले हैं।

तो यही है अनुच्छेद 79 (Article 79), उम्मीद है आपको समझ में आया होगा। दूसरे अनुच्छेदों को समझने के लिए नीचे दिए गए लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं।

अनुच्छेद-52 – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(क) – भारतीय संविधान
article 79
FAQ. अनुच्छेद 79 (Article 79) क्या है?

अनुच्छेद 79 के तहत भारतीय संघ के लिए एक संसद की व्यवस्था की गई है जो कि राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी जिनके नाम राज्य सभा और लोक सभा होंगे।
विस्तार से समझने के लिए लेख पढ़ें;

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अनुच्छेद 80
अनुच्छेद 78
⚫ Article 80
⚫ Article 78
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भारतीय संविधान
संसद की बेसिक्स
मौलिक अधिकार बेसिक्स
भारत की न्यायिक व्यवस्था
भारत की कार्यपालिका
——article 79——
अस्वीकरण – यहाँ प्रस्तुत अनुच्छेद और उसकी व्याख्या, मूल संविधान (नवीनतम संस्करण), संविधान पर डी डी बसु की व्याख्या (मुख्य रूप से), एनसाइक्लोपीडिया, संबंधित मूल अधिनियम और संविधान के विभिन्न ज्ञाताओं (जिनके लेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर ऑडियो-विजुअल्स के रूप में उपलब्ध है) पर आधारित है। हमने बस इसे रोचक और आसानी से समझने योग्य बनाने का प्रयास किया है।
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