इस लेख में हम भारोपीय भाषा परिवार (Indo-European language family) पर सरल एवं सहज़ चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

भारोपीय भाषा परिवार यूरोप एवं एशिया के ज़्यादातर भाषाओं का प्रतिनिधित्व करता है। ऐसे में इन भाषाओं के बारे में जानना बहुत ही रोचक हो जाता है।

बेहतर समझ के लिए इस लेख को अंत तक पढ़ें और इसके पिछले वाले लेख को अवश्य पढ़ें ताकि आप समझ सकें कि भाषाओं के वर्गीकरण का आधार क्या है? [📄 भाषा से संबंधित लेख]

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भारोपीय भाषा परिवार

| भारोपीय भाषा परिवार की पृष्ठभूमि

भाषा को मुख्य रूप से दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है – आकृतिमूलक वर्गीकरण (morphological या syntactical classification) और पारिवारिक वर्गीकरण (genealogical classification)।

आकृतिमूलक वर्गीकरण में समान आकार वाले भाषा को रखा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो आकृति अर्थात शब्द या पद के रचना के आधार पर जो वर्गीकरण किया जाता है, उसे आकृतिमूलक वर्गीकरण कहा जाता है।

वहीं रचना तत्व और अर्थ तत्व के सम्मिलित आधार पर किया गया वर्गीकरण, पारिवारिक वर्गीकरण (genealogical classification) कहलाता है।

पारिवारिक वर्गीकरण के तहत विद्वानों ने सम्पूर्ण भाषा को भौगोलिक आधार पर पहले चार खंड में विभाजित किया है, जो कि कुछ इस तरह है; (1) अमेरिकी खंड (2) अफ्रीका खंड (3) यूरेशिया खंड (4) प्रशांत महासागर खंड

हम जानते हैं कि यूरेशिया खंड के तहत 10 भाषा परिवारों को रखा गया है, उसी में से एक है भारोपीय भाषा परिवार। इसी पर इस लेख में चर्चा करने वाले हैं।

Read – भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण [संक्षिप्त एवं सटीक विश्लेषण]

भारोपीय भाषा परिवार

Source – “Indo-European languages.” Encyclopedia Britannica. https://www.britannica.com/topic/Indo-European-languages.

भारतीय भाषा परिवार में मुख्य रूप से भारतीय उप-महाद्वीप और यूरोप महाद्वीप की भाषाएँ सम्मिलित है। इस भाषा परिवार के पीछे विद्वानों की मान्यता ये है कि कोई न कोई प्राचीन भाषा रही होगी जिससे संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि विकसित हुई होगी।

कुछ विद्वानों का यहाँ तक मानना है कि भारोपीय भाषा परिवार के भाषाओं की जननी संस्कृत है, इसीलिए एक समय तक इसका नाम संस्कृत परिवार भी रहा।

मैक्समूलर ने इस भाषा परिवार का नाम इंडो-जर्मनिक रखा। कुछ भाषा विज्ञानियों ने ‘काकेशस’ प्रदेश के आधार पर इस परिवार को काकेशियन भी कहा।

एक समय तक ये समझा जाता रहा कि भारोपीय भाषा बोलने वाले सभी लोग आर्य है. इसीलिए इसे आर्य भाषा परिवार भी कहा गया। मैक्समूलर और जैस्पर्सन ने इसका समर्थन भी किया।

हालांकि अंततः भारोपीय भाषा परिवार (Indo-European languages Family) नाम को इस भाषा परिवार के सही प्रतिनिधित्वकर्ता के रूप में माना गया, और आजकल हम इसे इसी नाम से जानते हैं।

लेकिन यहाँ यह याद रखिए कि इस नाम के ऊपर भी कई विद्वानों की आपत्ति है, उनका मानना है कि चूंकि भारोपीय भाषाएँ केवल यूरोप और भारत में न बोली जाकर अमरीका, ऑस्ट्रेलिया एवं अफ्रीका के भी अनेकों भाग में बोला जाता है इसीलिए इसे भारोपीय भाषा परिवार कहना उचित नहीं है।

कुछ भाषा विज्ञानी भारोपीय के स्थान पर इंडो-हिट्टाइट नाम को उपयुक्त मानते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि लगभग 2000 BCE में, कांस्य-युग में अनातोलिया में रहने वाले हिट्टाइट लोगों की भाषा भारोपीय भाषा थी।

इसी तरह से भारतीय भाषा विज्ञानी डॉ. भोलानाथ तिवारी, भारोपीय के स्थान पर विरोस नाम सुझाते हैं, उनका तर्क ये है कि भाषा-विज्ञानविद ने तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर मूल भारोपीय के एक शब्द Wiros का पुनर्निर्माण किया है और मूल लोगों को भी इसी विरोस शब्द से पुकारा है। तो यदि मूल लोगों को विरोस कहा जा रहा है तो फिर इस भाषा परिवार को भी विरोस परिवार कहा जाना चाहिए।

खैर, इस सब से बावजूद भी अभी इस परिवार को भारोपीय भाषा परिवार ही कहा जाता है, क्योंकि बाकी अन्य नामों पर अभी सर्वसम्मति नहीं है।

भारोपीय परिवार की मुख्य विशेषताएँ

| अपने मूल रूप में यह भाषा परिवार श्लिष्ट-योगात्मक है।

Explanation – जिस-जिस भाषा के शब्द में, रचनात्मक योग से मूल तत्व या अर्थ तत्व के कुछ अंश में परिवर्तन आ जाता है, उसे शिलिष्ट योगात्मक कहा जाता है, जैसे कि – वैदिक, नैतिक एवं दैहिक शब्द में क्रमशः वेद, नीति एवं देह, मूल तत्व या अर्थ तत्व है, लेकिन इन शब्दों में ‘इक’ प्रत्यय लगाने से मूल या अर्थ तत्व में परिवर्तन आ जाता है।

| इन भाषाओं के शब्दों में जो प्रत्यय जोड़े जाते हैं, उनके स्वतंत्र अर्थ का पता नहीं है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी के शब्द Mainly में ly प्रत्यय लगा हुआ है लेकिन इस ‘ly’ का स्वतंत्र अर्थ नहीं है।

Explanation – विद्वानों का इस मामले में कहना है कि शुरुआत में सभी भारोपीय प्रत्यय एक स्वतंत्र शब्द की तरह था, उसका एक अपना अर्थ था। लेकिन कालांतर में धीरे-धीरे ध्वनि परिवर्तन के चक्र में जोड़ने से उसका आधुनिक रूप मात्र शेष रह गया।

| इस परिवार की भाषाएँ आरंभ में योगात्मक थी, पर धीरे-धीरे कुछ को छोड़कर सभी वियोगात्मक हो गई, कहने का अर्थ ये है कि अब परसर्ग (preposition) एवं सहायक क्रिया (auxiliary verb) आदि की आवश्यकता पड़ती है।

| इस परिवार की कुछ भाषाएँ स्थान प्रधान हो गई है। यानी कि वाक्यों में शब्दों का स्थान बदल देने से अर्थ परिवर्तित हो जाता है, पर संस्कृत जैसे प्राचीन भाषाओं में यह बात नहीं थी।

| इस परिवार में परसर्ग (preposition) या पूर्व विभक्तियाँ, से संबंध-सूचना देने के अलावा शब्दों या धातुओं के अर्थ को परिवर्तित करने का काम लिया जाता है। जैसे कि विहार, आहार, परिहार आदि में ‘वि’, ‘आ’, और ‘परि’ आदि लगाकर किया गया है।

| समास-रचना की विशेष शक्ति इस परिवार में है। इसकी रचना के समय विभक्तियों का लोप हो जाता है और समास द्वारा बने शब्द का अर्थ ठीक वही नहीं रहता जो उसके अलग-अलग शब्दों को एक स्थान पर रखने से होता है। उसमें एक नया अर्थ आ जाता है। जैसे काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभा अर्थात काशी की वह सभा जो नागरी का प्रचार करती है।

| इस परिवार की एक प्रधान विशेषता यह भी है कि स्वर-परिवर्तन से संबंधतत्व संबंधी परिवर्तन हो जाता है। माना जाता है कि आरंभ में स्वराघात के कारण ऐसा हुआ होगा। कुल मिलाकर स्वराघात के कारण स्वर-परिवर्तन हो गया और जब धीरे-धीरे प्रत्ययों (suffix) का लोप हो गया तो ये स्वर-परिवर्तन ही संबंध परिवर्तन को भी स्पष्ट करने लगे।

अंग्रेजी की कुछ क्रियाओं में यह बात स्पष्टतः देखी जा सकती है जैसे कि – drink, drank, drunk। यहाँ i, a और u में परिवर्तन हुआ है, और इसी से उसमें काल संबंधी परिवर्तन आ गया है।

| भारोपीय परिवार का विभाजन

भारोपीय परिवार को विद्वानों ने कई प्रकार से वर्गीकृत किया है। यहाँ पर हम बान ब्रैडके द्वारा किए गए वर्गीकरण को ले रहे हैं। (हालांकि दूसरे वर्गीकरण का चार्ट को भी नीचे आपको मिलेगा )। बान ब्रैडके ने व्याकरण और ध्वनि को आधार बनाकर भारोपीय भाषा परिवार के भाषाओं को दो वर्गो में वर्गीकृत किया है – [1] केंतुम वर्ग और, [2] सेंतम वर्ग। आइए दोनों को विस्तार से समझते हैं;

[1] केंतुम वर्ग

इस वर्ग में निम्नलिखित भाषाओं को रखा गया है; – केल्टिक (Celtic), ट्यूटानिक या जर्मनिक, लैटिन या इटैलिक (italics), हेलेनिक या ग्रीक (Greek), हित्ती और तोखारी (Tocharian)। आइये एक-एक करके इसे समझते हैं।

भारोपीय भाषा परिवार

केल्टिक (Celtic) इस शाखा में दो उप-शाखाएँ हैं: कॉन्टिनेंटल केल्टिक और इंसुलर केल्टिक। लगभग 600 ईसा पूर्व तक, केल्टिक-भाषी जनजातियाँ आज के दक्षिणी जर्मनी, ऑस्ट्रिया और पश्चिमी चेक गणराज्य से लगभग सभी दिशाओं में फ़्रांस, बेल्जियम, स्पेन और ब्रिटिश द्वीपों तक फैल गई थीं, फिर 400 ईसा पूर्व तक, वे भी दक्षिण की ओर चले गए। उत्तरी इटली और दक्षिण-पूर्व में बाल्कन में और उससे भी आगे। पहली शताब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत के दौरान, केल्टिक-भाषी जनजातियों ने यूरोप के एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्से पर अपना प्रभुत्व जमाया। 50 ईसा पूर्व में, जूलियस सीज़र ने गॉल (प्राचीन फ्रांस) पर विजय प्राप्त की और ब्रिटेन को भी लगभग एक सदी बाद सम्राट क्लॉडियस ने जीत लिया। नतीजतन, इस बड़े केल्टिक-भाषी क्षेत्र को रोम द्वारा अवशोषित कर लिया गया, और लैटिन प्रमुख भाषा बन गई, और कॉन्टिनेंटल केल्टिक भाषाएं अंततः समाप्त हो गईं।

6ठी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास केल्टिक-भाषी जनजातियों के प्रवेश के बाद ब्रिटिश द्वीपों में द्वीपीय केल्टिक विकसित हुआ। आयरलैंड में, द्वीपीय केल्टिक फला-फूला, भौगोलिक अलगाव से सहायता मिली जिसने आयरलैंड को रोमन और एंग्लो-सैक्सन आक्रमण से अपेक्षाकृत सुरक्षित रखा।

आज बोली जाने वाली केल्टिक भाषाएं (आयरिश गेलिक, स्कॉटिश गेलिक, वेल्श और ब्रेटन), आयरलैंड, वेल्स, स्कॉटलैंड, एवं कार्नवाल के ही कुछ भागों में शेष रह गया है; और ये सभी इंसुलर केल्टिक से आती हैं।

जर्मनिक (germanic) इसे ट्यूटानिक के नाम से भी जाना जाता है। यही वह भारोपीय भाषा परिवार की शाखा है जिससे अंग्रेजी निकली है। जर्मनिक शाखा तीन उप-शाखाओं में विभाजित है: पूर्वी जर्मनिक, (जो कि विलुप्त हो चुका है। इसकी मुख्य भाषा गौथिक को माना जाता है जो की संस्कृत के करीब मानी जाती है।); उत्तरी जर्मनिक, (जिसमें पुरानी नॉर्स भाषाएँ है, और जो सभी आधुनिक स्कैंडिनेवियाई भाषाओं का पूर्वज है); और पश्चिम जर्मनिक, इसमें पुरानी अंग्रेज़ी, डच और उच्च एवं निम्न जर्मन भाषाएँ शामिल हैं।

यह शाखा अपनी ध्वनियों के परिवर्तन के लिए बहुत प्रसिद्ध है। पहला परिवर्तन प्रागैतिहासिक काल में हुआ, जिसके कारण भारोपीय भाषा परिवार की अन्य शाखाओं से यह कुछ दूर हो गई। दूसरा परिवर्तन 7वीं सदी के लगभग हुआ, जिसके कारण यह शाखा कई वर्गों में बंट गया।

इसके प्राचीनतम उदाहरण तीसरी सदी के मिलते हैं, जो इसकी पुरानी, रोमन और ग्रीक लिपि से भिन्न, रुनी लिपि में हैं। इस वर्ग की भाषाएँ धीरे-धीरे संयोगात्मक से वियोगात्मक होती जा रही है। मूल भाषाओं में संगीतात्मक स्वराघात का प्राधान्य था लेकिन अब इस वर्ग में केवल स्वीडिश में ही संगीतात्मक स्वराघात शेष है। शेष सभी भाषाओं में बलात्मक स्वराघात विकसित हो गया है।

डच, अंग्रेजी, फ़्रिसियाई और यिडिश पश्चिमी जर्मनिक उप-शाखा के आधुनिक बचे भाषाओं के कुछ उदाहरण हैं, जबकि डेनिश, फ़िरोज़, आइसलैंडिक, नॉर्वेजियन और स्वीडिश उत्तरी जर्मनिक शाखा के बचे हुए के उदाहरण हैं।

इटैलिक (italics) – यह शाखा इतालवी प्रायद्वीप में प्रमुख थी। इटैलिक लोग इटली के मूल निवासी नहीं थे; उन्होंने लगभग 1000 ईसा पूर्व आल्प्स को पार करते हुए इटली में प्रवेश किया और धीरे-धीरे दक्षिण की ओर बढ़ गए। लैटिन, इस समूह की सबसे प्रसिद्ध भाषा थी, मूल रूप से इतालवी प्रायद्वीप के केंद्र में छोटी कृषि बस्तियों में रहने वाले देहाती जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली एक अपेक्षाकृत छोटी स्थानीय भाषा थी। लैटिन में पहला शिलालेख 7 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिया और छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक यह काफी फैल गया था।

प्राचीन काल में लैटिन के विकास के लिए रोम जिम्मेदार था। शास्त्रीय लैटिन, लैटिन का एक रूप है जिसका उपयोग ओविड, सिसेरो, सेनेका, प्लिनी और मार्कस ऑरेलियस जैसे रोमन लेखकों के सबसे प्रसिद्ध कार्यों द्वारा किया जाता है। इस शाखा की अन्य भाषाएँ हैं: फालिसन, सबेलिक, उम्ब्रियन, साउथ पिसीन और ओस्कैन, ये सभी विलुप्त हैं।

यहाँ जो याद रखने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात है वो ये है कि इताली, रोमानियन, स्पेनिश, पुर्तगाली, फ्रांसीसी भाषा इसी से निकला है।

​​ग्रीक (Greek) ग्रीक, भाषाओं की एक शाखा के बजाय, बोलियों (dialects) का एक समूह है। ये जिस समूह का हिस्सा हैं, उसे कहा जाता है – हेलेनिक (Hellenic)। 3000 से अधिक वर्षों के लिखित इतिहास के दौरान, ग्रीक बोलियाँ कभी भी परस्पर समझ से बाहर की भाषाओं में विकसित नहीं हुईं। ग्रीक बाल्कन के दक्षिणी छोर, पेलोपोन्नी प्रायद्वीप और एजियन सागर और इसके आसपास के क्षेत्र में प्रमुख था। ग्रीक भाषा का सबसे पुराना जीवित लिखित साक्ष्य माइसीनियन है, जो माइसीनियन सभ्यता की बोली है, जो मुख्य रूप से क्रेते के द्वीप पर मिट्टी की गोलियों और चीनी मिट्टी के जहाजों पर पाया जाता है। माइसीनियन में वर्णमाला लिखित प्रणाली नहीं थी, बल्कि इसकी एक सिलेबिक लिपि थी जिसे लीनियर बी स्क्रिप्ट के रूप में जाना जाता था।

इसके प्राचीन उदाहरण होमर के इलियड और ओडिसी महाकाव्यों में मिलते हैं। इसका समय 1 हज़ार BC माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है।

ग्रीक भाषा में बहुत सारी ऐसी बातें थी जो कि वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है, जैसे कि, दोनों ही में संगीतात्मक स्वराघात प्रधान था, एवं दोनों में शब्दों के रूप बहुत अधिक थे, इत्यादि।

प्राचीन काल में कई ग्रीक बोलियां थीं, लेकिन 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में एथेंस सांस्कृतिक वर्चस्व के कारण, यह एथेंस बोली, जिसे एटिक कहा जाता था, शास्त्रीय काल (480-323 ईसा पूर्व) के दौरान मानक साहित्यिक भाषा बन गई थी। इसलिए, शास्त्रीय काल में लिखी गई सबसे प्रसिद्ध ग्रीक कविता और गद्य एटिक में लिखे गए थे: एरिस्टोफेन्स, अरस्तू, यूरिपिड्स और प्लेटो उन लेखकों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने एटिक में लिखा था।

तोखारी (Tocharian) – तोखारी भाषी लोगों का इतिहास अभी भी रहस्य से घिरा हुआ है। अंग्रेज़, रूसी तथा जर्मन विद्वानों ने बीसवीं सदी के आरंभ में पूर्वीय तुर्किस्तान के तुरफान प्रदेश में कुछ ऐसे ग्रंध तथा पत्र प्राप्त किए जो भारतीय लिपि (ब्राह्मी तथा खरोष्ठी) में थे। इसके बोलने वाले ‘तोखार’ लोग थे; अतः इस भाषा को तोखारी कहा गया।

समीपता के कारण इस पर यूराल-अल्ताई परिवार का बहुत प्रभाव पड़ा है। अधिकांश तोखारियन ग्रंथ प्रसिद्ध बौद्ध कार्यों के अनुवाद हैं, और ये सभी ग्रंथ 6 ठी और 8 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच के हैं। हालांकि आज यह शाखा विलुप्त हो चुकी है।

हित्ती – अनातोलियन (Anatolian) भाषाओं की यह शाखा तुर्की के एशियाई भाग और उत्तरी सीरिया के कुछ क्षेत्रों में प्रमुख थी। इन भाषाओं में सबसे प्रसिद्ध हित्ती है। 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बोगजकुई की खुदाई में इसका रूप कीलाक्षरों (cuneiform) में मिला था। 1906 ईस्वी में, हित्ती साम्राज्य की राजधानी हट्टुसस की साइट पर बड़ी मात्रा में हित्ती की खोज की गई थी, जहां एक शाही संग्रह के अवशेषों में लगभग 10,000 कीलाकार पत्रियाँ* (cuneiform tablets) और कई अन्य टुकड़े पाए गए थे। ये ग्रंथ मध्य से लेकर दूसरी सहस्राब्दी (1 सहस्राब्दी = 1 हज़ार साल) ईसा पूर्व तक के हैं। लुवियन, पैलिक, लाइकियन और लिडियन इस समूह से संबंधित परिवारों के अन्य उदाहरण हैं।

ऐसा विवाद है कि भारोपीय परिवार से कुछ शब्द उधार लेकर इस भाषा ने अपनी प्रसिद्धि पायी। विभक्तियाँ और सर्वनाम संस्कृति और लैटिन से बहुत अंशों से मिलते हैं। परंतु अनेक विद्वान इस भाषा को मूल भारोपीय भाषा से भी प्राचीन मानते हैं। इस भाषा में स्वरों की जटिलता कम है। संधि नियम संस्कृत जैसे हैं। विभक्तियाँ भी आठ हैं। शब्द भंडार संस्कृत के समीप है। जैसे कि पितृ – पाचर , मातृ – माचर।

इस शाखा की सभी भाषाएँ वर्तमान में विलुप्त हैं। इस शाखा में लगभग 1800 ईसा पूर्व की एक इंडो-यूरोपीय भाषा का सबसे पुराना जीवित प्रमाण है।

* कीलाकार अभिलेख, मेसोपोटामिया, फारस और उगारिट की प्राचीन लेखन प्रणालियों में उपयोग किए जाने वाले पच्चर या कील के आकार के पात्रों से संबंधित है।

[2] सेंतम वर्ग

इस भाषायी वर्ग की कई शाखाएँ हैं: स्लोवेनिक (Slovenic), इंडो-ईरानी (Indo-Iranian), अर्मेनियाई (Armenian), बाल्टिक (baltic) और अल्बानियाई या इलीरियन (Albanian or Illyrian)।

इलिरियन या अल्बानियाई (Illyrian or Albanian) अल्बानियाई की उत्पत्ति पर दो परिकल्पनाएँ हैं। पहला कहता है कि अल्बानियाई इलिरियन का एक आधुनिक वंशज है, एक ऐसी भाषा जो शास्त्रीय समय के दौरान इस क्षेत्र में व्यापक रूप से बोली जाती थी। चूंकि हम इलिरियन के बारे में बहुत कम जानते हैं, इसलिए इस दावे को न तो नकारा जा सकता है और न ही भाषाई दृष्टिकोण से इसकी पुष्टि की जा सकती है। हालाँकि, ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टिकोण से, यह कथन समझ में आता है। एक अन्य परिकल्पना कहती है कि अल्बानियाई थ्रेसियन का वंशज है, एक और खोई हुई भाषा जो इलिय्रियन की तुलना में पूर्व में बोली जाती थी।

बहुत वर्षों तक विद्वान इसे भारोपीय भाषा परिवार के स्वतंत्र शाखा के रूप में मानते तक नहीं थे, किन्तु जब यह किसी से भी पूर्णत: न मिल सकी तो इसे अलग मानना ही पड़ा।

आज अल्बानिया में आधिकारिक भाषा के रूप में अल्बानियाई बोली जाती है, पूर्व यूगोस्लाविया के कई अन्य क्षेत्रों में और दक्षिणी इटली, ग्रीस और मैसेडोनिया गणराज्य में छोटे परिक्षेत्रों में भी यह भाषा बोली जाती है।

बाल्टिक (baltic) – इस वर्ग के अंतर्गत मुख्य रूप से दो भाषाएँ आती है;

(क) लिथुआनिया – इसका क्षेत्र प्रशा के उत्तर पूर्व में है। इसका साहित्य 16वीं सदी के बाद से आरंभ होता है। इसकी प्रसिद्ध पुस्तक महाकवि दोगेलेटिस की ‘सीजन्स’ है, इसका रचना काल 1750 है। वैज्ञानिकों की दृष्टि से यह भाषा बड़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका विकास बहुत धीरे-धीरे हुआ है। इसी कारण आज भी यह मूल भारोपीय भाषा से अधिक दूर नहीं । वैदिक संस्कृत की भांति इसमें अभी भी संगीतात्मकता और द्विवचन है।

(ख) लैट्टिश – यह रूस के पश्चमी भाग में लेटविया राज्य की भाषा है। यह लिथुआनियन से अधिक विकसित है। इसमें भी साहित्य का अध्ययन 16वीं सदी में हुआ है। इसके भाषा के अधिक विसकित होने के करण बाल्टिक शाखा को लेट्टिश शाखा भी कहते हैं।

इसे बाल्टिक भाषा इसीलिए कहा जाता है क्योंकि ये बाल्टिक देश और उसके आस-पास विकसित हुआ था। सबसे प्रमुख बाल्टिक भाषा है लिथुआनियन।

स्लोवेनिक (Slovenic) – यह एक विस्तृत भाषा वर्ग है। पूर्वी यूरोप का एक बड़ा भाग इसमें आता है। दूसरी तीसरी सदी तक इस भाषा को बोलने वाले एक सीमित क्षेत्र में रहते थे। 9वीं सदी तक आते-आते इसका प्रसार रूस, पोलैंड एवं बुल्गारिया में हुआ। इसके तीन भाग किए जा सकते हैं –

(क) पूर्वी शाखा – इस शाखा के अंतर्गत तीन भाषाओं को रखा जाता है; महरूसी, श्वेत रूसी और लघु रूसी। श्वेत रूसी रूस के दक्षिण में बोली जाती है। लघु रूसी को रूथेनीयन भी कहा जाता है और इसके बोलने वाले रूस के पश्चिम में पोलैंड तक मिलते हैं।

(ख) पश्चिमी शाखा – इसकी प्रधान भाषा चेक है। ये चूंकि बोहेमिया लोगों की भाषा है इसीलिए इसे बोहेमियन भी कहा जाता है। इस शाखा में पोलिश भाषा को भी रखा जाता है। हालांकि इसका मूल क्षेत्र अब केवल पोलैंड तक सिमट गया है।

(ग) दक्षिणी शाखा – इसकी प्रसिद्ध भाषा बल्गेरियन है। इसके प्राचीन रूप को चचर स्लोवेनिक कहा जाता है। वर्तमान बल्गेरियन पूर्णतः वियोगात्मक हो गई है। इसे शब्द ग्रीक, अल्बेनियन, रुमेनियन तथा तुर्की के शब्दों की तरह है। इसका प्रधान क्षेत्र बल्गेरिया के अतिरिक्त यूरोपीय तृकी तथा ग्रीस आदि भी है। 6ठी सदी के मध्य में इसी भाषा में बाइबिल का अनुवाद हुआ था।

आज केवल दो बाल्टिक भाषाएँ बची हैं: लातवियाई और लिथुआनियाई। लेकिन बड़ी संख्या में स्लाव भाषाएं जीवित हैं, जैसे बल्गेरियाई, चेक, क्रोएशियाई, पोलिश, सर्बियाई, स्लोवाक, रूसी और कई अन्य।

अर्मेनियाई (Armenian) अर्मेनियाई भाषी लोगों की उत्पत्ति अभी भी एक अनसुलझा विषय है। यह संभव है कि अर्मेनियाई और फ्रिजियन उसी प्रवासी लहर से संबंधित थे जो अनातोलिया में प्रवेश करती थी, जो कि दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के अंत में बाल्कन से आ रही थी। अर्मेनियाई लोग लेक वैन, वर्तमान में तुर्की के आसपास के क्षेत्र में बस गए; यह क्षेत्र पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत के दौरान उरारतु राज्य से संबंधित था।

8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, उरारतु असीरियन नियंत्रण में आया और 7 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, अर्मेनियाई लोगों ने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। मेड्स ने जल्द ही इस क्षेत्र को अवशोषित कर लिया और आर्मेनिया एक जागीरदार राज्य बन गया। अचमेनिद (Achaemenid) साम्राज्य के समय, यह क्षेत्र फारसी क्षेत्र में बदल गया। अर्मेनियाई पर फ़ारसी वर्चस्व का एक मजबूत भाषाई प्रभाव था, जिसने अतीत में कई विद्वानों को यह विश्वास करने के लिए गुमराह किया कि अर्मेनियाई वास्तव में ईरानी समूह के थे।

इंडो-ईरानी (Indo-Iranian)इस शाखा में दो उप-शाखाएं शामिल हैं: इंडो-आर्यन और ईरानी। इंडो-आर्यन के तहत सभी भारतीय भाषाएँ आती है जबकि ईरानी के तहत ईरान और उसके आस-पास के क्षेत्रों की भाषाएँ आती है।

आज ये भाषाएँ भारत, पाकिस्तान, ईरान और इसके आसपास के क्षेत्रों में और काला सागर से लेकर पश्चिमी चीन तक के क्षेत्रों में प्रमुख हैं।

भारतीय भाषाओं में संस्कृत एवं वैदिक संस्कृत प्रमुख है, माना जाता है कि सभी भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। संस्कृत की सबसे पुरानी किस्म, वैदिक संस्कृत, वेदों में संरक्षित है, जो प्राचीन भारत के भजनों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का संग्रह है।

अवेस्ता (Avestan), एक ऐसी भाषा है जो ईरानी समूह का हिस्सा है। प्राचीन अवेस्ता जिसे संस्कृत की “बहन” भी कहा जाता है; इस समूह की सबसे पुरानी संरक्षित भाषा है, जो कि प्रारंभिक पारसी धार्मिक ग्रंथों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा है।

ईरानी उप-शाखा की एक अन्य महत्वपूर्ण भाषा पुरानी फ़ारसी है, जो कि 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के अंत में शुरू होने वाले अचमेनिद राजवंश के शाही शिलालेखों में पाई जाने वाली भाषा है। इस शाखा का सबसे पुराना प्रमाण लगभग 1300 ईसा पूर्व का है।

आज, भारतीय उपमहाद्वीप में कई भारतीय भाषाएँ बोली जाती हैं, जैसे हिंदी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, आसामी, ओड़िया, मैथिली, मराठी और बंगाली इत्यादि। इसी तरह से फ़ारसी, पश्तो और कुर्द जैसी ईरानी भाषाएँ इराक, ईरान, अफगानिस्तान और ताजिकिस्तान में बोली जाती हैं।

इस टॉपिक को विस्तार से पढ़ेंइंडो-ईरानियन भाषा: विस्तृत चर्चा

/ अन्य वर्गीकरण

नीचे दिए गए चार्ट की मदद से आप भारोपीय भाषा परिवार के दूसरे वर्गीकरण को देख सकते हैं। आप समझने के लिए इस चार्ट का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।

Credit – worldhistory.org

| समापन टिप्पणी

हमने विश्व की भाषाओं के वर्गीकरण के अंतर्गत इस लेख में भारोपीय भाषा परिवार को समझा। जिसे कि पहले कई नामों से बुलाया जाता रहा है, जैसे कि इंडो-जर्मनीक, इंडो केल्टिक एवं आर्य परिवार आदि। इन भाषाओं के अभिलेखबद्ध रूप संस्कृत, अवेस्ता, ग्रीक एवं लैटिन आदि भाषाओं में दिखाई देती हैं। गौरतलब है कि इसके आधार पर ही यह अनुमान किया गया कि इन सब भाषाओं का भी कोई मूल रूप रहा होगा। उसे ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के विद्वानों ने तुलनात्मक पद्धति के आधार पर पुनर्रचित किया और उसे मूल भारोपीय भाषा कहा।

भारोपीय भाषा परिवार के अंतर्गत भारत-ईरानी भाषा वर्ग की अलग विशिष्टता है। इस वर्ग में एक ओर ईरान की आर्य भाषाएँ और दूसरी ओर भारत की आर्य भाषाएँ सम्मिलित की गई है। इस भाषा वर्ग को समझना बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि भारत के मुख्य भाषाओं का संबंध इसी से है; इसीलिए हम इस पर अगले लेख में विस्तार से बात करेंगे।

एक मूल संस्कृत भाषा से लगभग 20 प्रमुख आधुनिक आर्य भाषाओं के निकालने के पीछे कई करण है। यह भी उल्लेखनीय है कि किसी तरह से ये भाषाएँ अपनी अलग-अलग अस्मिता ग्रहण करती गई है। तो भारतीय भाषाओं को अच्छे से समझने के लिए भाषा से संबन्धित सभी लेखों को पढ़ें; भाषा से संबन्धित लेख

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FAQs

Q. कीलाकार (cuneiform) क्या है?

कीलाकार अभिलेख, मेसोपोटामिया, फारस और उगारिट की प्राचीन लेखन प्रणालियों में उपयोग किए जाने वाले पच्चर या कील के आकार के पात्रों से संबंधित है। दूसरे शब्दों में कहें तो क्यूनिफॉर्म, प्राचीन मध्य पूर्व में इस्तेमाल की जाने वाली लेखन प्रणाली है, जिसका अर्थ है “पच्चर के आकार का”। प्राचीन मध्य पूर्व में क्यूनिफॉर्म सबसे व्यापक और ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण लेखन प्रणाली थी।

Q. स्वराघात किसे कहते है?

किसी शब्द का उच्चारण करने, किसी को पुकारने, कुछ कहने, गाने आदि के समय किसी व्यंजन या स्वर पर साधारण से अधिक जोर देने या अधिक प्राण-शक्ति लगाने की क्रिया या भाव (ऐक्सेन्ट)।

साधारणतः ध्वनियों पर होनेवाला आघात या प्राण-शक्ति का प्रयोग दो प्रकार का होता है। पहले प्रकार में तो जिज्ञासा विधि, निषेध, विस्मय, संतोष, हर्ष आदि प्रकट करने के लिए होता है। उदाहरणार्थ जब हम कहते हैं–हम जायेंगे–तो कभी तो ‘हम’ पर जोर देना अभीष्ट होता है, जिसका आशय होता है–हम अवश्य जाएँगे, बिना गये नहीं मानेंगे।

ध्वनियों पर दूसरे प्रकार का आघात वह होता है, जिसमें या तो मात्रा खींचकर बढ़ाई जाती है (जैसे–क्या…, जी…., हाँ….–आदि या उच्चारण ही कुछ अधिक या कम जोर लगाकर किया जाता है। वैदिक मंत्रों के उच्चारण के संबंध में जो उदात्त, अनुदात्त और स्वरित नामक तीन भेद हैं, वे इसी प्रकार के अन्तर्गत आते हैं।


References,
https://www.egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/70454/1/Unit-26.pdf
भाषा विज्ञान DDE MD University
Violatti, Cristian. “Indo-European Languages.” World History Encyclopedia. Last modified May 05, 2014. https://www.worldhistory.org/Indo-European_Languages/.
Encyclopedia (Wikipedia & Britannica)