इस लेख में हम डीएनए (DNA) पर सरल एवं सहज़ चर्चा करेंगे एवं इसे बिल्कुल ही ज़ीरो लेवल से समझने की कोशिश करेंगे। तो बस इस लेख को धैर्य से पढ़ें।

साथ ही साइट पर डीएनए से संबंधित अन्य जरूरी जानकारियों पर भी लेख मौजूद है (सभी का लिंक नीचे दिया हुआ है), तो बेहतर समझ के लिए उन सभी को पढ़ें। और नियमित अपडेट के लिए हमारे सोशल मीडिया से जरूर जुड़ जाए।

डीएनए

डीएनए क्या है?

डीएनए (DNA), या डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic acid), मनुष्यों और लगभग सभी अन्य जीवों में वंशानुगत सामग्री (hereditary material) है।

किसी व्यक्ति के शरीर की लगभग हर कोशिका (Cell) का डीएनए एक जैसा होता है। अधिकांश डीएनए कोशिका के केंद्रक (nucleus) में स्थित होता है, इसीलिए इसे केंद्रक डीएनए (Nuclear DNA) कहा जाता है.

लेकिन डीएनए की एक छोटी मात्रा माइटोकॉन्ड्रिया (mitochondria) में भी पाई जा सकती है, जहां इसे माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए (Mitochondrial DNA) कहा जाता है।

याद रखें – माइटोकॉन्ड्रिया, कोशिकाओं के भीतर की संरचनाएं हैं जो भोजन से ऊर्जा को उस रूप में परिवर्तित करती हैं जिसका उपयोग कोशिकाएं कर सकती हैं।

डीएनए में जानकारी चार रासायनिक क्षार (chemical base) से बने कोड के रूप में संग्रहीत होती है, जो कि है: एडेनिन (ए), गुआनिन (जी), साइटोसिन (सी), और थाइमिन (टी)।

मानव डीएनए में लगभग 3 अरब क्षार (Base) होते हैं, और उनमें से 99 प्रतिशत से अधिक बेस (Base) सभी लोगों में समान होते हैं।

यही कारण है कि कुछ विशेषताओं को छोड़कर सभी इंसान एक से होते हैं। इन क्षारों (Bases) का क्रम, किसी जीव के निर्माण और रखरखाव के लिए उपलब्ध जानकारी को निर्धारित करता है, ठीक उसी तरह जिस तरह वर्णमाला के अक्षर शब्दों और वाक्यों को बनाने के लिए एक निश्चित क्रम में दिखाई देते हैं।

कुल मिलाकर डीएनए, न्यूक्लियोटाइडों (Nucleotides) से मिलकर बना होता है और प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड में एक क्षार (Base) होता है।

ये एडेनिन (adenine), थाइमिन (Thymine), साइटोसिन (cytosine) और गुआनिन (guanine) में से कोई भी हो सकता है। और प्रत्येक क्षार (Base) एक चीनी अणु (sugar molecule) और एक फॉस्फेट अणु (phosphate molecule) से जुड़ा होता है। [ये सब कैसे होता है इसे हम आगे समझने वाले हैं।]

कहने का अर्थ ये है कि एक साथ, एक क्षार (Base) एवं चीनी अणु और फॉस्फेट अणु को न्यूक्लियोटाइड (Nucleotide) कहा जाता है।

न्यूक्लियोटाइड्स दो लंबे स्ट्रैंड में व्यवस्थित होते हैं जो एक सर्पिल आकृति बनाते हैं जिसे डबल हेलिक्स (double helix) कहा जाता है।

डबल हेलिक्स की संरचना कुछ हद तक सीढ़ी की तरह होती है, जिसमें क्षार जोड़े (base pair) सीढ़ी के पायदान बनाते हैं और चीनी और फॉस्फेट अणु सीढ़ी के ऊर्ध्वाधर साइडपीस (vertical sidepiece) बनाते हैं।

Note – डीएनए बेस (यानी कि एडेनिन, थाइमिन, साइटोसिन और गुआनिन) एक दूसरे के साथ जुड़ते हैं। एडेनिन के साथ थाइमिन और साइटोसिन के साथ गुआनिन, जुड़कर बेस पेयर (base pair) नामक इकाइयाँ बनाते हैं।

डीएनए की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यह खुद को दोहरा सकता है, या स्वयं की प्रतियां बना सकता है। डबल हेलिक्स में डीएनए का प्रत्येक स्ट्रैंड बेस के अनुक्रम को डुप्लिकेट करने के लिए एक पैटर्न के रूप में काम कर सकता है।

यह महत्वपूर्ण है जब कोशिकाएं विभाजित होती हैं क्योंकि प्रत्येक नई कोशिका को पुरानी कोशिका में मौजूद डीएनए की एक सटीक प्रतिलिपि की आवश्यकता होती है।

पर सवाल ये आता है आखिर ये सब हुआ कैसे और हमें इसके बारे में कैसे पता चला, तो आइये सब कुछ शुरू से समझते हैं।

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डीएनए की खोज एवं उसकी समझ

पीढ़ी-दर-पीढ़ी मनुष्य और पौधे अपने जैसे ही मनुष्य और पौधे जनते रहें हैं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिकों के लिए ये कौतूहल का विषय रहा कि आखिर ये सब होता कैसे है। शरीर को ये याद रहता है कि इसके पूर्वज कैसे थे और आने वाले बच्चे में डिफ़ाल्ट रूप से वो सारी जानकारी भरी जानी है।

वैज्ञानिकों को पता था कि हमारे जीन्स में अनुवांशिक गुणधर्म मौजूद होते हैं और वो कोशिका (Cell) में होती हैं। ग्रेगर मेंडल ने 19वीं सदी के मध्य में इस पर काफी परीक्षण एवं अध्ययन किया था। आनुवंशिकता के मूल सिद्धांतों की खोज का श्रेय ग्रेगर मेंडल को ही जाता है।

लेकिन फिर भी लगभग 100 साल लगे डीएनए को समझने में, 1940 से लेकर 1960 से के बीच आकर, इस संबंध में एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध जानकारी स्थापित हो पायी।

डीएनए की ख़ोज के क्रम में किस तरह से अलग-अलग चीज़ें मिलती गई, और रहस्य खुलता गया; इसे जानना बहुत ही रोचक है। आइये शुरू से समझते हैं।

कोशिका किन पदार्थों का बना है?

मध्य 19वीं शताब्दी में वैज्ञानिक इस प्रश्न के उत्तर की खोज में लगे थे, कि कोशिका (सेल) किन पदार्थों का बना होता है? उसी में से एक था, जोहान फ्रेडरिच मीशर जो कि एक एक जर्मन केमिस्ट अर्नेस्ट फेलिक्स होहपोजेलर की प्रयोगशाला में काम करता था।

उसे ये पता था कि कोशिका (Cells) में प्रोटीन्स होते हैं, और वो उन्हें सरल टुकड़ों में तोड़ना चाहता था। 1869 में मीशर मृत और टूटे हुए सेल्स (कोशिकाओं) के साथ काम कर रहा था।

विस्तार से जानेंकोशिका (Cells) क्या होते हैं?

उसने अपने नमूने में पेपसिन (pepsin) नाम का एंजाइम डाला। दरअसल एंजाइम ऐसा पदार्थ होता है जो रासायनिक प्रक्रिया को तेज करता है।

पेपसिन की बात करें तो यह, प्रोटीन के बड़े परमाणुओं को तोड़कर उनके छोटे टुकड़े करता है। पर मीशर ने देखा कि सेल में कुछ ऐसे पदार्थ भी थे जिन पर पेपसिन का कोई असर नहीं हुआ।

जिस पदार्थ पर कोई असर नहीं हुआ था, उसे मीशर ने अलग किया और उस पर कुछ रासायनिक परीक्षण किए। और इस तरह से मीशर को उस पदार्थ में फास्फोरस के अणु मिले।

क्‍योंकि यह पदार्थ (जिसमें फास्फोरस अनु था) सेल के न्यूक्लियस में मिला था। मीशर ने इस नए पदार्थ का नाम न्यूक्लीन (nuclein) रखा।

हालांकि, उससे पहले मीशर के गुरु होहपोजेलर को एक बार जीवित टिश्यूज (लेसीथिन) में फास्फोरस मिला था। इस बार जब उसके शिष्य को सेल में फास्फोरस मिला तो होहपोजेलर ने इसे खुद से देखने के लिए लगातार 2 वर्षों तक शोध किया और उसने ख़मीर (यीस्ट) में फास्फोरस ख़ोज निकाला।

हालांकि होहपोजेलर को जो पदार्थ मिला था वो मीशर से कुछ भिन्‍न था इसलिए उन्हें अलग-अलग नाम दिया गया। मीशर को जिस पदार्थ में फास्फोरस मिला था उसे, प्राणियों के एक अंग ‘थायमस ग्लैन्ड*’ से आसानी से प्राप्त किया जा सकता था।

इसलिए उसका नाम ‘थायमस न्यूक्लीन‘ रखा गया। जबकि होहपोजेलर के पदार्थ को ‘खमीर‘ से प्राप्त किया जा सकता था इसलिए उसका नाम “यीस्ट न्यूक्लीन‘ रखा गया।

यह भी पढ़ें – प्रोकैरियोटिक और यूकेरियोटिक कोशिकाओं में अंतर [सचित्र]

प्रोटीन और न्यूक्लीन के बीच के रिश्ते

मीशर ने यह भी खोजा कि सैल्मन के स्पर्म सेल से निकलने वाला न्यूक्लीन एक बहुत सरल प्रोटीन से जुड़ा था जिसका नाम उसने ‘प्रोटोमीन‘ रखा।

आगे चलकर होहपोजेलर का एक और छात्र एलब्रेखल कौसिल ने 1879 में मेशर के न्यूक्लीन (nuclein) का अध्ययन किया। कौसिल का मुख्य मकसद था, प्रोटीन और न्यूक्लीन के बीच के रिश्ते को समझना।

कौसिल ने इस पर शोध किया और उसे भी न्यूक्लीन एक प्रोटीन से जुड़ा हुआ मिला। परंतु यह प्रोटीन मेशर के प्रोटोमीन जैसा सरल नहीं था बल्कि जटिल था।

कौसिल ने अपने प्रोटीन को ‘हिस्टोन‘ नाम दिया। [यूनानी में ‘हिस्टोन’ का अर्थ ‘सेल’ होता है।] यहाँ तक ये स्थापित हो गया कि न्यूक्लीन और प्रोटीन की जोड़ी मिलकर – न्यूक्लियोप्रोटीन बनाती है।

कौसिल ने आसानी से हिस्टोन (यानी कि प्रोटीन) और न्यूक्लीन को अलग-अलग कर दिया। उसने पाया कि वो दोनों आपस में इसलिए जुड़े थे क्‍योंकि न्यूक्लीन एक एसिड (अम्ल) का काम कर रहा था और हिस्टोन एक बेस (क्षार) का। और हम सब जानते हैं कि अम्ल और क्षार एक दूसरे से जुड़ते हैं। 

न्यूक्लीन के एसिड होने के कारण उसका नाम न्यूक्लिक-एसिड पड़ा। (अब आप समझ गए होंगे कि न्यूक्लिक एसिड कहाँ से आया है।) इस तरह से थायमस ग्लैंड से प्राप्त न्यूक्लीन को ‘थायमस न्यूक्लिक-एसिड‘ और यीस्ट से प्राप्त न्यूक्लीन को ‘यीस्ट न्यूक्लिक-एसिड‘ कहा जाने लगा।

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प्यूरीन्स (purines) एवं पिरिमिडिन्स (Pyrimidines) की ख़ोज…

चित्र 1

अब यहाँ तक ये पता चल चुका था कि न्यूक्लीन एक अम्ल है, अब ये समझना बाकी था कि न्यूक्लिक-एसिड के परमाणु किस प्रकार के हैं और ये आपस में किस प्रकार से जुड़े है। यह समझने के लिए कौसिल ने रासानिक प्रक्रियाओं द्वारा उन्हें छोटे टुकड़ों में विखंडित करने की बात सोची।

इसके लिए कौसिल और उसके छात्रों ने न्यूक्लिक-एसिड पर सालों काम किया और वे उसके कुछ अवयवों को पहचान पाए। कुछ अणु डबल-रिंग के बने थे। डबल-रिंग के हरेक कोण पर एक अणु था। (आप चित्र 1 में देख सकते हैं) गिनने से नौ कोण और नौ अणु मिलेंगे। इसमें चार अणु नाईट्रोजन के होंगे और बाकी सभी कार्बन के अणु होंगे।

कौसिल ने इस तरह की संरचना वाली दो पदार्थों की ख़ोज कि जिसे कि प्यूरीन्स (purines) के नाम से जाना जाता है। हरेक पदार्थ न्यूक्लिक-एसिड का हिस्सा थीं।

इसमें से एक को गुआनीन (g) और दूसरे को एडिनाइन (A) कहा गया। दोनों में अंतर ये है कि एडिनाइन में एक अतिरिक्त नाईट्रोजन का अणु होता है और गुआनीन में अतिरिक्त नाईट्रोजन और आक्सीजन के अणु होते हैं। [जिसे कि आप चित्र 2 और 3 में देख सकते हैं।]

चित्र 2
चित्र 3
चित्र 4

आगे चलकर शोध के दौरान कौसिल को ऐसे न्यूक्लिक-एसिड के टुकड़े भी मिले जो दोनों प्यूरीन्स से भी सरल थे। सरल इस मायने में कि उनके परमाणु में (प्यूरीन्स के विपरीत) छह अणुओं की केवल एक रिंग थी।

ऐसे एकल रिंग को पिरिमिडीन (pyrimidine) कहा जाता है। जैसा कि आप चित्र 4 में देख सकते हैं, इसमें केवल 2 नाइट्रोजन के अणु (Molecules) है। और बाकी के चार कोणों पर कार्बन के अणु है।

कौसिल को थासमस न्यूक्लिक-एसिड के टुकड़ों में दो पिरिमिडीन मिला। उनमें से एक को साईटोसीन (c) और दूसरे को थायमीन (t) कहा गया।

साईटोसीन में एक अतिरिक्त नाइट्रोजन और एक अतिरिक्त ऑक्सिजन होता है और थायमीन में दो अतिरिक्त ऑक्सिजन के अणु और एक अतिरिक्त कार्बन के अणु होते हैं। (जैसा कि आप चित्र 5 और चित्र 6 में देख सकते हैं।)

चित्र 5
चित्र 6
डीएनए
चित्र 7

इतना शोध होने के बाद थायमस और यीस्ट के न्यूक्लिक-एसिड्स के परमाणुओं के  बीच का अंतर पता चला। दोनों में प्यूरीन्स (गुआनीन और एडिनाइन) तो था, लेकिन थायमस न्यूक्लिक एसिड में जहां दो पिरिमिडीन (साईटोसीन और थायमीन) था, वहीं यीस्ट न्यूक्लिक एसिड में (साईटोसीन और यूरासिल) था।

दरअसल, यीस्ट न्यूक्लिक-एसिड्स में एक अन्य पिरिमिडीन मिली थी, जो कि थाईमीन से मिलती-जुलती थी फिर भी इससे अलग थी। इस पिरिमिडीन को यूरासिल (u) के नाम से जाना जाता है।

थाईमीन और यूरासिल में अंतर ये है कि – थाईमीन में एक अतिरिक्त कार्बन का अणु होता है जबकि युरासिल में दो अतिरिक्त ऑक्सिजन के अणु होते हैं। इसमें अतिरिक्त कार्बन का अणु नहीं होता। [जैसा कि आप चित्र 7 में देख सकते हैं।]

Fact – न्यूक्लिक एसिड के क्षेत्र में इस अभूतपूर्व शोधकार्य के लिए कौसिल को 1910 में चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरुस्कार मिला।

न्यूक्लिक एसिड में शक्कर (sugar)…

यहाँ तक न्यूक्लिक एसिड में ‘प्यूरीन्स और पिरिमिडीन’ स्पष्ट हो चुका था। पर कौसिल इससे संतुष्ट नहीं था क्योंकि कौसिल को न्यूक्लिक एसिड में कुछ शक्कर जैसा पदार्थ मिला, पर वो क्या था, कौसिल उसे बता नहीं पाया।

वो क्या था इस पर शोध कार्य को आगे बढ़ाया कौसिल के साथ ही काम करने वाले एक रूसी-अमेरिकी रसायन वैज्ञानिक; फीबियस एरान थियोडोर लीवन

उसने यीस्ट यूक्लिक-एसिड्स के परमाणुओं को विखंडित किया और उनके एक भाग में उसे शक्कर (Sugar) का एक परमाणु मिला, जिसकी सम्भावना पहले कौसिल ने जताई थी।

हालांकि रासायन वैज्ञानिकों को ये पता था कि जीवित टिश्यूज में छह कार्बन के अणु वाले शक्कर होते हैं, जिसे कि ग्लूकोस (glucose) कहा जाता है। पर ये न्यूक्लिक एसिड में है, ये नहीं पता था। तो, यीस्ट यूक्लिक-एसिड्स पर शोध करने पर लीवन को शक्कर मिला, लेकिन उसमें केवल पांच ही कार्बन के अणु थे। और उसके परमाणु में कार्बन के साथ-साथ दस हाईड्रोजन के अणु और पांच आक्सीजन के अणु भी थे।

यह जानकारी पर्याप्त नहीं थी, क्यांकि वे अणु अलग-अलग नमूनों में जुड़ कर आठ भिन्‍न शक्कर बना सकते थे। इनमें प्रत्येक शक्कर के अलग गुणधर्म होते। अब लीवन को यह पता करना था कि यीस्ट यूक्लिक-एसिड्स में उसे कौन सी शक्कर मिली थी। 1909 में लीवन ने सही शक्कर को पहचाना। इसे ‘राईबोज (Ribose)‘ के नाम से जाना गया।

इसी प्रकार, लीवन को थायमस न्यूक्लिक-एसिड्स में भी पांच-कार्बन वाला शक्कर का टुकड़ा मिला। परन्तु थायमस न्यूक्लिक-एसिड्स की पांच-कार्बन वाली शक्कर काफी अनूठी थी। और रसायन विज्ञानियों को उसके बारे में कुछ पता नहीं था।

साल 1929 में लीवन ने इस पांच-कार्बन वाली शक्कर की विशेषता को समझा। उसकी आणविक संरचना (molecular structure) तो बिल्कुल ‘राईबोज’ जैसी थी पर उसमें एक आक्सीजन का अणु गायब था।

चूंकि, उसमें एक आक्सीजन का अणु गायब था, इसीलिए लीवन ने इस शक्कर का नाम दिया “डीआक्सीराईबोज (deoxyribose)।” जहां ‘डीआक्सी’ का अर्थ था ‘एक आक्सीजन की कमी। इसकी संरचना कुछ इस तरह की दिखती है।

डीएनए
डीएनए

इस प्रकार अब स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता था कि दो प्रकार के न्यूक्लिक-एसिड में से यीस्ट न्यूक्लिक-एसिड के परमाणु में राईबोज और यूरासिल था। जबकि थायमस न्यूक्लिक-एसिड के परमाणु में डीआक्सीराईबोज और थाईमीन था।

रसायन विज्ञानियों ने यीस्ट न्यूक्लिक-एसिड को “राईबोन्यूक्लिक-एसिड (RNA)‘ और थायमस न्यूक्लिक-एसिड को ‘डीराईबोन्यूक्लिक-एसिड (DNA)‘ कहा। और इसी को हम क्रमशः RNA और DNA के नाम से जानते हैं।

हमने ऊपर पढ़ा था कि RNA और DNA दोनों में एक पदार्थ पाया जाता है जिसमें फास्फोरस होता है। आगे चलकर ये स्पष्ट हो गया कि फास्फोरस के अणु न्यूक्लिक एसिड में अकेले नहीं पाए जाते हैं।

वो हमेशा एक समूह का हिस्सा होते हैं जिनमें हाईड्रोजन और आक्सीजन के अणु भी होते हैं। इस मिश्रण को फास्फेट समूह (phosphate group) कहा जाता है और सक्षिप्त में हम उन्हें (ph) कह सकते हैं। जो कि कुछ इस तरह से दिखता है।

विस्तार से समझेंRNA और DNA में अंतर

कुल मिलाकर अब सारे घटक अलग-अलग स्पष्ट हो चुके थे। शक्कर (sugar) स्पष्ट हो चुका था। फॉस्फेट अणु स्पष्ट हो चुका था। और क्षार (Base) के रूप में एडेनिन, थाइमिन/यूरासिल, साइटोसिन और गुआनिन स्पष्ट हो चुका था।

इसी को तो न्यूक्लियोटाइड कहा जाता है। और कई न्यूक्लियोटाइडों मिलकर DNA की संरचना बनाते हैं। लीवन ने इन सब टुकड़ों को जोड़कर न्यूक्लिक-एसिड केसे बनते हैं यह समझने का प्रयास किया। और अब हम भी वही समझने वाले हैं।

प्यूरीन्स और पिरिमिडीन्स राईबोज या डीआक्सीराईबोज के साथ जुड़ी होती हैं। और यह सब फास्फेट समूह के साथ जुड़ा होता है। यहाँ ये याद रखिए कि जब प्यूरीन्स एवं पिरिमिडीन्स और फास्फोरस ग्रुप, राईबोज (ribose) के साथ जुड़ते है तब उसे राईबोन्यूक्लिक-एसिड (RNA) कहते हैं और जब प्यूरीन्स एवं पिरिमिडीन्स और फास्फोरस ग्रुप, डीआक्सीराईबोज (deoxyribose) के साथ जुड़ते हैं तब उसे डीराईबोन्यूक्लिक-एसिड (DNA) कहा जाता है।

यहाँ पर ये भी याद रखिए कि डीएनए में एडेनिन (A), थाइमिन (T), साइटोसिन (C) और गुआनिन (G) होता है जबकि RNA के परमाणुओं में बाकी सब तो सेम ही होता है बस थाइमिन (T) की जगह पर यूरासिल (u) होता है।

यह भी पढ़ें – डीएनए टेस्ट [आनुवंशिक परीक्षण]: क्या, कैसे, अर्थ एवं फ़ायदे..!

DNA की संरचना

अब अगर हम याद करें तो हमने ऊपर DNA की परिभाषा में पढ़ा था कि डीएनए, न्यूक्लियोटाइडों से मिलकर बना होता है और प्रत्येक न्यूक्लियोटाइड में एक क्षार (Base) होता है, ये एडेनिन, थाइमिन, साइटोसिन और गुआनिन में से कोई भी हो सकता है।

और प्रत्येक क्षार (Base) एक चीनी अणु (sugar molecule) और एक फॉस्फेट अणु (phosphate molecule) से जुड़ा होता है। [ये सब कैसे होता है आइये इसे समझते हैं।]

डीएनए

न्यूक्लियोटाइड, दिए गए चित्र के अनुसार व्यवस्थित होता है। यहाँ Phosphate का मतलब फास्फेट समूह है और Sugar का मतलब Ribose या Deoxyribose है।

और Base का मतलब प्यूरीन्स और पिरिमिडीन्स है। जहां प्यूरीन्स में Adenine और Guanine आता है और पिरिमिडीन्स में Thymine, Uracil और Cytosine आता है।

न्यूक्लियोटाइड की यही संरचना बार-बार दोहराती है और सीढ़ीनुमा संरचना का निर्माण करती है। ये होता ऐसे है कि पहले एक साइड से ये खुद को दोहराती है, जहां शक्कर (sugar) और फास्फेट समूह मिलकर एक किनारा (Strand) का निर्माण करती है, और फिर से ये विपरीत दिशा में खुद को दोहराती हुई दूसरा किनारा (Strand) का निर्माण करती है। इसी Strand (यानी कि सीढ़ी के दोनों खंभे) को Sugar Phosphate Backbone कहा जाता है।

इस प्रक्रिया में दोनों साइड का क्षार (Base) हाइड्रोजन बॉन्ड में बंधकर क्षार जोड़े (Base Pairs) का निर्माण करती है। यही Base Pairs सीढ़ी के डंडे की तरह दिखते हैं।

और हमने ऊपर भी चर्चा किया है कि यह Base Pairs एक खास नियम के तहत एक-दूसरे से जुड़ती है, यानी कि एडेनिन (A) हमेशा थाइमिन (T) के साथ जुड़ती है और साइटोसिन (C) हमेशा गुआनिन (G) के साथ जुड़ती है। आप दिए गए तस्वीर को देखकर समझ सकते हैं।

डीएनए
डीएनए

इस तरह से डीएनए (DNA) तैयार होता है। उम्मीद है आप समझ गए होंगे कि डीएनए की खोज कैसे हुई और ये कैसे अस्तित्व में आया। यहाँ पर ये याद रखिए कि इस संरचना को लीवल ने प्रतिपादित किया था।

हालांकि लीवल के ढांचे की पूरी तरह से पुष्टि 1938 में एक स्काटिश केमिस्ट एलिग्जैंडर रौबर्टस टौड द्वारा किया गया। जिसके लिए उसे नोबल प्राइज़ भी मिला।

DNA की समझ स्थापित होते ही इससे जुड़ी कई तकनीकों ने अपना विस्तार किया, और हमें हमारे जीवन से संबंधित कई राज मिले जो अन्यथा न मिलते। आज डीएनए सिक्वेन्सिंग, Genomics, Gene Editing एवं DNA Test जैसे कई व्यवस्था विकसित हो चुकी है और इसमें नए-नए आयाम जुड़ते ही चले जा रहे हैं।

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References,
डीएनए के बारे में हमें कैसे पता चला – आइसक असीमोव, हिन्दी अनुवाद, अरविंद गुप्ता
https://www.nigms.nih.gov/education/Booklets/the-new-genetics/Documents/Booklet-The-New-Genetics.pdf#page=11
https://www.genome.gov/about-genomics/fact-sheets/Deoxyribonucleic-Acid-Fact-Sheet
https://www.genome.gov/about-genomics/fact-sheets/DNA-Sequencing-Fact-Sheet