इस लेख में हम अंतर्राज्यीय संबंध (Inter-State Relations) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे, एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे,
तो अच्छी तरह से समझने के लिए इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें और साथ ही इससे संबन्धित अन्य लेखों को भी पढ़ें। इससे पहले हम केंद्र-राज्य संबंध पर विस्तार से चर्चा कर चुकें हैं।
जिस तरह केंद्र और राज्य के मध्य संबंध होते हैं उसी प्रकार राज्य और राज्य के मध्य भी संबंध के अनेक पहलू नजर आते हैं, तो आइये जानते हैं;

अंतर्राज्यीय संबंध (Inter-State Relations)
एक संघात्मक व्यवस्था वाले देश में केंद्र और राज्य के मध्य के संबंध जितने मायने रखते हैं। कमोबेश उतने ही मायने राज्य और राज्य के मध्य संबंध (अंतर्राज्यीय संबंध) भी रखते हैं।
क्योंकि आपसी हितों का टकराना एक सामान्य सी बात है और उसमें भी कुछ चीज़ें ऐसी होती है जो हमेशा विवाद पैदा करता है जैसे कि नदी (जो कि कई राज्यों से होकर बहती है), अत्यधिक प्रवास, अंतर्राज्यीय व्यापार इत्यादि।
संविधान सभा को इन विवादों का आभास था इसीलिए संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान जोड़े गए जो कि अंतर्राज्यीय विवादों को सुलझाने का प्रयास करता है। अंतर्राज्यीय सहभागिता एवं भाईचारा बना रहे इसके लिए संविधान के तहत जो प्रावधान किए गए हैं उसे चार भागों में बाँट कर देख सकते हैं;
1. अंतर्राज्यीय संबंध और जल विवादों को सुलझाने की व्यवस्था,
2. अंतर्राज्यीय परिषद द्वारा सौहार्द एवं समन्वयता सुनिश्चित करने की व्यवस्था,
3. अंतर्राज्यीय संबंध और सार्वजनिक विधियों, दस्तावेजों एवं न्यायिक प्रक्रियाओं को पारस्परिक मान्यता की व्यवस्था,
4. अंतर्राज्यीय व्यापार, वाणिज्य एवं समागम की स्वतंत्रता।
तो आइये इन सब के प्रावधानों को समझते हैं-
1. अंतर्राज्यीय संबंध और जल विवादों को सुलझाने की व्यवस्था
एक संघीय व्यवस्था वाले देश में, दो या अधिक राज्यों से होकर बहने वाली नदियों के जल बंटवारे को लेकर अगर विवाद हो जाये तो कोई नई बात नहीं क्योंकि जल की कमी एक समस्या है और आने वाले वक्त में ये और भी बड़ी समस्या का रूप ले सकती है
ऐसे में सभी राज्य ज्यादा से ज्यादा पानी पर अधिकार चाहेगा ही। संविधान निर्माताओं को ये बात पता थी क्योंकि कुछ जल विवाद तो आजादी से पहले से ही चल रही थी, जैसे कि कावेरी जल विवाद; इसी को ध्यान में रखकर संविधान में ही इससे संबन्धित कुछ महत्वपूर्ण प्रावधानों की व्यवस्था कर दी ताकि भावी पीढ़ी को अंतर्राज्यीय जल विवाद सुलझाने में मदद मिल सके।
अनुच्छेद 262 – अंतर्राज्यिक नदियों या नदी घाटियों के जल संबंधी विवादों का न्यायनिर्णयन
इस अनुच्छेद में दो प्रावधान है। जो निम्नलिखित है।
1. संसद, कानून बनाकर अंतर्राज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के जल के प्रयोग, बँटवारे तथा नियंत्रण से संबन्धित किसी विवाद पर शिकायत का न्यायनिर्णयन (Adjudication) कर सकती है।
2. संसद यह भी व्यवस्था कर सकती है कि ऐसे किसी विवाद में न ही उच्चतम न्यायालय तथा न ही कोई अन्य न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करें। यानी कि सीधे-सीधे कहें तो संसद इस मामले में न्यायालय की भूमिका निभा सकता है।
इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल करते हुए संसद ने दो कानून बनाए। (1) नदी बोर्ड अधिनियम (1956) (2) अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956)।
(1) नदी बोर्ड अधिनियम (1956) – इसका काम है अंतरराज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के नियंत्रण तथा विकास के लिए नदी बोर्ड (River board) की स्थापना करना।
यहाँ याद रखने वाली बात ये है कि नदी बोर्ड की स्थापना संबन्धित राज्यों के निवेदन पर केंद्र सरकार द्वारा उन्हे सलाह देने हेतु की जाती है।
(2) अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956) – इस कानून का इस्तेमाल करके केंद्र सरकार दो या अधिक राज्यों के मध्य नदी जल विवाद के न्यायनिर्णयन हेतु एक अस्थायी न्यायालय (ट्रिब्यूनल) का गठन कर सकता है।
? न्यायाधिकरण (Tribunal) का निर्णय अंतिम तथा विवाद से संबन्धित सभी पक्षों के लिए मान्य होता है।
इसका मतलब ये नहीं है इस मामले को लेकर उच्चतम न्यायालय नहीं ले जाया जा सकता है। इस सब मसले में अगर कानूनी दाव-पेंच का मामला आ जाता है तो उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि वह राज्यों के मध्य जल विवादों की स्थिति में उनसे जुड़े मामलों की सुनवाई कर सकता है।
इन क़ानूनों का इस्तेमाल करके अब तक कई अंतरराज्यीय जल विवाद न्यायाधिकरणों (Interstate Water Disputes Tribunals) का गठन किया जा चुका है। जिसे कि आप नीचे चार्ट में देख सकते हैं;
अंतर्राज्यीय संबंध और नदी जल विवादों की सूची
नाम | स्थापना वर्ष | संबंधित राज्य |
1. कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश |
2. गोदावरी जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं ओडीशा |
3. नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र |
4. रावी एवं व्यास जल विवाद न्यायाधिकरण | 1986 | पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान |
5. कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण | 1990 | कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं पुडुचेरी |
6. द्वितीय कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण | 2004 | महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश |
7. वंशधरा जल विवाद न्यायाधिकरण | 2010 | ओडीशा एवं आंध्र प्रदेश |
8. महादायी जल विवाद न्यायाधिकरण | 2010 | गोवा, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक |
इसमें से कावेरी जल विवाद बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण है और काफी दिलचस्प भी है क्योंकि ये विवाद 1892 से चल रहा है जब भारत आजाद भी नहीं था।
कई बार समझौते हुए और तोड़े गए, यहाँ तक कि आजादी के बाद भी इस पर कई समझौते हुए या न्यायालय द्वारा फैसले दिये गए पर ये कभी भी ठीक से लागू नहीं हो पायी। इस दिलचस्प घटनाक्रम को पढ़ने और समझने के लिए कावेरी जल विवाद↗️ अवश्य पढ़ें।
2. अंतर्राज्यीय परिषद द्वारा सौहार्द एवं समन्वयता सुनिश्चित करने की व्यवस्था
अनुच्छेद 263 के अनुसार, राष्ट्रपति को यदि लगता है कि ऐसी किसी अंतर्राज्यीय परिषद का गठन सार्वजनिक हित में है तो वह ऐसी परिषद का गठन कर सकता है। इस परिषद के निम्नलिखित कर्तव्य होंगे;
(क) राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों की जांच करना तथा ऐसे विवादों पर सलाह देना
(ख)* ऐसे विषय, जिसमें राज्यों के साथ-साथ केंद्र का भी समान हित हो, उस पर अन्वेषण तथा विचार-विमर्श करना।
(ग)* ऐसे विषयों के लिए विशेष तौर पर बनाये गये नीतियों के बेहतर क्रियान्वयन के लिए संस्तुति (Recommendation) देना।
अब तक इन उपबंधों का उपयोग करके राष्ट्रपति निम्न परिषदों का गठन कर चुका है।
? केन्द्रीय स्वास्थ्य परिषद,
? केन्द्रीय स्थानीय सरकार तथा शहरी विकास परिषद,
? बिक्री कर हेतु उत्तरी, पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी क्षेत्रों के लिए चार क्षेत्रीय परिषदें।
यहाँ याद रखने वाली बात ये है कि उच्चतम न्यायालय जिस तरह से अनुच्छेद 131 का प्रयोग करके राज्यों के मध्य विवादों के निर्णय देती है।
उसी प्रकार के अधिकार इन परिषदों के पास भी होता है। अंतर बस इतना होता है कि परिषद का कार्य सलाहकारी होता है जबकि उच्चतम न्यायालय का निर्णय अनिवार्य रूप से मान्य।
अंतर्राज्यीय परिषद (Inter-state council)
केंद्र तथा राज्य सम्बन्धों पर सुझाव देने के लिए गठित सरकारिया आयोग (1983 – 87) संविधान के अनुच्छेद 263 के अंतर्गत नियमित अंतर्राज्यीय परिषद की स्थापना के लिए सुझाव दिये।
यानी कि एक ऐसा परिषद जिसके पास अनुच्छेद 263 के क्लॉज़* ‘ख’ और ‘ग’ से संबंधित जिम्मेदारियाँ भी हो और इसी अनुच्छेद के तहत बनाए गए अन्य परिषदों से अलग रह कर काम कर सकें।
सरकारिया आयोग की सिफ़ारिशों को मानते हुए, वी पी सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार ने 1990 में अंतर्राज्यीय परिषद का गठन किया। इसमें निम्न सदस्य थे।
? अध्यक्ष – प्रधानमंत्री।
? सभी राज्यों के मुख्यमंत्री।
? विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री।
? उन केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासक जहां विधानसभा नहीं है
? राष्ट्रपति शासन वाले राज्यों के राज्यपाल। तथा,
? प्रधानमंत्री द्वारा नामित छह केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री (गृह मंत्री को शामिल करते हुए)
यहाँ ध्यान देने वाली ये है कि प्रधानमंत्री द्वारा नामित पाँच कैबिनेट मंत्री परिषद के स्थायी आमंत्रित सदस्य होते हैं।
इस परिषद के कार्य निम्नलिखित है। आप नीचे देख सकते हैं जो इसका काम वही है जो अनुच्छेद 263 के क्लॉज़ ‘ख’ और ‘ग’ में वर्णित है।
▪️ ऐसे विषयों पर अन्वेषन तथा विचार विमर्श करना जिनमें राज्यों अथवा केंद्र का साझा हित निहित हो।
▪️ इन विषय पर नीति तथा इसके क्रियान्वयन में बेहतर समन्वय के लिए संस्तुति करना।
▪️ ऐसे दूसरे विषयों पर विचार-विमर्श करना जो राज्यों के सामान्य हित में हो, और अध्यक्ष द्वारा इसे सौपे गए हों।
इस परिषद से संबंधित कुछ तथ्य
परिषद की एक वर्ष में कम से कम तीन बैठकें होती हैं। इसकी बैठके पारदर्शी होती है तथा प्रश्नों पर निर्णय एकमत से होता है। परिषद की एक स्थायी समिति भी होती है। इसकी स्थापना 1996 में की गयी थी, ताकि परिषद के विचारार्थ मामलों पर सतत चर्चा होती रहे।
इस स्थायी समिति में निम्नलिखित सदस्य होते हैं।
केन्द्रीय गृहमंत्री (अध्यक्ष के रूप में),
पाँच केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री और नौ मुख्यमंत्री।
परिषद की सहायता के लिए एक सचिवालय भी होता है, जिसे अंतर-राज्य परिषद सचिवालय (Inter-State Council Secretariat) कहा जाता है। इसकी स्थापना 1991 में की गयी थी और इसका प्रमुख भारत सरकार का एक सचिव होता है। 2011 से यही सचिवालय क्षेत्रीय परिषदों के सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है।
अंतर्राज्यीय संबंध और क्षेत्रीय परिषदें (Regional councils)
क्षेत्रीय परिषदें सांविधिक (Statutory) निकाय है न कि सांविधानिक (Constitutional)। यानी कि ये संविधान का हिस्सा नहीं बल्कि इसका गठन संसद द्वारा अधिनियम बनाकर किया गया है, ये अधिनियम है – राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 ।
क्षेत्रीय परिषदों के निर्माण का विचार भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा 1956 में रखा गया था, जब राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट पर बहस के दौरान, उन्होंने सुझाव दिया था कि राज्यों को पुनर्गठित करने का प्रस्ताव दिया जा सकता है। इन राज्यों के बीच ‘सहकारी कार्य करने की आदत विकसित करने के लिए’ एक सलाहकार परिषद वाले चार या पांच क्षेत्रों में समूहित किया जाना चाहिए।
यह सुझाव पंडित नेहरू ने ऐसे समय में दिया था जब भाषाई पैटर्न पर राज्यों के पुनर्गठन के परिणामस्वरूप भाषाई शत्रुता और कड़वाहट हमारे राष्ट्र के ताने-बाने के लिए खतरा बन रही थी।
इस स्थिति के प्रतिकार के रूप में, यह सुझाव दिया गया था कि इन शत्रुताओं के प्रभाव को कम करने के लिए एक उच्च स्तरीय सलाहकार मंच स्थापित किया जाना चाहिए और अंतर-राज्यीय समस्याओं को हल करने और बढ़ावा देने की दृष्टि से स्वस्थ अंतर-राज्य और केंद्र-राज्य वातावरण बनाने के लिए संबंधित क्षेत्रों का संतुलित सामाजिक आर्थिक विकास।
इस कानून ने देश को पाँच क्षेत्रों में विभाजित्त किया है तथा प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक क्षेत्रीय परिषद का गठन किया। जिसे कि आप नीचे के चार्ट में देख सकते हैं।
नाम | सदस्य राज्य | मुख्यालय |
उत्तर क्षेत्रीय परिषद | पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, चंडीगढ़ तथा जम्मू-कश्मीर | नई दिल्ली |
मध्य क्षेत्रीय परिषद | मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड एवं छतीसगढ़ | इलाहाबाद |
पूर्वी क्षेत्रीय परिषद | बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडीसा | कोलकाता |
पश्चिमी क्षेत्रीय परिषद | महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, दमन एवं दीव और दादरा तथा नगर हवेली | मुंबई |
दक्षिणी क्षेत्रीय परिषद | कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, पुडुचेरी, आंध्र-प्रदेश एवं तेलंगाना | चेन्नई |
क्षेत्रीय परिषदों के सदस्य
प्रत्येक क्षेत्रीय परिषद में निम्नलिखित सदस्य होते हैं।
? केंद्र सरकार का गृह मंत्री,
? क्षेत्र के सभी राज्यों के मुख्यमंत्री,
? क्षेत्र के प्रत्येक राज्य से दो अन्य मंत्री,
? क्षेत्र में स्थित प्रत्येक केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक।
केंद्र सरकार का गृहमंत्री पांचों क्षेत्रीय परिषदों का अध्यक्ष होता है। प्रत्येक मुख्यमंत्री क्रमानुसार एक वर्ष के समय के लिए परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में कार्य करता है।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित व्यक्ति क्षेत्रीय परिषद में सलाहकार के रूप में भाग ले सकते हैं, लेकिन उनको मताधिकार नहीं मिलता है।
1. योजना आयोग द्वारा मनोनीत व्यक्ति
2. क्षेत्र में स्थित प्रत्येक राज्य सरकार के मुख्य सचिव
3. क्षेत्र के प्रत्येक राज्य के विकास आयुक्त
पूर्वोत्तर परिषद (North East Council)
अगर आप ऊपर वाले चार्ट में देखेंगे तो आपको नॉर्थ-ईस्ट नहीं दिखेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि इसे बाद में चलकर 1971 में बनाया गया।
इस परिषद में पूर्वोत्तर के आठों राज्य (सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम एवं त्रिपुरा) शामिल है। इसके भी कार्य कमोबेश बाकी परिषदों की तरह ही है, कुछ काम अलग है जैसे कि, इस परिषद के सभी सदस्य राज्यों को समय-समय पर सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए उठाये गए कदमों की समीक्षा करनी होती है।
क्षेत्रीय परिषदों का उद्देश्य (The purpose of regional councils)
▪️ राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों तथा केंद्र के बीच सहभागिता तथा समन्वयता को बढ़ावा देना।
▪️ आर्थिक तथा सामाजिक योजना, भाषायी अल्पसंख्यक, सीमा विवाद, अंतरराज्यीय परिवहन आदि जैसे संबन्धित विषयों पर विचार-विमर्श करना तथा अपनी संस्तुति देना।
▪️ मुख्य विकास योजनाओं के सफल तथा तीव्र क्रियान्वयन के लिए एक – दूसरे की सहायता करना।
▪️ तीक्ष्ण राज्य भावना, क्षेत्रवाद, भाषायी तथा विशेषतावाद के विकास को रोकने में सहायता करना।
▪️ केंद्र तथा राज्यों को सामाजिक तथा आर्थिक विषयों पर एक दूसरे की सहायता करने में तथा एक समान नीतियों के विकास के लिए विचारों तथा अनुभवों के आदान-प्रदान में सक्षम बनाना।
▪️ देश के अलग-अलग क्षेत्रों के मध्य राजनैतिक साम्य सुनिश्चित करना।
याद रखिये कि ये केवल चर्चात्मक तथा परमर्शदात्री निकाय हैं। यानी कि इनके सुझाव बाध्यकारी नहीं हैं।
क्षेत्रीय परिषदें एक उत्कृष्ट मंच प्रदान करती हैं जहां केंद्र और राज्यों के बीच की परेशानियों को स्वतंत्र और स्पष्ट चर्चा और परामर्श के माध्यम से हल किया जा सकता है।
सलाहकार निकाय होने के नाते, उनकी बैठकों में विचारों के स्वतंत्र और स्पष्ट आदान-प्रदान की पूरी गुंजाइश है। यद्यपि राष्ट्रीय विकास परिषद, अंतर राज्य परिषद, राज्यपाल/मुख्यमंत्री के सम्मेलन और केंद्र सरकार के तत्वावधान में आयोजित अन्य आवधिक उच्च स्तरीय सम्मेलनों जैसे बड़ी संख्या में अन्य मंच हैं, क्षेत्रीय परिषदें सामग्री और चरित्र दोनों में भिन्न हैं। वे आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से एक दूसरे से जुड़े राज्यों के लिए सहकारी प्रयास के क्षेत्रीय मंच हैं।
Name | MEETING | DATE AND VENUE |
उत्तर क्षेत्रीय परिषद | 30वीं | 9.7.2022 (Jaipur) |
मध्य क्षेत्रीय परिषद | 23वीं | 22.8.2022 (Bhopal) |
पूर्वी क्षेत्रीय परिषद | 24वीं | 28.02.20 (Bhubaneswar) |
पश्चिमी क्षेत्रीय परिषद | 25वीं | 11.06.2022 (Diu) |
दक्षिणी क्षेत्रीय परिषद | 30वीं | 03.09.2022 (Thiruvananthapuram) |
3. अंतर्राज्यीय संबंध और सार्वजनिक विधियों, दस्तावेजों एवं न्यायिक प्रक्रियाओं को पारस्परिक मान्यता की व्यवस्था
जैसे कि हमने संघीय व्यवस्था वाले लेख में भी पढ़ा है कि प्रत्येक राज्य का अधिकार क्षेत्र उसके राज्य क्षेत्र तक ही सीमित होती है। ऐसे में ये संभव है कि एक राज्य दूसरे राज्य के कानून और दस्तावेज़ को स्वीकृति न दें।
जैसे कि मान लीजिये कि आप अपने ग्रेजुएशन का डिग्री लेकर दूसरे राज्य में नौकरी या पढ़ाई के लिए जाते है, और वो राज्य आपके इस डिग्री को मानने से इंकार कर दें, और ये बोल दिया जाये कि जिस राज्य से आए हैं उसी राज्य में जाइए। तो हो जाएगा न फिर गड़बड़ । इसी को दूर करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 261 में पूर्ण विश्वास तथा साख का सिद्धांत (Principle of absolute trust and credit) है। जो कि कुछ इस प्रकार है।
केंद्र तथा प्रत्येक राज्य के लोक अधिनियमों, दस्तावेजों (जो किसी प्राधिकृत व्यक्ति या संस्था द्वारा जारी किया गया हो) एवं न्यायिक प्रक्रिया को पूरे भारत में पूर्ण विश्वास तथा साख प्रदान की गयी है।
यहाँ लोक अधिनियम (Public acts) का मतलब विधायी तथा कार्यकारी कानून से है। और न्यायिक प्रक्रिया (judicial procedure) का मतलब न्यायालय द्वारा सुनवाई के दौरान दी गयी अंतिम निर्णय से होता है।
सीधे-सीधे ऐसे समझ सकते हैं कि किसी न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय को कोई राज्य अमान्य करार नहीं दे सकता, और दूसरी बात ये कि इसे एक संदर्भ (reference) के तौर पर भविष्य में इस्तेमाल किया जा सकता है।
पर एक बात याद रखिए कि ये सिर्फ दीवानी मामलों (Civil affairs) पर लागू होता हैं फ़ौजदारी मामलों (Criminal affairs) पर नहीं। ऐसा इसलिए है ताकि एक राज्य के जो दंड देने का नियम है वे दूसरे राज्य पर लागू न हो।
4. अंतर्राज्यीय व्यापार, वाणिज्य एवं समागम की स्वतंत्रता
संविधान के भाग 13 के अनुच्छेद 301 से 307 में भारतीय क्षेत्र में व्यापार, वाणिज्य तथा समागम का वर्णन है। आइये इसे एक-एक करके देखते हैं।
अनुच्छेद 301 – व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता
इस अनुच्छेद के अनुसार सम्पूर्ण भारतीय क्षेत्र में व्यापार, वाणिज्य तथा समागम स्वतंत्र होगा।
इस प्रावधान के अनुसार स्वतंत्रता, अंतरराज्यीय व्यापार, वाणिज्य तथा समागम तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका विस्तार राज्यों के भीतर व्यापार, वाणिज्य तथा समागम पर भी है। अतः यदि किसी राज्य में इस पर प्रतिबंध लगाए जाता हैं तो यह अनुच्छेद 301 का उल्लंघन होगा।
हालांकि ऐसा नहीं है व्यापार पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है पर सिर्फ संविधान के इस भाग (यानी कि भाग 13) के तहत आने वाला प्रतिबंध ही मान्य होगा।
अनुच्छेद 302 – व्यापार, वाणिज्य और समागम पर निर्बंधन अधिरोपित करने की संसद की शक्ति
लोक हित को ध्यान में रखकर संसद, राज्यों के मध्य अथवा किसी राज्य के भीतर व्यापार, वाणिज्य तथा समागम की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है।
अनुच्छेद 303 – व्यापार और वाणिज्य के संबंध में संघ और राज्यों की विधायी शक्तियों पर निर्बंधन
संसद अनुच्छेद 302 का इस्तेमाल करके कोई ऐसी विधि नहीं बना सकती है जो भेदभाव पैदा कर सकती है। दूसरे शब्दों में संसद, एक राज्य को दूसरे राज्य पर प्राथमिकता नहीं दे सकती यानी कि अगर प्रतिबंध होगा तो वो सभी राज्यों के लिए बराबर होगा।
हालांकि अगर किसी राज्य में माल की कमी हो जाती है तो इस स्थिति से निपटने के लिए अगर संसद को कोई विभेदकारी विधि भी बनानी पड़े तो वो बना सकती है।
अनुच्छेद 304 – राज्यों के बीच व्यापार, वाणिज्य और समागम पर निर्बंधन
किसी राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा अन्य राज्यों से आयात किए गए माल पर कोई ऐसा कर अधिरोपित कर सकता है जो उस राज्य में उत्पादित वैसे ही माल पर लगता है, लेकिन राज्य विधानमंडल को ये सुनिश्चित करना होगा कि आयात किए माल और उस राज्य में उत्पादित माल के बीच कोई विभेद न हो।
हालांकि लोक हित हो ध्यान में रखकर राज्य व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकती है। लेकिन ऐसे किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पूर्व मंजूरी के विधानमंडल में पुरःस्थापित (Introduced) नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 305 – विद्यमान विधियों और राज्य के एकाधिकार का उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृति
अनुच्छेद 301 के अंतर्गत जो स्वतंत्रता मिली हुई है, वो चूंकि राष्ट्रीयकृत विधियों के अधीन है। इसलिए, संसद अथवा राज्य विधायिका, किसी व्यापार, व्यवसाय, उद्योग अथवा सेवा को जिसमें सामान्य नागरिक शामिल हो या न हो, जारी रखने के लिए कानून बना सकती है।
अनुच्छेद 306 को सातवाँ संविधान संशोधन द्वारा शून्य कर दिया गया है इसीलिए सीधे इस भाग के आखिरी अनुच्छेद 307 को देखेंगे।
अनुच्छेद 307 – अनुच्छेद 301 से अनुच्छेद 304 के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए प्राधिकारी की नियुक्ति।
संसद, विधि द्वारा ऐसे प्राधिकारी (authority) की नियुक्ति कर सकेगी जो वह अनुच्छेद 301, अनुच्छेद 302, अनुच्छेद 303 और अनुच्छेद 304 के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए समुचित समझे
कुल मिलाकर यही है अंतर्राज्यीय संबंध (Inter-State Relations), उम्मीद है समझ में आया होगा। नीचे अन्य लेखों का लिंक है उसे भी जरूर पढ़ें।
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References,
मूल संविधान भाग 11
मूल संविधान भाग 13
https://www.mha.gov.in/zonal-council
https://pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=1840426
DD Basu and M Laxmikant
http://interstatecouncil.nic.in/
Encyclopedia