इस लेख में हम संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे,
तो अच्छी तरह से समझने के लिए लेख को अंत तक जरूर पढ़ें और साथ ही इससे संबंधित अन्य लेखों को भी पढ़ें।

संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution)
संविधान की मूल संरचना को अच्छी तरह से समझने के लिए निम्नलिखित विषयों की समझ आवश्यक हो सकती है –
1. मूल अधिकार
2. विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया
3. राज्य के नीति निदेशक तत्व
4. संविधान संशोधन की प्रक्रिया यानी कि अनुच्छेद 368
5. मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव
संविधान की मूल संरचना की पृष्ठभूमि (Background of Basic Structure of the Constitution)
संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution) जैसे टर्म का इस्तेमाल संविधान में कहीं नहीं किया गया है, फिर भी केशवानन्द भारती मामले में दिये गए उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद ये बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। ऐसा कैसे हुआ? जो बातें संविधान में भी नहीं लिखा हुआ है वो आखिर आज इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गया?
* ये सब मूल अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व के बीच कुछ अंतर्विरोध (contradiction) की वजह से शुरू हुआ जो कि संविधान लागू होने के तुरंत बाद से ही दृष्टिगोचर होने लग गया था।
ये कोई छोटा-मोटा अंतर्विरोध नहीं था, जिससे कि नजर फेर लिया जाता। दरअसल आजादी के बाद हमने समाजवाद आधारित अर्थव्यवस्था पर चलना शुरू किया।
उस समय की स्थिति के अनुसार शायद ये व्यवस्था देश को सूट भी करता था क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर बहुत ज्यादा कुछ करने का स्कोप उस समय था नहीं। ऐसे में बहुत कुछ सरकार पर ही टिका था।
समाजवाद आधारित बहुत सारे प्रावधान नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा था। जब उसे लागू करने की कोशिश की गई तो कुछ संवैधानिक अंतर्विरोध (constitutional contradiction) सामने आने शुरू हुए। क्या था ये आइये इसे उदाहरण से समझते हैं –
उदाहरण 1
मूल अधिकार के अनुच्छेद 19 (1)(f) और अनुच्छेद 31 संपत्ति का अधिकार देता था, वहीं DPSP के अनुच्छेद 39 (खासकर के इसका क्लॉज़ b और c) संपत्तियों एवं संसाधनों के समतापूर्वक वितरण और धन के असंकेन्द्रण पर बल देता था। एक प्रकार से ये समाज आधारित असमानताओं को खत्म करके सभी को बराबर के स्तर पर लाने की बात करता था।
उस समय जमींदारी प्रथा का दौर था, एक-एक जमींदारों के पास सैकड़ों-हजारों बीघा जमीने हुआ करती थी। असमानता खत्म करने के लिए जरूरी था कि जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया जाये और उनकी कुछ ज़मीनों को आम आदमी को दे दिया जाए, या फिर उस जमीन पर ऐसे फैक्ट्रीयां, उद्योग-धंधे आदि लगाया जाये ताकि समाज के निचले तबके के लोगों को ऊपर लाया जा सकें।
राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 39 के हिसाब से तो ऐसा करना बिलकुल सही था, क्योंकि वह असमानता खत्म करने की ही तो बात करता है पर अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 जो कि संपत्ति का अधिकार देता है, इसके अनुसार संपत्ति एक मूल अधिकार था और इसे छीना नहीं जा सकता था। वो क्यूँ?
क्योंकि अनुच्छेद 13 के अनुसार ऐसा कर ही नहीं सकते। ये अनुच्छेद मूल अधिकारों को खत्म होने से रोकता है।
जबकि दूसरी तरफ अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन का अधिकार भी देता है। यानी कि आवश्यकतानुसार संविधान में कहीं भी संशोधन किया जा सकता था, जिससे कि जन-कल्याण के लिए सही प्रावधान संविधान में डाला जा सकता था
अब खुद ही सोचिए कि एक कानून तो वहीं चीज़ करने की इजाज़त देता है वहीं दूसरी ओर एक कानून वहीं चीज़ करने से भी रोकता है। तो है न कितना बड़ा अंतर्विरोध।
उदाहरण 2
इसी तरह एक और मामला है अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 जो कि समानता की बात करता है।
वहीं राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 46, अनुसूचित जाति, जनजाति और दुर्बल वर्गों के लोगों को समाज के मुख्य धारा में लाने के लिए उसके आर्थिक और शैक्षणिक हितों को प्रोत्साहन देने की बात करता है।
यहाँ फिर से एक अंतर्विरोध है – एक तरफ अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है तो वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 46 कुछ विशेष वर्गों के हित में, विशेष प्रकार की सुविधा या आरक्षण की बात करता है।
फिर से यहाँ भी एक समस्या आती है अगर समानता की रक्षा करेंगे तो निचले तबके के लोग कभी भी मुख्य धारा में नहीं आ पाएंगे और अगर आरक्षण देंगे तो फिर समानता नहीं बचेगा।
इसी के जुड़ा एक महत्वपूर्ण मामला है चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला जिसके तहत पहली बार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ये स्थापित किया गया कि मूल अधिकार और DPSP की रेस में मूल अधिकार ही जीतेगा।
चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला 1951
दरअसल मद्रास सरकार को लगा कि जब तक समाज के कुछ विशेष वर्ग को आरक्षण नहीं दिया जाएगा, तब तक वो समाज के मुख्य धारा में शामिल नहीं हो पाएगा इसीलिए मद्रास सरकार ने उन कुछ वर्गों के लिए मेडिकल कॉलेज के सीटों में आरक्षण की व्यवस्था कर दी।
चंपकम दोराइराजन एक ब्राह्मण लड़की थी और उसके लिए सीटें कम होने के वजह से उसका एड्मिशन नहीं हो पाया। तो उसने मद्रास उच्च न्यायालय में अपने मूल अधिकारों के हनन को लेकर एक याचिका दायर की।
चंपकम दोराइराजन का पक्ष
उन्होने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अनुच्छेद 15, 16 और 29(2) के तहत ऐसा नहीं किया जा सकता है। अनुच्छेद 29(2) में साफ-साफ कहा गया है कि राज्य निधि से सहायता प्राप्त किसी संस्था में किसी नागरिक को धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग एवं जन्मस्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा।
इस आर्गुमेंट के आधार पर तो ये बिल्कुल कहा जा सकता है कि सीटों का आरक्षण गलत था। लेकिन फिर सरकार के तरफ से भी आर्गुमेंट दिया गया।
सरकार का पक्ष
सरकार ने DPSP के अनुच्छेद 46 का हवाला देते हुए कहा कि चूंकि उसके आधार पर सीटों को आरक्षित किया जा सकता है इसीलिए किया गया। और अनुच्छेद 37 भी तो यहीं कहता है कि इसे लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।
जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो सुप्रीम कोर्ट के सामने यही सवाल था कि क्या DPSP के आधार पर मूल अधिकार के हनन को जायज ठहराया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समुदाय के आधार पर दिया गया आरक्षण मूल अधिकारों का हनन करता है इसीलिए राज्य एड्मिशन के मामले में जाति या धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर सकता है, क्योंकि इससे अनुच्छेद 16(2) और अनुच्छेद 29(2) का हनन होता है।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक और बड़ी बात कही कि जब भी कभी मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में टकराव होगा तो उस स्थिति में मूल अधिकार को ही प्रभावी माना जाएगा न कि DPSP को।
क्योंकि राज्य के नीति निदेशक तत्व को अगर लागू नहीं भी किया जाएगा तो ठीक है, वैसे भी उसे लागू करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन मूल अधिकार को बचाना सुप्रीम कोर्ट का एक अतिआवश्यक दायित्व है।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि मूल अधिकारों को संसद द्वारा संविधान संशोधन प्रक्रिया के माध्यम से संशोधित जरूर किया जा सकता है।
? जाहिर है राज्य का नीति निदेशक तत्व बाध्यकारी नहीं है, लेकिन मूल अधिकार तो है और सुप्रीम कोर्ट ने मूल अधिकार को ही प्राथमिकता दी। पर जब सब कुछ मूल अधिकार ही है तो फिर राज्य के नीति निदेशक तत्व की फिर जरूरत ही क्या है?
उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो कि एक समाजवादी नेता थे, समझ गए कि अगर समाज के वंचित तबके को मुख्य धारा में लाना है तो संविधान में संशोधन करके उसके कुछ प्रावधानों को हटाना ही पड़ेगा।
क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया तो सुप्रीम कोर्ट हर बार टांग अड़ाएगा और समाज के वंचित हमेशा वंचित ही रह जाएँगे। इस प्रकार 1951 में पंडित नेहरू ने संविधान का पहला संशोधन किया।
पहला संविधान संशोधन (First Amendment to the Constitution)
पंडित नेहरू ने 1951 में ही संविधान में पहला संशोधन करवाया जो कि कुछ इस प्रकार था –
अनुच्छेद 15 में एक नया क्लॉज़ 4 जोड़ दिया गया जिसमें लिखवा दिया गया कि अनुच्छेद 29(2) में चाहे कुछ भी क्यों न लिखा हो राज्य अगर चाहे तो सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों को या एससी और एसटी वर्ग के उत्थान के लिए कोई विशेष उपबंध बना सकता है।
दूसरा संशोधन अनुच्छेद 31 में किया गया। इसमें एक नया क्लॉज़ अनुच्छेद 31क जोड़ा गया जिसके माध्यम से जमींदारों एवं अन्य से लोक हित में जमीन अधिग्रहण करना आसान कर दिया गया।
इसके अलावा अनुच्छेद 31ख भी जोड़ा गया जिसके तहत नौवीं अनुसूची बनाया गया और लिखवा दिया गया कि अगर नौवीं अनुसूची में डाला गया कोई प्रावधान मूल अधिकारों का हनन भी करता है तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
इसीलिए 1951 का पहला संविधान संशोधन इतना महत्वपूर्ण बन गया क्योंकि इसने जमींदारी प्रथा को समाप्त करना यानी कि भूमि सुधार का रास्ता साफ कर दिया था।
नोट– भूमि सुधार कानून के अंतर्गत जमींदारी प्रथा उन्मूलन, भूमि अधिग्रहण आदि आते हैं।
इतना संशोधन करने के बाद अब हुआ ये कि एक तो जमींदारों की जमींदारी गयी, उसका बहुत सारा जमीन सरकार द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया। और वे लोग कोर्ट भी नहीं जा सकते थे क्योकि पहला संविधान संशोधन में ये साफ-साफ लिख दिया गया है कि इसको चुनौती नहीं दी जा सकती।
शंकरी प्रसाद बनाम भारतीय संघ का मामला 1951
क्योंकि अनुच्छेद 13 में साफ-साफ लिखा है कि मूल अधिकारों को कम करने वाली कोई भी विधि उतने मात्रा में खारिज हो जाएंगी, जितनी मात्रा में वे मूल अधिकारों का हनन करती है। इसीलिए अनुच्छेद 368 के आधार पर की गई संशोधन को असंवैधानिक माना जाना चाहिए।
जब इस पहले संविधान संशोधन के माध्यम से बहुत से जमींदारों की जमीने सरकार द्वारा अधिगृहीत किए जाने लगे तब बिहार के एक जमींदार शंकरी प्रसाद ने इस पहले संविधान संशोधन को इस आधार पर चुनौती दिया कि ये मूल अधिकारों का हनन करता है और पहला संविधान संशोधन ही गलत है।
क्योंकि सरकार ने अनुच्छेद 368 का प्रयोग करके मूल अधिकारों में संशोधन किया है और मूल अधिकारों को कम कर दिया है, जबकि अनुच्छेद 13 के हिसाब से ऐसा नहीं किया जा सकता क्योकि अनुच्छेद 13 में साफ-साफ लिखा है कि किसी भी स्थिति में मूल अधिकारों को कम या खत्म नहीं किया जा सकता।
पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में शंकरी प्रसाद के आर्ग्युमेंट को खारिज करते हुए कहा कि अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 दोनों अलग-अलग चीज़ें है और दोनों को एक दूसरे से रिलेट करना ठीक नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की शक्ति है, क्योंकि अनुच्छेद 13 में विधि शब्द का जिक्र है संविधान संशोधन शब्द का नहीं।
निर्णय भारत सरकार के पक्ष में गया। इस तरह पहली संविधान संशोधन से जमींदारी उन्मूलन का एक रास्ता खुल चुका था। धीरे-धीरे सभी राज्यों ने अपने-अपने राज्य में अपने-अपने हिसाब से भूमि सुधार कानून बनाया और इस प्रक्रिया को जारी रखा।
सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार का मामला 1965
जब 17वें संविधान संशोधन 1964 के माध्यम से राजस्थान में भी भूमि सुधार को लागू किया गया तो सज्जन सिंह ने भी उसी मसले को उठाया जो शंकरी प्रसाद ने उठाया था यानी कि अनुच्छेद 13 के आधार पर कोई भी हमसे हमारा मूल अधिकार छीन नहीं सकता।
(एक बात यहाँ याद रखिए कि संपत्ति का अधिकार अभी भी मूल अधिकारों का हिस्सा था बस उसके शक्तियों को कम कर दिया गया था। 1978 में मोरार जी देशाई की सरकार ने इसे मूल अधिकार से हटा दिया और इसे एक सामान्य कानून बना दिया।)
सुप्रीम कोर्ट ने सज्जन सिंह के मामले में भी वही फैसला सुनाया जो शंकरी प्रसाद के मामले में सुनाया गया था यानी कि अनुच्छेद 13 का कोई संबंध अनुच्छेद 368 से नहीं है।
इसके ठीक 2 साल बाद चीज़ें बिल्कुल पलट गयी। और जो हुआ उससे मामला थोड़ा बिगड़ गया।
गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार मामला 1967
1967 में गोलकनाथ मामले में इस पूरे प्रक्रम में एक ट्विस्ट आया। गोलकनाथ भी उसी मुद्दे को उठाया जो अब तक शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह उठा रहे थे पर साथ ही इसमें उन्होने 17वें संविधान को भी गलत ठहराया।
इस बार सुप्रीम कोर्ट का फैसला चौकाने वाला था। 11 जजों की बेंच ने 6:5 के बहुमत से फैसला सुनाया और पहले के सारे फैसलों को पलट दिया।
? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 13, अनुच्छेद 368 से मुक्त नहीं है और संसद अनुच्छेद 368 का उपयोग करके मूल अधिकारों में कटौती नहीं कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने आगे ये कहा कि अब तक जो भी कानून इस संबंध में बन चुके है, जिस किसी का भी जमीन छीना जा चुका है उसको तो वापस नहीं किया जा सकता लेकिन अब से ये कानून अवैध हैं और इसका इस्तेमाल अब और नहीं किया जा सकता।
इंदिरा गांधी सरकार और संविधान की मूल संरचना पर प्रगति
11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री के देहांत के पश्चात 24 जनवरी 1966 को इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनती हैं। मतलब ये कि जब गोलकनाथ का फैसला आया था तब इंदिरा गांधी की सरकार थी। हालांकि वो काफी कमजोर स्थिति में थी।
1971 के चुनाव में इन्दिरा गांधी जब पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आई तो सबसे पहले उन्होने इसी को निपटाया। कैसे?
गोलकनाथ जजमेंट को पलटना
इन्दिरा गांधी ने संविधान में 24वां संविधान संशोधन करके गोलकनाथ मामले को पलट दिया।
सरकार ने 24वां संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 13 में संशोधन करके क्लॉज़ 4 जोड़ दिया और उसमें लिखवा दिया कि – इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के किसी संशोधन पर लागू नहीं होगी।
इसी तरह अनुच्छेद 368 में भी ये लिखवा दिया गया कि – संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद संविधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकती है।
इस तरह से गोलकनाथ मामले को शून्य किया गया और फिर से वही स्थिति लागू हो गई जो गोलकनाथ मामले 1967 से पहले था।
केशवानन्द भारती बनाम केरल सरकार मामला 1973
ये मामला भी भूमि अधिग्रहण से ही संबन्धित है। केरल के एक मठ के संचालक केशवानन्द भारती के मठ की भूमि का केरल भूमि सुधार (संशोधित) अधिनियम 1969 के तहत अधिग्रहण (Acquisition) कर लिया गया और इस कानून को 29वें संविधान संशोधन 1972 द्वारा 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया। आपको याद होगा कि पहले संविधान संशोधन की मदद से अनुच्छेद 31B के तहत नौवीं अनुसूची बनाया गया था ताकि इस तरह के संवैधानिक संशोधनों को न्यायालय में चुनौती न दी जा सके।
केशवानन्द भारती ने सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 32 के तहत याचिका डाली और उन्होने अनुच्छेद 25, 26, 14, 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत मिलने वाली मौलिक अधिकारों की रक्षा की मांग की।
इसके साथ ही उन्होने 24वें संविधान संशोधन एवं 25 वें संविधान संशोधन को भी इस मामले में शामिल किया और कहा कि इस संशोधन के माध्यम से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है, खासकर के अनुच्छेद 19(1)(f) के तहत मिलने वाली संपत्ति का अधिकार।
नोट – 24वां संशोधन तो गोलकनाथ के फैसले को पलटने के लिए था। 25वां संविधान संशोधन बैंक राष्ट्रीयकरण से जुड़ा है, इसे समझने के लिए दिये गए लिंक को क्लिक कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न
1. क्या अनुच्छेद 368 के तहत, संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित है? दूसरे शब्दों में, क्या संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है यहाँ तक सभी मौलिक अधिकारों को छीनने की सीमा तक भी संविधान के किसी भी हिस्से को बदल सकती है?
2. क्या 24वां और 25वां संविधान संशोधन वैध है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने (जो अब तक की सबसे बड़ी बेंच है) 24 अप्रैल 1973 को 7:6 के बहुमत से एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि –
1. 24वां और 25वां संविधान संशोधन पूरी तरह से सही है।
हालांकि 25वें संविधान संशोधन के माध्यम से जो अनुच्छेद 31ग में संशोधन किया गया था उसके दूसरे भाग (जिसमें ये बताया गया था कि उसके तहत बनाए गए नीति को न्यायालय में चैलेंज नहीं किया जा सकता है) को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके तहत न्यायालय ने कहा कि – न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और इसीलिए इसे छीना नहीं जा सकता है।
2. संसद, संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित कर सकती है चाहे वो मूल अधिकार ही क्यों न हो। लेकिन संसद को ये हमेशा याद रखना होगा कि संविधान संशोधन की शक्ति, संविधान को फिर से लिखने की शक्ति नहीं है।
तब सुप्रीम कोर्ट ने ‘संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution)‘ व्यवस्था को सबके सामने रखा।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि संसद अनुच्छेद 368 की मदद से संविधान में हर प्रकार का संशोधन कर सकता है पर संसद संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता।
क्या मूल ढांचा होगा और क्या नहीं, इसे सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर बताता रहेगा।
इस तरह से संविधान की मूल संरचना अस्तित्व में आया। इसने सुप्रीम कोर्ट को बेशुमार शक्तियाँ दी। अब हर कानून बनाने से पहले संसद को एक बार ये सोचना पड़ता है कि कहीं संविधान के मूल संरचना को ठेस तो नहीं पहुंचा है।
◾ अगर आपने विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया को समझ रखी है तो आप समझ रहे होंगे कि, विधि की सम्यक प्रक्रिया के अंतर्गत जो शक्तियाँ सुप्रीम कोर्ट को मिलती वहीं शक्तियाँ या कुछ मामलों में उससे भी ज्यादा शक्तियाँ ‘संविधान की मूल संरचना‘ के अंतर्गत ‘क़ानूनों की समीक्षा‘ करने की शक्ति से प्राप्त हो गयी है।
जनता को इससे फायदा ये है कि सुप्रीम कोर्ट की ये शक्ति सरकार को कभी भी तानाशाह नहीं बनने देंगी, परिणामस्वरूप लोकतंत्र और जनता का हित हमेशा सुरक्षित रहेगा।
संविधान की मूल संरचना के तत्व
1973 के बाद से अब तक सुप्रीम कोर्ट ने बहुत सारे मूल ढांचे के तत्व को सामने रखा है। जैसे कि –
? संविधान की सर्वोच्चता। यानी कि संसद अगर कोई ऐसा कानून बनाती है जो संविधान की सर्वोच्चता को खत्म करती हो तो सुप्रीम कोर्ट उस कानून को रद्द कर सकती है।
? भारतीय राजनीति की सार्वभौम, लोकतान्त्रिक तथा गणराज्यात्मक प्रकृति,
? कानून का शासन,
? सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा का अधिकार,
? संविधान का संघीय स्वरूप,
? समत्व का सिद्धान्त (Principle of equality),
? स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव,
? न्यायपालिका की स्वतंत्रता,
? वैयक्तिक गरिमा और स्वतंत्रता,
? अनुच्छेद 32, 136, 141 और 142 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट को प्राप्त शक्तियाँ, और
? अनुच्छेद 226 और 227 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को प्राप्त शक्तियाँ।
संविधान की मूल संरचना लिस्ट
नीचे दिये गए चार्ट की मदद से देख सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने कैसे-कैसे और किन-किन मामलों के तहत मूल संरचनाओं को स्थापित किया है।
केशवानन्द भारती मामला 1973 |
1. संविधान की सर्वोच्चता 2. विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच शक्तियों का बंटवारा 3. सरकार का लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक स्वरूप 4. संविधान का संघीय एवं संसदीय चरित्र 5. भारत की संप्रभुता एवं एकता 6. व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा |
इन्दिरा गांधी बनाम राजनारायन मामला 1975 |
1. स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव 2. व्यक्ति की प्रस्थिति एवं अवसर की समानता 3. न्यायिक समीक्षा |
मिनर्वा मिल्स मामला 1980 |
1. संसद की संविधान संशोधन करने की सीमित शक्ति 2. मौलिक अधिकारों एवं नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द एवं संतुलन 3. न्यायिक समीक्षा (यहाँ भी कहा गया) |
सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड मामला 1980 |
1. न्याय तक प्रभावी पहुँच |
भीमसिंह जी मामला 1981 |
1. कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय) |
एस. पी संपथ कुमार मामला 1987 |
1. कानून का शासन |
दिल्ली ज्यूडीशियल सर्विस एसोसिएशन मामला 1991 |
अनुच्छेद 32, 136, 141 तथा 142 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति |
इंद्रा साहनी मामला 1992 |
1. कानून का शासन |
कुमार पद्म प्रसाद मामला 1992 |
1. न्यायपालिका की स्वतंत्रता |
रघुनाथ राव मामला 1993 |
1. भारत की एकता एवं अखंडता 2. समानता का सिद्धान्त |
एस. आर. बोम्मई मामला 1994 |
1. संघवाद 2. धर्मनिरपेक्षता 3. लोकतंत्र 4. सामाजिक न्याय 5. राष्ट्र की एकता एवं अखंडता |
चन्द्रकुमार मामला 1997 |
1. उच्च न्यायालयों की अनुच्छेद 226 एवं 227 के अंतर्गत शक्तियाँ |
इंद्रा साहनी 2 मामला 2000 |
1. समानता का सिद्धांत |
ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन मामला 2002 |
1. स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली |
राम जेठमलानी मामला 2011 |
अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ |
उम्मीद है आपको ‘संविधान की मूल संरचना (Basic Structure of the Constitution)’ लेख समझ में आया होगा। विस्तार से सभी घटनाओं को समझने के लिए मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव को अवश्य पढ़ें, इसमें चंपकम दोराइराजन मामले से लेकर मिनर्वा मिल्स तक के मामले को कवर किया गया है।
संविधान की मूल संरचना Practice Quiz
Important links,
मूल संविधान भाग 3↗️ भाग 4↗️
Keshvananda Bharati v State of Kerala, (1973)
Kesavananda Bharati … vs State Of Kerala And Anr on 24 April, 1973
मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव