इस लेख में हम भारत में संविधान संशोधन प्रक्रिया (Constitution Amendment Process) पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे एवं इसके महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे,
तो अच्छी तरह से समझने के लिए इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें और साथ ही इस टॉपिक से संबंधित अन्य लेखों को भी पढ़ें।
संविधान का अस्तित्व बना रहे, इसके लिए समय, परिस्थिति, जरूरत एवं महत्वाकांक्षाएँ आदि बदलने के साथ संविधान को भी उसी अनुरूप में ढालना जरूरी हो जाता है। इसीलिए संविधान में संशोधन किया जाता है।

संविधान संशोधन प्रक्रिया का परिचय
किसी देश में संविधान के होने से कुछ आधारभूत चीज़ें एकदम स्पष्ट रहती है जैसे कि किसको क्या करना है और क्या नहीं, कौन सी चीज़ कब की जा सकती है और कब नहीं आदि।
पर समय एवं परिस्थिति के बदलने के साथ ही लोगों की जरूरतें, महत्वाकांक्षाएँ आदि बदलती रहती है और ऐसे में उसी के अनुरूप नियम-कानून या व्यवस्था बदलने की जरूरत आन पड़ती है।
भारतीय संविधान में अभी भी लोगों को श्रद्धा है इसकी एक वजह ये है कि जरूरत के हिसाब से ये अपने-आप को ढाल सकने में सक्षम है। और ये सक्षम इसीलिए है क्योंकि इसमें संशोधन करना न ही बहुत कठोर है और न ही बहुत लचीला।
दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय संविधान संशोधन प्रक्रिया कानून या प्रावधानों की प्रकृति के आधार पर कभी कठोर तो कभी लचीला होता है। फिर भी ये अमेरिकी व्यवस्था की तरह इतना कठोर नहीं है कि 200 सालों में सिर्फ 27 संशोधन ही हो और ब्रिटेन की संवैधानिक व्यवस्था की तरह इतना भी लचीला नहीं है कि जब मन चाहे संशोधन कर दो। और फ्रांस की बात करें तो वहाँ पाँच बार संविधान ही बदल दिया गया है।
भारतीय संविधान संशोधन प्रक्रिया कितना कठोर या फिर कितना लचीला है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि – लगभग 73 वर्षों में, जब मैं ये लेख लिख रहा हूँ 104 संविधान संशोधन हो चुकी है। इसीलिए इसे मिश्रित संशोधन प्रक्रिया भी कहा जाता है।
संवैधानिक प्रावधान
संविधान के भाग 20 के अनुच्छेद 368 संसद को ये शक्ति देता है कि वो संविधान के किसी उपबंध का परिवर्धन (Additions), परिवर्तन (Change) या निरसन (Cancellation) कर सकता है। हाँ लेकिन संविधान के मूल ढांचे को छोड़कर।
दरअसल 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानन्द भारती मामले की सुनवाई करते हुए एक नया सिद्धांत दिया जिसे कि संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत कहा जाता है।
इसके तहत संविधान संशोधन प्रक्रिया में एक शर्त जोड़ दी कि संसद ‘संविधान के मूल संरचना‘ को कभी संशोधित नहीं कर सकता। क्योंकि उसके बिना फिर वो संविधान ही नहीं बचेगा जो कि 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। कुल मिलाकर इस फैसले से संविधान संशोधन को थोड़ा कठोर बनाया गया ताकि संसद संविधान की नीव को न तोड़ सके।
संविधान संशोधन विधेयक
एक बिलकुल ही नया कानून बनाने और बने हुए कानून को संशोधित करने में अंतर होता है। हालांकि होता दोनों एक ही जगह, संसद में ही है। दरअसल संविधान में संशोधन करने के लिए उस संशोधनीय भाग को विधेयक के रूप में सदन में पेश करना होता है।
मुख्य रूप से चार प्रकार के विधेयक संसद में पेश किए जाते हैं – साधारण विधेयक, धन विधेयक, वित्त विधेयक और संविधान संशोधन विधेयक। संविधान संशोधन प्रक्रिया इसी संविधान संशोधन विधेयक के सदन के पटल पर रखने से शुरू होती है।
संविधान संशोधन की प्रक्रिया
अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। जो कि निम्नलिखित है –
1. संविधान संशोधन का काम संसद के किसी भी सदन में संविधान संशोधन विधेयक पेश करके ही किया जा सकता है। किसी राज्य विधानमंडल में ये काम नहीं किया जा सकता है।
2. अमुक संविधान संशोधन विधेयक को किसी मंत्री या फिर किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा संसद पटल पर रखी जा सकती है। इसमें राष्ट्रपति की मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं होती।
3. संशोधन विधेयक को दोनों सदनों से विशेष बहुमत से पास करवाना अनिवार्य है। और साथ ही प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित करवाना जरूरी होता है। क्योंकि दोनों सदनों के संयुक्त बैठक जैसी कोई व्यवस्था इसमें नहीं होती है।
4. दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पास हो जाने के बाद इसे राष्ट्रपति के पास सहमति के लिए भेजा जाता है। (हालांकि कभी-कभी पहले राज्यों के विधानमंडल के पास भेजा जाता है, फिर राष्ट्रपति के पास। वो कब भेजा जाता है उसकी चर्चा आगे की गई है)
5. राष्ट्रपति को अपनी सहमति देनी ही पड़ती है, वे न तो विधेयक को अपने पास रख सकते है और न ही संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते है।
6. राष्ट्रपति की सहमति के बाद वे संशोधन विधेयक एक अधिनियम बन जाता है। अन्य दूसरे अधिनियम की तरह ये भी संविधान का एक हिस्सा बन जाता है।
संविधान संशोधन कितनी तरह से की जा सकती है?
अनुच्छेद 368 के अनुसार 2 प्रकार से संशोधन की व्यवस्था की गयी है – 1. संसद के विशेष बहुमत द्वारा, और 2. संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे राज्य विधानमंडल की संस्तुति के द्वारा।
1. संसद के विशेष बहुमत द्वारा
संविधान के ज़्यादातर उपबंधों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत द्वारा किया जाता है। विशेष बहुमत का मतलब होता है – प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत और उस दिन सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले का दो तिहाई बहुमत।
उदाहरण – जैसे कि लोकसभा की बात करें तो वहाँ कुल 545 सदस्य होते है। अब इसका साधारण बहुमत निकालें तो ये 273 होता है। यानी कि इतना तो चाहिए ही।
अब मान लेते हैं कि जिस दिन वोटिंग होनी है उस दिन सिर्फ 420 सदस्य ही सदन में उपस्थित है और वे सभी मतदान में भाग लेंगे तो, उन सब का दो तिहाई बहुमत होना चाहिए। यानी कि 280 सदस्यों की सहमति। यही होता है विशेष बहुमत।
मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्व, आदि का संशोधन इसी व्यवस्था के तहत होता है। इसके अलावा वे सभी उपबंध जो ‘साधारण बहुमत द्वारा’ और ‘विशेष बहुमत + आधे राज्यों से संस्तुति द्वारा’ श्रेणियों से सम्बद्ध नहीं है; इसी व्यवस्था के तहत संशोधित होता है।
2. संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे राज्य विधानमंडल की संस्तुति के द्वारा
भारत के संघीय ढांचे से संबन्धित जो भी संशोधन होता है उसके लिए संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की भी मंजूरी जरूरी होता है। यहाँ याद रहे कि राज्य विधानमंडल में साधारण बहुमत से ही काम चल जाता है।
संघीय ढांचे से संबन्धित निम्नलिखित विषयों को देखा जा सकता है-
▪️ राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया। (अनुच्छेद 54 और 55)
▪️ केंद्र एवं राज्य कार्यकारिणी की शक्तियों का विस्तार। (अनुच्छेद 73 और 162)
▪️ उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय। (अनुच्छेद 241, संविधान के भाग 5 का अध्याय 4 और भाग 6 का अध्याय 5)
▪️ केंद्र एवं राज्य के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन। (संविधान के भाग 11 का अध्याय 1)
▪️ सातवीं अनुसूची से संबन्धित कोई विषय।
▪️ संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व।
▪️ संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया (अनुच्छेद 368)।
यहाँ याद रखें-
संशोधन का एक और प्रकार भी होता है जिसे ‘संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन‘ कहा जाता है। पर ये अनुच्छेद 368 के तहत नहीं आता है।
साधारण बहुमत का सीधा सा मतलब होता है उपस्थित कुल सदस्यों का या फिर मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का 50 प्रतिशत से अधिक। यानी कि 100 में से कम से कम 51। इसके तहत निम्नलिखित विषय आते हैं:-
(क) नए राज्यों का भारतीय संघ में प्रवेश या वर्तमान के राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करके नए राज्यों का गठन या फिर राज्यों के नामों में परिवर्तन। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)
(ख) राज्य विधानपरिषद का निर्माण और उसकी समाप्ति (अनुच्छेद 169)।
(ग) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन और नियंत्रण (पाँचवी अनुसूची का पैरा 7)।
(घ) असम, मेघालय और मिज़ोरम राज्यों में जनजाति क्षेत्रों का प्रशासन (छठी अनुसूची का पैरा 21)।
(च) संसद में गणपूर्ति (छ) संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते तथा संसद, इसके सदस्य एवं इसकी समितियों की विशेषाधिकार
(ज) नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति (झ) संसद एवं राज्य विधानमंडलों के लिए निर्वाचन आदि।
संशोधन प्रक्रिया की आलोचना
1. संविधान के ज़्यादातर भागों के संशोधन के लिए राज्य विधानमंडल की जरूरत नहीं पड़ती है। इससे संसद के पास एक तरह से एकाधिकार आ जाता है।
2. संविधान संशोधन के मुद्दे पर गतिरोध की स्थिति में दोनों सदनों के संयुक्त बैठक की कोई व्यवस्था नहीं है जबकि साधारण विधेयक के मामले में ऐसी व्यवस्था की गई है।
3. संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत आ जाने के बाद उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हो गई जो कि संविधान संशोधन के मामले में संसद की शक्तियों को कम करने का काम करता है।
हालांकि इस सब के बावजूद भी भारतीय संविधान संशोधन प्रक्रिया कठोर और लचीलेपन के बीच एक बढ़िया संतुलन को पेश करता है।
संविधान संशोधन प्रक्रिया Practice Quiz
◼ बहुमत कितने प्रकार के होते हैं?
◼ भारतीय संसद :संक्षिप्त परिचर्चा
◼ Parliamentary motions
◼ Parliamentary resolution
◼ संसद में कानून कैसे बनता है?
◼ बजट – प्रक्रिया, क्रियान्वयन
◼ Joint sitting of both houses explained
◼ Parliamentary committees
◼ Parliamentary forum
Important links,
मूल संविधान भाग 20
हमारी संसद – सुभाष कश्यप
बहुमत कितने प्रकार के होते हैं?
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