इस लेख में हम बिलकुल सरल और सहज भाषा में समझेंगे कि आजादी पूर्व के घटनाओं ने किस प्रकार भारत और भारतीय संविधान को रूप दिया। तो इस पूरे लेख को अंत तक जरूर पढ़ें, आशा है आपको बहुत कुछ नया समझने को मिलेगा।

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हमारे देश के संविधान का 70 प्रतिशत से अधिक हिस्सा भारत शासन अधिनियम 1935 से लिया गया है और इसके अलावा भी कई अन्य महत्वपूर्ण प्रावधान अमेरिका, रूस, आयरलैंड, दक्षिण अफ्रीका, जापान जर्मनी आदि जैसे देशों से लिया गया है।

भारत शासन अधिनियम 1935 में जो भी प्रावधान था वहाँ तक पहुँचने में सैंकड़ों वर्षों का समय लगा है। आप इस लेख को पढ़ के समझ पाएंगे कि किस तरह से व्यवस्थाएं रूप लेती है और किस प्रकार से आजादी पूर्व के घटनाओं ने भारतीय संविधान को रूप दिया;

भारत पर आज़ादी पूर्व के घटनाओं का प्रभाव

| आजादी पूर्व के घटनाओं ने किस प्रकार भारत और भारतीय संविधान को रूप दिया ?

जैसा कि हम जानते हैं भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आए अंग्रेजों ने जब 1764 की बक्सर की लड़ाई जीत ली तब उसे बंगाल, बिहार और उड़ीसा का दीवानी अधिकार प्राप्त हुआ।

यानी कि अब वो इस क्षेत्र के राजस्व एवं दीवानी न्याय से जुड़े गतिविधियों को अपने हिसाब से चला सकता था। और इस तरह से भारत पर कंपनी शासन प्रारंभ हुआ और उसने अपने नियम-कानून बनाने शुरू कर दिए।

कंपनी का शासन भारत पर 1857 तक चला और उसके बाद 1858 से साल 1947 तक शासन व्यवस्था कंपनी के पास से हटकर ताज (British Crown) के पास चला गया।

इन दोनों के ही शासनकाल में बहुत कुछ ऐसा घटा जिसने हमारे संविधान और राजतंत्र पर गहरा प्रभाव छोड़ा। कैसे क्या हुआ? आइये इसे क्रमवार (पहले कंपनी का शासन और फिर ताज का शासन) समझते हैं;

| कंपनी का शासन [ 1773 से 1858 तक ]

 East India Company’s factory at Cossimbazar img credit – wikimedia

| रेग्युलेटिंग एक्ट (Regulating Act) 1773

जैसा कि हमने ऊपर जाना, राजस्व और दीवानी न्याय का अधिकार मिलने के बाद कंपनी का पाँव सातवें आसमान पर था। ब्रिटिश सरकार के लिए यह एक अवसर की तरह था।

चूंकि कंपनी एक व्यापारिक निकाय था जिसके पास उस तरह से शासन चलाने का कोई एक्सपिरियन्स नहीं था। ऐसे में ब्रिटिश सरकार ने 1773 में रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में कदम उठाया।

और पहली बार कंपनी के प्रशासनिक और राजनैतिक कार्यों को मान्यता दिया। और इस तरह से भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गई।

इस एक्ट के द्वारा जो मुख्य काम किया गया वो कुछ इस तरह था;

1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का ‘गवर्नर जनरल‘ पद नाम दिया गया एवं उसकी सहायता के लिए. एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद (Executive Council) का गठन किया गया।

यहाँ आप इस बदलाव को याद रखें क्योंकि यही व्यवस्था आगे चलकर केंद्रीय विधान परिषद का रूप लेगा। वैसे पहला गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स था।

2. इसके द्वारा मद्रास एवं बंबई के गवर्नर, बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन हो गए, जबकि पहले सभी प्रेसिडेंसियों के गवर्नर एक-दूसरे से अलग थे।

3. इस एक्ट के अंतर्गत कलकत्ता में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे। भारत में आज जो न्यायालय व्यवस्था देखते हैं उसकी शुरुआत आप यहाँ से मान सकते हैं।

यह न्यायालय इतना शक्तिशाली था कि इसके निर्णय के विरुद्ध अपील सिर्फ इंग्लैंड स्थित प्रिवी काउंसिल (privy council) में की जा सकती थी। इस न्यायालय का प्रथम मुख्य न्यायाधीश सर एलिजा इंपे को बनाया गया।

प्रिवी काउंसिल (Privy Council) – आधिकारिक तौर पर महामहिम की सबसे माननीय प्रिवी काउंसिल, यूनाइटेड किंगडम के संप्रभु के सलाहकारों का एक औपचारिक निकाय है। इसकी सदस्यता में मुख्य रूप से वरिष्ठ राजनेता शामिल हैं जो हाउस ऑफ कॉमन्स या हाउस ऑफ लॉर्ड्स के वर्तमान या पूर्व सदस्य हैं।

 4. इस एक्ट के तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेने पर पाबंदी लगा दी गई।

कुल मिलाकर इस अधिनियम के द्वारा, ब्रिटिश सरकार का ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ (यानी कि कंपनी की गवर्निंग बॉडी) के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया। और इसके साथ ही कंपनी के लिए राजस्व, नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया।

1773 का ईस्ट इंडिया रेगुलेटिंग एक्ट और पिट्स इंडिया एक्ट, 1784 दोनों ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स पर शेयरधारकों की शक्तियों को सीमित कर दिया। उनका नियंत्रण नियंत्रण बोर्ड (control Board) नामक एक संसदीय समिति में स्थानांतरित कर दिया गया था। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स में 24 सदस्य थे, वे 4 साल के लिए व्यक्तिगत रूप से चुने गए थे।

1853 के चार्टर अधिनियम के तहत कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को समाप्त कर दिया गया था और सेवाएं अब एक प्रतियोगी परीक्षा के लिए खुली थीं।

वारेन हेस्टिंग्स के संबंध में याद रखने योग्य तथ्य

  • जिला कलेक्टर पद का सृजन लॉर्ड वारेन हेस्टिंस ने ही 1772 में किया था।
  • न्यायालय बनाने का श्रेय वारेन हेस्टिंग्स को ही दिया जाता है।

हालांकि उस समय तक आपराधिक और सिविल मामले आमतौर पर पर्सनल लॉ की मदद से सुलझाया जाता था। लेकिन 1772 के बाद पहली बार हिंदुओं के आपराधिक मामलों को न्यायालय व्यवस्था के तहत लाया गया। [मुस्लिमों को अपने ही आपराधिक पर्सनल लॉ (शरिया) के हिसाब से चलने दिया गया।]

1780 के बाद धीरे-धीरे आपराधिक मामलों में सभी (हिन्दू, मुस्लिम और अन्य) को लाया गया। लेकिन सिविल मामलों को अभी भी पर्सनल लॉ के हिसाब से चलाने की छूट दी गई।

[विस्तार से समझें – जिला एवं सत्र न्यायालय और सिविल और आपराधिक मामलों में अंतर]

| 1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

लगभग 10 वर्षों तक रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत शासन व्यवस्था चलने के बाद 1784 में एक और एक्ट लाया गया जिसका नाम था पिट्स इंडिया एक्ट। यह एक्ट रेग्युलेटिंग एक्ट 1773 के कमियों को दूर करने के लिए लाया था। इसके तहत जो मुख्य बाते कही गई वो कुछ इस प्रकार है;

1. इस एक्ट के तहत कंपनी के राजनीतिक (Political) और वाणिज्यिक (commercial) कार्यों को अलग-अलग कर दिया गया। यानी कि कंपनी के व्यापारिक कार्यों को शासन व्यवस्था से अलग कर दिया गया।

शासन व्यवस्था के मामलों के प्रबंधन के लिए, नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) नाम से एक नए निकाय का गठन कर दिया गया। जिसमें 6 सदस्य थे।

जबकि व्यापारिक मामलों का प्रबंधन निदेशक मंडल (कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स) करता रहा।

इस तरह से, द्वैध शासन व्यवस्था (diarchy) का शुभारंभ हुआ। इसे आप आज के शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) से जोड़कर देख सकते हैं। धीरे-धीरे ये व्यवस्था अपना रूप ग्रहण करती चली जाएगी।

2. नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) को यह शक्ति थी कि वह ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक, सैन्य सरकारराजस्व गतिविधियों का अधीक्षण एवं नियंत्रण करे।

3. गवर्नर-जनरल की परिषद की शक्ति को घटाकर (जो पहले चार था) तीन सदस्य कर दिया गया। तीन में से एक भारत में ब्रिटिश क्राउन की सेना का कमांडर-इन-चीफ था।

कुल मिलाकर यह एक्ट ब्रिटिश सरकार के लिए इसलिए महत्वपूर्ण साबित हुआ, क्योंकि  भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्र को पहली बार “ब्रिटिश आधिपत्य का क्षेत्र (British possessions)’ कहा गया; ऐसा इसीलिए क्योंकि इस एक्ट के द्वारा ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया था।

| चार्टर अधिनियम का दौर

1793 से चार्टर अधिनियम का दौर चलता है जो कि 1853 तक चलता है। 1793 के चार्टर की बात करें तो ये इस मायने में खास था कि भारत में कंपनी के व्यापारिक अधिकार को अगले 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया। और गवर्नर जनरल या गवर्नर बनने के लिए भारत में कम से कम 12 वर्षों तक रहना अनिवार्य कर दिया गया।

| 1813 का चार्टर अधिनियम

इसी तरह से 1813 के चार्टर अधिनियम की बात करें तो इसकी मुख्य बातें कुछ इस प्रकार है,

(1) इसके तहत भी कंपनी के व्यापारिक अधिकार को 20 और वर्षों तक के लिए विस्तारित कर दिया गया।

(2) चाय और चीनी पर कंपनी के एकाधिकार को छोड़कर बाकी सारे वस्तुओं पर से कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। इसका सीधा सा मतलब ये था कि अब दूसरी कंपनियाँ भी भारत में व्यापार को आ सकती थी।

(3) इसी चार्टर के तहत भारत में ईसाई मिशनरियों को धर्म-प्रचार की अनुमति दी गई।

कुल मिलाकर आप चार्टर अधिनियम में आगे जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे आप गौर करेंगे कि किस तरह से ब्रिटिश क्राउन, कंपनी के एकाधिकार को खत्म करके खुद से उसे रिप्लेस करने की कोशिश करती है।

| 1833 का चार्टर अधिनियम

1833 का चार्टर अधिनियम बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके तहत बहुत सारे महत्वपूर्ण बदलाव हुए,

1833 तक आते-आते लगभग पूरा भारत ब्रिटिश सरकार या यूं कहें कि कंपनी के अधिकार क्षेत्र में आ चुका था। ऐसे में अब वो समय आ चुका था जब केंद्रीयकरण (centralization) की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता था। और यही किया भी गया।

1833 का चार्टर अधिनियम इसी को ध्यान में रखकर लाया गया था। इसे आप आज के केंद्रीयकृत सरकार से जोड़कर देख सकते है। इसके तहत जो मुख्य व्यवस्थाएं लायी गई वो कुछ इस प्रकार है ;

1. इस अधिनियम ने तहत बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, जिसमें कि सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थीं। और इस तरह से एक ऐसे सरकार का गठन किया गया जिसका ब्रिटिश कब्जे वाले संपूर्ण भारतीय क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण था।

भारत के गवर्नर जनरल के पास कितनी शक्तियां आ गई इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि मद्रास और बंबई के गवर्नरों को जो पहले विधायिका संबंधी शक्ति (legislative power) प्राप्त थी उसे उससे छीन लिया गया और उसे भारत के गवर्नर जनरल को दे दिया गया।

यानी कि भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये। लॉर्ड विलियम बैंटिक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने।

2. इस एक्ट के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी की एक व्यापारिक निकाय के रूप में की जाने वाली गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया और इसे विशुद्ध रूप से प्रशासनिक निकाय बना दिया गया।

कहने का अर्थ ये है कंपनी अब वो कंपनी नहीं रहा जो व्यापार करने आया था बल्कि अब ये एक शासक वर्ग बन गया। 1813 में जो कंपनी को चाय एवं चीनी पर व्यापार को एकाधिकार मिला था उसे भी इस अधिनियम से समाप्त कर दिया गया।

3. इस एक्ट के तहत और एक महत्वपूर्ण काम जो शुरू किया गया वो था सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता का आयोजन शुरू करने का प्रयास। यानि कि यह पहला अधिनियम था जिसने भारतीयों को देश के प्रशासन में हिस्सा लेने की अनुमति दी।

वर्तमान में जो प्रतियोगिता आधारित हमारी सिविल सेवा व्यवस्था है इसकी शुरुआत आप यहाँ से मान सकते हैं। हालांकि कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण इस प्रावधान को उस समय समाप्त कर दिया गया, लेकिन 1853 के चार्टर अधिनियम से इसे फिर से शुरू किया गया।

4. इस अधिनियम के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया कि कंपनी के प्रदेशों में रहने वाले किसी भी भारतीय को केवल धर्म, वंश, रंग या जन्मस्थान इत्यादि के आधार पर कंपनी के किसी पद से, जिसके वह योग्य हो, वंचित नहीं किया जाएगा। [आज हम इसी चीज़ को अनुच्छेद 16 में देख सकते हैं जो कि एक मौलिक अधिकार है]

इस चार्टर के तहत दो-तीन महत्वपूर्ण काम हुआ था, वो था;

(1) विधि आयोग (law commission) का गठन; जिसका काम था विधियों का संहिताकरण (codification) करना। लॉर्ड मैकाले प्रथम अध्यक्ष थे।

विधि आयोग इसीलिए खास है क्योंकि पहली बार इसी आयोग ने भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code – IPC) और Criminal Procedure Code (आपराधिक प्रक्रिया संहिता) की सिफ़ारिश की थी।

हालांकि IPC को 1860 में लागू किया गया और CrPC को 1861 में। भारत को आजादी मिलने के बाद से IPC आज भी चल रहा है और CrPC की बात करें तो उसे 1973 में फिर से लागू किया गया।

इसके बाद तीन और विधि आयोग (law commissions) को बनाया गया। जिसने कुछ ऐसी विधियाँ बनाई जो कि आज भी अस्तित्व में है। इन सभी की चर्चा आगे की गई है।]

यहाँ पर एक और बात समझने योग्य है कि भारत में बने किसी भी कानून को अब ब्रिटिश संसद के समक्ष रखा जाना था और इसे ‘अधिनियम (Act)’ कहा जाना था। आज भी हम संसद से पारित होने वाले कानून को अधिनियम या एक्ट ही कहते हैं।

  • इस अधिनियम ने देश के ब्रिटिश उपनिवेशीकरण (colonization) को वैध कर दिया।

(2) इस चार्टर के तहत एक बात कही गई की किसी भी भारतीय को जो कंपनी में किसी पद पर काम करने के लिए योग्य है उसे केवल धर्म, वंश, जनस्थान एवं रंग के आधार पर काम करने से वंचित नहीं किया जाएगा।

आपने अगर भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार के तहत आने वाले अनुच्छेद 16 को पढ़ा है तो आप दोनों में समानता देख सकते हैं। हालांकि इस चार्टर में जितना कहा गया उतना कभी हुआ नहीं।

(3) पिट्स इंडिया एक्ट 1784 द्वारा गवर्नर जनरल की परिषद के सदस्यों को कम करके तीन कर दिया गया था, उसे फिर से बढ़ाकर 4 कर दिया गया।

  • हालांकि चौथे सदस्य के पास सीमित शक्तियाँ ही थीं। और ये चौथा सदस्य कोई और नहीं बल्कि लॉर्ड मैकाले ही था।
  • पहली बार गवर्नर-जनरल की सरकार को भारत सरकार कहा गया और परिषद को भारत परिषद कहा गया।

| 1853 का चार्टर अधिनियम

1853 तक आते-आते कंपनी के प्रति लोगों में अविश्वास और विरोध की भावना घर कर चुकी थी इसिलिए 1793 से 1853 के दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियमों की श्रृंखला में यह अंतिम अधिनियम साबित हुई।

यह अंतिम इसीलिए था क्योंकि 1857 में क्रांति हो गई और फ़िर कंपनी का राज पूरी तरह से खत्म हो गया। फ़िर भी यह अधिनियम कुछ मायनों में बहुत खास था, क्या था वो? आइये देखते हैं;

1. इस अधिनियम ने पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग-अलग कर दिया। और इसके साथ ही परिषद में छह नए पार्षद और जोड़े गए, जिसे कि विधान पार्षद (Legislative Councilor) कहा गया।

दूसरे शब्दों में, इसने गवर्नर जनरल के लिए नई विधान परिषद (legislative council) का गठन किया, जिसे भारतीय (केंद्रीय) विधान परिषद कहा गया। परिषद की इस शाखा ने छोटी संसद की तरह कार्य किया। इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गईं, जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थीं। (आज के संसद की नींव आप यहाँ से पड़ते देख सकते है)

  • विधि सदस्य (यानी कि चौथा सदस्य) को भी मतदान के अधिकार के साथ पूर्ण सदस्य बना दिया गया।

आपको ये याद होगा कि किस तरह से 1833 में भारत के गवर्नर जनरल को सारी विधायी शक्तियाँ दे दी गई थी। लेकिन यहाँ पर प्रशासनिक कार्यों को उससे अलग कर दिया गया।

कुल मिलाकर यहाँ से आप शासन और प्रशासन को अलग-अलग होते हुए देख सकते हैं जो कि आज भी हम अपने शासन व्यवस्था में देख सकते हैं।

 2. इसने सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का शुभारंभ किया जो कि 1833 में बंद कर दिया गया था। इसके पीछे श्रीमान मैकाले ने अपनी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

  • 1854 की मैकाले समिति ने भारत को उसकी पहली सिविल सेवा प्रदान की। नियुक्ति केवल योग्यता के आधार पर खुली प्रतियोगिता द्वारा की जानी थी और सभी के लिए खुली थी।

3. इस अधिनियम ने पहली बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया। गवर्नर-जनरल की परिषद में छह नए सदस्यों में से, चार का चुनाव बंगाल, मद्रास, बंबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था। स्थानीय प्रतिनिधित्व को आगे आप और भी बढ़ते हुए देखेंगे और साथ ही विकेन्द्रीकरण को भी।

कुल मिलाकर

  • इसने पिछले चार्टर अधिनियमों के विपरीत कंपनी के शासन को अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया। इस प्रकार, यह किसी भी समय ब्रिटिश सरकार द्वारा अधिग्रहित किया जा सकता था।
  • इस अधिनियम से कंपनी का प्रभाव और कम हो गया। निदेशक मंडल में अब 6 सदस्य थे जो ब्रिटिश क्राउन द्वारा नामित थे।
  • इसने भारतीय सिविल सेवाओं को जन्म दिया और भारतीयों सहित सभी के लिए खुला था। इसने सिफारिश द्वारा नियुक्तियों की प्रणाली को समाप्त कर दिया और खुली और निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा की व्यवस्था शुरू की।
  • पहली बार, बंगाल, बंबई, मद्रास और उत्तर पश्चिमी प्रांतों की स्थानीय सरकारों से चार सदस्यों के रूप में विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व पेश किया गया।
  • साल 1853 में ही सर जॉन रोमिली की अध्यक्षता में दूसरे विधि आयोग का गठन किया गया था। और इन्होने ही अपनी रिपोर्ट में Code of Civil Procedure (CPC) या सिविल प्रक्रिया संहिता की सिफ़ारिश की।
  • साल 1861 में तीसरे विधि आयोग का गठन किया गया और इसकी भी अध्यक्षता जॉन रोमिली ने किया। IPC, CrPC और CPC तीनों इनकी अध्यक्षता में ही अस्तित्व में आया।

| ताज का शासन [1858 से 1947 तक]

भारत
image credit – wikimedia

जैसे कि हमने ऊपर भी चर्चा की है 1857 में एक बहुत बड़ी क्रांति हुई थी जिसे कि महान क्रांति भी कहा जाता है। इस क्रांति के कारण बहुत कुछ बदल गया। ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त हो गया, राजस्व संबंधी शक्तियां ब्रिटिश राजशाही को हस्तांतरित कर दिया गया और सीधे ताज (महारानी  विक्टोरिया) का शासन शुरू हुआ।

भारत शासन अधिनियम 1858 इसी की परिणति थी। आइये समझते हैं कि इस अधिनियम से क्या-क्या बदलाव आए;

| भारत शासन अधिनियम 1858 (Government of India Act 1858)

1. भारत के गवर्नर जनरल का पदनाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया। ये वायसराय कोई और नहीं बल्कि ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि था। यानी कि ब्रिटिश ताज वायसराय की मदद से सीधे भारत का शासन चलाने लगा। लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने।

2. चूंकि अब ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त हो चुका था इसीलिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल और कोर्ट ऑफ डाइरेक्टरर्स को भी समाप्त कर दिया गया। और इस तरह से पिट्स इंडिया एक्ट 1784 के तहत जो द्वैध शासन व्यवस्था शुरू हुआ था वो यहाँ पर खत्म हो गया।

लेकिन कंट्रोलिंग और निगरानी के लिए एक संस्था की तो जरूरत पड़ने वाली थी इसके लिए एक नई एजेंसी की स्थापना की गई। एक नए पद, भारत के राज्य सचिव (Secretary of State), का सृजन किया गया; जिसमें भारतीय प्रशासन पर संपूर्ण नियंत्रण की शक्ति निहित थी। यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और ब्रिटिश अंततः संसद के प्रति उत्तरदायी था।

यह सचिव अकेले नहीं था बल्कि इस भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया, जो एक सलाहकार समिति थी। परिषद का अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया।

  • राज्य सचिव के माध्यम से, ब्रिटिश संसद भारतीय मामलों के संबंध में प्रश्न पूछ सकती थी।

कुल मिलाकर 1858 के कानून का प्रमुख उद्देश्य, प्रशासनिक मशीनरी में सुधार था, ताकि इंग्लैंड में भारतीय सरकार का अधीक्षण और उसका नियंत्रण हो सके।

यहाँ पर ये याद रखिए कि इस अधिनियम से भारत में प्रचलित शासन प्रणाली में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया।

यानी कि शासन व्यवस्था लगभग पुरानी व्यवस्था जो चार्टर अधिनियम द्वारा स्थापित हुआ था; के आधार पर ही चलता रहा। जो कि नाकाफ़ी साबित हुआ इसीलिए 1861, 1892 और 1909 में इसमें काफी परिवर्तन लाया गया; क्या परिवर्तन लाया गया आइये समझते हैं:-

| 1861 का भारत परिषद अधिनियम

दरअसल 1857 की महान क्रांति ने ब्रिटिश सरकार को ये एहसास करा दिया कि अगर शासन व्यवस्था में भारतीयों का सहयोग नहीं मिला तो शासन व्यवस्था चलाना बहुत मुश्किल हो सकता है। अंग्रेजों के इसी परेशानी का नतीजा था 1861, 1892 और 1909 का भारत परिषद अधिनियम (Indian Councils Act – 1861)।

1861 के भारत परिषद अधिनियम के तहत कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए, जो कि कुछ इस प्रकार था;

1. इस अधिनियम के द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत की गई। 1862 में ही लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों – बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधान परिषद में मनोनीत किया।

2. इस अधिनियम ने मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों को विधायी शक्तियां पुनः देकर विकेंद्रीकरण (Decentralisation) की प्रक्रिया की शुरुआत की। ये विकेन्द्रीकरण की प्रक्रिया का शुरुआत इसीलिए था क्योंकि 1833 के चार्टर अधिनियम के द्वारा सारी विधायी शक्तियों को भारत के गवर्नर जनरल में समेट दिया गया था।

लेकिन इस अधिनियम के द्वारा मद्रास और बंबई को विधायी शक्तियाँ तो दिया ही गया साथ ही बंगाल, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और पंजाब में क्रमशः 1862, 1866 और 1897 में विधानपरिषदों का गठन हुआ। यहाँ से आप आगे धीरे-धीरे देखेंगे कि किस कदर विकेन्द्रीकरण और बढ़ता गया।

3. इस अधिनियम ने वायसराय को आपातकाल में बिना परिषद (काउंसिल) की संस्तुति के अध्यादेश (Ordinance) जारी करने की शक्ति दी। ऐसे अध्यादेश की अवधि मात्र छह माह होती थी।

  • अध्यादेश जारी करने की शक्ति कितनी महत्वपूर्ण थी इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि आज भी हमारे राष्ट्रपति के पास अध्यादेश जारी करने की शक्ति होती है।

4. गवर्नर जनरल की विधान परिषद (legislative council) की संख्या में वृद्धि की गई। अब इस परिषद में कम से कम 6 तथा अधिकतम 12 सदस्य हो सकते थे। हालांकि वायसराय के पास यदि आवश्यक हो तो परिषद को रद्द करने की शक्ति थी।

कुल मिलाकर ये कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान था जो कि 1861 के परिषद अधिनियम के माध्यम से लाया गया, इसे और भी विस्तार दिया गया 1892 के भारत परिषद अधिनियम के तहत।

| 1892 का भारत परिषद अधिनियम

1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) का गठन किया गया था। और इसने विधान परिषदों में सुधार की मांग उठानी शुरू की। इसके अलावा कांग्रेस वित्तीय मामलों पर चर्चा करने का अधिकार भी चाहती थी जिसकी अब तक अनुमति नहीं थी।

Indian Council Act 1892 के माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैर-सरकारी) सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई, हालांकि बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था।

  • केंद्रीय विधान परिषद में 10 – 16 सदस्य तक रखने की अनुमति दी गई।
  • बंगाल में: 20 सदस्य
  • मद्रास में 20 सदस्य
  • बम्बई में 8 सदस्य
  • अवध में 15 सदस्य
  • उत्तर पश्चिमी प्रांत में 15 सदस्य

केन्द्रीय विधान परिषद में गैर-सरकारी सदस्यों को मनोनीत करने की शक्ति वायसराय के पास थी जबकि प्रांतीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति की शक्ति राज्यपाल को दी गई।

  • हालांकि राज्यपाल ये काम जिला परिषद, नगरपालिका, विश्वविद्यालय, व्यापार संघ, जमींदारों और चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स की सिफारिशों पर कर सकता था।

इसके साथ ही इस अधिनियम के द्वारा परिषद के कार्यों में भी वृद्धि की गई और उन्हे बजट पर प्रश्न करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने की शक्ति भी दी गई। लेकिन इसके लिए उन्हें 6 दिनों का नोटिस देना पड़ता था। हालांकि वे पूरक प्रश्न (supplementary question) नहीं पूछ सकते थे।

कुल मिलाकर – इस अधिनियम की जो खास बात थी वो ये थी कि इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों दोनों में गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सीमित और अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया हालांकि चुनाव शब्द का अधिनियम में प्रयोग नहीं हुआ था।

ऐसा इसीलिए क्योंकि ये पूर्णतः चुनावी व्यवस्था नहीं था, जिला परिषद, नगरपालिका या विश्वविद्यालय द्वारा कुछ लोगों को शॉर्ट लिस्ट किया जाता था और राज्यपाल इसमें से अपने पसंद की व्यक्ति को चुनता था। लेकिन फ़िर भी इसे चुनाव की शुरुआती अवस्था या उसकी सुगबुगाहट कह सकते है। क्योंकि अगले भारत परिषद अधिनियम में इसे पूरी तरह से स्थापित कर दिया गया। जो कि हम आगे पढ़ने वाले है।

| 1909 का भारत परिषद अधिनियम

Indian council act 1909 को मॉर्ले-मिंटो सुधार के सुधार के नाम से भी जाना जाता है। (यहाँ ये याद रखिए कि उस समय लॉर्ड मॉले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिंटो भारत में वायसराय थे)। यह अधिनियम सर अरुंडेल कमिटी के रिपोर्ट पर आधारित था।

इसने पहली बार चुनाव की पद्धति की शुरुआत की, और विधान परिषदों का दायरा बढ़ाने का काम हुआ।

ये अधिनियम काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके तहत कई नए बदलाव सामने लाये गए। जो कि कुछ इस प्रकार है;

1. इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय और प्रांतीय विधानपरिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय परिषद में इनकी संख्या 16 से 60 तक कर दी गई। प्रांतीय विधानपरिषदों में इनकी संख्या एक समान नहीं थी।

हालांकि इसके बावजूद भी केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा गया लेकिन प्रांतीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति दे दी गई।

इस सबके अलावा विधान परिषदों के चर्चा कार्यों का दायरा और बढ़ाया गया। जहां पहले पार्षद बजट पर प्रश्न पूछ सकते थे अब वे बजट पर संकल्प रख सकते थे। कहने का अर्थ है की अब सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने, बजट पर प्रस्ताव पेश करने आदि की अनुमति थी।

2. इस अधिनियम के तहत पृथक्‌ निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया। इसके अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इसीलिए लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना जाता है।

इस व्यवस्था से अंग्रेजों को काफी फायदा मिला क्योंकि इससे उसके फूट डालो की नीति को बूस्ट मिला पर भारतीयों के नजरिये से जो इसमें अच्छा था वो था चुनावी व्यवस्था का विस्तारीकरण।

इसके तहत मुस्लिमों को तो अलग से प्रतिनिधित्व का व्यवस्था दे ही दिया गया साथ ही इसने प्रेसिडेंसी कॉरपोरेशन, चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया।

3. इसने वायसराय और गवर्नरों की कार्यकारी परिषदों के साथ भारतीयों के सहयोग के लिए (पहली बार) प्रयास किया। सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यकारी परिषद में शामिल होने वाले पहले भारतीय बने। उन्हें कानून सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया था। दो भारतीयों को भारतीय मामलों के राज्य सचिव की परिषद में नामित किया गया था।

इस अधिनियम के बाद भारत शासन अधिनियम 1919 आता है जो कि बहुत ही व्यापक था। आइये इसके महत्वपूर्ण प्रावधानों को देखते हैं;

| भारत शासन अधिनियम, 1919

Government of India Act, 1919 को मोंटेग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है (मोंटेग्यु भारत के राज्य सचिव थे, जबकि चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे)। इस अधिनियम की कुछ बातें ऐसी है जो आज अपने उच्चतम स्वरूप में है। क्या है वो? आइये देखते हैं;

1. इस अधिनियम के द्वारा केंद्रीय और प्रांतीय विषयों की सूची की पहचान कर उसे अलग किया गया एवं केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों को, अपनी-अपनी सूचियों के विषयों पर विधान बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।

  • ये व्यवस्था आज संघीय व्यवस्था की पहचान बन गई है लेकिन ये याद रखिए कि उस समय सरकार एकात्मक था संघीय नहीं।

इसके अलावा इस अधिनियम के तहत प्रांतीय विषयों को पुनः दो भागों में विभक्त किया – हस्तांतरित (transferred) और आरक्षित (reserved)।  

हस्तांतरित विषयों पर गवर्नर का शासन होता था और ये शासन वो उन मंत्रियों की सहायता से करता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर भी अंतिम रूप से गवर्नर ही शासन करता था लेकिन ये शासन वो कार्यपालिका परिषद की सहायता से करता था, जो कि विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थी।

शासन की इस दोहरी व्यवस्था को द्वैध-शासन व्यवस्था (diarchy) कहा गया। हालांकि यह व्यवस्था काफी हद तक असफल ही रही।

 2. इस अधिनियम ने पहली बार देश में ट्विसदनीय व्यवस्था (bicameralism) और प्रत्यक्ष निर्वाचन (Direct election) की व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था यानी राज्यसभा और लोकसभा का गठन किया गया। लोकसभा में 145 सदस्य थे जबकि राज्यसभा में 60 सदस्य।

इसकी सबसे खास बात ये थी कि दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से निर्वाचित किया जाता था। और इस कानून के तहत संपत्ति, कर या शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों को मताधिकार प्रदान किया।

  • अब आप समझ रहे होंगे कि आज का लोकसभा और राज्यसभा कहा से आया है और आज की मतदान व्यवस्था जैसा है वैसा पहले नहीं था।
  • पहली बार चुनावों की जानकारी लोगों को हुई और इसने लोगों में राजनीतिक चेतना पैदा की। कुछ भारतीय महिलाओं को भी पहली बार वोट देने का अधिकार मिला था।

3. मुसलमानों को तो पहले ही पृथक निर्वाचन व्यवस्था से नवाजा जा चुका था, इस अधिनियम के तहत सांप्रदायिक आधार पर सिखों, भारतीय ईसाईयों, आंग्ल-भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक्‌ निर्वाचन के सिद्धांत को विस्तारित कर दिया।

4. इस अधिनियम के द्वारा एक लोक सेवा आयोग का गठन करने का प्रावधान किया गया जो कि 1926 में बन गया। आज का संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) इसी का उच्चतम स्वरूप है।

5. जहां पहले प्रांत सिर्फ बजट पर चर्चा या संकल्प ला सकता था अब इस अधिनियम की मदद से वे स्वयं अपना बजट बना सकते थे।

तो कुल मिलाकर इस अधिनियम की मदद से विकेन्द्रीकरण को थोड़ा और विस्तार दिया गया और कई नयी चीज़ें सामने आयी हालांकि राजस्व पर अभी भी केंद्र का ही नियंत्रण था।

6. इसने लंदन में भारत के लिए उच्चायुक्त का एक कार्यालय भी बनाया। जो कि आज भी काम कर रहा है।

इस अधिनियम के तहत एक वैधानिक आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य दस वर्ष बाद इस अधिनियम की जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था। जॉन साइमन की अध्यक्षता में इस आयोग का गठन 1927 में किया गया। जिन्होने अपनी रिपोर्ट 1930 में प्रस्तुत किया और कुछ इस तरह की बातें कहीं;

  • इसने द्वैध शासन प्रणाली, राज्यों में सरकारों का विस्तार, ब्रिटिश भारत के संघ की स्थापना एवं सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था को जारी रखने आदि की सिफारिशें कीं।

यहाँ ये याद रखिए कि चूंकि साइमन आयोग के सारे सदस्य ब्रिटिश थे इसीलिए इसका बहिष्कार किया गया।

आयोग के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश भारत और भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों के साथ तीन सम्मेलन किए। जिसे कि गोलमेज़ सम्मेलन (Round table conference) कहा गया।

इस सम्मेलन में जो भी चर्चा हुई उसके आधार पर एक ‘श्वेत-पत्र‘ तैयार किया गया, जिसे कि ब्रिटिश संसद ने कुछ संशोधनों के साथ भारत शासन अधिनियम, 1935 में शामिल कर दिया। क्या है भारत शासन अधिनियम 1935? आइये समझते हैं;

भारत शासन अधिनियम 1935

Government of India Act 1935 एक लंबा और विस्तृत दस्तावेज था। ये कितना लंबा और विस्तृत दस्तावेज़ था इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इसमें 324 धाराएं और 10 अनुसूचियां थीं। एक तरह से ये संविधान की तरह ही था। इसकी खास बातें कुछ इस तरह से थी;

1. इसके तहत अखिल भारतीय संघ (All India Union) की स्थापना की बात कही गई, जिसमें राज्य और रियासत एक इकाई की तरह होता। साथ ही इसके तहत तीन सूचियों का निर्माण किया गया और विषयों को बाँट दिया गया।

ये तीन सूचियाँ थी – संघ सूची (इस पर सिर्फ केंद्र ही कानून बना सकता था, इसमें 59 विषयों को रखा गया), राज्य सूची (इस पर सिर्फ राज्य कानून बना सकता था और इसमें 54 विषयों को रखा गया और समवर्ती सूची (इस पर दोनों कानून बना सकते थे और इसमें 36 विषयों को रखा गया)। इसके अलावा जो भी अवशिष्ट शक्तियां थी उसे वायसराय को दे दी गईं।

  • कुल मिलाकर आप यहाँ देख सकते हैं कि भारत को संघ बनाने की यहाँ पूरी कोशिश की गई थी।
  • हालांकि उस समय यह संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नहीं आई क्योंकि देसी रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था।
  • लेकिन आज आप इसी व्यवस्था को देख सकते हैं। आज भारत संघ भी है और तीन सूचियाँ भी अस्तित्व में है।

2. इस अधिनियम के तहत 1919 में शुरू की गई प्रांतीय द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और प्रांतीय स्वायत्तता पर बल दिया गया।

दूसरे शब्दों में कहें तो राज्यपाल के लिए राज्य विधान परिषदों के लिए उत्तरदायी मंत्रियों की सलाह पर काम करना आवश्यक कर दिया गया। हालांकि यह व्यवस्था 1937 में शुरू तो की गई लेकिन  1939 में इसे समाप्त कर दिया गया।

3. जैसा कि हमने ऊपर चर्चा किया कि इस अधिनियम के माध्यम से प्रांत में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया लेकिन इसी व्यवस्था को केंद्र में लागू करने की बात इस अधिनियम में कही गई। यानी कि केंद्र के विषयों को स्थानांतरित और आरक्षित विषयों में विभक्त करना। लेकिन यह प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका।

4. इस अधिनियम के माध्यम से 11 राज्यों में से छह में ट्विसदनीय व्यवस्था की शुरुआत की गई – यानी कि विधानसभा और विधान परिषद। इन राज्यों में शामिल था, बंगाल, बंबई, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत और असम।

  • दिलचस्प बात ये है कि आज भी लगभग इतने ही राज्यों में द्विसदनीय व्यवस्था लागू है।   
  • इसके तहत मंत्रिपरिषद को विधानमंडल के प्रति जिम्मेदार बना दिया गया और विधायिका अविश्वास प्रस्ताव पारित कर सकता था। विधानमंडल अब मंत्रिपरिषद से प्रश्न पूछ सकता था।

5. इस अधिनियम के तहत दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था कर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था (communal representation system) का विस्तार किया गया।

6. इस अधिनियम ने मताधिकार का विस्तार किया। लगभग दस प्रतिशत जनसंख्या को मत देने का अधिकार मिल गया। आज के हिसाब से तो ये बहुत सी छोटी संख्या है लेकिन उस समय के हिसाब से ये बहुत बड़ी संख्या थी।

7. इसके अंतर्गत देश की मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिये भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई। जो कि आज भी उसी नाम से अपना काम कर रही है।

8, इस अधिनियम के तहत प्रांतीय लोक सेवा आयोग और दो या अधिक राज्यों के लिए संयुक्त सेवा आयोग की स्थापना की गई।

9. इस अधिनियम के तहत 1937 में संघीय न्यायालय (federal court) की स्थापना हुई। जिसे कि आज हम सुप्रीम कोर्ट के नाम से जानते हैं।

  • यहाँ यह याद रखिए कि इसी अधिनियम के तहत बर्मा (म्यांमार) को भारत से अलग कर दिया गया और उड़ीसा और सिंध नाम से दो राज्यों का निर्माण किया गया।

तो इस पूरे प्रकरण को पढ़ने के बाद अगर आप आज के भारत में इसको ढूंढेगे तो सब कुछ आसानी से मिल जाएगा और आपको एहसास होगा कि सारी चीज़ें तो अंग्रेजों के समय की ही है। हम उसकी विरासत को आज भी ढो रहे हैं।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947

Indian Independence Act 1947 वो अधिनियम है जिसके तहत भारत का विभाजन कर दो स्वतन्त्र डोमिनयन-संप्रभु राष्ट्र भारत और पाकिस्तान का सृजन किया गया।

हालांकि 20 फरवरी, 1947 को जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि 30 जून,1947 को भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। तो इसमें विभाजित भारत की बात नहीं थी।

इस घोषणा पर मुस्लिम लीग ने आंदोलन किया और भारत के विभाजन की बात कही, जो कि उसके धरे में पहले से ही एक स्थापित मांग बन चुका था।

खैर वही हुआ, 3 जून, 1947 को वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन की योजना पेश की, जिसे माउंटबेटन योजना कहा गया। इस योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 बनाकर उसे लागू कर दिया गया।

जैसे कि हमने जाना इस अधिनियम के तहत दो स्वतन्त्र डोमिनयन-संप्रभु राष्ट्र भारत और पाकिस्तान का सृजन किया गया। इस तरह से भारत में ब्रिटिश राज समाप्त हुआ।

साथ ही वायसराय पद को समाप्त कर दिया गया और उसके स्थान पर दोनों डोमिनयन राज्यों में गवर्नर-जनरल पद का सृजन किया गया, जिसकी नियुक्ति नए राष्ट्र की कैबिनेट की सिफारिश पर ब्रिटेन के ताज ने की।

इसीलिए आप सुनेंगे कि आजादी मिलने के बाद भारत का पहला गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी थे और आखिरी भी थे क्योंकि उसके बाद भारत का संविधान बनकर तैयार हो गया और गवर्नर जनरल का पद खत्म कर दिया गया और उसकी जगह राष्ट्रपति ने ली।

दोनों डोमिनियन राज्यों को ये शक्ति दी गई कि वे ब्रिटिश कानून को समाप्त करने के लिए कानून बना सकती है, भारत ने अनुच्छेद 395 की मदद से स्वतंत्रता अधिनियम और भारत शासन अधिनियम 1935 को समाप्त कर दिया। लेकिन चूंकि यह अधिनियम 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ इसीलिए कहा जाता है 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ ही नहीं था, बस पावर ट्रान्सफर हुआ था।

अंग्रेजों के जमाने का कानून जो भारत में आज भी अस्तित्व में है

इतना पढ़ने के बाद आप समझ गए होंगे कि किस तरह से अतीत की घटनाओं ने भारतीय संविधान को प्रभावित किया और उसे आकार देने में अपनी भूमिका निभायी।

अब आइये समझते हैं कि कौन-कौन से ऐसे कानून है जो आज भी चल रही है;

  1. सिविल प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code – CPC) – यह 1859 में अस्तित्व में आया था। 1908 में इसमें संशोधन किया गया था उसके बाद से यह वैसे ही चल रहा है।
  2. भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code – IPC) – यह 1860 में अस्तित्व में आया था। और आज भी इसी दंड विधान के तहत दंड दिया जाता है।
  3. आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure – CrPC) – यह 1861 में अस्तित्व में आया था। साल 1973 में इसमें संशोधन किया गया और अभी यही चल रहा है।
  4. भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act) – यह साल 1872 में अस्तित्व में आया। गवाही और सबूत जुटाने की प्रक्रिया के लिए यह आज भी चल रहा है।
  5. भारतीय संविदा अधिनियम (Indian Contract Act) – यह भी 1872 में अस्तित्व में आया था। इसे अनुबंध या संविदाएं आदि के नियमन के लिए लाया गया था।
  6. शपथ अधिनियम (the oath act) – यह 1873 में अस्तित्व में आया था। 1969 में इसमें संशोधन किया गया और यह आज भी चल रहा है।
  7. विशेष विवाह अधिनियम (special marriage act) – यह 1873 में अस्तित्व में आया था। 1954 में इसमें संशोधन किया गया और आज भी कोर्ट मैरेज करने के लिए इस्तेमाल में लायी जाती है।
  8. बाल विवाह प्रतिबंध अधिनियम (Child Marriage Restraint Act) – यह 1929 में अस्तित्व में आया था। इसे ही शारदा एक्ट के नाम से जाना गया। इसे 1978 में मोरार जी देशाई की सरकार द्वारा संशोधित किया गया। और फिर 2006 में इसे खत्म कर Prevention of Child marriage act लाया गया।

तो कुल मिलाकर आज के भारत में बहुत सारी चीज़ें या लगभग सारी चीज़ें ऐसे दिखते हैं जो ब्रिटिश भारत का अवशेष है। हमने इसे पॉलिस करके समय के अनुसार अच्छा बनाने की कोशिश की लेकिन उससे ब्रिटिश भारत की बू तो आती ही है।

तो उम्मीद है आपको समझ में आया होगा कि आजादी पूर्व के घटनाओं ने किस प्रकार संविधान को रूप दिया। यहाँ से आपको संविधान निर्माण की कहानी को समझने में आसानी होगी, तो उसे अवश्य पढ़ें। और हमारे सोशल मीडिया हैंडल से जुड़ जाएँ।

◾ संविधान निर्माण की कहानी
◾ संविधान की बेसिक्स (UPSC)*