इस व्यापक लेख में हम भारत में बेरोजगारी और इसके विभिन्न अन्य पहलुओं जैसे अर्थ, कारण, समाधान और बेरोजगारी के प्रकारों पर चर्चा करने जा रहे हैं।

चूंकि हम बेरोजगारी के लगभग सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को कवर करने जा रहे हैं, इसलिए शब्द गणना के मामले में यह बड़ा हो सकता है। लेकिन मेरा सुझाव है कि आप इस लेख को अंत तक अवश्य पढ़ें।

“Unemployment is the ultimate tragedy. The cost of losing a job is not just financial, it’s personal and emotional.”

– Thomas Perez
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भारत में बेरोजगारी

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| बेरोजगारी की पृष्ठभूमि

बेरोजगारी (Unemployment) आधुनिक युग की सर्वाधिक गंभीर सामाजिक समस्याओं में से एक है। यह सामाजिक विघटन की सहगामी है, इसीलिए वर्तमान युग की कठिन समस्या बेरोजगारी है।

सन 1919 से 1937 तक बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर रखा था। जिससे चारों और त्राहि-त्राहि मच गयी। उस समय व्यवसाय और व्यापार का अवसाद, मृत्यु, भूख, अपराध आदि चारों तरफ अपने विकराल रूप में छाये हुए थे।

द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद तो इसका रूप और विकराल हो गया। खासकर के नए आजाद हुए देशों में ये एक प्रमुख समस्या बनकर उभरी। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा।

आजादी के 70 साल बाद आज भी भारत बेरोजगारी के सामने संघर्ष करते हुए दिखायी पड़ता है। बेरोजगारी इसीलिए भी एक चिंता का विषय है क्योंकि यह न केवल वैयक्तिक विघटन ही बढ़ता है, अपितु सामाजिक एवं पारिवारिक विभाजन को भी बल प्रदान करता है।

यह नैतिक पतन एवं अपराध-वृति को तो प्रोत्साहन देती है, साथ ही समाज में बर्बादी को भी जन्म देती है। अतः यह न केवल देश विशेष के लिए खतरनाक है, बल्कि संपूर्ण मानव समाज के लिए भी भयंकर है। तो आइये समझते हैं, बेरोजगारी क्या है?

| बेरोजगारी क्या है?

किसी भी देश में जनसंख्या के दो घटक होते हैं – (1) श्रम शक्ति (labor force) और (2) गैर-श्रम शक्ति (non labor force)

(1) श्रम शक्ति (labor force) – वे सभी व्यक्ति, जो किसी ऐसे कार्य में संलग्न है जिससे धन का उपार्जन होता हो।

यहाँ पर याद रखने वाली बात ये है कि कभी-कभी व्यक्ति धन उपार्जन तो करना चाहता है और वो काम की तलाश भी करता है लेकिन उसे काम नहीं मिलता है, ऐसे ही व्यक्तियों को बेरोजगार की श्रेणी में रखा जाता है। (इसका क्या मतलब है इसे आगे और स्पष्ट करेंगे)।

(2) गैर-श्रम शक्ति (non labor force) – वे सभी लोग जो किसी धन उपार्जन करने वाले काम में संलग्न न हो और न ही वो ऐसे किसी काम की तलाश कर रहा हो, तो ऐसे व्यक्तियों को बेरोजगार नहीं कहा जाता है; जैसे कि बच्चे, बूढ़े, किशोर एवं किशोरियाँ।

कुल मिलाकर एक बेरोजगार व्यक्ति वह है, जो धन उपार्जन करना चाहता है और वह रोजगार की तलाश में भी है लेकिन रोजगार पाने में असमर्थ है, इसीलिए इसे अनैच्छिक बेरोजगारी कहा जाता है।

वहीं दूसरी तरफ, ऐसे व्यक्ति जो खुद ही काम नहीं करना चाहता या अगर करना भी चाहता है तो सैलरी कम मिलने के कारण नहीं करता है, तो ऐसी स्थिति को ऐच्छिक बेरोजगारी कहा जाता है क्योंकि काम तो उपलब्ध है लेकिन किसी कारण से व्यक्ति खुद ही नहीं करना चाहता है।

इसीलिए यहाँ याद रखने वाली बात है कि अनैच्छिक बेरोजगारी को ही बेरोजगारी माना जाता है और इसी अनैच्छिक बेरोजगारी को आगे चक्रीय, मौसमी, संरचनात्मक, संघर्षात्मक एवं प्रच्छन्न बेरोजगारी में विभाजित किया जाता है।

| रोजगार क्या है?

रोजगारी का अभिप्राय किसी व्यवसाय में काम करने से है, जिसके बदले धन या फिर धन के बदले धन के मूल्य की कोई वस्तु अर्जित की जाए।

गाँव में बहुत से श्रमिकों को धन के बदले में मजदूरी में अनाज मिलता है। इस प्रकार वे स्त्रियाँ जिनकी सेवाएँ देश और परिवार के लिए अमूल्य है, रोजगार नहीं कहीं जा सकती क्योंकि वे आर्थिक उत्पादक नहीं है। वहीं अगर वे घर के अन्दर या बाहर ऐसा काम करती है जिससे वे धन अर्जित कर सकें तो उन्हें रोजगार कहा जाता है।

| बेरोजगारी की विशेषताएँ

बेरोजगारी की कुछ प्रमुख विशेषताओं के आधार पर इसकी अवधारणा को और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है ये विशेषताएं निम्न है;

कार्य करने की योग्यता व समर्थता – किसी व्यक्ति को उसी रूप में बेरोजगार कहा जा सकता है, जब उसमें कार्य करने की योग्यता व समर्थता हो, कार्य करने की शारीरिक व मानसिक क्षमता हो।

यदि कोई अस्वस्थ एवं विक्षिप्त व्यक्ति अपनी शारीरिक एवं मानसिक दोष के कारण कोई कार्य नहीं करता, तो उसे बेरोजगारी की श्रेणी में नहीं रखा जायेगा।  

काम करने की इच्छा – यदि कोई व्यक्ति कोई लाभकारी काम करना ही नहीं चाहता है और फिर वह अकर्मण्य या आलसी जीवन व्यतीत करता है तो उसे बेरोजगार नहीं कहाँ जा सकता।

किसी व्यक्ति को उसी स्थति में बेरोजगार कहा जाएगा, जब वह कार्य की इच्छा अवश्य रखता हो किन्तु उसे फिर भी कोई कार्य नहीं मिल पाता। इस दृष्टि से साधुओं, सन्यासियों, तपस्वियों आदि को बेरोजगार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि वे शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होते हुए भी कार्य करने की इच्छा नहीं रखते।

कार्य खोजने के सन्दर्भ में सतत प्रयत्नशील – इच्छा और योग्यता रहते हुए भी यदि कोई व्यक्ति किसी लाभकारी कार्य को करने के लिए सतत प्रयत्नशील नहीं है तो बेरोजगारी की दशा उत्त्पन्न नहीं कर सकता।

उदाहरणस्वरुप, एक प्रथम श्रेणी में सफलता प्राप्त करने वाला नौकरी की इच्छा एवं योग्यता रखते हुए भी यदि कहीं प्रार्थना –पत्र आदि नहीं भेजता हो वह बेरोजगार नहीं कहला सकता।

अर्थार्जन करने का उद्देश्य – यदि कोई व्यक्ति अर्थार्जन करने के उद्देश्य से कोई लाभकारी कार्य प्राप्त नहीं करता तो वह बेरोजगार नहीं कहलायेगा।

उदाहरणस्वरुप, यदि कोई अध्यापक विद्यार्थियों से बिना कुछ लिए नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करता है तो उसे हम रोजगार में लगा हुआ व्यक्ति नहीं कह सकते। वह रोजगार में लगा हुआ व्यक्ति तभी कहलायेगा जब वह अपनी पढ़ाई के कार्य की फीस वसूल करें।

इसी प्रकार एक गृह-स्वामिनी के गृह-प्रबंध के कार्य को रोजगारपरक कार्य नहीं माना जा सकता क्योंकि उसका यह कार्य मूल्यवान होते हुए भी आर्थिक उत्पादक नहीं है, धनार्जनकारी नहीं है। परन्तु यदि वह अपने गृह-व्यवस्था के कार्य के साथ-साथ प्रचलित मजदूरी की दर पर कोई और कार्य करती है तो उसका यह कार्य रोजगारपरक कहलाएगा ।  

योग्यता अनुसार पूर्ण रोजगार का अभाव – एक व्यक्ति को पूर्ण रोजगार की स्थिति में तभी कहा जा सकता है जब वो उसकी योग्यता एवं उसकी क्षमता के अनुरूप वैतनिक कार्य में संलग्न हो

परन्तु यदि उसे उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप वैतनिक काम नहीं मिल पाता बल्कि उससे कम वेतन पर काम करना पड़ता है तो ऐसी स्थिति को आंशिक बेरोजगार (part time job) कहा जाता है ।  

इस प्रकार इन समस्त विशेषताओं के आलोक में बेरोजगारी को स्पष्ट करते हुए हम कह सकते है कि यह वह दशा है जिसमें शारीरिक एवं मानसिक रूप से योग्य इच्छुक एवं प्रयत्नशील व्यक्ति अर्थार्जन करने के उद्देश्य से अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार प्रचलित मजदूरी की दर पर कोई लाभकारी कार्य प्राप्त नहीं कर पाता है।

| बेरोजगारी का माप

बेरोजगारी की दर श्रम शक्ति का वह प्रतिशत है जो काम करना चाहता है लेकिन उसे काम नहीं मिल पा रहा है। इसकी गणना के लिए नीचे दिये गए सूत्र का इस्तेमाल किया जाता है-

बेरोजगारी की माप

बेरोजगारी का माप एक कठिन कार्य होता है, वो भी भारत जैसे देश में जहां इतनी जनसंख्या है; ये और भी मुश्किल हो जाती है, फिर भी कई ऐसी एजेंसियां है जो ये काम करती है;

(1) राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (National Sample Survey Office)

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ऑफिस भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत काम करता है ये नमूना सर्वेक्षणों के माध्यम से रोजगार, बेरोजगारी और बेरोजगारी दर का अध्ययन करने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर भारत में प्रमुख सरकारी एजेंसी रही है। आम तौर पर ये हर 5 साल में अपनी रिपोर्ट जारी करती है।

हालांकि 2012 के बाद से इस दिशा में कोई नया सर्वेक्षण नहीं हुआ है। 2017-2018 में एक नया सर्वेक्षण शुरू किया गया था पर आधिकारिक तौर पर इस सर्वेक्षण को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है।

(2) CMIE reports

Centre for Monitoring Indian Economy नामक निजी संस्था ने बेरोजगारी से संबंधित जानकारी के लिए एक ऑनलाइन डैशबोर्ड बनाया है जहां पर हर दिन बेरोजगारी दर को अपडेट किया जाता है।

भारत में अभी की बेरोजगारी की स्थिति को जानने के लिए Unemployment Rate in India को विजिट करें।


| भारत में बेरोजगारी का कारण

बेरोजगारी एक जटिल समस्या है जिसमें अनेक आर्थिक, सामाजिक संस्थाओं और व्यक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष योगदान है। भारत में बेरोजगारी के निम्नांकित कारण महत्वपूर्ण है:-

। धीमी आर्थिक संवृद्धि

कृषि पर अधिक निर्भरता तथा गैर-कृषि गतिविधियों की धीमी संवृद्धि रोजगार सृजन को सीमित करती है। आजादी के बाद से ही संवृद्धि दर का झुकाव लक्ष्य दर से काफी कम रहा है। इसीलिए, पर्याप्त मात्रा में रोजगार का सृजन नहीं हुआ। और लोग ऐसे रोजगारों पर आश्रित होने लगे जिसका कोई भविष्य नहीं था।

| श्रम शक्ति में वृद्धि

श्रम शक्ति में वृद्धि लाने वाले दो महत्वपूर्ण कारक है, जो निम्नलिखित हैं –

(1) जनसँख्या में वृद्धि (Increase in population) जनसंख्या वृद्धि और बेरोजगारी अंतर्संबंधित है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि वह कारक है जो काम की उपलब्धता को बहुत अधिक प्रभावित करता है।

भारत में जिस अनुपात में जनसंख्या में वृद्धि हो रही है उस अनुपात में आर्थिक विकास नहीं हो पा रहा है, उद्योग धंधे नहीं चल पा रहे हैं, काम व रोजगार के अवसर नहीं बढ़ पा रहे है, फलस्वरूप बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है। [यहाँ से पढ़ें – जनसंख्या बढ़ने का कारण क्या है?]

(2) सामाजिक कारक – स्वतंत्रता के पश्चात स्त्रियों की शिक्षा ने रोजगार के प्रति दृष्टिकोण को बदल दिया है। अब श्रम बाज़ार में रोजगार के लिए पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी प्रतियोगिता करती है। किन्तु अर्थव्यवस्था इन चुनौतियों का सामना करने में विफल रही है परिणामस्वरूप बेरोजगारी स्थायी रूप लेने लग गया।

| झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा (False social prestige)

झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा कुछ इस रूप में पैदा हो रही है कि कुछ व्यक्ति कुछ विशेष कार्यों को करना अपनी मान-मर्यादा के प्रतिकूल समझते है।

उदाहरणस्वरुप – विक्रय कला व टाइप करने जैसे कार्यों को नीचे दर्जे का माना जाता है। कभी-कभी युवा व्यक्ति इस तरह के कार्य को करने से इस लिए कतराते है, क्योंकि उनसे उसके परिवार का स्तर ऊँचा है। वे ऐसे कार्यों के करने के बजाय बेरोजगार रहना पसंद करते है।  

| दोषपूर्ण शिक्षा व्यवस्था (Captious Education system)

भारत में वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजी सरकार की देन है। यह शिक्षा सफेदपोश, नौकरी को महत्व प्रदान करती है और शरीर श्रम के प्रति घृणा की भावना बढ़ाती है।

फलस्वरूप आई.ए.एस., आई.पी.एस., डॉक्टर, इंजिनियर, कॉलेज शिक्षक आदि सेवा में जाने की लोगों का झुकाव विशेष रूप से है। जबकि वे सेवाएँ कम उपलब्ध है। फलस्वरूप विश्वविद्यालय शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों में बेरोजगारी भरपूर है।

| गतिशीलता की कमी (Lack of mobility)

गतिशीलता की कमी बेरोजगारी को उत्पन्न करती है। जब व्यक्ति एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने से हिचकते है, तो एक स्थान पर श्रमिकों की जमघट सी लगी रहती है।  

वे अपने ही जातीय समूह, गाँव, नगर व राज्यों में सिमटकर रह जाते है। इससे उस क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या उत्पन्न होती है।

भारत में जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, पारिवारिक दायित्व, धार्मिक, रुढियों, साम्प्रदायिकता आदि विशेष बाधाएँ प्रस्तुत करती है। जिससे व्यक्तियों में गतिशीलता नहीं हो पाती।  

| भौतिक आपदाएं (Physical disasters)

भारतीय कृषक को समय-समय पर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सूखा, अकाल, महामारी आदि जैसी विपदाओं का सामना करना पड़ता है।

सिंचाई आदि के साधन भी बहुत कम है, फलतः जितनी उपज होनी चाहिए उतनी भी नहीं हो पाती है। अधिक उपज हो तो अधिक लोगों को काम दिया जा सकता है। अतः भौतिक विपत्तियों से भी बेरोजगारी उत्पन्न होती है।

| भूमि के भार में वृद्धि (Increase in land load)

भूमि तो ठहरी सीमित उसकी उर्वरा शक्ति की भी एक सीमा है। उस सीमा के बाद उत्पादन में विशेष वृद्धि नहीं होती है। उत्पादन ह्रास का नियम लागू हो जाता है। जनसंख्या बढ़ने से भूमि का भार बढ़ता चला जाता है, उधर उपज में वृद्धि होती नहीं है,

परिणाम यह होता है कि भूमि से अपना निर्वाह करने वालों की स्थिति दिन-प्रतिदिन विषम होती जाती है। भूमि में छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजन कोढ़ खाज की स्थिति उत्पन्न करती है ।

| औद्योगिकरण (Industrialization)

नगरों में जहाँ बड़े उद्योग है, वहाँ पर हजारों लोगों को काम मिलता है पर यन्त्र तो ऐसा दानव है जो दानवीय गति से उत्पादन करता है।

जिस काम को 100 आदमी पूरे दिन में नहीं कर पाते, उसे एकाध घंटे में ही कर डालता है फलस्वरूप उतने लोगों की रोजी स्वतः छीन जाती है। स्वचालित यंत्रीकरण और विवेकीकरण की चपेट में हजारों व्यक्ति आते रहते है और रोजी-रोटी से वंचित होते रहते है।

| तेजी-मंदी का चक्र (Cycle of recession)

व्यापार में जो तेजी-मंदी का जो चक्र चलता रहता है, उसकी चपेट में भी हजारों व्यक्ति आते रहते है उसके कारण भी समय-समय पर लोगों की छंटनी होती रहती है और बेकारी बढ़ती रहती है।

| ग्रामीण-शहरी प्रवासन 

शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ने का एक कारण ये भी है कि ग्रामीण जनसंख्या बहुत बड़ी मात्रा में शहरों की ओर पलायन करता है। इससे शहरों पर बहुत ज्यादा दवाब बढ़ गया है वो इतनी बड़ी अकुशल एवं अशिक्षित जनसंख्या को झेल सकने में असमर्थ हो रहा है।

| बेरोजगारी के अन्य कारण

बेरोजगारी के उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त अन्य कारणों की चर्चा की जाती है, जैसे कि प्रॉडक्शन और एक्सपोर्ट हब बनने के लिए जो आधारिक संरचना की जरूरत थी वो भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्ति न कर सके।

साथ ही कुपोषण या अन्य स्वास्थ्य समस्या भी बेरोजगारी बढ़ाने में अपना योगदान देता है। इसके अलावा अगर कुछ विद्वानों के वक्तव्यों पर नजर डालें तो वो भी बेरोजगारी बढ़ने का एक कारण हो सकता है;

Adamsmith’ ने पूंजी की कमी को बेरोजगारी का कारण माना है। ‘जॉन मेनार्ड कीन्स’ बचत की इच्छा को बेरोजगारी का कारण बताया है कुछ अर्थशास्त्री मांग और आपूर्ति में असंतुलन को बेरोजगारी बताया है

‘एलियट एवं मेरिल’ ने बेरोजगारी का कारण औद्योगिकरण समृद्धि के बाद व्यापार चक्र में आई मंदी को माना है।

इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि बेरोजगारी विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और व्यैक्तिक कारणों का परिणाम है। यह सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कौन कारण कहाँ विशेष कारगर है।

कुल मिलाकर यही है मुख्य कारण बेरोजगारी बढ़ने के, उम्मीद है समझ में आया होगा। बेरोजगारी से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण लेखों का लिंक नीचे दिया जा रहा है बेहतर समझ के लिए उसे भी अवश्य पढ़ें।


| भारत में बेरोजगारी के प्रकार

बेरोजगारी के कई प्रकार है जो कि अलग-अलग आधारों पर परिभाषित की जाती है। आइए इसे एक-एक करके देखते हैं;

| मौसमी बेरोजगारी (Seasonal unemployment)

मौसमी बेरोजगारी का मतलब है कुछ खास महीनों में काम का न मिलना। दूसरे शब्दों में कहें तो कुछ काम ऐसे होते हैं जो कुछ खास महीनों में तो खूब रोजगार पैदा करते हैं लेकिन काम खत्म हो जाने के बाद साल के अन्य महीनों में फिर से वहीं स्थिति आ जाती है।

मौसमी बेरोजगारी कृषि क्षेत्र और कुछ विशेष उत्पादक इकाईयों –चीनी एवं बर्फ के कारखानों में देखी जाती है। कृषि क्षेत्र, चीनी व बर्फ के कारखानों में काम की प्रकृति ऐसी है कि श्रमिकों को एक वर्ष में 4 – 6 महीने बेकार रहना पड़ता है।   

| चक्रीय बेरोजगारी (cyclical unemployment)

चक्रीय बेरोजगारी व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्रों में पाई जाती है। जब व्यापार में तेजी-मंदी या उत्तार-चढाव होता है, तब बेरोजगारी का चक्रवात सामने आता है। जब मंदी होती है तब बेरोजगारी बढ़ जाती है और जब तेजी आती है तो बेरोजगारी घट जाती है। उदाहरण के लिए 2008 की आर्थिक मंदी।

व्यापार की इन चक्रीय दशाओं की उत्पत्ति से संबंधित अनेक सिद्धांत  है – जलवायु का सिद्धांत, अधिक बचत या कम उपभोग का सिद्धांत, मुद्रा का सिद्धांत, मनोवैज्ञानिक सिद्धांत आदि। इनमें कभी कोई मुख्य हो जाता है।

| संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural unemployment)

संरचनात्मक बेरोजगारी मूल रूप से आर्थिक ढांचे से संबंधित है। जब आर्थिक ढाँचे में दोष या विकास के कारण परिवर्तन होता है, तब बेरोजगारी देखने को मिलती है।

ऐसा देखा जाता है कि किसी समय में किसी विशेष उद्योग का विशेष रूप से विकास होता है, तो किसी दूसरे उद्योग का ह्रास होता है। ह्रास होने वाले उद्योग के मजदूर बेकार हो जाते है –जैसे भारत में कपड़े के उद्योग में मशीनों के आ जाने से जुलाहों का सफाया हो गया। इसी तरह से कम्प्युटर आ जाने से कई श्रमिकों को काम से हाथ धोना पड़ा था।

| घर्षणात्मक बेरोजगारी (Frictional Unemployment) 

जब कोई व्यक्ति एक रोजगार को छोड़कर दूसरे रोजगार की तलाश में होता है, इस दौरान नए रोजगार मिलने तक जो वो बेरोजगार बैठा रहता है उसे घर्षणात्मक बेरोजगारी कहा जाता है।

घर्षणात्मक बेरोजगारी को स्वाभाविक और अपरिहार्य माना जाता है क्योंकि नौकरी चाहने वालों और नियोक्ताओं को सही साथी ढूंढने में समय लगता है। यह अक्सर नौकरी की खोज, स्थानांतरण, या व्यक्तिगत परिस्थितियों जैसे कारकों के कारण उत्पन्न होता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो, जब किसी भी उद्योग में उत्पादन की स्थिति और मशीनें बदलती है तो पुराने श्रमिक कुछ समय के लिए बेकार हो जाते है। किन्तु शीघ्र ही उत्पादन की नयी तकनीकों में प्रशिक्षण प्राप्त कर वे अपने लिए नया रोजगार खोज लेते है।

प्राकृतिक बेरोज़गारी की दर – संघर्षात्मक तथा संरचनात्मक बेरोज़गारी के योग को बेरोज़गारी की प्राकृतिक दर कहते हैं।

प्राकृतिक बेरोज़गारी दर या गैर-त्वरित मुद्रास्फीति दर (natural unemployment rate or non-accelerating inflation rate)
प्राकृतिक बेरोज़गारी दर, जिसे बेरोज़गारी की गैर-त्वरित मुद्रास्फीति दर (non-accelerating inflation rate of unemployment (NAIRU)) के रूप में भी जाना जाता है, बेरोजगारी के उस स्तर को संदर्भित करती है जो किसी अर्थव्यवस्था में तब मौजूद होती है जब वह मुद्रास्फीति को तेज किए बिना अपने संभावित उत्पादन या पूर्ण रोजगार स्तर पर काम कर रही होती है। यह अर्थव्यवस्था में श्रम की आपूर्ति और मांग के बीच संतुलन बिंदु का प्रतिनिधित्व करता है।

प्राकृतिक बेरोजगारी दर (natural unemployment rate), पूर्ण रोजगार (Full Employment) की अवधारणा से जुड़ी है, जिसका मतलब पूर्ण संभावित स्तर होता है, शून्य बेरोजगारी नहीं। दरअसल यह स्वीकार किया गया है कि घर्षणात्मक बेरोजगारी (Frictional Unemployment) और संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural unemployment) जैसे कारकों के कारण किसी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी का कुछ स्तर हमेशा रहेगा।

सटीक प्राकृतिक बेरोजगारी दर का अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण और बहस का विषय है। यह विभिन्न देशों, समयावधियों और आर्थिक स्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है। श्रम बाजार नियम, जनसांख्यिकीय विशेषताएं और तकनीकी प्रगति जैसे कारक प्राकृतिक बेरोजगारी दर को प्रभावित कर सकते हैं।

नीति निर्माता अक्सर अर्थव्यवस्था को प्रबंधित करने के अपने प्रयासों के हिस्से के रूप में प्राकृतिक बेरोजगारी दर की निगरानी करते हैं। वे मूल्य स्थिरता और दीर्घकालिक आर्थिक विकास के अनुरूप बेरोजगारी के स्थायी स्तर को लक्षित करने के लिए मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति जैसे विभिन्न नीतिगत उपकरणों का उपयोग करते हैं।

कुल मिलाकर, प्राकृतिक बेरोजगारी दर बेरोजगारी के स्तर का प्रतिनिधित्व करती है जिसे एक अच्छी तरह से कार्यशील और स्थिर अर्थव्यवस्था के अनुरूप माना जाता है, जो स्थिर मुद्रास्फीति की स्थिति को बनाए रखते हुए घर्षण और संरचनात्मक कारकों को ध्यान में रखता है।
बेरोजगारी के प्रकार

| छिपी बेरोजगारी (Hidden unemployment)

ऐसी बेरोज़गारी जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई न दे, छिपी बेरोज़गारी कहलाती है। इसे प्रच्छन्न बेरोज़गारी भी कहा जाता है। यह उस समय होता है, जब कोई व्यक्ति उत्पादन में कोई योगदान नहीं देता है, जबकि प्रत्यक्ष रूप से कार्य करता हुआ दिखाई देता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो, छिपी बेरोजगारी के अंतर्गत आवश्यकता से अधिक लोग एक ही तरह के कार्य संपादन में देखे जाते है। इस प्रकार की स्थिति ग्रामीण कृषि-अर्थव्यवस्था में देखी जा सकती है।

गाँव में उतने भूमि के हिस्से पर कई  व्यक्ति काम करते है जिसमें केवल एक व्यक्ति कर सकता है।  जिससे उनके द्वारा उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होती है। यदि उसमें एक के अलावा अन्य को हटा दिया जाए तो कृषि-उत्पादन में कोई कमी नहीं आएगी।

| अर्द्ध-बेरोजगारी (Semi unemployment)

जब कोई व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी से भी कम मजदूरी पर काम करने लगता है, तो ऐसी अवस्था को ही अर्द्ध-बेरोजगारी या अल्प बेरोज़गारी कहा जाता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे व्यक्ति जो किसी आर्थिक गतिविधि में संलग्न तो है लेकिन उसके इच्छा और कौशल के अनुसार सैलरी या काम नहीं मिल रहा है तो ऐसे व्यक्तियों को अल्प बेरोजगार कहा जाता है।

इस स्थिति में ‘बैठे से बेगार भली’ के सिद्धांत पर व्यक्ति कार्य स्वीकार कर लेता है। जैसे स्नातकोत्तर पास व पीएचडी उपाधि प्राप्त व्यक्ति का निजी स्कूलों में दो या तीन हज़ार मासिक पर कार्यशील होते देखा जाना।

| शिक्षित बेरोजगारी (Educated unemployment)

शिक्षित बेरोजगारी भारत की आर्थिक समस्याओं की प्रमुख समस्या है। यह स्थिति हमारे आर्थिक विकास में बाधक है। शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी अलग किस्म की बेरोजगारी है।

जैसे कोई व्यक्ति सालों लगाकर स्नातक, स्नातकोत्तर पढ़ाई  कर लेता है लेकिन जब वह अपनी पढ़ाई समाप्त करके और डिग्री साथ लेकर बाज़ार में आते हैं तो उसे कोई काम ही नहीं मिलता है और वह बेरोजगार हो जाते है तो इसी स्थिति को शिक्षित बेरोजगारी कहा जाता है।


| शिक्षित बेरोजगारी क्या है?

मोटे तौर पर देखें तो बेरोज़गारी को दो मुख्य हिस्सों में बांट सकते हैं – (1) अनैच्छिक बेरोजगारी और (2) ऐच्छिक बेरोजगारी

ऐसे व्यक्ति, जो धन उपार्जन करना चाहता है और वह रोजगार की तलाश में भी है लेकिन रोजगार पाने में असमर्थ है, उसे बेरोज़गार कहा जाता है और इस स्थिति को अनैच्छिक बेरोजगारी कहा जाता है। अनैच्छिक इसीलिए क्योंकि काम करने की इच्छा तो है लेकिन काम ही नहीं मिल रहा है।

वहीं दूसरी तरफ, ऐसे व्यक्ति जो खुद ही काम नहीं करना चाहता या अगर करना भी चाहता है तो सैलरी कम मिलने के कारण नहीं करता है, तो ऐसी स्थिति को ऐच्छिक बेरोजगारी कहा जाता है।

ऐच्छिक बेरोज़गारी को बेरोज़गारी की श्रेणी में नहीं रखा जाता है; ऐसा इसीलिए क्योंकि काम तो उपलब्ध है लेकिन किसी कारण से व्यक्ति खुद ही नहीं करना चाहता है।

तो कुल मिलाकर यहाँ याद रखने वाली बात ये है कि अनैच्छिक बेरोजगारी को ही बेरोजगारी माना जाता है। शिक्षित बेरोज़गारी भी अनैच्छिक बेरोजगारी ही है क्योंकि यहाँ भी व्यक्ति काम तो करना चाहता है, धन तो उपार्जन करना चाहता है लेकिन उसे काम ही नहीं मिलता है। आइये विस्तार से समझते हैं;

| भारत में शिक्षित बेरोजगारी का कारण

कोई व्यक्ति सालों लगाकर स्नातक, स्नातकोत्तर पढ़ाई  कर लेता है लेकिन जब वह अपनी पढ़ाई समाप्त करके और डिग्री साथ लेकर बाज़ार में आता है तो उसे कोई काम ही नहीं मिलता है और वह बेरोजगार हो जाता है, तो इसी स्थिति को शिक्षित बेरोजगारी कहा जाता है।

आज के समय में शिक्षित बेरोजगारी भारत के आर्थिक समस्याओं का एक प्रमुख कारण है। क्योंकि आज शिक्षा का मूल मकसद धन उपार्जन करना ही है और इसीलिए लोग लाखों या करोड़ों रुपए खुद पर निवेश करते हैं ताकि जब वह बाज़ार में आए तो उसे मनचाहा काम मिल जाये।

लेकिन जब बाज़ार में रोजगार का सृजन ही नहीं हो रहा हो या अगर हो भी रहा है तो अपेक्षित योग्यता वाले लोग ही नहीं मिल पा रहे हों तो फिर शिक्षित बेरोज़गारी एक समस्या तो बनेगी।

हर साल लाखों स्टूडेंट्स ग्रेजुएट होकर निकलते हैं लेकिन उसमें से कुछ को जॉब मिल पाता है बाकी के नसीब में बेरोज़गारी ही आता है। यह स्थिति हमारे देश की आर्थिक विकास में बाधक बन रहा है, इसीलिए ये जानना जरूरी है कि इसका कारण क्या है?

जनसंख्या, या यूं कहें कि अधिक जनसंख्या, विकास की राह में रोड़ा अटकाने का काम करते हैं। एक अर्थव्यवस्था जिसमें 1.35 अरब लोग रहते हैं, हम शायद ही यह उम्मीद कर सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की मांगें पूरी होती हैं। यहां बुनियादी खाद्य आपूर्ति और चिकित्सा उपचार को पूरा करने के लिए ही आबादी बहुत अधिक है, नौकरियों और नियुक्तियों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

भारत उन शीर्ष 5 देशों में शामिल है जहां विश्वविद्यालयों में जाने वाले छात्रों की संख्या सबसे अधिक है। पर समस्या यह है कि अवसरों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई है।

हर साल लाखों युवा ग्रेजुएट होकर तो निकलते हैं लेकिन ज़्यादातर के हाथ कोई रोजगार आता ही नहीं है। यह अंतर विशेष रूप से मंदी के समय में और बढ़ जाता है, जब कंपनियों और संगठनों को चरमराती अर्थव्यवस्था से निपटने में मुश्किल होती है, जिसके परिणामस्वरूप कर्मचारियों की छंटनी होती है, नए लोगों की भर्ती बहुत कम होती है।

निम्न स्तरीय शिक्षण संस्थान – जब हम अपने शिक्षण संस्थानों की तुलना देश के बाहर के संस्थानों से करते हैं, तो हमें यह समझ में आता है कि हमारी शिक्षण पद्धति अत्यंत त्रुटिपूर्ण है। पुराने पाठ्यक्रम, घटिया शिक्षण संसाधन, बुनियादी ढांचे की कमी इन संस्थानों का पर्याय बन चुका है।

छात्रों को बाज़ार की जरूरतों को पूरा करने, या विषय को मूल रूप से समझने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाता है, बल्कि पाठ्यक्रम को रटने और सही ग्रेड प्राप्त करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। हालांकि नई शिक्षा नीति 2020 ने इन त्रुटियों को सुधारने का वादा तो किया है, लेकिन ये तो आने वाले समय में ही पता चल पाएगा।

उचित कौशल या योग्यता का अभाव – किसी भी उद्योग में काम करने के लिए, आवश्यक कौशल और योग्यता पर ध्यान केंद्रित करना काफी महत्वपूर्ण है। हालांकि, आज अधिकांश युवाओं के पास डिग्री तो है लेकिन उस उपयुक्त कौशल का अभाव है जो एक नौकरी के लिए उनके पास होना चाहिए।

इस सब का कारण खोजने पर हमें कहीं-न-कहीं बुनियादी शिक्षा व्यवस्था में ही दोष नजर आता है। प्राथमिक स्तर पर ही संचार, भाषा या अन्य प्रासंगिक कौशलों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है।

महिलाओं का सशक्त न होना – ज्यादातर महिलाएं ग्रेजुएशन के बाद नौकरी लेने का विचार छोड़ देती हैं। यह मुख्य रूप से विवाह की संभावनाओं और अन्य पारिवारिक या सामाजिक अपेक्षाओं को पूरा करने में लग जाने के कारण होता है।

भारत में अभी भी कामकाजी महिला के विचार को व्यापक रूप से स्वीकृति नहीं मिली है, जबकि आज के समय में अधिकांश महिलाएं अपने करियर का निर्माण करने की इच्छा रखती हैं, समय की कमी और पारिवारिक दबाव हमेशा उन्हें अच्छे अवसरों को लेने से दूर करने का एक कारण रहा है।

| भारत में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या

शिक्षित बेरोजगारों में से कुछ लोग तो ऐसे है जो अल्प-रोजगार की स्थिति में है। इनको थोड़ा बहुत काम तो मिला हुआ होता है लेकिन यह काम या तो उनके शिक्षा के अनुसार नहीं होता या फिर इनकी क्षमता से कम होता है.

इस रूप में इनकी बेरोजगारी छिपी होती है। कुछ शिक्षित व्यक्ति ऐसे भी है जिनको कुछ काम मिला नहीं होता है अर्थात् वे खुले रूप से बेरोजगार होते है ।

आज श्रमिक वर्ग की बेकारी उतनी चिंत्य नहीं है जितनी की शिक्षित वर्ग की। श्रमिक वर्ग श्रम के द्वारा कहीं न कहीं सामयिक काम पाकर अपना जीवनयापन कर लेता है, किन्तु शिक्षित वर्ग जीविका के अभाव में शारीरिक और मानसिक दोनों व्याधियों का शिकार बनता जा रहा है।

वह व्यवहारिकता से शून्य पुस्तकीय शिक्षा के उपार्जन में अपने स्वास्थ्य को तो गवां ही देता है, साथ ही शारीरिक श्रम से विमुख हो अकर्मण्य भी बन जाता है। परंपरागत पेशे में उसे एक प्रकार की झिझक का अनुभव होता है।

विश्वविद्यालय, कॉलेज व स्कूल प्रतिवर्ष बुद्धिजीवियों, क्लर्क और कुर्सी से जूझने वाले बाबुओं को पैदा करते जा रहे है। नौकरशाही तो भारत से चली गयी किन्तु नौकरशाही भारतवासियों के मस्तिष्क से नहीं गयी है ।

विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु आया विद्यार्थी आई.ए.एस और पी.सी.एस के नीचे तो सोचता ही नहीं है। यही हाल हाई स्कूल और इंटर वालों का भी है। पुलिस की सब-इंस्पेक्टरी और रेलवे की नौकरियों के दरवाजे खटखटाते रहते है।

कई व्यक्ति ऐसे है, जिनके यहाँ बड़े पैमाने पर खेती हो रही है। यदि अपने शिक्षा का सदुपयोग वैज्ञानिक प्रणाली से खेती करने में करें तो देश की आर्थिक स्थिति ही सुधर जाए। पर ऐसा होता नहीं है क्योंकि खेती करना एक निम्न स्तर का पेशा माना जाता है।

| भारत में शिक्षित बेरोजगारी आंकड़ों में

आंकड़ों के मुताबिक देश में बेरोजगारी की संख्या 10 करोड़ से अधिक है। सबसे ख़राब स्थिति पश्चिम-बंगाल, जम्मू-कश्मीर, झारखण्ड, बिहार, ओड़िसा और असम की है। वही सबसे अच्छे राज्यों में गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु है।

वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ 23 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे, वही 2011 की जनगणना में इनकी संख्या बढ़कर 28 फिसद हो गयी। और 2020 के कोरोना महामारी के बाद तो लाखों लोग जिसको नौकरी मिली हुई थी, उस भी अपनी नौकरी गवानी पड़ी।  

इस बीच अंतर्राष्ट्रीय श्रम आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में भारत में बेरोजगारी के मसले को उठाया। उसके अनुसार, महिला रोजगार संकट में है, पूंजी आधारित रोजगार के अवसर कम हो रहे है।

कृषि जैसे क्षेत्रों में अब उतनी मजदूरी नहीं बची। वहां से लोगों को निकाला जा रहा है।  लेकिन ये महिलाएँ अभी दूसरे श्रेणी जैसे सर्विस सेक्टर में काम नहीं कर सकती क्योंकि उनके पास उतनी योग्यता नहीं है।

शैक्षणिक योग्यता के आधार पर आप नीचे दिये गए चार्ट में देख सकते हैं कि 2019 में बेरोज़गारी की क्या स्थिति थी।

Statistic: Share of unemployment across India in 2019, by educational qualification | Statista
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| बेरोजगारी के दुष्परिणाम

रोजगार मनुष्य के जीवन-यापन के बुनयादी आधार है।  यह मनुष्य की भूख एवं प्यास मिटाने की, प्राथमिक एवं आधारभूत आवश्यकता की पूर्ति की एक ससक्त साधन है। किन्तु बेरोजगार व्यक्ति को अनेकानेक संकटों का सामना करना पड़ता है।

संकट के दिनों में बेरोजगार व्यक्ति स्वयं अपने परिवार के लिए तो बोझ बनता ही है, समाज के लिए समुदाय के लिए और यहाँ तक की राष्ट्र के लिए भी बोझ बन जाता है।

अपना जीविकोपार्जन एवं आश्रितों को पोषण प्रदान के लिए वह अनेकानेक कुकर्म करने को तैयार हो जाता है। उसमें विपथगमनात्मक प्रवृतियाँ जागृत हो जाती है। विचलनकारी व्यवहार फिर विघटनकारी व्यवहार करने के लिए बाध्य करती है। इससे अंततः सामाजिक संरचना अस्त-व्यस्त हो जाती है।

बेरोज़गार व्यक्ति अनुशासनहीन, चरित्रहीन एवं आदर्शशून्य व्यवहार करने लगता है और दरिद्रता व दुर्दशा से पीड़ित, भूख का मारा हुआ, कर्ज से दबा हुआ, कुत्ते और बिल्लियों की तरह जीवन बिताने से उबकर चोरी, डकैती, तस्करी, हिंसा और कई प्रकार के आपराधिक कार्यों को करने की और अभिमुख हो जाता है।

वेश्यावृति, भिक्षावृति, आत्महत्या आदि अपराधों को खुलकर करने लगता है । इस प्रकार बेरोजगारी से सारा समाज, सारा समुदाय, सम्पूर्ण राष्ट्र प्रभावित होता है।

बेरोजगारी से कई प्रकार की सामाजिक समस्याओं का प्रादुर्भाव होता है, देश में आर्थिक समस्या उठ खड़ी होती है। लोगों का स्वास्थ्य क्षतिग्रस्त हो जाता है, मस्तिष्क बेकार हो जाता है, उसकी आकांक्षाए मर जाती है, सम्मान और उत्तरदायित्व की भावना मर जाती है, साहस और इच्छा-शक्ति कमजोर हो जाती है, कौशल नष्ट हो जाता है और कर्ज में इतना डूब जाता है कि फिर वैयक्तिक, पारिवारिक, सामुदायिक एवं राष्ट्रीय उन्नति की भावनाएँ नष्ट हो जाती है।

बेरोजगारी के दुष्परिणाम यहाँ निम्नलिखित बिन्दुओं में प्रस्तुत है

| वैयक्तिक विघटन (Personal dissolution)

बेरोजगारी किसी युवा व्यक्ति के लिए, रोजी-रोटी से आहत व्यक्तियों के लिए, आंशिक रोजगार में संलग्न व्यक्तियों के लिए और अल्प वैतनिक व्यक्तियों के लिए बहुत ही खतरनाक है।

उसमें बेरोजगार व्यक्तियों की सर्वाधिक संख्या पाई गयी है। अनपढ़ बेरोजगार व्यक्तियों की भांति पढ़े-लिखे बेरोजगार व्यक्तियों की चोरी, डकैती, तस्करी, हिंसा, जुआ, मद्यपान आदि में प्रमुख भूमिका है।  बेरोजगारी इस प्रकार वैयक्तिक विघटन का मार्ग प्रशस्त करते है।

| पारिवारिक विघटन (Family breakdown)

बेरोजगारी से आहत व्यक्ति का वैयक्तिक विघटन तो होता ही है साथ ही यह पारिवारिक विघटन का भी उदगम स्त्रोत है। पैसे की तंगी, पग-पग पर परेशानी, चिंता और कलह को जन्म देती है।

परिवार के सदस्यों को जब भरपेट भोजन नहीं मिलता, तन ढकने के लिए जब परिधान व वस्त्र प्राप्त होता, रहने के लिए घर नसीब नहीं होता और जब जीवन की अन्य सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है,

ऐसे में पति-पत्नी के बिच सम्बन्ध-विच्छेद व तलाक भी हो जाता है। बच्चे अनाथ हो जाते है। वे गलियों में कबाड़ी का काम करने लगते है।

| सामाजिक विघटन (Social disruption)

बेरोजगारी जो व्यैक्तिक विघटन एवं पारिवारिक विघटन की जन्मदात्री सामाजिक विघटन का भी आधारशिला है। बेरोजगारी के परिणामस्वरूप बेरोजगार व्यक्तियों की मनोवृति में तीखापन आ जाता है, उनका सामाजिक जीवन रिक्त होने लगता है। सामुदायिक भावना नष्ट होने लगता है।

यह व्यक्तिवादिता अनेक प्रकार की समस्याओं को जन्म देकर अपराध की भी अभिवृद्धि करती है जो की सामाजिक विघटन का प्रत्यक्ष रूप है।

| सामुदायिक विघटन Community disintegration)

सामुदायिक संगठन की आधारशिला है, “सामुदायिक भावना” यानी कि ‘हम की भावना’।  सामुदायिक विघटन की शुरुआत उसी समय हो जाता है जब मनुष्य सामुदायिक सहयोग और एकमत से अपना हाथ खींच लेता है।

वह सामुदायिक जीवन में, सामुदायिक हित में भाग लेना बंद कर देता है। और तनावग्रस्त रहने लगता है तथा कभी-कभी समाज में क्रांति का बीज बोने की कोशिश करती है।

| आतंकवाद को बढ़ावा (Promoting terrorism)

बेरोजगारी आतंकवाद को बढ़ावा देती है। बेरोजगार व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति के लिए समाज के प्रति, सरकार के प्रति क्रोधित होते है। उनकी सोच नकारात्मक हो जाती है वे सोचते है की यदि यह समाज उनकी उपयुक्त रोजगार पाने की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर सकता है तो इसे बर्बाद ही कर देना चाहिए। इससे वे राज्य के विरुद्ध संगठित हिंसा करना चाहते है।

पंजाब और असम में आतंकवाद को बढ़ाने में युवा बेरोजगारी की अहम् भूमिका रही है। दोनों राज्यों में युवा बेरोजगारों की बड़ी संख्या में होने की समान समस्या रही है।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि बेरोजगारी के परिणाम बड़े घातक सिद्ध होते है। बेरोजगार व्यक्ति का जीवन विघटित होता है, परिवार और समाज को भी यह विघटित कर देता है।

| राष्ट्र का नुकसान

बेरोज़गार व्यक्ति अपने लिए तो कुछ नहीं ही करता है साथ ही राष्ट्र के विकास में भी वो अपना योगदान नहीं दे पाता है, और ऐसे लोगों की संख्या जब बढ़ने लगती है तो फिर इसका बहुत बड़ा प्रभाव अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर भी पड़ता है।

क्योंकि वे खुद कुछ नहीं कर रहे होते हैं इसीलिए सरकार को उसके लिए कुछ करना पड़ता है और ऐसे में सरकार उन्ही पैसों को खर्च करती है जो कि अन्य लोगों ने टैक्स के रूप में सरकार के पास जमा कराये होते हैं; जबकि उन पैसों का उपयोग जीवन-शैली को और बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता था।

मानव विकास सूचकांक 2020 के अनुसार देखें तो 189 देशों में भारत का स्थान 131वां है, जो कि भारत की अच्छी स्थिति तो बिल्कुल भी नहीं बता रहा है। ऐसे में अगर किसी तरह से बेरोज़गारी पर नियंत्रण पा लिया जाये तो जरूर हमें अगली बार मानव विकास सूचकांक में एक सुधरा हुआ और सम्मानजनक रैंक मिलेगा।


| भारत में बेरोजगारी निवारण के उपाय

बेरोजगारी एक गंभीर समस्या है। इसके परिणाम बड़े ही घातक है। इसका दूर होना व्यक्ति और समाज दोनों के हित में है। इसे संगठित एवं योजनाबद्ध रूप में ही दूर किया जा सकता है सिर्फ सरकारी प्रयास से ही यह संभव नहीं है।

बेरोजगारी निवारण में व्यक्ति, समाज और सरकार तीनों के संयुक्त सच्चे प्रयास की जरुरत है। इस सन्दर्भ में निम्न उपाय कारगर सिद्ध हो सकते है।

| जनसँख्या वृद्धि को नियंत्रित करना

बेरोजगारी को दूर करने में जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण आवश्यक है। जिस अनुपात में रोजगार से साधन बढ़ते है, उससे कई गुना अनुपात में जनसंख्या में वृद्धि देखी जाती है। इसीलिए जनसंख्या में वृद्धि पर रोक आवश्यक है।

ऐसे देखो तो ये बस एक कारण नजर आता है पर अगर इसके तह में जाये तो ये एक कारण कई अन्य कारणों की जननी है। क्योंकि इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सब कुछ पैसे से जुड़ा हुआ है।

अगर रोजगार नहीं मिलेगा तो पैसे नहीं आएंगे। पैसे नहीं आएंगे तो गरीबी बढ़ेगी। गरीबी बढ़ेगी तो रहन सहन से स्तर में गिरावट आएगा। रहन-सहन के स्तर में गिरावट आएंगी तो अस्वच्छता उसके दोस्त हो जाएँगे।

अस्वच्छता से दोस्ती उसे महंगी पड़ेगी। इसे तरह-तरह की बीमारियाँ बढ़ेंगी और अस्वस्थ लोगों की संख्या बढ़ेगी।

अब जो अबतक शरीर से अस्वस्थ था वो अब मेंटली भी अस्वस्थ होने लगेगा। मेंटली अस्वस्थ होगा तो मन में गंदे विचार आएंगे। और जैसे ही मन में गंदे विचार आने शुरू होंगे। चोरी, डकैती, लूट, रेप, हत्या, देशद्रोह, आतंकवाद जैसे अपराध बढ़ेगा।

ये स्थिति ऐसे ही बस एक ऑर्डर में चलते चले जाते है अब जिसके पास रोजगार नहीं है अगर उसके बच्चे होंगे तो खराब आर्थिक स्थिति के कारण उसे अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाएगा, पौष्टिक आहार नहीं मिल पाएगा, स्वस्थ माहौल नहीं मिल पाएगा।

इससे वो एक संकीर्ण मानसिकता वाले व्यक्तित्व को अपना लेगा। जरूरी स्किल नहीं रहने के कारण उसे अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और फिर से वही स्थिति दोहराती चली जाएगी। इससे समझा जा सकता है कि जनसंख्या वृद्धि दर में कमी लाना कितना महत्वपूर्ण है।

| कृषि का विकास

भारत एक कृषि-प्रधान राष्ट्र है। कृषि विकास होने से बेरोजगारी में कमी आ सकती है।  कृषि में नवीन उपकरणों, कृत्रिम खादों, उन्नत बीजों, सिंचाई योजनाओं, कृषि योग्य नई भूमि तोड़ने, वृक्षा-रोपण, बाग़-बगीचे लगाने व सघन खेती से रोजगार के अवसर बढ़ाये जा सकते है।

कृषि विकास से व्यक्ति की आय में वृद्धि होगी, जीवन स्तर ऊँचा उठेगा, इच्छा व क्षमता में विकास होगा। ये सब बेरोजगारी को कम करेगी।

| शिक्षा-पद्धति में सुधार (Education reform)

शिक्षितों की बेरोजगारी आज एक ज्वलंत प्रश्न है। हमारे देश में शिक्षित बेरोजगारी की समस्या दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। इससे जाहिर होता है कि समकालीन भारत की शिक्षा-व्यवस्था दोषपूर्ण है।

आज विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से निकलकर युवक नौकरी की तरफ भागते है। उन्हें शारीरिक श्रम व हाथ से काम करने में लज्जा लगती है .

फिर भी जहाँ  तक उच्च शिक्षा का प्रश्न है वह केवल उन्हीं लोगों के लिए खुली होनी चाहिए जो वास्तव में प्रतिभाशाली हो अथवा वास्तव में उसके योग्य हो। यदि ये साड़ी बाते कार्यरूप में परिणत कर दी जाए तो अवश्य ही बेरोजगारों की बेतहाशा बढ़ती दर में कमी आएगी। हाल ही में भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति पेश की है। इससे आने वाले वक्त में अच्छे नतीजे आने की उम्मीद है।

| रोजगार दफ्तरों की स्थापना

बेरोजगारी का एक कारण जानकारी का अभाव भी है। इस सन्दर्भ में बड़े पैमाने पर रोजगार दफ्तरों की स्थापना की आवश्यकता है। देश के अन्दर रोजगार शिक्षित एवं प्रशिक्षित, कुशल एवं अकुशल श्रमिकों तथा अपढ़ किन्तु शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ बेकारों को रोजगार सुविधाओं व सुअवसरों से अवगत कराया जा सकता है।

इसकी शाखा ग्रामीण क्षेत्रों में तथा उन क्षेत्रों में हो जहाँ बेरोजगार श्रमिक की आवश्यकता है। इससे कम से कम ये तो होगा कि जो रोजगार उपलब्ध है वो सही लोगों को आवंटित हो जाएगा।

| रचनात्मक कार्य (creative work)

राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों और मध्य-वर्गीय लोगों के लिए भवनों का निर्माण सभी क्षेत्रों में किया जाना चाहिए। इससे एक तरफ लोगों को रोजगार निवेश दूसरी तरफ श्रमिकों को अच्छे निवास मिलने से उनके स्वास्थ्य में सुधार हो सकेगा।

शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सेवाओं तथा कार्यालयों का विस्तार एवं विकास होने से रोजगार के अवसर बढ़ेगा। इसी तरह बाँध, पुल, सड़क, पार्क एवं नदी-घाटी आदि के निर्माण के कार्यों को बढ़ावा देकर अनेक बेरोजगार व्यक्तियों के श्रम का उपयोग किया जा सकता है।  

| देश की वर्तमान अर्थ-व्यवस्था में सुधार

बेरोजगारी की समस्या एक आर्थिक समस्या है। जब तक देश की वर्तमान अर्थ-व्यवस्था में सुधार नहीं होगा तब तक यह समस्या ज्यों की त्यों अजगर की भांति बनी रहेगी।

इस महामारी को तभी हटाया जा सकता है, जब देश में औद्योगिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया जाए। ऐसा होने पर ही देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध होगा और अनेक बेरोजगार लोगों को रोजगार मिलेगा और देश में औद्योगिक विकास के कार्यक्रम बेरोजगारी से मुक्ति दिला सकेगी।

। सूक्ष्म, लघु और माध्यम उद्योगों का विकास

आंकड़ों से साबित हो चुका है कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग सबसे अधिक रोजगार पैदा करने वाला क्षेत्र है। ये अकेला क्षेत्र लगभग 12 करोड़ रोजगार उपलब्ध करवाता है इसीलिए इसे भारतीय अर्थव्यवस्था का ग्रोथ इंजन भी कहा जाता है।

दरअसल होता है ये है कि इस तरह के उद्योगों में पूंजी कम लगती है और ये परिवार के सदस्यों द्वारा संचालित किया जा सकता है। इसके द्वारा बेकार बैठे किसानों और अन्य लोगों को भी ये रोजगार देता है। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि सरकार इनके विकास के लिये पूंजी उपलब्ध कराये।

| व्यावसायिक शिक्षा (Vocational education)

देश की शिक्षा पद्धति में सुधार बहुत ही जरूरी है ताकि बच्चे जॉब रेडी होकर स्कूल या कॉलेज से निकले। इसके लिए हाईस्कूल पास करने के बाद विद्यार्थियों की रुचि के अनुसार व्यावसायिक शिक्षा चुनने के लिए जोर देना चाहिए, या फिर इस तरह की जागरूकता फैलानी चाहिए ताकि स्टूडेंट्स खुद ही ऐसे क्षेत्र को चुने। इस संदर्भ में नई शिक्षा नीति 2020 से काफी उम्मीदें है।

| भारत में बेरोजगारी निवारण के अन्य उपाय

इन उपायों के अतिरिक्त बेरोजगारी निवारण में अग्रलिखित सुझाव महत्वपूर्ण हो सकते है –

(1) श्रम की गतिशीलता को संतुलित करके कुछ हद तक बेरोज़गारी को कम किया जा सकता है।

(2) बेरोजगारी बीमा योजना या बेरोज़गारी भत्ता आदि का प्रावधान सरकारों द्वारा तब तक किया जा सकता है, जब तक कि उसे रोजगार प्राप्त न हो जाये।

(3) गाँव-नगर सम्बन्ध को और अधिक विकसित करके सही जगह पर सही स्किल वाले लोगों को भेजा जा सकता है साथ ही शहरों की कुछ खूबियों को गाँव में क्रियान्वित करके कुछ रोजगार का सृजन किया जा सकता है।

(4) सरकार द्वारा चीन के बाजार को भारतीय बाजार में आने से रोक कर और खुद सस्ते और टिकाऊ प्रॉडक्ट बनाकर, उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है, इससे भी बड़ी मात्रा में रोजगार का सृजन हो सकता है।

इस प्रकार बेरोजगारी को अनेक प्रयासों की संयुक्तता से दूर किया जा सकता है। इसके अनेक रूप है इसलिए अनेक प्रयास की आवश्यकता है।

इसमें सरकार की भूमिका के साथ-साथ पूंजीपतियों तथा उद्योगपतियों एवं स्वयंसेवी संस्थाओं का योगदान उल्लेखनीय हो सकता है ।

| भारत में बेरोजगारी निवारण के सरकारी प्रयास

बेरोजगारी एक अत्यधिक गंभीर समस्या है। इसके परिणाम बड़े ही घातक है। इसके दुष्परिणामों को देखते हुए सरकार ने इसे दूर करने के लिए अनेक कदम उठाये है

⚫ भारत सरकार द्वारा पिछले लगभग 3-4 सालों (2014, 2015, 2016 और 2017) में कई योजनाओं की शुरुआत की गई। जिनका लाभ सीधे भारत के जनता को मिल रहा है उन सरकारी योजनाओं की सूची निम्न है |

(1) प्रधानमंत्री आवास योजना (2) मुद्रा ऋण योजना (3) सुरक्षा बीमा योजना (4) अटल पेंशन योजना (5) प्रधानमंत्री युवा योजना (6) प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना (7) प्रधानमंत्री मुद्रा योजना और 1500 रूपये मासिक भत्ता योजना-बेरोजगार और गरीब लोगों के लिए।

इस प्रकार उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि सरकार विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से बेरोजगारी को दूर करने में कार्यरत रही है। लेकिन ये सभी प्रयास बहुत कारगर सिद्ध नहीं हुई है। इस सन्दर्भ में सच्चे और वास्तविक प्रयास की आवश्यकता है ।

भारत में बेरोजगारी – समापन टिप्पणी

बेरोजगारी (Unemployment) की सबसे गंभीर पहलू वैयक्तिक पहलू होता है।  जिस व्यक्ति के पास कोई धंधा नहीं है उसको अनेक व्यक्तिगत विपत्तियाँ झेलनी पड़ती है और उसकी आय बंद हो जाती है।

उसकी सहायता करने के लिए चाहे कुछ भी किया जाए वित्तीय असुरक्षा के कारण जीवन के प्रति उसका समस्त दृष्टिकोण बदल जाता है।

इससे नित्य प्रति के सभी कामों पर इसका असर पड़ता है। आगे चलकर यह विश्वास होने पर की समाज को उसकी जरूरत नहीं है तथा यह निकम्मा है, उसमें आत्म-सम्मान भी लुप्त हो सकता है। अंत में वह एकदम निराश हो सकता है, तथा अन्य बातों में भी लापरवाह हो सकता है और धंधे की तलाश करना छोड़ सकता है ।

मानसिक एवं भावात्मक अस्थिरता के कुछ मामलों में बेरोजगारी पूर्णतः एक व्यक्तिगत समस्या होती है जिसका व्यक्तिगत इलाज करना पड़ता है लेकिन सामान्य रूप में यह एक आर्थिक और सामाजिक समस्या है।

तो कुल मिलाकर यही है भारत में बेरोजगारी, उम्मीद है समझ में आया होगा। इसी टॉपिक से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण लेखों को भी पढ़ें, धन्यवाद;

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◼◼ भारत में बेरोजगारी ◼◼