Delimitation in India (भारत में परिसीमन): कुछ भी स्थायी नहीं होता है, यह बात हम राजव्यवस्था में भी देख सकते हैं। चूंकि जनसंख्या परिवर्तनीय है ऐसे में उस जनसंख्या के आधार पर तय की गई लोक सभा या राज्य विधानसभा की सीटें कैसे स्थायी हो सकती है।

पुनःसमायोजन (Readjustment) की यह प्रक्रिया संविधान के अनुसार प्रत्येक जनगणना के पश्चात होनी ही चाहिए। ऐसा होता है कि नहीं, या ऐसा कब-कब हुआ है, इसी को समझेंगे इस लेख में। बेहतर समझ के लिए इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें;

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Delimitation in india

Delimitation Image credit freepik


परिसीमन का अर्थ (Delimitation Meaning):

परिसीमन (Delimitation) किसी चीज़ की सीमाओं को परिभाषित करने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है, जिसका उद्देश्य अक्सर अधिकार क्षेत्र का एक स्पष्ट और विशिष्ट क्षेत्र स्थापित करना होता है।

दूसरे शब्दों में, परिसीमन देशों, क्षेत्रों या प्रशासनिक इकाइयों के बीच क्षेत्रीय सीमाओं का सीमांकन है। किसी राजव्यवस्था में यह चुनावी सीमाओं के आरेखण या विधायिका में सीटों के आवंटन का काम करता है।

कुल मिलाकर, परिसीमन जनसंख्या में परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करने के लिए किसी देश में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा या सीमाओं को तय करने की प्रक्रिया है।

परिसीमन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, लोकसभा में विभिन्न राज्यों को आवंटित सीटों की संख्या और किसी राज्य की विधान सभा में कुल सीटों की संख्या बदल सकती है। परिसीमन करने वाली संस्था को परिसीमन आयोग कहा जाता है।

Q. निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन क्यों किया जाता है?

परिसीमन (Delimitation) निम्नलिखित कारणों से किया जाता है/किया जा सकता है:

जनसंख्या के समान वर्गों के लिए समान प्रतिनिधित्व प्राप्त करना: प्रत्येक 10 वर्षों पर जनगणना (Census) की जाती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि जनसंख्या में वृद्धि होगी। या ऐसा भी हो सकता है कि किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या कम हो जाये या बहुत अधिक बढ़ जाए।

अनुच्छेद 81 के तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या यथासाध्य एक ही हो। तो जब हरेक 10 सालों बाद जनसंख्या बढ़ेगी तो ऐसे में जरूरी हो जाएगा कि लोक सभा में स्थानों के आबंटन का पुनःसमायोजन हो और इसी तरह से प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में बढ़ी हुई जनसंख्या के हिसाब से पुनःसमायोजन हो।

इसी पुनःसमायोजन के लिए अनुच्छेद 82 के तहत परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) का गठन किया जाता है। और यह जो पुनःसमायोजन होता है यह संसद द्वारा तय विधि के आधार पर होगा, अन्यथा नहीं।

कुल मिलाकर कहने का अर्थ यह है कि अनुच्छेद 82 के तहत, संसद प्रत्येक जनगणना के बाद एक परिसीमन अधिनियम बनाती है। यही काम अनुच्छेद 170 के तहत, राज्यों में प्रत्येक जनगणना के बाद की जाती है। अधिनियम लागू होने के बाद, केंद्र सरकार एक परिसीमन आयोग का गठन करती है।

◾ भौगोलिक क्षेत्रों का उचित विभाजन करना ताकि किसी भी राजनीतिक दल को दूसरों पर अनुचित लाभ न हो: निर्वाचन क्षेत्र तय करने में भौगोलिक क्षेत्रों का उचित विभाजन बहुत जरूरी होता है। क्योंकि भारत पंथिक या जातीय विविधता से ओतप्रोत है। ऐसे में अगर किसी क्षेत्र में सिर्फ एक ही समुदाय के लोग हों तो उस समुदाय से संबंधित पार्टी के जीतने की उम्मीद बढ़ जाएगी।

उदाहरण के लिए आप पहले के जम्मू-कश्मीर को ले सकते हैं जहां पर कश्मीर (जो कि मुस्लिम बहुल इलाका है) में 46 विधानसभा सीटें हुआ करती थी, और जम्मू में (जो कि हिन्दू बहुल इलाका है) 37 सीटें हुआ करती थी और लद्दाख (जो कि बौद्ध बहुल इलाका है) में 4 सीटें हुआ करती थी। यानि कि कुल 87 सीटों पर चुनाव हुआ करता है।

लेकिन चूंकि कश्मीर क्षेत्र में 46 सीटें थी और वहाँ एक प्रकार के समुदाय की बहुलता थी इसीलिए हमेशा उसी समुदाय की पार्टियां सरकार बनाती थी। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि उचित भौगोलिक विभाजन कितना जरूरी था।

इसीलिए साल 2019 में जम्मू और कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद वहाँ परिसीमन आयोग का गठन किया गया ताकि सीटों का उचित बंटवारा हो सके। इसके बारे में आगे और विस्तार से बातें की गई है।

◾ “एक वोट एक मूल्य” के सिद्धांत का पालन करना: चूंकि जनसंख्या को आधार बनाकर उचित परिसीमन द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या यथासाध्य एक ही हो। ऐसे में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में वोटों की संख्या भी यथासाध्य एक हो जाती है।

परिसीमन कैसे होता है (How does delimitation work) ?

अनुच्छेद 82 के तहत प्रत्येक जनगणना के बाद पुनःसमायोजन (Readjustment) की व्यवस्था की गई है ताकि लोक सभा में स्थानों के आबंटन का पुनःसमायोजन हो और इसी तरह से प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में बढ़ी हुई जनसंख्या के हिसाब से पुनःसमायोजन हो।

इसी अनुच्छेद 82 के तहत संसद को यह शक्ति दी गई है कि इस संदर्भ में वह कानून बनाए। और संसद इसी के अनुपालन में परिसीमन आयोग अधिनियम को अधिनियमित करता आया है।

यही काम अनुच्छेद 170 के तहत, राज्यों में प्रत्येक जनगणना के बाद की जाती है। एक बार अधिनियम लागू हो जाने के बाद, केंद्र सरकार एक परिसीमन आयोग का गठन करती है। और यही आयोग इसके बाद परिसीमन का कार्य करता है।

Q. एससी एवं एसटी समूहों वाले क्षेत्रों में परिसीमन कैसे किया जाता है?

हम जानते हैं कि लोकसभा में 131 सीटें SC एवं ST समुदाय के आरक्षित है। जिसमें से 84 सीटें SC के लिए है और 47 सीटें ST के लिए। ऐसे में यह सवाल आता है इन बातों को ध्यान में रखकर परिसीमन कैसे किया जाता है?

दरअसल प्रत्येक राज्य में आरक्षित होने वाले निर्वाचन क्षेत्रों का एक कोटा उस राज्य में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के अनुपात के आधार पर तय किया जाता है।

पहले तो सामान्य प्रक्रिया से सीमाएं तय की जाती है उसके बाद, परिसीमन आयोग प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जनसंख्या की संरचना को देखता है। वे निर्वाचन क्षेत्र जिनमें अनुसूचित जनजाति (ST) या अनुसूचित जाति (SC) की आबादी का अनुपात सबसे अधिक है, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कर दिया जाता है।

इन आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों को हर बार परिसीमन किए जाने के पश्चात बढ़ाया, घटाया या पुनःसमायोजित किया जा सकता है। यहाँ याद रखिए कि संविधान अन्य वंचित समूहों के लिए लोकसभा में समान आरक्षण की व्यवस्था नहीं करता है।

विस्तार से समझने के लिए पढ़ेंभारत में आरक्षण [1/4]

परिसीमन आयोग (Delimitation Commission):

अनुच्छेद 82 के तहत, संसद प्रत्येक जनगणना के बाद एक परिसीमन अधिनियम (Delimitation Act) बनाती है। राज्यों में यह काम अनुच्छेद 170 के तहत किया जाता है।

अधिनियम लागू होने के बाद, केंद्र सरकार एक परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) का गठन करती है। पहला परिसीमन आयोग अधिनियम 1952 में अधिनियमित किया गया था। भारत में पहला परिसीमन 1950-51 में राष्ट्रपति द्वारा (चुनाव आयोग की मदद से) किया गया था।

साल 1952, 1962, 1972 और 2002 में अधिनियमित परिसीमन आयोग अधिनियमों के तहत चार बार – 1952, 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन आयोगों का गठन किया गया है।

आप यहाँ देख सकते हैं कि 1951 के जनगणना के बाद 1952 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया। इसी तरह से 1961 की जनगणना के बाद 1962 में और 1971 की जनगणना के बाद 1972 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया।

लेकिन 1982 में और 1992 में कोई परिसीमन आयोग का गठन नहीं हुआ। ऐसा क्यों नहीं हुआ इसका उत्तर हमने अनुच्छेद 81 से मिलता है। आइये संक्षिप्त में समझ लेते हैं;

सिर्फ चार बार परिसीमन आयोग गठन के पीछे का कारण?

अनुच्छेद 81 के खंड (3) के तहत यह व्यवस्था किया गया है कि इस अनुच्छेद में, “जनसंख्या” पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत (intended) है जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गए हैं:

परंतु इस खंड में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति, जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन 2026 के पश्चात की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़ें प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह, –

(i) अनुच्छेद 81 खंड (2) के उपखंड (क) और उस खंड के परंतुक के प्रयोजनों के लिए 1971 की जनगणना के प्रति निर्देश है; और
(ii) अनुच्छेद 81 खंड (2) के उपखंड (ख) के प्रयोजनों के लिए 2001 की जनगणना के प्रति निर्देश है।

यहाँ पर दो बातें हैं;

पहली बात: अनुच्छेद 81 खंड (2) के उपखंड (क) और उस खंड के परंतुक के प्रयोजनों के लिए 1971 की जनगणना का इस्तेमाल किया जाएगा। तब तक जब तक की साल 2026 के बाद पहली जनगणना के आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यानि कि मोटे तौर पर 2031 तक।

इसका सीधा सा मतलब यह है कि साल 2031 तक जिस राज्य को जितनी सीटें अभी प्राप्त है, वहीं रहेंगी। यानि कि अगर बिहार को 40 सीटें प्राप्त है तो यह अभी 40 ही रहेंगी भले ही 1971 के बाद जनसंख्या कितनी ही क्यों न बढ़ गई हो।

दूसरी बात: अनुच्छेद 81 खंड (2) के उपखंड (ख) के प्रयोजनों के लिए 2001 की जनगणना का इस्तेमाल किया जाएगा।

इसका सीधा सा मतलब यह है कि अगर बिहार को 40 सीटें प्राप्त है तो वो तो अभी नहीं बदलने वाली है लेकिन उन सीटों के लिए जो निर्वाचन क्षेत्र तय किया गया है, उस प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या यथासाध्य एक ही हो इसके लिए साल 2001 की जनगणना का इस्तेमाल किया जा सकता है।

इसे इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हो सकता है कि 1971 के बाद किसी प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या दूसरे प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्र के तुलना में बढ़ गया हो या घट गया हो।

तो ऐसी स्थिति में राज्य के अंदर ही उन 40 निर्वाचन क्षेत्रों को 2001 की जनगणना के आधार पर पुनः समायोजित किया जा सकता है, ताकि सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या यथासाध्य एक ही हो जाए।

Q. 1971 वाली जनसंख्या का इस्तेमाल क्यों किया जाता है?

◾ पहले तो 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा राज्यों को लोकसभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन को वर्ष 2000 तक 1971 के जनगणना के आधार पर फिक्स कर दिया गया।

इसीलिए साल 1971 के बाद 2001 के जनगणना तक कोई पुनःसमायोजन नहीं हुआ। यानि कि कायदे से इसे 2002 में होना चाहिए था। लेकिन लोकसभा के मामले में इस प्रतिबंध को 84वें संविधान संशोधन अधिनियम 2001 द्वारा 25 वर्ष और बढ़ाकर 2026 तक फिक्स कर दिया गया। यानी कि 2026 तक जिस राज्य कि अभी जो स्थिति है वही रहेगी, और 1971 वाला जनसंख्या के आधार पर ही चलेगा।

◾ वहीं राज्य के भीतर के निर्वाचन क्षेत्रों के लिए भी साल 2000 तक 1971 के जनगणना का ही प्रयोग किया जाता था (42वें संविधान संशोधन के कारण)।

लेकिन 84वें संविधान संशोधन अधिनियम 2001 द्वारा इसे 1991 की जनगणना पर शिफ्ट कर दिया गया। और पुनः 2003 में 87वां संविधान संशोधन के माध्यम से इसे 2001 के जनगणना पर शिफ्ट कर दिया गया। ये जो सारी बातें हैं इसी की पुष्टि अनुच्छेद 82 में की गई है।

परिसीमन आयोग की संरचना (Composition of Delimitation Commission):

परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) संसद के एक अधिनियम द्वारा स्थापित एक उच्च स्तरीय निकाय है। इस आयोग की नियुक्ति देश के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
यह भारत के चुनाव आयोग के साथ मिलकर काम करता है।

परिसीमन आयोग में निम्नलिखित सदस्य होते हैं;

1. सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश (Retired Judge of Supreme Court)
2. मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner)
3. संबंधित राज्यों के राज्य चुनाव आयुक्त (State Election Commissioner of Related State)

परिसीमन आयोग के कार्य (Functions of Delimitation Commission):

◾ परिसीमन आयोग एक उच्च शक्ति निकाय है जिसके आदेशों में कानून का बल होता है। इसके आदेश को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।

◾ आयोग द्वारा दी गई आदेशों की प्रतियां लोकसभा और संबंधित विधान सभाओं के समक्ष रखी जाती हैं, लेकिन उनमें किसी बदलाव की अनुमति नहीं होती है।

◾ परिसीमन आयोग को निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या और सीमाओं को इस तरह से निर्धारित करना होता है कि जहां तक संभव हो व्यावहारिक रूप से सभी सीटों की जनसंख्या समान हो।

◾ आयोग उन क्षेत्रों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के लिए आरक्षित होने वाली सीटों की भी पहचान करता है, जहां उनकी आबादी महत्वपूर्ण है।

◾ यदि आयोग के सदस्यों की राय अलग-अलग है, तो बहुमत के निर्णय को ध्यान में रखा जाएगा।

◾ आयोग भारत के राजपत्र और राज्यों के आधिकारिक राजपत्रों और क्षेत्रीय भाषा के समाचार पत्रों के माध्यम से जनता के लिए मसौदा प्रस्ताव (draft resolution) जारी करता है।

◾ यह सार्वजनिक बैठकें भी आयोजित करता है जिसमें लिखित या मौखिक अभ्यावेदन के माध्यम से जनता की राय सुनी जाती है। और राय उपयुक्त पाए जाने पर, मसौदा प्रस्ताव में परिवर्तन किए जाते हैं। और फिर अंतिम आदेश को राजपत्र (gazette) में प्रकाशित किया जाता है और राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट तिथि से लागू होता है।

अतीत के परिसीमन आयोग (Delimitation Commission of the Past):

जैसा कि हमने ऊपर भी समझा कि अब तक चार परिसीमन आयोग हुए हैं: जिसे कि क्रमशः 1952, 1963, 1972 और 2002 में गठित किया गया था। आइये इसे समझ लेते हैं;

साल 1952 का परिसीमन आयोग:

1952 का परिसीमन आयोग संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन आदेश, 1951 के कारण बनाया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति एन चंद्रशेखर अय्यर 1953 में इसके अध्यक्ष थे।

◾ इसका गठन देश में संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से परिभाषित करने के लिए किया गया था।

◾ 1952 के परिसीमन आयोग की मुख्य सिफारिश “एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य” का सिद्धांत था, जिसका अर्थ था कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या मोटे तौर पर बराबर होनी चाहिए, ताकि हर वोट का वैल्यू समान हो।

इसे प्राप्त करने के लिए, आयोग ने 1951 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों के निर्माण का प्रस्ताव रखा, जिसमें प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या लगभग समान थी। इसने एकल-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र प्रणाली के उपयोग की भी सिफारिश की, जहां प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र एक प्रतिनिधि का चुनाव करता है।

◾ आयोग ने सिफारिश की कि लोकसभा (संसद के निचले सदन) में सीटों की संख्या 489 से बढ़ाकर 499 कर दी जाए, और राज्यसभा (उच्च सदन) में सीटों की संख्या 216 से बढ़ाकर 238 कर दी जाए। पहला आम चुनाव 489 सीटों पर ही हुआ था।

आयोग की सिफारिशों का उद्देश्य एक निष्पक्ष और प्रतिनिधि चुनाव प्रणाली सुनिश्चित करना था, और भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर इसका महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा है। “एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य” का सिद्धांत भारत की चुनावी प्रक्रिया में एक मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है, और बाद के परिसीमन आयोगों ने इस प्रणाली को और भी परिष्कृत किया।

साल 1963 का परिसीमन आयोग:

1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद पहला परिसीमन का काम 1963 में हुआ। भारत के परिसीमन आयोग की स्थापना 1962 में लोकसभा, भारतीय संसद के निचले सदन और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आवंटन को फिर से समायोजित करने के उद्देश्य से की गई थी। 1962 के परिसीमन आयोग की कुछ प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:

◾ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों का आवंटन 1961 की जनगणना के जनसंख्या के आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए।

◾ प्रत्येक राज्य को आवंटित लोकसभा में सीटों की संख्या का अनुपात ऐसा होना चाहिए कि राज्य की जनसंख्या प्रत्येक सीट की जनसंख्या के 10 गुना से अधिक न हो।

◾ लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों का आवंटन इस तरह से किया जाना चाहिए कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में हो।

इन सिफारिशों का उद्देश्य विधायी निकायों में समाज के सभी वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखना था। इसी को ध्यान में रखकर लोकसभा में सीटों की संख्या को बढ़ाकर 522 कर दिया गया और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या 3771;

साल 1972 का परिसीमन आयोग:

1973 के परिसीमन आयोग की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे एल कपूर ने की थी। भारत के परिसीमन आयोग की स्थापना 1972 में लोकसभा, भारतीय संसद के निचले सदन और राज्य विधानसभाओं में सीटों के आवंटन को समायोजित करने के उद्देश्य से की गई थी।

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सीटों का आवंटन 1971 की जनगणना के जनसंख्या के आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। और इसी को ध्यान में रखकर आयोग ने लोकसभा की सीटों को 522 से बढ़ाकर 542 करने की सिफारिश की (बाद में सिक्किम के नए राज्य के लिए एक और सीट जोड़कर इसे बढ़ाकर 543 कर दिया गया)।

इसने देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विधानसभा सीटों की कुल संख्या को 3771 से बढ़ाकर 3997 (सिक्किम की विधानसभा के लिए 32 सहित) करने की भी सिफारिश की।

[Concept]

दरअसल पहला लोकसभा चुनाव 489 सीटों के लिए हुआ था। 1956 में राज्य पुनर्गठन के बाद 1963 में सीटों में बढ़ोत्तरी की गई। और केंद्रशासित प्रदेश और राज्यों के निर्वाचन क्षेत्रों को मिलाकर यह संख्या 525 तक पहुँच गई।

कहने का अर्थ यह है कि 1971 तक अनुच्छेद 81 के तहत लोकसभा में राज्यों से चुनकर आने वाले सीटों की ऊपरी सीमा 500 थी, और केंद्रशासित प्रदेशों से चुनकर आने वाले सीटों की ऊपरी सीमा 25 थी। यानि कि कुल मिलाकर 525 सीटें लोकसभा की ऊपरी सीमा थी।

लेकिन हुआ ये 1971 में North-Eastern Areas (Reorganisation) Act 1971 लाया गया जिसके तहत तीन नए राज्यों का निर्माण किया गया – मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा। और इन राज्यों को 6 सीटें लोकसभा में दी गई।

लेकिन यहाँ पर समस्या यह थी लोकसभा में राज्यों से चुनकर आने वाले सांसदों की ऊपरी सीमा 500 ही निर्धारित थी, जबकि यहाँ सीटों की संख्या 506 हो गया था। जो कि अनुच्छेद 81 के तहत मान्य नहीं था।

इसीलिए 31वें संविधान संशोधन अधिनियम 1973 की मदद से लोकसभा में सीटों की संख्या को 525 से बढ़ाकर 545 कर दिया गया। जिसमें से 525 सीटें राज्यों से चुनकर आने वाले सांसदों के लिए था और 20 सीटें केंद्रशासित प्रदेशों से चुनकर आने वाले सांसदों के लिए था।

आगे चलकर फिर हुआ ये कि गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम 1987 लाया गया। दरअसल 1987 में तीन नए प्रांतों को राज्य का दर्जा दिया गया – अरुणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम

इसीलिए गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम 1987 की मदद से राज्यों से चुनकर आने वाले सांसदों की ऊपरी सीमा को 530 कर दिया गया। और केंद्रशासित प्रदेशों से चुनकर आने वाले सांसदों की संख्या को 20 ही रखा गया।

कुल मिलाकर हुआ ये कि लोकसभा सीटों की ऊपरी सीमा 1987 में 550 हो गई। 530 राज्यों से और 20 केंद्रशासित प्रदेशों से। और चूंकि उस समय 2 सीटें एंग्लो-इंडियन के लिए आरक्षित था इसीलिए यह संख्या 552 गया।

साल 2002 का परिसीमन आयोग:

सबसे हालिया परिसीमन आयोग की स्थापना 2001 की जनगणना के बाद 12 जुलाई 2002 को सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस कुलदीप सिंह के अध्यक्ष के रूप में की गई थी।

आयोग ने अपनी सिफारिशें सौंप दी हैं, लेकिन सरकार ने इसे लागू नहीं किया इसीलिए दिसंबर 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर इसे लागू न करने का कारण पूछा।

4 जनवरी 2008 को, राजनीतिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (CCPA) ने परिसीमन आयोग के आदेश को लागू करने का निर्णय लिया। आयोग की सिफारिशों को राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने 19 फरवरी को मंजूरी दी।

◾ याद रखें, इस परिसीमन से लोकसभा सीटों या विभिन्न राज्यों के बीच उनके विभाजन में कोई बदलाव नहीं किया गया। इसीलिए सीटों के मामले में यथास्थिति बनी हुई है।

◾ संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन, परिसीमन अधिनियम, 2002 के प्रावधानों के तहत 2001 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर किया गया है।

मई 2008 में तीन चरणों में आयोजित कर्नाटक में विधानसभा चुनाव, परिसीमन आयोग द्वारा तैयार की गई नई सीमाओं का उपयोग करते हुए किया गया था।

◾ परिसीमन आयोग का कार्यकाल 31 मई 2008 तक चला। आयोग द्वारा जारी परिसीमन आदेश को राष्ट्रपति द्वारा अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 19 फरवरी 2008 से लागू किया गया जबकि त्रिपुरा और मेघालय के लिए यह 20 मार्च 2008 से लागू किया गया।

◾ असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर के लिए 8 फरवरी 2008 को जारी किए गए चार अलग-अलग राष्ट्रपति आदेशों द्वारा सुरक्षा जोखिमों के कारण चार उत्तर-पूर्वी राज्यों के परिसीमन को स्थगित कर दिया गया था।

◾ असम के संबंध में आदेश 28 फरवरी 2020 को रद्द कर दिया गया था। हालांकि 2022 के अंत में असम राज्य मंत्रिमंडल ने चार जिलों को उनके घटक जिलों के साथ विलय को मंजूरी दी।

◾ 27 दिसंबर 2022 को, चुनाव आयोग ने असम में विधानसभा और संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया की घोषणा करते हुए कहा कि यह 2001 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित होगा। असम में वर्तमान में 14 लोकसभा क्षेत्र और 126 विधानसभा क्षेत्र हैं।

◾ भारत सरकार ने 6 मार्च 2020 को नए बने केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर के लिए परिसीमन आयोग का पुनर्गठन किया है। याद रखिए कि असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर के परिसीमन को भी इसके तहत रखा गया था लेकिन बाद में (2021) इसे रद्द कर दिया गया।

जम्मू और कश्मीर परिसीमन (Delimitation in J&K) :

जैसा कि हम जानते हैं साल 2019 में जम्मू और कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया। लद्दाख को तो बिना विधानमंडल के रखा गया है लेकिन जम्मू और कश्मीर को दिल्ली के तर्ज पर विधानमंडल भी मिला है।

इसलिए फिर से परिसीमन कराने की आवश्यकता महसूस हुई और इसीलिए 6 मार्च 2020 को सेवानिवृत्त न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग का गठन किया गया। इसकी रिपोर्ट 2011 की जनगणना के आधार पर आधारित है।

◾ पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य में 111 सीटें थीं – कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 – साथ ही 24 सीटें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के लिए आरक्षित थीं।

उस समय के जम्मू और कश्मीर राज्य में, संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन भारत के संविधान द्वारा शासित होता था और विधानसभा सीटों का परिसीमन तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 के तहत किया जाता था।

◾ 2019 में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को निरस्त करने के बाद, विधानसभा और संसदीय दोनों सीटों का परिसीमन संविधान द्वारा शासित होने लगा। इसीलिए 6 मार्च 2020 को परिसीमन आयोग की स्थापना की गई।

इसकी अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई ने की, इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त और जम्मू-कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी सदस्य के रूप में और जम्मू-कश्मीर के पांच सांसद सहयोगी सदस्य के रूप में शामिल हुए।

क्या-क्या बदलाव किए गए?

विधान सभा सीटों में वृद्धि: आयोग ने सात विधानसभा सीटों की वृद्धि की है – जम्मू में छह (अब 43 सीटें) और कश्मीर में एक (अब 47)।
साथ ही इसने मौजूदा विधानसभा सीटों की संरचना में भी बड़े पैमाने पर बदलाव किए हैं।

लोकसभा सीटों की स्थिति: जम्मू और कश्मीर में पांच संसदीय क्षेत्र हैं। आयोग ने अनंतनाग और जम्मू सीटों की सीमाएं फिर से तय की हैं।

जम्मू का पीर पंजाल क्षेत्र, जिसमें पुंछ और राजौरी जिले शामिल हैं और पूर्व में जम्मू संसदीय सीट का हिस्सा था, अब कश्मीर की अनंतनाग सीट में जोड़ दिया गया है। साथ ही, श्रीनगर संसदीय क्षेत्र के एक शिया बहुल क्षेत्र को बारामूला निर्वाचन क्षेत्र में स्थानांतरित कर दिया गया है।

कश्मीरी पंडित के लिए विशेष व्यवस्था: आयोग ने विधान सभा में कश्मीरी हिंदुओं के समुदाय से कम से कम दो सदस्यों के प्रावधान की सिफारिश की है।

इसने यह भी सिफारिश की है कि केंद्र को पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से विस्थापित हुए लोगों को जम्मू-कश्मीर विधान सभा में प्रतिनिधित्व देने पर विचार करना चाहिए, जो विभाजन के बाद जम्मू चले गए थे।

अनुसूचित जनजाति के लिए: पहली बार अनुसूचित जनजाति के लिए कुल नौ सीटें आरक्षित की गई है।

कुल मिलाकर जम्मू और कश्मीर के इस परिसीमन से कुछ लोग खुश है तो कुछ दुखी। कई लोग इसकी इसलिए भी आलोचना कर रहें हैं क्योंकि केवल जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं फिर से खींची जा रही हैं, जबकि देश के बाकी हिस्सों के परिसीमन को 2026 तक रोक दिया गया है।

यहाँ यह याद रखिए कि जम्मू-कश्मीर में अंतिम परिसीमन कार्य 1995 में किया गया था। 2002 में, तत्कालीन जम्मू-कश्मीर सरकार ने देश के बाकी हिस्सों की तरह 2026 तक परिसीमन कार्य को रोकने के लिए जम्मू-कश्मीर जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया था।

चूंकि परिसीमन का आधार 2011 की जनगणना है, इसीलिए 44% जम्मू के आबादी के पास 48% सीटों पर मतदान करने का मौका मिलेगा, जबकि कश्मीर में रहने वाले 56% शेष 52% सीटों पर मतदान करेंगे।

अनुच्छेद-52 – भारतीय संविधान
अनुच्छेद-31(क) – भारतीय संविधान
Delimitation Commission

परिसीमन की समस्याएं व समाधान (Problems & Solutions of Delimitation):

◾ परिसीमन प्रक्रिया (Delimitation Process) के कारण, जिन राज्यों ने अपनी जनसंख्या को कम करने में कोई महत्वपूर्ण प्रगति हासिल नहीं की है, वे संसद में बड़ी संख्या में सीटों को प्राप्त कर सकते हैं। इससे जनसंख्या को नियंत्रित करने वाले दक्षिणी राज्यों को कम सीटें मिलने की संभावना बढ़ जाती है।

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◾ 2002-08 में परिसीमन 2001 की जनगणना के आधार पर किया गया था, लेकिन विधानसभाओं और संसद में 1971 की जनगणना के अनुसार तय की गई सीटों की कुल संख्या में बदलाव नहीं किया गया था।

भारत के संविधान ने लोकसभा में सीटों की अधिकतम संख्या 550 और राज्यसभा में 250 तक सीमित कर दी है। इसलिए, परिसीमन के कारण, जनसंख्या की बढ़ती संख्या का प्रतिनिधित्व सिर्फ एक प्रतिनिधि द्वारा किया जा रहा है।

कुल मिलाकर देखें तो जनसंख्या के नवीनतम जनगणना के आंकड़ों के आधार पर लोक सभा में कई क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों और प्रत्येक राज्य की विधान सभा में कई क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व को पुन:समायोजित करना परिसीमन आयोग का कर्तव्य है।

लेकिन जैसा कि हम जानते हैं 84वें संविधान संशोधन अधिनियम 2001 द्वारा साल 2026 तक सीटों में बढ़ोत्तरी को रोक दिया गया है। इसकी एक वजह यह भी है कि पुराने संसद भवन में उतनी सीटें नहीं है।

नए संसद भवन का निर्माण इसी उद्देश्य से किया जा रहा है क्योंकि जब 2031 के बाद परिसीमन (Delimitation) होगा तब बढ़ी हुई जनसंख्या को ध्यान में रखकर सीटें निश्चित रूप से बढ़ायी जाएंगी। और तब हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के इस अथाह जनसंख्या को उचित प्रतिनिधित्व मिल सकेगा।

उम्मीद है आपको परिसीमन (Delimitation) पर लिखा गया यह लेख समझ में आया होगा, बेहतर समझ के लिए अनुच्छेद 81 और 82 को अवश्य समझें। लिंक नीचे दिया हुआ है।

⚫ Article 82 अनुच्छेद 82
⚫ Article 81 अनुच्छेद 81
Delimitation in India Explained

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https://ceomadhyapradesh.nic.in/delimitation/Delimitation_of_Constituencies.pdf
https://en.wikipedia.org/wiki/Delimitation_Commission_of_India
https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1822939

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