विधायिका या कार्यपालिका अपने शक्तियों का दुरुपयोग न कर सकें इसके लिए न्यायपालिका को एक विशेष शक्ति प्राप्त है, जिसे न्यायिक समीक्षा की शक्ति कहा जाता है।

इस लेख में हम भारत में न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे, एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझेंगे,

तो अच्छी तरह से इस लेख को समझने के लिए अंत तक जरूर पढ़ें, बहुत कुछ जानने को मिलेगा। [उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता]

न्यायिक समीक्षा
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न्यायिक समीक्षा की जरूरत क्यों है?

हम जानते है कि हमारा देश एक संसदीय लोकतंत्र है और इस लोकतंत्र के आधार स्तम्भ के रूप में तीन प्रमुख संस्थाओं की स्थापना की गई- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका

अब लोकतंत्र की खास बात ये होती है कि यहाँ स्वतंत्रता तो मिलती है लेकिन कुछ जरूरी प्रतिबंधों के साथ। यानी कि सभी की एक सीमा है जिसके अंदर रहकर ही सबको काम करना पड़ता है।

लेकिन अगर लोकतंत्र के आधार-स्तम्भ कहे जाने वाले ये संस्थाएं ही इस सीमा का उल्लंघन करे तो फिर क्या किया जाएगा?

तो कुल मिलाकर संविधान की सर्वोच्चता बनी रहे, संघीय संतुलन कायम रहे, नागरिकों के मूल अधिकार संरक्षित रहे या ओवरऑल कहें तो लोकतंत्र बची रहे, इसके लिए जरूरी था कि ऐसी व्यवस्था लायी जाये जो इस प्रकार की समस्या को या तो खत्म कर दे या न के बराबर कर दे।

इसके लिए चेक और बैलेंस की व्यवस्था (Check and balance System) को अपनाया गया। यानी कि तीनों संस्थाओं को इस तरह से डिज़ाइन किया गया कि तीनों एक दूसरे से स्वतंत्र भी रहे और एक दूसरे पर निर्भर भी रहे।

यानी कि अगर कोई संस्था अपनी सीमा का उल्लंघन कर रहा हो तो दूसरा उसे रोक दे। इसी के क्रम में अगर संसद अपनी सीमा का उल्लंघन करता है यानी कि ऐसे नियम-कानून आदि बनाता है जो संवैधानिक सीमा का उल्लंघन करता हो तो सुप्रीम कोर्ट उस नियम-कानून को रोक सकता है।

इसके लिए सुप्रीम कोर्ट जिस तरीके का इस्तेमाल करता है उसे न्यायिक समीक्षा (judicial review) कहते है।

न्यायिक समीक्षा का अर्थ

न्यायिक समीक्षा, विधायी अधिनियमों तथा कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जांच के लिए न्यायपालिका की शक्ति है जो केंद्र और राज्य सरकारों पर लागू होती है।

समीक्षा के पश्चात यदि पाया गया कि उनसे संविधान का उल्लंघन होता है तो उन्हे अवैध, असंवैधानिक तथा अमान्य घोषित किया जा सकता है और सरकार उन्हे लागू नहीं कर सकती। समान्यतः न्यायविद न्यायिक समीक्षा को तीन कोटियों में वर्गीकृत करता है:

1. संवैधानिक संशोधनों की न्यायिक समीक्षा।
2. संसद और एक विधायिकाओं द्वारा पारित क़ानूनों एवं अधीनस्थ क़ानूनों की समीक्षा
3. संघ तथा राज्य एवं राज्य के अधीन प्राधिकारियो द्वारा प्रशासनिक कार्यवाही की न्यायिक समीक्षा।

सर्वोच्च न्यायालय ने अब तक विभिन्न मुकदमों में न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उपयोग किया, उदाहरण के लिए, गोलकनाथ मामला 1967, बैंक राष्ट्रीयकरण मामला 1970, केशवानन्द भारती मामला 1973, मिनरवा मिल्स मामला 1980 इत्यादि।

यहाँ तक कि वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संविधान संशोधन 2014 तथा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग अधिनियम (National Judicial Appointments Commission Act) 2014 दोनों को असंवैधानिक करार दिया।

लेकिन यहाँ पर एक बात याद रखिए कि संविधान में सीधे-सीधे न्यायिक समीक्षा शब्द का कहीं उपयोग नहीं हुआ है, लेकिन फिर भी उच्चतम न्यायालय को समीक्षा की शक्ति है। ऐसा क्यों? क्योंकि संविधान के बहुत से अनुच्छेदों में अप्रत्यक्ष रूप से इसकी चर्चा की गई है। वे कौन-कौन से अनुच्छेद है आइये उस पर एक नजर डालते हैं।

Compoundable and Non-Compoundable OffencesHindiEnglish
Cognizable and Non- Cognizable OffencesHindiEnglish
Bailable and Non-Bailable OffencesHindiEnglish

न्यायिक समीक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान

1. अनुच्छेद 13 के अनुसार मूल अधिकारों से असंगत या उसका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ शून्य होगी यानी कि कोई भी कानून जो स्वतंत्रता के पहले बनी हो या स्वतंत्रता के बाद यदि वो कानून या उसका कोई भी प्रावधान मूल अधिकारों का हनन करता है तो सुप्रीम कोर्ट उस कानून की समीक्षा कर सकता है और उतनी मात्रा में उस कानून या प्रावधान को शून्य कर सकता है जितनी मात्रा मूल अधिकारों का उल्लंघन करता हो।

इस अनुच्छेद को सपोर्ट करने के लिए दो और अनुच्छेद है (1) अनुच्छेद 32 और (2) अनुच्छेद 226 ।

(1) अनुच्छेद 32 मौलिक अधिकारों के हनन होने पर नागरिकों को सीधे उच्चतम न्यायालय जाने की इजाजत देता है और साथ ही सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह इसके लिए न्यायादेश या रिट (Writ) जारी करे।

(2) इसी के समान व्यवस्था उच्च न्यायालय को अनुच्छेद 226 से प्राप्त होता है। अंतर बस इतना है कि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य विषयों के लिए रिट (Writ) जारी कर सकता है।

2. अनुच्छेद 131 केंद्र – राज्य तथा अंतर राज्य विवादों के लिए सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार निश्चित करता है। अनुच्छेद 132 संवैधानिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।

अनुच्छेद 133 सिविल मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।

अनुच्छेद 134 आपराधिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।

अनुच्छेद 134 (ए) उच्च न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय को अपील के लिए प्रमाणपत्र से संबंधित है।

▪️ अनुच्छेद 135 सर्वोच्च न्यायालय को किसी संविधान पूर्व के कानून के अंतर्गत संघीय न्यायालय के क्षेत्राधिकार एवं शक्ति का प्रयोग करने की शक्ति प्रदान करता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो सुप्रीम कोर्ट उन मामलों की भी सुनवाई कर सकता है जो कि अनुच्छेद 133 और अनुच्छेद 134 के अंतर्गत नहीं आता है लेकिन संविधान लागू होने से पहले वे अधिकार क्षेत्र फेडरल कोर्ट के पास था। हालांकि यहाँ याद रखने वाली बात है कि संसद चाहे तो इसे खत्म कर सकती है।

▪️ अनुच्छेद 136 के तहत, सर्वोच्च न्यायालय अपने विवेकानुसार भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी वाद या मामले में पारित किये गए या दिये गए किसी निर्णय, दंडादेश या आदेश के विरुद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है। (सैन्य अदालतों को छोड़कर)

▪️ अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को कानून संबंधी किसी प्रश्न के तथ्य पर अथवा किसी संविधान पूर्व के वैधिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की राय मांगने के लिए अधिकृत करता है।

[उपर्युक्त सभी अनुच्छेदों को विस्तार से समझने के लिए उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार वाले लेख को अवश्य पढ़ें।]

3. अनुच्छेद 227, उच्च न्यायालयों को अपने-अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में सभी न्यायालयों एवं न्यायाधिकरणों के अधीक्षण की शक्ति प्रदान करता है।

6. अनुच्छेद 245 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित क़ानूनों की क्षेत्रीय सीमा तय करने से संबंधित है। दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र अथवा उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगी वहीं किसी राज्य का विधानमंडल उस संपूर्ण राज्य अथवा किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा।

7. अनुच्छेद 246 संसद एवं राज्य विधायिकाओं द्वारा निर्मित क़ानूनों की विषय-वस्तु से संबंधित है जिसे कि 7वीं अनुसूची के तहत 3 सूचियों (संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची) में विभक्त किया गया है।

8. अनुच्छेद 251 एवं 254 केन्द्रीय कानून एवं राज्य कानूनों के बीच टकराव की स्थिति में यह प्रावधान करता है कि केन्द्रीय कानून राज्य कानून के ऊपर बना रहेगा और राज्य कानून निरस्त हो जाएगा।

9. अनुच्छेद 372 संविधान पूर्व के क़ानूनों की निरंतरता से संबंधित है। यानी कि मौजूदा कानून तब तक बना रहेगा जब तक कि उसे बदले, निरस्त या संशोधित न किया जाये।

ये सब जो कानून है ये सिद्ध करता है कि उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा (​​judicial review) की शक्ति है। लेकिन किस हद तक? तो आइये अब इसे समझते हैं।

न्यायिक_समीक्षा का विषय क्षेत्र

भारत में किसी विधायी अधिनियम अथवा कार्यपालिकीय आदेश की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है; यदि,

1. यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, या
2. यह उस प्राधिकारी की सक्षमता से बाहर का है जिसने इसे बनाया है, या
3. इसे बनाने के लिए यथोचित संवैधानिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है या फिर
4. ये संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता हो।

इसे दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में जो न्यायिक समीक्षा की शक्ति है वो विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Process established by law) पर आधारित है।

इस प्रक्रिया में होता ये है कि उच्चतम न्यायालय सिर्फ ये देख सकता है कि कानून संविधान द्वारा तय मानदंडों पर बना है कि नहीं, उस अमुक कानून में अंतर्निहित तत्व अच्छा है या बुरा है इससे न्यायालय को कोई मतलब नहीं होता।

जबकि अमेरिकी संविधान में न्यायिक समीक्षा के विषय में विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of Law) की व्यवस्था करता है। इस व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय न केवल प्रोसीजर की समीक्षा करता है बल्कि उन कानून में अंतर्निहित तत्व का भी समीक्षा करता है।

आजादी के बाद कमोबेश भारत में न्यायिक समीक्षा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर ही होता रहा जिसमें विधि के सम्यक प्रक्रिया के कुछ तत्व शामिल होते थे लेकिन 1973 के केशवानन्द भारती के मामले के बाद चीज़ें एकदम से बदल गई। कैसे बदल गई इसके लिए आपको केशवानन्द भारती मामले को समझना पड़ेगा।

लेकिन यहाँ इतना बता दूँ कि उसके बाद एक नयी व्यवस्था की शुरुआत हुई जो है – संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत (Principle of basic structure of constitution)। इसके तहत उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की अपार शक्तियाँ मिल गई।

अब उच्चतम न्यायालय बिलकुल विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of Law) के जैसे काम करता है। कई मामले में तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे अब अमेरिकी न्यायालय से भी ज्यादा समीक्षा की शक्ति भारतीय उच्चतम न्यायालय के पास आ गई है।

यहाँ पर अब एक सवाल रह जाता है कि क्या उच्चतम न्यायालय नवीं अनुसूची की न्यायिक समीक्षा (judicial review) कर सकता है? ये एक दिलचस्प मामला है इसे एक अलग लेख में समझेंगे –

न्यायिक समीक्षा प्रैक्टिस क्विज


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भारत में न्यायिक समीक्षा अभ्यास प्रश्न

  1. Number of Questions - 5 
  2. Passing Marks - 80 %
  3. Time - 4 Minutes
  4. एक से अधिक विकल्प सही हो सकते हैं।

1 / 5

भारत में किसी विधायी अधिनियम की संवैधानिक वैधता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, यदि;

  1. वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो।
  2. वह उस प्राधिकारी की सक्षमता से बाहर का है जिसने इसे बनाया है।
  3. वह गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा लाया गया विधेयक हो।
  4. इसे बनाने के लिए यथोचित संवैधानिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया हो।

2 / 5

निम्न में से कौन सा अनुच्छेद न्यायिक समीक्षा को सपोर्ट नहीं करता है?

3 / 5

न्यायिक समीक्षा के संबंध में दिए गए कथनों में से सही कथन का चुनाव करें;

  1. यह विधायी अधिनियमों की संवैधानिकता की जांच के लिए न्यायपालिका की शक्ति है।
  2. यह कार्यपालिका के आदेशों की संवैधानिकता की जांच के लिए न्यायपालिका की शक्ति है।
  3. समीक्षा के पश्चात सरकार उस कानून को लागू नहीं कर सकती है।
  4. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग अधिनियम को उच्चतम न्यायालय ने असंवैधानिक करार दिया।

4 / 5

निम्न में से कौन सा मामला न्यायिक समीक्षा का उदाहरण है?

5 / 5

दिए गए कथनों में से सही कथन का चुनाव करें;

  1. अनुच्छेद 32 न्यायिक समीक्षा को सपोर्ट करता है।
  2. न्यायिक समीक्षा के तहत संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा भी आती है।
  3. अनुच्छेद 13 के अनुसार मूल अधिकारों से असंगत या उसका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ शून्य होगी।
  4. अनुच्छेद 134 आपराधिक मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय क्षेत्राधिकार सुनिश्चित करता है।

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