इस लेख में हम भाषा में परिवर्तन के कारण पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें।
भाषा को विस्तार से समझने के लिए साइट पर भाषा से संबन्धित ढ़ेरों लेख उपलब्ध है, तो ज़ीरो लेवल से भाषा को समझने के संबन्धित सभी लेखों को पढ़ें –
| भाषा में परिवर्तन – पृष्ठभूमि
भाषा (Language) संप्रेषण (Communication) का एक माध्यम है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने विचारों, मनोभावों या कल्पनाओं आदि को अभिव्यक्त करने का माध्यम, भाषा है।
विकिपीडिया के अनुसार, भाषा, संप्रेषण का एक संरचित प्रणाली (structured system) है जो कि बोलने, लिखने, हाव-भाव या संकेतों पर आधारित होता है।
डॉ. बाबू राम सक्सेना के अनुसार, जिन ध्वनि समूहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं।
जैसा कि हमने भाषा-विज्ञान वाले लेख में समझा है कि भाषा अभिव्यक्त (Express) की जाती है, और प्रत्येक व्यक्ति एक ही तरह से इसे अभिव्यक्त नहीं करता है इसीलिए ये हमेशा परिवर्तनशील होता है और इसका कोई अंतिम स्वरूप नहीं होता है। इसके अलावा समय, काल एवं परिस्थिति का भी भाषा पर प्रभाव पड़ता है।
भाषा में बदलाव, भाषा का विकास कहलाता है और यह भाषा के क्षेत्र में एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लोकभाषाएँ जब प्रभावी होने लग जाती है तब वो शिष्ट भाषा की ओर बढ़ती चली जाती है और फिर से कोई नयी लोकभाषा अस्तित्व में आ जाता है।
वैदिक काल में संस्कृत शिष्टजनों की भाषा थी जबकि प्राकृत आमजन की भाषा। जब प्राकृत को शिष्टजनों ने अपना लिया तो अपभ्रंश लोकभाषा बन गई। फिर जब अपभ्रंश साहित्य की भाषा बनने लगी तब अन्य लोकभाषाएँ आगे बढ़ने लगी। हिन्दी का विकास इसी क्रम में हुआ है।
जिस हिन्दी को आज हम जानते हैं वह बहुत ही नवीनतम भाषा है। हिन्दी को जनमानस की भाषा बनाने का श्रेय भारतेन्दु हरिशचन्द्र को जाता है। इससे पहले ब्रज और अवधि मुख्य भाषा हुआ करती थी।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चन्द्र’ था, ‘भारतेन्दु’ उनकी उपाधि थी। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। |
भाषा में परिवर्तन हम आज भी देख रहें है। सोशल मीडिया ने भाषा को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। आज हम ये आसानी से देख सकते हैं कि हिन्दी और इंग्लिश का एक मिक्स वर्जन चलता है, जिसे कि हम हिंग्लिश कहते हैं। हो सकता है आगे चलकर यह भी एक मुख्य भाषा का रूप ले ले। कहने का अर्थ ये है कि भाषा हमेशा अपने में कुछ जोड़ता और घटाता रहता है, और इस तरह से वो हमेशा परिवर्तन के दौर से गुजर रहा होता है। तो आइए भाषा में परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालते हैं;
| भाषा में परिवर्तन के कारण
भाषा के पाँच रूप होते हैं; ध्वनि, शब्द, अर्थ, रूप एवं वाक्य और भाषा में परिवर्तन उसके पांचों रूपों में होता है। भाषा के परिवर्तन के कारणों को दो भागों में बांटा जाता है –
(1) आभ्यंतर कारण (internal causes) और (2) बाह्य कारण (external causes)। आइए इन दोनों को विस्तार से देखते हैं।
(1) आभ्यंतर कारण
इसके तहत उन कारकों को रखा जाता है जिसका संबंध भाषा बोलने वाले के शारीरिक एवं मानसिक योग्यता से होता है। क्या है वो आइए देखते हैं;
प्रयत्न लाघव – इसे मुख-सुख भी कहा जाता है। इंसानों की ये प्रवृति होती है कि वह न्यूनतम श्रम से अधिकतम लाभ लेना चाहता है। भाषा भी इससे अछूता नहीं है। इस प्रकार के परिवर्तन में होता ये है कि कहीं ध्वनि का लोप हो जाता है या फिर कुछ ध्वनि इसमें जुड़ जाता है। इस तरह से एक नयी चीज़ सामने आती है। जैसे कि “टेलीफ़ोन” के स्थान पर सिर्फ “फोन” का इस्तेमाल करना, रेलवे स्टेशन के स्थान पर सिर्फ स्टेशन शब्द का इस्तेमाल करना, I Love You के स्थान पर सिर्फ ILU का इस्तेमाल करना इत्यादि प्रयत्न लाघव का ही उदाहरण है।
यहाँ समझने वाली बात ये है कि भाषा की सबसे बड़ी आवश्यकता उसकी बोधगम्यता की राह में किसी प्रकार का बाधा न होना है। इसीलिए भाषा में परिवर्तन कई आभ्यंतरिक प्रक्रियाओं से होकर गुजरता है जिसमें सबसे बड़ी भूमिका प्रयत्न लाघव का होता है। आइए इसके अंतर्गत आने वाले दूसरे साधनों को समझते हैं;
शीघ्र भाषा – शीघ्र भाषण के चलते भी ध्वनियों में परिवर्तन आ जाता है। जैसे कि बाबू जी से बाउजी और मास्टर साहब से मास्साब का हो जाना इसी को दर्शाता है।
अज्ञानता या अपूर्ण अनुकरण – भाषा में परिवर्तन का एक मुख्य कारण मनुष्यों का अज्ञान भी होता है। क्योंकि अज्ञानता के कारण कई बार हमें शब्दों का सही उच्चारण पता नहीं होता है और ऐसे में हम एक नया शब्द और नया उच्चारण गढ़ देते हैं। जैसे कि गाँव में कई लोग स्टेशन को टेसन कहते हैं। ॐ नमः सिद्धम को ओना मासी धम्म कहते हैं। इत्यादि।
आगम एवं लोप – कभी-कभी क्या होता है कि किसी शब्द के शुरुआत में ही ऐसा सन्युक्ताक्षर आ जाता है, जिसे कि उच्चारण करना काफी कठिन होता है। ऐसे में हम किसी स्वर का इस्तेमाल करते हैं उसका उच्चारण करने में। जैसे कि स्कूल को इस्कूल बोलना, स्त्री को इस्त्री बोलना इत्यादि।
इसी तरह से दो संयुक्त ध्वनियों के उच्चारण में कठिनता के कारण कई बार किसी एक वर्ण या ध्वनि का लोप हो जाता है। जैसे कि दुग्ध का दूध हो जाना और श्रेष्ठ का सेठ हो जाना।
विकार – कई बार एक ध्वनि के उच्चारण में सुविधा के लिए हम एक ध्वनि को दूसरे ध्वनि में परिवर्तित कर देते हैं। जैसे कि कृष्ण को कान्हा और हस्त को हाथ कहना।
विपर्यय – कई बार बोलने के क्रम में हम शब्दों के वर्ण-क्रम को ही बदल देते हैं। इसे ही विपर्यय कहा जाता है, जैसे कि पिशाच को पिचाश कहना, लड़की को लकड़ी कह देना।
भावातिरेक – कई बार भावनाओं में बहकर भी हम भाषा में परिवर्तन ला देते हैं। राजू को रजूआ कह देना, बेटी को बिटिया कह देना इत्यादि।
आत्म-प्रदर्शन – कई बार इम्प्रैशन जमाने के लिए या खुद को ज्ञानी सिद्ध करने के चक्कर में वक्ता जानबूझकर बनावटी भाषा का प्रयोग करता है। और कई बार तो सरल शब्दों को भी कठिन बना देता है। जैसे कि नमस्कार को नमश्कार और इच्छा को इक्षा कहना। कई बार तो ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति ये कहने के बजाय कि इंजीनियर पुल रहा है वो ये कहता है कि अभियंता सेतु का निर्माण करवा रहा है।
काल्पनिक शब्द – कई बार तो जो शब्द नहीं होता है वक्ता उसे भी मौके पर ही बना डालता है जैसे कि औरत-वौरत, शादी-वादी, ज़िंदगी लुल्ल हो गई है इत्यादि।
कलात्मक या रचनात्मक स्वतंत्रता – कई बार कवि राइमिंग (rhyming) के चक्कर में मूल शब्द को बिगाड़ देता है। जैसे खुदा को खुदाय कह देना, यशोधा को जसोधा कर देना इत्यादि।
लिपि का पूर्ण न होना – कई बार किसी लिपि में कुछ उच्चारण को लिखने के लिए अक्षर न होने के कारण उसके उच्चारण में परिवर्तन आ जाता है। जैसे कि सत्येन्द्र को गुरुमुखी में सतिन्दर कहा जाता है और स्टाफ को सटाफ।
समीकरण – जब दो विभिन्न ध्वनि नजदीक में रहने के कारण समान हो जाता है तो उसे समीकरण कहा जाता है। इसके दो रूप होते हैं; पुरोगामी समीकरण एवं पश्चगामी समीकरण।
जब परवर्ती ध्वनि पूर्ववर्ती ध्वनि के समान हो जाता है तो उसे पुरोगामी समीकरण कहा जाता है। जैसे कि अग्नि का आग हो जाना।
इसी तरह से जब पूर्ववर्ती ध्वनि परवर्ती ध्वनि के समान हो जाता है तो उसे पश्चगामी समीकरण कहा जाता है। जैसे कि कर्म का काम हो जाना या वार्ता का बात हो जाना।
विषमीकरण – जब दो निकटतम ध्वनि के उच्चारण में कठिनता का अनुभव होने लगता है तो कई बार उसमें भेद कर दिया जाता है। जैसे कि काक को काग कह देना या मुकुट को मोर कह देना।
(2) बाह्य कारण
भाषा में परिवर्तन के लिए जितना आंतरिक कारण जिम्मेदार है कमोबेश उतना ही बाह्य कारण भी जिम्मेदार है। बाह्य कारणों में भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रभाव आता है। आइए इस पर संक्षिप्त में चर्चा कर लेते हैं।
1. भौगोलिक प्रभाव – बहुत सारे भाषा विद्वान भाषा में परिवर्तन के लिए भौगोलिक कारण को महत्वपूर्ण मानते है। उनका मानना है कि जलवायु का प्रभाव सिर्फ शारीरिक संगठन पर ही नहीं पड़ता है बल्कि इसका प्रभाव चरित्र और ध्वनि-पद्धति पर भी पड़ता है। इसीलिए पहाड़ी या रेगिस्तानी इलाकों में रहने वाले लोगों के भाषा में कठोरता का समावेश होता है। वहीं मैदानी भागों में रहने वाले लोगों के लिए जीवन-यापन अपेक्षाकृत आसान होता है इसीलिए इनके भाषा में थोड़ी कोमलता नजर आती है।
हालांकि यहाँ पर याद रखिए कि बहुत सारे ऐसे भाषा विद्वान है जो भौगोलिक कारण को मानने से इंकार करते हैं। पर इसके बावजूद भी भौगोलिक कारण को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है।
2. ऐतिहासिक कारण – भाषा के परिवर्तन में इतिहास का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ऐतिहासिक कारण में विदेशी आक्रमण, राजनीतिक विप्लव और व्यापारिक संबंध आदि को रखा जाता है। जैसे कि हिन्दी में ढेरों शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की और अँग्रेजी आदि से आया है। इनाम, फुर्सत, ईमान आदि जैसे शब्द फ़ारसी से आया है। वहीं हवा, हुनर, ताबीज़ इत्यादि शब्द अरबी से आया है। कैंची और चक्कू जैसे शब्द तुर्की से आया है और अँग्रेजी से तो कितने ही शब्द हिन्दी में आए है और आज भी आ ही रहे हैं।
3. साहित्यिक प्रभाव – भाषा परिवर्तन में साहित्यिक कारण को बिलकुल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। भाषा विज्ञान के अध्ययन में या भाषा विज्ञान को स्थापित करने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। साहित्य का कितना बड़ा योगदान है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि यदि हमारे पास संस्कृत, ग्रीक और अवेस्ता साहित्य न होता तो भाषा-विज्ञान कभी यह जानने में सफल न होता कि ये तीनों भाषाओं का मूल एक ही है।
4. सांस्कृतिक प्रभाव – भाषा परिवर्तन में सांस्कृतिक प्रभाव भी एक कारण है। कई शब्द तो समाज में आए सांस्कृतिक बदलाव की देन है। जैसे कि व्यक्तिवाद, उदारवाद इत्यादि।
5. वैज्ञानिक प्रभाव – विज्ञान के क्षेत्र में हमेशा कुछ न कुछ नया होता ही रहता है, ऐसे में जब भी नई खोजें होती है तो कई नए शब्द सामने आते हैं। जैसे कि इंटरनेट ऑफ थिंग्स, 5G, 6G, Earbuds इत्यादि।
समापन टिप्पणी
विश्व का प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। विकास का क्रम कभी भी अवरुद्ध नहीं होता है। कई बार किसी चीज़ में हम विकास होते हुए देख नहीं पाते हैं पर समय के साथ हम उसे अनुभव जरूर कर पाते हैं। भाषा में परिवर्तन में भी कुछ इसी प्रकार की चीज़ है। जाहिर है आज कोई भी ऐसी भाषा उस स्थिति में नहीं है जो वह आज से 500 या 1000 साल पहले था। कहने का अर्थ ये है अगर हमने कभी टाइम मशीन बना ली और अतीत में जाने का मौका मिला तो हम अपने पूर्वज से मिल तो पाएंगे लेकिन न उसको हमारी भाषा समझ में आएगी और न हम उसकी भाषा को समझ पाएंगे क्योंकि हजारों सालों के अंतराल में भाषा में कुछ इस तरह से परिवर्तित हो चुकी है कि वो अपने मूल भाषा से बिलकुल अलग दिखायी पड़ता है।
तो उम्मीद है यह लेख आपको समझ में आया होगा, भाषा को ज़ीरो लेवल से समझने के लिए दिए गये कैटेगरी को अवश्य विजिट करें और शुरू से पढ़ें। साथ ही हमारे यूट्यूब चैनल को भी विजिट करें और इसे जितना हो सके शेयर करें।
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