इस लेख में हम विधेयक (Legislative Bills) पर सरल एवं सहज़ चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे जैसे कि विधेयक कितने प्रकार के होते हैं, उसकी संवैधानिकता क्या है, सदन में उसकी प्रक्रिया क्या है, इत्यादि।

विधेयकों को अच्छी तरह से समझने के लिए आप पूरे लेख को अवश्य पढ़ें और साथ ही साथ इससे संबन्धित जितने भी लेखों का लिंक दिया गया है उसे भी पढ़ें और समझें;

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Legislative Bills Explanation in Hindi

विधेयकों की समझ

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विधेयक (Legislative Bills) का अर्थ:

विधेयक (Bill) को विधायी विधेयक (Legislative Bills) भी कहा जाता है। विधेयक नए कानूनों या मौजूदा कानूनों में बदलाव के प्रस्ताव होते हैं। उन्हें संसद जैसे विधायी निकायों में पेश किया जाता है, और वे कानून बनने से पहले समीक्षा, बहस और मतदान की प्रक्रिया से गुजरते हैं।

जब कोई विधायक या विधायकों का समूह या सांसद या सांसदों का समूह किसी विशेष मुद्दे को संबोधित करना चाहता है या एक नई नीति पेश करना चाहता है, तो वे एक विधेयक का मसौदा तैयार करता है।

◾ विधेयक प्रस्तावित कानून की एक रूपरेखा होती है, जिसमें इसके उद्देश्य, कार्यक्षेत्र और विशिष्ट प्रावधान शामिल होती हैं। इसे सदन के पटल पर पेश किया जाता है।

किसी विधेयक के कानून बनने की प्रक्रिया विभिन्न देशों और विधायी प्रणालियों में भिन्न होती है। इसके अलावा कार्य, प्रकृति एवं उद्देश्य इत्यादि के आधार पर कई प्रकार के विधेयक (Legislative Bills) होते हैं।

हम यहाँ पर भारत के संदर्भ में इसकी चर्चा करेंगे और विभिन्न प्रकार के विधेयकों को समझेंगे। साथ ही इससे संबंधित कई अन्य तथ्यों को भी समझेंगे; तो आइये समझते हैं विस्तार से;

अनुच्छेद-21 – भारतीय संविधान
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विधेयकों के प्रकार (Types Legislative Bills):

संसद में कानून बनाने की प्रक्रिया विधेयक (Bill) से शुरू होती है। विधेयक दरअसल कानून का एक ड्राफ्ट होता है जो बताता है कि कानून किस बारे में है और ये क्यों लाया जा रहा है।

उद्देश्य, प्रकृति एवं उसमें निहित विषय-वस्तु के आधार पर किसी विधेयक को कई प्रकारों में बांटा जाता है, जैसा कि आप नीचे देख सकते हैं;

[1] साधारण विधेयक (Ordinary Bills),

[2] संविधान संशोधन विधेयक (Constitution Amendment Bills),

[4] धन विधेयक (Money Bills),

[4] वित्त विधेयक (Finance Bills),

आइये एक-एक करके इन सारे विधेयकों (Bills) को समझते हैं;

[1] साधारण विधेयक (Ordinary Bills):

साधारण विधेयक (Ordinary Bills)
“Bills law image“/ CC0 1.0

सामान्य कानून बनाने के लिए जो विधेयक पेश किया जाता है उसे साधारण विधेयक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, ऐसे सभी विधेयक, जो संविधान संशोधन विधेयक और धन विधेयक नहीं होते हैं, साधारण विधेयक कहलाते हैं।

आइये विस्तार से समझते हैं;

साधारण विधेयकों की विधायी प्रक्रिया

किसी भी विधेयक की शुरुआत एक प्रस्ताव के रूप में होता है। जिस तरह के प्रस्ताव होते हैं उसी से संबन्धित मंत्रालय उसे देखता है। हालांकि यदि अन्य मंत्रालय या राज्य सरकारें भी उस से संबन्धित हो तो उससे भी परामर्श लिया जाता है।

उस प्रस्ताव के संवैधानिक एवं वैधानिक पहलुओं के बारे में परामर्श के लिए विधि मंत्रालय एवं भारत के महान्यायवादी से संपर्क किया जाता है। इसके अलावा अगर जरूरी हो तो अन्य हितधारकों (Stakeholders) से भी परामर्श लिया जा सकता है।

जब प्रस्ताव के सभी पहलुओं की जांच हो जाती है तब मंत्रिमंडल (Cabinet) के समक्ष उसे रखा जाता है। और मंत्रिमंडल द्वारा पास किए जाने के बाद सरकारी प्रारूपकार (official draftsman), संबन्धित विभागीय विशेषज्ञों एवं अधिकारियों की सहायता से उस प्रस्ताव को विधेयक (Bill) का रूप देते हैं।

इस तरह से एक विधेयक सदन में पेश किए जाने के लिए तैयार हो जाता है। संबन्धित मंत्री उस विधेयक को संसद के किसी भी सदन में पेश कर सकता है लेकिन ऐसा करने से पहले मंत्री को 7 दिन पहले यह सूचना उस सदन को देनी पड़ती है और उस सदन के महासचिव को उस विधेयक की दो प्रतियां (Two Copies) भेजी जाती है।

ऐसा होने के पश्चात सचिवालय द्वारा उस विधेयक की जांच की जाती है और सब कुछ ठीक पाए जाने पर उसे पेश करने का दिन तय कर दिया जाता है। हालांकि कोई विधेयक कब पेश होगा इस पर अंतिम निर्णय लोक सभा का अध्यक्ष या राज्यसभा का सभापति लेता है।

यहाँ यह याद रखिए कि आमतौर पर विधेयक का सदन में पेश होने से दो दिन पहले सभी सदस्यों के पास उस विधेयक की प्रतियां (Copies) पहुंचा दी जाती है, ताकि सभी सदस्य विषय-वस्तु से अवगत हो जाएं और तैयारी कर कर आएं।

इस तरह से विधेयक अब प्रत्येक सदन में तीन स्तरीय पाठन (Reading) की स्थिति से गुजरने के लिए तैयार हो जाता है। क्या होता है इसमें आइये समझते हैं;

1. प्रथम पाठन (First reading:-

किसी भी विधेयक को सदन में पेश करने से पहले सदन की अनुमति लेना आवश्यक होता है। प्रश्नकाल (Question Hour) के पश्चात पीठासीन अधिकार उस व्यक्ति का नाम पुकारता है जिसे विधेयक पेश करता है। और वह सदस्य सदन से विधेयक पेश करने की अनुमति मांगता है।

अनुमति मिली या नहीं इसका फैसला आमतौर पर मौखिक मतदान से ही हो जाता है। आमतौर पर अनुमति मिल ही जाती है। सदन से अनुमति मिल जाने के बाद वह सदस्य विधेयक को संसद पटल पर रखता है और इस विधेयक के शीर्षक एवं इसका उद्देश्य स्पष्ट करता है।

इस चरण में इस विधेयक पर कोई चर्चा नहीं होती बस इस विधेयक को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है। विधेयक के इसी प्रस्तुतीकरण को प्रथम पाठन कहा जाता है। 

यदि विधेयक प्रस्तुत करने से पहले ही अध्यक्ष या सभापति की अनुमति से उस विधेयक को राजपत्र में प्रकाशित करवा दिया जाये तो विधेयक के संबंध में सदन की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है।

यहाँ यह याद रखिए कि इस चरण के दौरान विधेयक पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती है। लेकिन यदि सदन के सदस्यों द्वारा इसका इस आधार पर विरोध किया जाए कि प्रस्तावित विधेयक सदन की विधायी क्षमता से बाहर है तो फिर पीठासीन अधिकारी से अनुमति मिलने के पश्चात इस पर चर्चा की जा सकती है। और इस चर्चा में महान्यायवादी (Attorney General of India) भी भाग ले सकता है।

2. द्वितीय पाठन (Second reading) :-

इस चरण में विधेयक की विस्तृत समीक्षा व जांच की जाती है तथा इसे अंतिम रूप प्रदान किया जाता है। इस चरण में साधारण बहस होती है, विशेषज्ञ समिति द्वारा जांच कराई जाती है। फिर इस पर विचार करने के लिए लाया जाता है। 

वास्तव में इस चरण के तीन उप-चरण होते हैं, जिनके नाम हैं 1. साधारण बहस की अवस्था2. समिति द्वारा जांच एवं 3. विचारणीय अवस्था

1. साधारण बहस की अवस्था :- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस चरण में समूचे विधेयक पर सामान्य चर्चा होती है। कहने का अर्थ है कि इस चरण में केवल विधेयक में अंतर्निहित सिद्धांत पर चर्चा होती है उसके विस्तृत ब्यौरे (particulars) पर नहीं।

इस चरण में, आमतौर पर सदन चार में से कोई कदम उठा सकता है :-

(1) इस पर तुरंत चर्चा कर सकता है या इसके लिए कोई अन्य तिथि निर्धारित कर सकता है।

(2) इसे सदन की प्रवर समिति (select committee) को सौंपा जा सकता है।

(3) इसे दोनों सदनों की संयुक्त समिति (Joint Committe) को सौंपा जा सकता है। या

(4) इसे जनता के विचार जानने के लिय सार्वजनिक किया जा सकता है।

Q. प्रवर समिति (Select Committee) और संयुक्त समिति (Joint Committee) क्या होता है?

प्रवर समिति में उस सिर्फ सदन के सदस्य होते हैं जहां विधेयक लाया गया था और संयुक्त समिति में दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। लेकिन याद रखिए कि संयुक्त समिति में राज्यसभा के जितने सदस्य होते हैं उससे दोगुने सदस्य लोक सभा के होते हैं। दूसरी बात ये कि संयुक्त समिति का अध्यक्षता उस सदन के पीठासीन अधिकारी द्वारा चुने जाते हैं जिस सदन में वह विधेयक पेश किया गया हो। इसे तदर्थ समितियां (Ad-hoc committee) भी कहा जाता है ऐसा इसीलिए क्योंकि ये स्थायी नहीं होते हैं।
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2. समिति द्वारा जांच की अवस्था :- आमतौर पर विधेयक को सदन की एक प्रवर समिति या संयुक्त समिति को सौंप दिया जाता है। यह समिति मूल विषय में परिवर्तन लाये बिना विधेयक पर वैसे ही खंडवार विचार करती है जैसे कि सदन करता है।

समीक्षा एवं परिचर्चा के उपरांत समिति विधेयक को वापस सदन को सौंप देती है। समिति अगर चाहें तो वे संशोधन की सिफ़ारिश भी कर सकता है।

याद रखें,
कई बार ऐसी स्थिति आ सकती है जब विभिन्न हितधारकों की राय लेना जरूरी हो जाए। अगर ऐसी स्थिति आती है तो उस सदन का सचिवालय सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों को पत्र भेजकर उनसे कहता है कि वे विधेयक से संबन्धित स्थानीय निकायों, संघों, व्यक्तियों या संस्थाओं की राय आमंत्रित करने के लिए अपने-अपने राजपत्रों में उसे प्रकाशित करें।

राय प्राप्त हो जाने पर उसे सदन के सभा पटल पर रख दिया जाता है। वहीं सामान्य प्रक्रिया चलती है। विधेयक प्रवर या संयुक्त समिति के पास जाता है और उसकी रिपोर्ट के साथ सदन में पेश किया जाता है।
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जब प्रवर या संयुक्त समिति की सिफ़ारिश सहित रिपोर्ट सदन में पेश किया जाता है तो मंत्री तीन निर्णय ले सकता है;

(1) या तो सिफ़ारिश सहित रिपोर्ट पर विचार करने पर सहमत हो जाए;

(2) या तो उस रिपोर्ट को फिर से उसी समिति के पास या किसी अन्य समिति के पास विचार के लिए भेज दिया जाए;

(3) या फिर उस पर हितधारकों की राय जानने के लिए फिर से परिचालित किया जाए।

आमतौर पर मंत्री पहला निर्णय ही लेता है। और इसके बाद आगे की प्रक्रिया शुरू होती है।

3. विचार-विमर्श की अवस्था :- प्रवर समिति या संयुक्त समिति से सिफ़ारिश सहित विधेयक प्राप्त होने और उस विधेयक पर विचार-विमर्श करने का प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने के पश्चात, उस विधेयक पर खंडवार विचार आरंभ होता है।

इस अवस्था में कोई सदस्य अगर उसमें कुछ संशोधन करवाना चाहे तो उसके लिए संशोधन भी प्रस्तुत कर सकते है, और यदि संशोधन स्वीकार हो जाते है तो वे विधेयक का हिस्सा बन जाते है।

3. तृतीय पाठन (Third reading:-

इस चरण में विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार करने के संबंध में चर्चा होती है यानी कि विधेयक पर मतदान होता है। (इस चरण में विधेयक में कोई संशोधन का काम नहीं होता है।)

यदि उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का साधारण बहुमत इस विधेयक को मिल जाता है तो इस विधेयक को उस सदन से पास समझा जाता है।

एक सदन द्वारा पास हो जाने के पश्चात पीठासीन अधिकारी द्वारा विधेयक पर विचार एवं स्वीकृति के लिए उसे दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

दूसरे सदन में विधेयक के साथ क्या होता है?

दूसरे सदन में भी कोई विधेयक प्रथम पाठन, द्वितीय पाठन एवं तृतीय पाठन से होकर गुजरता है। लेकिन इस संबंध में दूसरे सदन के समक्ष चार विकल्प होते हैं :

(1) यह विधेयक को उसी रूप में पारित कर प्रथम सदन को भेज सकता है जैसा कि वो पहले था;
(2) यह विधेयक को संशोधन के साथ पारित करके प्रथन सदन को पुनः विचारार्थ भेज सकता है;
(3) यह विधेयक को अस्वीकार कर सकता है; और
(4) यह विधेयक पर किसी भी प्रकार की कार्यवाही न करके उसे लंबित कर सकता है।

⬛ यदि दूसरा सदन किसी प्रकार के संशोधन के साथ विधेयक (Bills) को पारित कर देता है और प्रथम सदन उन संशोधनों को स्वीकार कर लेता है तो विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है तथा इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।

⬛ दूसरी ओर यदि दूसरे सदन द्वारा किए गए संशोधनों को प्रथम सदन अस्वीकार कर देता है और फिर से पुनर्विचार के लिए दूसरे सदन के पास भेज देता है और दूसरा सदन उस विधेयक को अस्वीकार कर देता है या फिर दूसरा सदन छह माह तक उस पर कोई कार्यवाही नहीं करता तो ऐसी स्थिति में गतिरोध को समाप्त करने हेतु राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक (Joint sitting of both houses) बुला सकता है।

संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोक सभा का अध्यक्ष करता है और इस बैठक पर लोक सभा के प्रक्रिया नियम लागू होते हैं न कि राज्य सभा के।

यदि उपस्थित एवं मत देने वाले सदस्यों का बहुमत इस संयुक्त बैठक में विधेयक को पारित कर देता है तो उसे दोनों सदनों द्वारा पारित समझा जाता है। दहेज निषेध विधेयक, 1961 और बैंककारी सेवा आयोग (निरसन) विधेयक 1978 इसी तरह से पास किए गए।

इसके बाद आती है राष्ट्रपति की बारी – संसद द्वारा पारित विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

विधेयकों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति

इस संबंध में राष्ट्रपति के पास 3 विकल्प होते है –

1. या तो वह विधेयक को अपनी स्वीकृति दे दें;
2. या तो वह विधेयक को अपनी स्वीकृति देने से रोक दें;
3. या वह उस विधेयक को पुनर्विचार हेतु पुनः संसद को भेज दें । 

⬛ अगर राष्ट्रपति विधेयक (Bills) को स्वीकृति दे देता है तो यह अधिनियम (Act) या कानून बन जाता है। इस प्रकार देश को एक नया कानून मिलता है। 

⬛ यदि राष्ट्रपति (President) अपनी स्वीकृति नहीं देता है तो वह विधेयक वही निरस्त हो जाता है।

⬛ और यदि पुनर्विचार के लिए भेजता है और जरूरी संशोधन या बिना संशोधन के बाद वह विधेयक फिर से राष्ट्रपति के पास आता है तो राष्ट्रपति इस पर स्वीकृति देने को बाध्य होता है। 

तो कुल मिलाकर यही है एक साधारण विधेयक (Ordinary Bills) की प्रक्रिया। इन्ही प्रक्रियाओं से गुजरकर कोई साधारण विधेयक अधिनियम बन जाता है।

[2] संविधान संशोधन विधेयक (Constitution Amendment Bills):

संविधान संशोधन विधेयक (Constitution Amendment Bills)
“Bills time for change“/ CC0 1.0

किसी देश में संविधान के होने से कुछ आधारभूत चीज़ें एकदम स्पष्ट रहती है जैसे कि किसको क्या करना है और क्या नहीं, कौन सी चीज़ कब की जा सकती है और कब नहीं आदि।

पर समय एवं परिस्थिति के बदलने के साथ ही लोगों की जरूरतें, महत्वाकांक्षाएँ आदि बदलती रहती है और ऐसे में उसी के अनुरूप नियम-कानून या व्यवस्था बदलने की जरूरत आन पड़ती है।

भारतीय संविधान में अभी भी लोगों को श्रद्धा है इसकी एक वजह ये है कि जरूरत के हिसाब से ये अपने-आप को ढाल सकने में सक्षम है। और ये सक्षम इसीलिए है क्योंकि इसमें संशोधन करना न ही बहुत कठोर है और न ही बहुत लचीला।

दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय संविधान संशोधन प्रक्रिया कानून या प्रावधानों की प्रकृति के आधार पर कभी कठोर तो कभी लचीला होता है। फिर भी ये अमेरिकी व्यवस्था की तरह इतना कठोर नहीं है कि 200 सालों में सिर्फ 27 संशोधन ही हो और ब्रिटेन की संवैधानिक व्यवस्था की तरह इतना भी लचीला नहीं है कि जब मन चाहे संशोधन कर दो। और फ्रांस की बात करें तो वहाँ पाँच बार संविधान ही बदल दिया गया है।

भारतीय संविधान संशोधन प्रक्रिया कितना कठोर या फिर कितना लचीला है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि – लगभग 73 वर्षों में, जब मैं ये लेख लिख रहा हूँ 104 संविधान संशोधन हो चुका है। इसीलिए इसे मिश्रित संशोधन प्रक्रिया भी कहा जाता है।

संविधान संशोधन के लिए संवैधानिक प्रावधान

संविधान के भाग 20 के अनुच्छेद 368 संसद को ये शक्ति देता है कि वो संविधान के किसी उपबंध का परिवर्धन (Additions), परिवर्तन (Change) या निरसन (Cancellation) कर सकता है। हाँ लेकिन संविधान के मूल ढांचे को छोड़कर।

दरअसल 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानन्द भारती मामले की सुनवाई करते हुए एक नया सिद्धांत दिया जिसे कि संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत कहा जाता है।

इसके तहत संविधान संशोधन प्रक्रिया में एक शर्त जोड़ दी कि संसद ‘संविधान के मूल संरचना‘ को कभी संशोधित नहीं कर सकता। क्योंकि उसके बिना फिर वो संविधान ही नहीं बचेगा जो कि 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था। कुल मिलाकर इस फैसले से संविधान संशोधन को थोड़ा कठोर बनाया गया ताकि संसद संविधान की नीव को न तोड़ सके।

संविधान संशोधन की प्रक्रिया 

अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। जो कि निम्नलिखित है –

1. संविधान संशोधन का काम संसद के किसी भी सदन में संविधान संशोधन विधेयक पेश करके ही किया जा सकता है। किसी राज्य विधानमंडल में ये काम नहीं किया जा सकता है।

2. संविधान संशोधन विधेयक को किसी मंत्री (यानि कि सरकारी सदस्य) या फिर किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा संसद पटल पर रखी जा सकती है। इसमें राष्ट्रपति की मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं होती।

नोट – हालांकि यहाँ यह याद रखिए कि यदि किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा संविधान संशोधन विधेयक लाया जाता है तो उसे गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों पर लागू होने वाले साधारण नियमों के अधीन रहना होता है और साथ ही उसके लिए यह आवश्यक होता है कि गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों संबंधी समिति सदन में उस विधेयक के पेश किए जाने के लिए उसकी जांच करें और फिर सिफ़ारिश करें।

3. संशोधन विधेयक को दोनों सदनों से विशेष बहुमत से पास करवाना अनिवार्य है। और साथ ही प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित करवाना जरूरी होता है। क्योंकि दोनों सदनों के संयुक्त बैठक जैसी कोई व्यवस्था इसमें नहीं होती है।

नोट – हालांकि यहाँ यह याद रखिए कि संविधान में कई ऐसे अनुच्छेद है जो कि साधारण बहुमत से भी संविधान संशोधन की इजाजत देती है (इसके बारे में आगे चर्चा की गई है)। लेकिन अनुच्छेद 368 के तहत जो भी संशोधन होता है उसके लिए विशेष बहुमत की जरूरत पड़ती है।

4. दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पास हो जाने के बाद इसे राष्ट्रपति के पास सहमति के लिए भेजा जाता है। (हालांकि कभी-कभी पहले राज्यों के विधानमंडल के पास भेजा जाता है, फिर राष्ट्रपति के पास। वो कब भेजा जाता है उसकी चर्चा आगे की गई है)

5. राष्ट्रपति को अपनी सहमति देनी ही पड़ती है, वे न तो विधेयक को अपने पास रख सकते है और न ही संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते है।

6. राष्ट्रपति की सहमति के बाद वे संशोधन विधेयक एक अधिनियम बन जाता है। अन्य दूसरे अधिनियम की तरह ये भी संविधान का एक हिस्सा बन जाता है।

संविधान संशोधन कितनी तरह से की जा सकती है?

अनुच्छेद 368 के अनुसार 2 प्रकार से संशोधन की व्यवस्था की गयी है – 

1. संसद के विशेष बहुमत द्वारा, और 

2. संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे राज्य विधानमंडल की संस्तुति के द्वारा।

संशोधन का एक और प्रकार भी होता है जिसे ‘संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन‘ कहा जाता है। इसके लिए अनुच्छेद 368 की जरूरत नहीं होती है। क्या-क्या साधारण बहुमत से संशोधित की जा सकती है इसकी चर्चा आगे की गई है।

1. संसद के विशेष बहुमत द्वारा (By Special Majority)

संविधान के ज़्यादातर उपबंधों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत द्वारा किया जाता है। विशेष बहुमत का मतलब होता है – प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत और उस दिन सदन में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले का दो तिहाई बहुमत।

उदाहरण – जैसे कि लोकसभा की बात करें तो वहाँ कुल 545 सदस्य होते है। अब इसका साधारण बहुमत निकालें तो ये 273 होता है। यानी कि इतना तो चाहिए ही।

अब मान लेते हैं कि जिस दिन वोटिंग होनी है उस दिन सिर्फ 420 सदस्य ही सदन में उपस्थित है और वे सभी मतदान में भाग लेंगे तो, उन सब का दो तिहाई बहुमत होना चाहिए। यानी कि 280 सदस्यों की सहमति। यही होता है विशेष बहुमत।

मूल अधिकार, राज्य की नीति के निदेशक तत्व, आदि का संशोधन इसी व्यवस्था के तहत होता है। इसके अलावा वे सभी उपबंध जो ‘साधारण बहुमत द्वारा’ और ‘विशेष बहुमत + आधे राज्यों से संस्तुति द्वारा’ श्रेणियों से सम्बद्ध नहीं है; इसी व्यवस्था के तहत संशोधित होता है।

2. संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ आधे राज्य विधानमंडल की संस्तुति के द्वारा

भारत के संघीय ढांचे से संबन्धित जो भी संशोधन होता है उसके लिए संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की भी मंजूरी जरूरी होता है। यहाँ याद रहे कि राज्य विधानमंडल में साधारण बहुमत से ही काम चल जाता है।

संघीय ढांचे से संबन्धित निम्नलिखित विषयों को देखा जा सकता है-

▪️ राष्ट्रपति का निर्वाचन एवं इसकी प्रक्रिया (अनुच्छेद 54 और 55)।
▪️ केंद्र एवं राज्य कार्यकारिणी की शक्तियों का विस्तार (अनुच्छेद 73 और 162)।
▪️ उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय (संविधान के भाग 5 का अध्याय 4 और भाग 6 का अध्याय 5)।
▪️ केंद्र एवं राज्य के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन। (संविधान के भाग 11 का अध्याय 1)
▪️ सातवीं अनुसूची से संबन्धित कोई विषय।
▪️ संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व।
▪️ संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया (अनुच्छेद 368)।

संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन

संशोधन का एक और प्रकार भी होता है जिसे ‘संसद के साधारण बहुमत द्वारा संशोधन‘ कहा जाता है। पर ये अनुच्छेद 368 के तहत नहीं आता है।

साधारण बहुमत का सीधा सा मतलब होता है उपस्थित कुल सदस्यों का या फिर मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का 50 प्रतिशत से अधिक। यानी कि 100 में से कम से कम 51। इसके तहत निम्नलिखित विषय आते हैं:-

(1) नए राज्यों का भारतीय संघ में प्रवेश या वर्तमान के राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करके नए राज्यों का गठन या फिर राज्यों के नामों में परिवर्तन। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)

(2) राज्य विधानपरिषद का निर्माण और उसकी समाप्ति (अनुच्छेद 169)

(3) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों का प्रशासन और नियंत्रण (पाँचवी अनुसूची का पैरा 7)

(4) दूसरी अनुसूची में संशोधन।

(5) असम, मेघालय और मिज़ोरम राज्यों में जनजाति क्षेत्रों का प्रशासन (छठी अनुसूची का पैरा 21)

(6) संसद में गणपूर्ति

(7) संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्ते तथा संसद, इसके सदस्य एवं इसकी समितियों की विशेषाधिकार

(8) नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति

(9) संसद एवं राज्य विधानमंडलों के लिए निर्वाचन आदि

(10) केंद्रशासित प्रदेश

(11) निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण

(12) राजभाषा का प्रयोग

(13) उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र को ज्यादा महत्व प्रदान करना

(14) उच्चतम न्यायालय में अवर न्यायाधीशों की संख्या

(15) संसद में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग

(16) संसद, इसके सदस्यों एवं इसके समितियों का विशेषाधिकार

(17) संसद में प्रक्रिया नियम

कुल मिलाकर यही है संविधान संशोधन प्रक्रिया। यहाँ पर कुछ कॉन्सेप्ट को समझनी बहुत ही जरूरी है, इसका लिंक नीचे है उसे भी अवश्य समझें।

◾ बहुमत कितने प्रकार के होते हैं?
◾ संविधान की मूल संरचना और केशवानन्द भारती मामला
◾ संविधान संशोधन की पूरी प्रक्रिया आलोचना सहित

[3] धन विधेयक (Money Bills):

“Bills Hand holding money clipart, finance“/ CC0 1.0

धन विधेयक एक खास प्रकार का विधेयक (Bills) होता है। किस प्रकार के विधेयक को धन विधेयक माना जाएगा ये संविधान के अनुच्छेद 110 में परिभाषित की गई है। इस अनुच्छेद के अनुसार कोई विधेयक तभी धन विधेयक माना जाएगा, जब उसमें निम्न वर्णित प्रावधानों में से एक या अधिक प्रावधान परिलक्षित होंगे।

1. यदि किसी विधेयक में, किसी कर का अधिरोपन (Imposition), उत्सादन (abolition), परिहार (remission), परिवर्तन (alteration) या विनियमन (Regulation) होता हो।

इसका सीधा सा मतलब ये है कि जब किसी में विधेयक में टैक्स लगाने, बढ़ाने, कम करने या उस टैक्स को खत्म करने से संबन्धित प्रावधान हो तो उसे धन विधेयक कहा जाएगा।

2. अगर किसी विधेयक में, भारत सरकार द्वारा उधार लिए गए धन के विनियमन (Regulation) या भारत सरकार द्वारा दी गई किसी गारंटी का विनियमन या अपने ऊपर ली गई किसी वित्तीय बाध्यताओं से संबन्धित किसी विधि का संशोधन हो;

दूसरे शब्दों में कहें तो भारत सरकार द्वारा ऋण लेना, गारंटी देना अथवा वित्तीय उत्तरदायित्व लेने के संबंध में कानून बनाने से संबन्धित प्रावधानों वाले विधेयक को धन विधेयक कहा जाएगा।

3. अगर किसी विधेयक में, भारत की संचित निधि (Consolidated Fund) या आकस्मिकता निधि (Contingency Fund) में से धन जमा करने या उसमें से धन निकालने से संबन्धित प्रावधान हो तो उसे धन विधेयक कहा जाएगा।

4. ऐसा विधेयक जो, भारत की संचित निधि से धन के विनियोग से संबन्धित हो। [संचित निधि यानी कि भारत का राजकोष और विनियोग का मतलब होता है किसी विशेष उपयोग के लिए आधिकारिक रूप से आवंटित धन की राशि।]

5. ऐसा विधेयक जो, भारत की संचित निधि पर भारित (Charged) किसी व्यय की उद्घोषणा या इस प्रकार के किसी व्यय की राशि में वृद्धि से संबन्धित हो।

6. ऐसा विधेयक जो, भारत की संचित निधि या लोक लेखा (Public Account) में किसी प्रकार के धन की प्राप्ति या अभिरक्षा या इनसे व्यय या इनका केंद्र या राज्य की निधियों का लेखा परीक्षण से संबन्धित हो।

[लोक लेखा (Public Account) भी संचित निधि की तरह एक निधि है, पर इसमें कुछ भिन्नताएँ है, निधियों को जानने के लिए इस लेख को जरूर पढ़ें। – विभिन्न प्रकार की निधियाँ (Types of Funds)]

7. उपरोक्त विनिर्दिष्ट (Specified) किसी विषय का आनुषंगिक (ancillary) कोई विषय। यानी कि अभी जो ऊपर 6 प्रावधानों को पढ़ें है उसका अगर कोई आनुषंगिक विषय भी होगा तब भी वे धन विधेयक माने जाएंगे।

क्या-क्या धन विधेयक नही है?

निम्न कारणों के आधार पर किसी विधेयक (Bills) को धन विधेयक नहीं माना जाता है :-

1. जुर्मानों या अन्य धनीय शास्तियों (Monetary penalties) का अधिरूपन (Imposition);

2. अनुज्ञप्तियों (Licenses) के लिए फ़ीसों या की गई सेवाओं के लिए फ़ीसों की मांग;

3. किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपन, उत्सादन (Cancellation), परिहार (Avoidance), परिवर्तन या विनियमन का उपबंध।

धन विधेयक से संबन्धित प्रावधान

◼ किस विधेयक को धन विधेयक कहना है और किस विधेयक को नहीं ये फैसला लोकसभा अध्यक्ष लेता है इस मामले में लोकसभा के अध्यक्ष का निर्णय अंतिम निर्णय होता है। उसके निर्णय को किसी न्यायालय, संसद या राष्ट्रपति द्वारा चुनौती नहीं दी जा सकती है।

◼ धन विधेयक केवल लोकसभा में केवल राष्ट्रपति की सिफ़ारिश से ही प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रकार के प्रत्येक विधेयक को सरकारी विधेयक माना जाता है तथा इसे केवल मंत्री ही प्रस्तुत कर सकता है।

◼ लोकसभा में पारित होने के उपरांत इसे राज्यसभा के विचारार्थ भेजा जाता है। राज्यसभा धन विधेयक को अस्वीकृत या संशोधित नहीं कर सकती है। यह केवल सिफ़ारिश कर सकती है।

वो भी लोकसभा के लिए यह आवश्यक नहीं होता है कि वह राज्यसभा की सिफ़ारिशों को स्वीकार ही करें। इसके साथ ही 14 दिन के भीतर उसे इस पर स्वीकृति देनी होती है अन्यथा वह राज्यसभा द्वारा पारित समझा जाता है।

◼ इस प्रकार देखा जा सकता है कि धन विधेयक के संबंध में राज्यसभा की शक्ति काफी सीमित है। दूसरी ओर साधारण विधेयकों के मामले में दोनों सदनों को समान शक्ति प्रदान की गई है।

अंततः जब धन विधेयक को राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है तो वह या तो इस पर अपनी स्वीकृति दे सकता है या फिर इसे रोककर रख सकता है लेकिन वह किसी भी दशा में इसे पुनर्विचार के लिए वापस नहीं भेज सकता है।

ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि लोकसभा में प्रस्तुत करने से पहले राष्ट्रपति की सहमति ली जाती है यदि वे सहमति दे देते हैं इसका मतलब है कि राष्ट्रपति इससे सहमत है।

धन विधेयक और वित्त विधेयक दोनों एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और दोनों को एक साथ समझना जरूरी है। इसीलिए इसके कॉन्सेप्ट को समझने के लिए नीचे दिए गए लेख को अवश्य पढ़ें;

◾ धन विधेयक और वित्त विधेयक
◾ Article 110 Explanation
◾ Article 117 Explanation

[4] वित्त विधेयक (Finance Bills):

“Bills Piggy bank clipart, finance, savings“/ CC0 1.0

भारतीय संविधान में धन विधेयक और वित्त विधेयक में भेद किया गया है। धन विधेयक को अनुच्छेद 110 के तहत परिभाषित किया गया है, वही वित्त विधेयक को अनुच्छेद 117 के तहत।

मोटे तौर पर बात करें तो उन सभी विधेयकों को वित्त विधेयक कहा जाता है जो कि सामान्यतः राजस्व या व्यय से संबंधित वित्तीय मामलों होते हैं।

इस तरह से देखें तो सभी धन विधेयक, वित्त विधेयक होना चाहिए और सभी वित्त विधेयक, धन विधेयक होना चाहिए, क्योंकि कमोबेश धन विधेयक में भी राजस्व या व्यय से संबन्धित मामले ही होते हैं। लेकिन ऐसा नहीं होता है।

सभी धन विधेयक तो वित्त विधेयक होता है लेकिन सभी वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होता है। ऐसा क्यों?

अनुच्छेद 110(1) के अंतर्गत जितने भी विषय दिए गए है वो धन विधेयक कहलाते हैं। वहीं अनुच्छेद 117(1) के अनुसार वित्त विधेयक वो विधेयक होता है जिसमें अनुच्छेद 110 के तहत आने वाले विषय तो हो लेकिन सिर्फ वही नहीं हो।

जैसे कि अगर कोई विधेयक करारोपन (Taxation) के बारे में हो लेकिन सिर्फ करारोपन के बारे में ही न हो। यानि कि उसमें अन्य तरह के मामले भी हो सकते हैं।

वित्त विधेयक को दो भागों में बांटा जा सकता है :- वित्त विधेयक (।) और वित्त विधेयक (॥)

जैसा कि हमने ऊपर समझा कि सभी धन विधेयक, वित्त विधेयक होते हैं लेकिन सभी वित्त विधेयक धन विधेयक नहीं होते हैं। केवल वही वित्त विधेयक धन विधेयक होते हैं, जिनका उल्लेख अनुच्छेद 110 में किया गया है।

और सबसे बड़ी बात ये कि कौन सा विधेयक धन विधेयक होगा और कौन नहीं ये लोकसभा अध्यक्ष तय करते हैं। कहने का अर्थ है कि इतना सब कुछ लिखा होने के बावजूद भी अगर लोकसभा अध्यक्ष किसी विधेयक को धन विधेयक घोषित करता है तो धन विधेयक होगा।

वित्त विधेयक (।)

वित्त विधेयक(।) की चर्चा अनुच्छेद 117 (1) में की गई है। वित्त विधेयक (।) में अनुच्छेद 110 (यानी कि धन विधेयक) के तहत जो मुख्य 6 प्रावधानों की चर्चा की गई है, वो सब तो आता ही है साथ ही साथ कोई अन्य विषय जो अनुच्छेद 110 में नहीं लिखा हुआ है वो भी आता है, जैसे कि विशिष्ट ऋण से संबन्धित कोई प्रावधान।

इस तरह के विधेयक में दो तत्व ऐसे होते हैं जो किसी धन विधेयक में भी होता हैं; (पहली बात) इसे भी राज्यसभा में पेश नहीं किया जा सकता है, और (दूसरी बात) इसे भी राष्ट्रपति की सिफ़ारिश पर ही पेश किया जा सकता है।

कहने का अर्थ है कि वित्त विधेयक(।) में अनुच्छेद 110 (धन विधेयक) के सारे प्रावधान आते हैं इसीलिए इसे पहले राष्ट्रपति से स्वीकृति लेने की जरूरत पड़ती है। और उसके बाद इसे लोकसभा में प्रस्तुत किया जाता है।

◾ इस हिसाब से देखें तो इसे भी धन विधेयक होना चाहिए और धन विधेयक की तरह ही इसको भी ट्रीटमेंट मिलना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण ये है कि लोक सभा अध्यक्ष यह तय करता है कि क्या धन विधेयक होगा और क्या नहीं।

अगर लोक सभा अध्यक्ष इसे एक धन विधेयक के रूप में घोषित करता है तो यह एक धन विधेयक हो जाएगा और उसी अनुसार ट्रीटमेंट पाएगा। वहीं लोक सभा अध्यक्ष ऐसा कुछ नहीं करता है तो फिर यह एक वित्त विधेयक होगा और वही ट्रीटमेंट पाएगा जो कि कोई कोई साधारण विधेयक पाता है।

◾ लेकिन अनुच्छेद 110 में वर्णित 6 मामलों के इत्तर जितने भी मामले होते हैं, उन मामलों में वित्त विधेयक (I) एक साधारण विधेयक की तरह हो जाता है।

यानी कि अब इसे राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति की जरूरत नहीं रहती और अब जब ये राज्यसभा में जाएगा तो राज्यसभा इसे रोक के रख सकती है या फिर चाहे तो पारित कर सकती है।

◾ यदि इस प्रकार के विधेयक में दोनों सदनों के बीच कोई गतिरोध होता है तो राष्ट्रपति दोनों सदनों के गतिरोध को समाप्त करने के लिए संयुक्त बैठक बुला सकता है। जबकि धन विधेयक में संयुक्त बैठक बुलाने का कोई प्रावधान नहीं है।

दोनों सदनों से पास होने के बाद जब विधेयक राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है, तो वह या तो विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है या उसे रोक सकता है या फिर पुनर्विचार के लिए सदन को वापस कर सकता है। जबकि धन विधेयक में राष्ट्रपति पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता है।

वित्त विधेयक (॥)

वित्त विधेयक(॥) की चर्चा अनुच्छेद 117 (3) में की गई है। यह इस मायने में खास है कि इसमें अनुच्छेद 110 का कोई भी प्रावधान सम्मिलित नहीं होता है। तो फिर इसमें क्या सम्मिलित होता है?

◾ अनुच्छेद 117(3) के अनुसार, जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवर्तित किए जाने पर भारत के संचित निधि से धन व्यय करना पड़े। लेकिन फिर से याद रखिए कि ऐसा कोई मामला नहीं होता, जिसका उल्लेख अनुच्छेद 110 में होता है।

◾ इसे साधारण विधेयक की तरह प्रयोग किया जाता है तथा इसके लिए भी वही प्रक्रिया अपनायी जाती है, जो साधारण विधेयक के लिए अपनायी जाती है।

यानी कि इस विधेयक को पहले लोकसभा में पारित करने की भी बाध्यता नहीं होती है इसे जिस सदन में चाहे पेश किया जा सकता है। और राज्यसभा इसे संशोधित भी कर सकती है, रोककर भी रख सकती है या फिर पारित कर सकती है।

◾ इसकी दूसरी ख़ासियत ये है कि वित्त विधेयक(॥) को सदन में प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्रपति की स्वीकृति की जरूरत नहीं पड़ती है लेकिन संसद के किसी भी सदन द्वारा इसे तब तक पारित नहीं किया जा सकता, जब तक कि राष्ट्रपति सदन को ऐसा करने की अनुशंसा (Recommendation) न दे दे।

◾ यदि इस प्रकार के विधेयक में दोनों सदनों के बीच कोई गतिरोध होता है तो राष्ट्रपति दोनों सदनों के गतिरोध को समाप्त करने के लिए संयुक्त बैठक बुला सकता है।

◾ जब दोनों सदनों से पास होकर जब विधेयक राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है, तो वह या तो विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है या उसे रोक सकता है या फिर पुनर्विचार के लिए सदन को वापस कर सकता है।

धन विधेयक और वित्त विधेयक दोनों एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और दोनों को एक साथ समझना जरूरी है। इसीलिए इसके कॉन्सेप्ट को समझने के लिए नीचे दिए गए लेख को अवश्य पढ़ें;

◾ धन विधेयक और वित्त विधेयक
◾ Article 110 Explanation
◾ Article 117 Explanation
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विधेयकों से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण जानकारी (Important Facts related to Bills)

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Q. सरकारी विधेयक (Government Bills) किसे कहते हैं?

सरकारी विधेयक उसे कहा जाता है जो सरकार के लोगों द्वारा पेश किया जाता है। विधि का रूप लेने वाले अधिकांश विधेयक सरकारी विधेयक ही होते हैं। धन विधेयक केवल मंत्री ही प्रस्तुत कर सकता है। संविधान संशोधन विधेयक की बात करें तो इसे सरकार द्वारा भी लाया जा सकता है और गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा भी।
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Q. गैर-सरकारी विधेयक (Non-Government Bills) किसे कहते हैं?

गैर-सरकारी विधेयक उसे कहा जाता है जो गैर-सरकारी लोगों द्वारा लाया जाता है। प्रत्येक अधिवेशन में हर दूसरे शुक्रवार के दिन गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों से संबंधित कार्य निबटाने के लिए ढाई घंटे का समय नियत किया जाता है। महीने के अन्य दो शुक्रवारों के दिन गैर-सरकारी सदस्यों के संकल्प लिए जाते हैं।

यहाँ यह याद रखिए कि सरकारी विधेयक और गैर-सरकारी विधेयक में कोई अंतर नहीं होता है। एक गैर-सरकारी विधेयक को भी उसी प्रक्रिया से गुजरना होता है जिस प्रक्रिया से सरकारी विधेयक गुरजता है।

हालांकि पेश करने से पहले या उसके दौरान के कुछ नियमों में अंतर जरूर होता है। जैसे कि अगर किसी गैर-सरकारी सदस्य को अल्प-सूचना के आधार पर विधेयक पेश करने की अनुमति अध्यक्ष या सभापति से नहीं मिलता है तो उसे एक महीने की सूचना देनी पड़ती है।

इसके अलावा गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों एवं संकल्पों से संबंधित एक समिति भी होती है जो विधेयक की जांच करती है और पेश किए जाने की सिफ़ारिश करती है।

साथ ही एक गैर-सरकारी सदस्य एक अधिवेशन (बैठक) में चार विधेयक ही पेश कर सकता है।
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Q. निजी विधेयक (Private Member Bills) किसे कहते हैं?

मंत्रिमंडल (Cabinet) के सदस्यों (मंत्रियों) के अलावा अगर अन्य किसी सदस्य द्वारा कोई विधेयक पेश किया जाता है तो उसे निजी विधेयक कहा जाता है। अर्थात सत्ताधारी पार्टी के कोई अन्य सांसद (जो मंत्रिमंडल का हिस्सा नहीं है) अगर कोई विधेयक लाता है तो उसे भी निजी विधेयक कहा जाता है। हालांकि यह याद रखिए कि गैर-सरकारी विधेयक को भी निजी विधेयक कहा जाता है।
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Q. मूल विधेयक (Original Bills) किसे कहते हैं?

ऐसा विधेयक जिनमें नये प्रस्तावों, विचारों और नीतियों संबंधी उपबंध होते हैं, मूल विधेयक कहलाते हैं।
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Q. समेकन विधेयक (Consolidation Bills) किसे कहते हैं?

ऐसा विधेयक जिसका आशय किसी एक विषय पर वर्तमान विधियों को समेकित करना होता है समेकन विधेयक कहलाते हैं।
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Q. अधीनस्थ विधायन (Sub-Ordinate Legislation) किसे कहते हैं?

संसद के पास इतना वक्त और इतनी विशेषज्ञता नहीं होती है कि वह सभी आवश्यक विधियों पर विचार कर सकें एवं उसकी तकनीकी एवं प्रक्रियागत ब्यौरों में जा सकें। इसीलिए विधान बनाने की कुछ शक्तियाँ अधीनस्थ एजेंसी को दे दिया जाता है।

इसके तहत होता ये है कि सरकार संसद में एक मोटा-मोटी कानून बना देता है यानि कि उसकी सीमाएं तय कर देता है और फिर अधीनस्थ एजेंसियों पर इसे छोड़ दिया जाता है। अधीनस्थ एजेंसियां उसी दायरे में रहकर नियम (Rules), विनियम (Regulations) आदि बनाता है।

चूंकि विधान बनाने की अपनी कुछ शक्तियाँ संसद अधीनस्थ एजेंसी को प्रत्यायोजित करता है इसीलिए इसे प्रत्यायोजित विधान भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए आप देख सकते हैं कि CAA कानून साल 2019 में पास हो गया लेकिन वो लागू नहीं हुआ क्योंकि नियम (Rules) ही नहीं बनाए गए हैं।

अगर अधीनस्थ एजेंसी अपने दायरे का उल्लंघन करें तो क्या होगा?
इस पर नजर रखने के लिए प्रत्येक सदन में उसकी एक अधीनस्थ विधायन समिति होती है। जो यह देखती है कि क्या संसद द्वारा दी गई अधीनस्थ शक्तियों का इस्तेमाल उसके दायरे में रहकर किया गया है की नहीं।
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Q. एक दिन में कितने विधेयक पेश किए जा सकते हैं?

इस पर कोई रोक नहीं है। यानि कि एक दिन में जितना चाहे उतना विधेयक पेश किया जा सकता है।
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Q. क्या दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में उस विधेयक में कोई संशोधन पेश किया जा सकता है?

संयुक्त बैठक में केवल ऐसे संशोधनों का प्रस्ताव किया जा सकता है जो विधेयक पास करने में विलंब के कारण आवश्यक हो गए हों।
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Q. कब कौन सा विधेयक समाप्त हो जाता है और कौन सा नहीं?

1. विचाराधीन विधेयक, जो लोकसभा में है, लोकसभा के विघटन पर समाप्त हो जाता है,
2. लोकसभा में पारित किन्तु राज्यसभा में विचाराधीन विधेयक समाप्त हो जाता है।
▪️ हालांकि जिन लंबित विधेयकों और लंबित आश्वासनों, जिनकी जांच सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति द्वारा की जानी होती है, लोकसभा के विघटन पर समाप्त नहीं होते है,
▪️ ऐसा विधेयक जो दोनों सदनों में असहमति के कारण पारित न हुआ हो और राष्ट्रपति ने विघटन होने से पूर्व दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाई हो, समाप्त नहीं होता
▪️ ऐसा विधेयक जो राज्यसभा में विचाराधीन हो लेकिन लोकसभा द्वारा पारित न हो, समाप्त नहीं होता।
▪️ ऐसा विधेयक जो दोनों सदनों द्वारा पारित हो लेकिन राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए लौटा दिया गया हो, समाप्त नहीं होता।
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तो कुल मिलाकर यही है विधेयक (Bills), उम्मीद है आपको समझ में आया होगा। बेहतर समझ के लिए संबंधित अन्य लेखों को अवश्य पढ़ें;

| Related Article

अनुच्छेद 112 – भारतीय संविधान
अनुच्छेद 110 – भारतीय संविधान
⚫ संसद में कानून बनाने की प्रक्रिया
⚫ धन विधेयक और वित्त विधेयक
⚫ संविधान संशोधन विधेयक
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भारतीय संविधान
संसद की बेसिक्स
मौलिक अधिकार बेसिक्स
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भारत की कार्यपालिका
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अस्वीकरण – यहाँ प्रस्तुत लेख, मूल संविधान (उपलब्ध संस्करण), संविधान पर डी डी बसु की व्याख्या (मुख्य रूप से), प्रमुख पुस्तकें (एम. लक्ष्मीकान्त, सुभाष कश्यप एवं प्रमोद अग्रवाल इत्यादि) एनसाइक्लोपीडिया, संबंधित मूल अधिनियम और संविधान के विभिन्न ज्ञाताओं (जिनके लेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर ऑडियो-विजुअल्स के रूप में उपलब्ध है) पर आधारित है। हमने बस इसे रोचक और आसानी से समझने योग्य बनाने का प्रयास किया है।