जिस तरह संसद में लोकसभा और राज्यसभा होते हैं उसी प्रकार राज्य विधानमंडल में भी विधानसभा और विधान परिषद होते हैं। हालांकि विधान परिषद ऐच्छिक (Optional) है चाहे तो कोई राज्य अपने विधानमंडल का हिस्सा बना भी सकता है और नहीं भी।
इस लेख में हम विधानसभा और विधान परिषद पर सरल और सहज चर्चा करेंगे, एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

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विधानसभा और विधान परिषद का गठन
विधानसभा का गठन
विधानसभा का गठन विधायकों (जिसे कि एमएलए भी कहा जाता है) से होता है। इन प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष मतदान से वयस्क मताधिकार के द्वारा किया जाता है।
किसी राज्य के विधानसभा में कितनी सीटें होंगी इसके लिए जनसंख्या को पैमाना माना जाता है और उसकी के अनुसार किसी राज्य में न्यूनतम 60 से लेकर अधिकतम 500 तक सीटें हो सकती है।
हालांकि इसके कुछ अपवाद भी है जैसे कि अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम एवं गोवा के मामले में यह न्यूनतम 30 है एवं मिज़ोरम व नागालैंड के मामले में क्रमशः 40 एवं 46। इसके अलावा सिक्किम और नागालैंड विधानसभा के कुछ सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से भी चुने जाते है।
नामित सदस्य (Nominated member) – जनवरी 2020 से पहले तक राज्यपाल, एंग्लो इंडियन समुदाय से एक सदस्य को नामित कर सकता था। जिसे कि समाप्त कर दिया गया है।
निर्वाचन क्षेत्र (constituency) – विधानसभा को कई चुनाव क्षेत्रों में, उसे आवंटित सीटों के अनुसार बांट दिया जाता है। सभी निर्वाचन क्षेत्रों को समान प्रतिनिधित्व मिले इसके लिए निर्वाचन क्षेत्रों को जनसंख्या के आधार पर बांटा जाता है। इसके लिए 1971 के जनसंख्या को आधार वर्ष माना जाता है।
पहले तो 1976 के 42वें संविधान संशोधन के द्वारा इस आधार वर्ष को साल 2000 तक के लिए स्थिर कर दिया फिर 2001 में 84वें संविधान संशोधन द्वारा इसे आगे और 25 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया। यानी कि 2026 तक 1971 वाला जनसंख्या ही उपयोग में लाया जाएगा।
अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए स्थानों का आरक्षण – संविधान में राज्य की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा के लिए अनुसूचित जाति/ जनजाति की सीटों की व्यवस्था की गई है।
मूल रूप से यह आरक्षण 10 वर्ष के लिए था यानी कि 1960 तक लेकिन इस व्यवस्था को हर बार 10 वर्ष के बढ़ा दिया गया। अब 104वें अधिनियम अधिनियम 2020 द्वारा इसे 2030 तक के लिए बढ़ा दिया गया है।
विधान परिषद का गठन
विधान सभा सदस्यों के विपरीत विधान परिषद के सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते है। परिषद में अधिकतम संख्या विधानसभा की एक तिहाई और न्यूनतम 40 निश्चित है। इसका मतलब संबन्धित राज्य में परिषद सदस्य की संख्या, विधानसभा के आकार पर निर्भर करता है।
ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि प्रत्यक्ष निर्वाचित सदन का प्रभुत्व राज्य के मामले में बना रहे। यद्यपि संविधान ने परिषद की अधिकतम एवं न्यूनतम संख्या तय कर दी है। इसकी वास्तविक संस्था का निर्धारण संसद द्वारा किया जाता है।
निर्वाचन पद्धति – विधान परिषद के कुल सदस्यों में से 1/3 सदस्यों का निर्वाचन स्थानीय निकायों, जैसे, नगरपालिका, जिला बोर्ड आदि के द्वारा किया जाता है।
1/12 सदस्यों को राज्य में रह रहे 3 वर्ष से स्नातक निर्वाचित करते है।
1/12 सदस्यों का निर्वाचन 3 वर्ष से अध्यापन कर रहे लोग चुनते है लेकिन ये अध्यापक माध्यमिक स्कूलों से कम के नहीं होने चाहिए।
1/3 सदस्यों का चुनाव विधान सभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है और बाकी बचे हुए सदस्यों का नामांकन राज्यपाल द्वारा उन लोगों के बीच से किया जाता है जिन्हे साहित्य, ज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और समाज सेवा का विशेष ज्ञान व व्यवहारिक अनुभव हो।
इस तरह विधानपरिषद के कुल सदस्यों में से 5/6 सदस्यों का अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव होता है और 1/6 को राज्यपाल नामित करता है। सदस्य, एकल संक्रमणीय मत के द्वारा समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से चुने जाते है।
राज्यपाल द्वारा नामित सदस्यों को किसी भी स्थिति में अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। विधानपरिषद के गठन की यह प्रक्रिया संविधान में अस्थायी है, न कि अंतिम। संसद इसको बदलने और सुधारने के लिए अधिकृत है, हालांकि अभी तक संसद ने ऐसी कोई विधि नहीं बनाई है।
Lok Sabha: Role, Structure, Functions | Hindi |
Rajya Sabha: Constitution, Powers | Hindi |
Parliamentary Motion | Hindi |
विधानसभा और विधान परिषद का कार्यकाल
विधानसभा का कार्यकाल
लोकसभा की तरह विधानसभा भी निरंतर चलने वाला सदन नहीं है। आम चुनाव के बाद पहली बैठक से लेकर इसका सामान्य कार्यकाल पाँच वर्षो का होता है। इस काल के समाप्त होने पर विधानसभा स्वतः ही विघटित हो जाती है, हालांकि इसे किसी भी समय विघटित करने के लिए राज्यपाल अधिकृत है ताकि नए चुनाव हो सकें।
राष्ट्रीय आपातकाल के समय में संसद द्वारा विधानसभा का कार्यकाल एक समय में एक वर्ष तक के लिए (कितने भी समय के लिए) बढ़ाया जा सकता है। हालांकि यह विस्तार आपातकाल खत्म होने के बाद छह महीने से अधिक का नहीं हो सकता है। अर्थात आपातकाल खत्म होने के छह महीने के भीतर विधानसभा का दोबारा निर्वाचन हो जाना चाहिए।
विधानपरिषद का कार्यकाल
राज्यसभा की तरह विधानपरिषद एक सतत सदन है, यानी कि स्थायी अंग जो विघटित नहीं होता। लेकिन इसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष में सेवानिवृत होते रहते है।
इस तरह एक सदस्य छह वर्ष के लिए सदस्य बनता है। खाली पदों को नए चुनाव और नामांकन द्वारा हर तीसरे वर्ष के प्रारम्भ में भरा जाता है। सेवानिवृत सदस्य भी पुनर्चुनाव और दोबारा नामांकन हेतु योग्य होते हैं।
विधानसभा और विधान परिषद अध्यक्ष
विधानसभा अध्यक्ष
विधानसभा के सदस्य अपने सदस्यों के बीच से ही अध्यक्ष का निर्वाचन करते है।
समान्यतः विधानसभा के कार्यकाल तक अध्यक्ष का पद होता है। हालांकि वह निम्नलिखित तीन मामलों में अपना पद रिक्त करता है।
(1) यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाये,
(2) यदि वह उपाध्यक्ष को अपना लिखित त्यागपत्र दे दे और
(3) यदि विधान सभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जाये, इस तरह का कोई प्रस्ताव केवल 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।
विधानसभा अध्यक्ष की निम्नलिखित शक्तियाँ एवं कार्य होते है।
1. कार्यवाही एवं अन्य कार्यों को सुनिश्चित करने के लिए वह व्यवस्था एवं शिष्टाचार बनाए रखता है। यह उसकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी है और इस संबंध में उसकी शक्तियाँ अंतिम हैं।
2. भारत के संविधान का, सभा के नियमों का एवं कार्य संचालन की कार्यवाहियों में विधान में इसकी पूर्व परम्पराओं का, के उपबंधों का अंतिम व्याख्याकर्ता है।
3. कोरम की अनुपस्थिति में वह विधानसभा की बैठक को स्थगित या निलंबित कर सकता है। 4. वैसे तो वे सदन में मत नहीं देते लेकिन बराबर मत होने की स्थिति में वह निर्णायक मत दे सकता है।
5. सदन के नेता के आग्रह पर वह गुप्त बैठक को अनुमति प्रदान कर सकता है।
6. वह इस बात का निर्णय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं। इस प्रश्न पर उसका निर्णय अंतिम होगा।
7. दसवीं अनुसूची के उपबंधों आधार पर किसी सदस्य की निरर्हता को लेकर उठे किसी विवाद पर फैसला देता है।
8. वह विधानसभा की सभी समितियों के अध्यक्ष की नियुक्ति करता है और उनके कार्यों का पर्येक्षण करता है। वह स्वयं कार्य मंत्रणा समिति, नियम समिति एवं सामान्य उद्देश्य समिति का अध्यक्ष होता है।
विधानसभा उपाध्यक्ष
अध्यक्ष की तरह ही विधानसभा के सदस्य उपाध्यक्ष का चुनाव भी अपने बीच से ही करते हैं। अध्यक्ष का चुनाव सम्पन्न होने के बाद उसे निर्वाचित किया जाता है।
अध्यक्ष की ही तरह उपाध्यक्ष भी विधानसभा के कार्यकाल तक पद पर बना रहता है, हालांकि वह समय से पूर्व भी निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता है;
(1) यदि उसकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाए,
(2) यदि वह अध्यक्ष को लिखित इस्तीफा दे और
(3) यदि विधानसभा सदस्य बहुमत के आधार पर उसे हटाने का संकल्प पास कर दे। यह संकल्प 14 दिन की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।
उपाध्यक्ष, अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके सभी कार्यों को करता है। यदि विधानसभा सत्र के दौरान अध्यक्ष अनुपस्थिति हो तो वह उसी तरह कार्य करता है। दोनों मामलों में उसकी शक्तियाँ अध्यक्ष के समान ही रहता है।
विधानसभा अध्यक्ष सदस्यों के बीच से सभापति पैनल का गठन करता है, उनमें से कोई ही एक अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में सभा की कार्यवाही सम्पन्न कराता है। जब वह पीठासीन होता है तो, उस समय उसे अध्यक्ष के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। वह सभापति के नए पैनल के गहन तक कार्यरत रहता है।
विधान परिषद का सभापति
विधानपरिषद के सदस्य आने बीच से ही सभापति को चुनते हैं। सभापति निम्नलिखित तीन मामलों में पद छोड़ सकता है; (1) यदि उसकी सदस्यता समाप्त हो जाये। (2) यदि वह उप सभापति को लिखित त्यागपत्र दे, और (3) यदि विधानपरिषद मे उपस्थिति तात्कालिन सदस्य बहुमत से उसे हटाने का संकल्प पास कर दें। इस तरह का प्रस्ताव 14 दिनों की पूर्व सूचना के बाद ही लाया जा सकता है।
पीठासीन अधिकारी के रूप में परिषद के सभापति की शक्तियाँ एवं कार्य विधानसभा के अध्यक्ष की तरह है। हालांकि सभापति को एक विशेष अधिकार प्राप्त नहीं जो अध्यक्ष को है कि अध्यक्ष यह तय करता है कि कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं और उसका फैसला अंतिम होता है।
अध्यक्ष की तरह सभापति का वेतन व भत्ते भी विधानमंडल तय करता है। इन्हे राज्य की संचित निधि पर भारित किया जाता है और इसीलिए इन पर राज्य विधानमंडल द्वारा वार्षिक मतदान नहीं किया जा सकता।
विधान परिषद का उप-सभापति
सभापति कि तरह ही उप सभापति को भी परिषद के सदस्य अपने बीच से चुनते है।
सभापति की अनुपस्थिति में उप सभाध्यक्ष ही कार्यभार संभालता है। परिषद की बैठक के दौरान सभापति के न होने पर वह उसी की तरह काम करता है दोनों ही मामलों में उसकी शक्तियाँ सभापति के समान होती है।
सभापति सदयों के बीच से ही उप सभाध्यक्ष कि सूची जारी करता है। सभापति और उप सभापति की अनुपस्थिति में उनसे से कोई भी कार्यभार संभालता है। वह उपसभाध्यक्षों की नई सूची तक कार्य करते है।
विधान परिषद की स्थिति
संविधान में उल्लिखित विधान परिषद को स्थिति का दो कोणों से अध्ययन किया जा सकता है। 1. जहां परिषद विधानसभा के बराबर हो। 2. जहां परिषद विधानसभा के बराबर न हो।
विधानसभा से समानता
निम्नलिखित मामलों में परिषद की शक्तियों एवं स्थिति को विधानसभा के बराबर माना जा सकता है।
1. साधारण विधेयकों को पुरस्थापित और पारित करना। यद्यपि दोनों सदनों के बीच असहमति की स्थिति में विधानसभा ज्यादा प्रभावी होती है।
2. राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश को स्वीकृति
3. मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों का चयन : संविधान के अंतर्गत मुख्यमंत्री सहित अन्य मंत्रियों को विधानमंडल के किसी एक सदन का सदस्य होना चाहिए। तथापि अपनी सदस्यता के बावजूद वे केवल विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
4. संवैधानिक निकायों जैसे राज्य वित्त आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग एवं भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्टों पर विचार करना।
5. राज्य लोक सेवा आयोग के न्याय क्षेत्र मे वृद्धि।
विधानसभा से असमानता
निम्नलिखित मामलों में परिषद की शक्ति एवं स्थिति सभा से अलग है: 1. वित्त विधेयक सिर्फ विधानसभा में पुर:स्थापित किया जा सकता है
2. विधानपरिषद वित्त विधेयक में न संशोधन और न ही इसे अस्वीकार कर सकती है। इसे विधानसभा को 14 दिन के अंदर सिफ़ारिश के साथ या बिना सिफ़ारिश के भेजना होता है।
3. विधानसभा परिषद की सिफ़ारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। दोनों मामलों में वित्त विधेयक दोनों सदनों द्वारा पास माना जाता है।
4. कोई विधेयक वित्त विधेयक है या नहीं, यह तय करने का अधिकार विधानसभा के अध्यक्ष को है।
5. एक साधारण विधेयक को पास करने का अंतिम अधिकार विधानसभा को ही है। कुछ मामलों में परिषद इसे अधिकतम चार माह के लिए रोक सकती है। पहली बार में विधेयक को तीन माह और दूसरी बार में एक माह के लिए रोका जा सकता ही। दूसरे शब्दों में परिषद राज्यसभा की तरह पुनरीक्षण निकाय भी नहीं है। यह एक विलंबकारी चैंबर या परामर्शी निकाय मात्र है।
6. परिषद बजट पर सिर्फ बहस कर सकती है लेकिन अनुदान की मांग पर मत नहीं कर सकती (यह विधानसभा का विशेष अधिकार है)
7. परिषद अविश्वास प्रस्ताव पारित कर मंत्रिपरिषद को नहीं हटा सकती । ऐसा इसीलिए है क्योंकि मंत्रिपरिषद की सामूहिक ज़िम्मेदारी विधानसभा के प्रति है। लेकिन परिषद राज्यपाल के क्रियाकलापों और नीतियों पर बहस और आलोचना कर सकती है।
8. जब एक साधारण विधेयक परिषद से आया हो और सभा में भेजा गया हो, यदि सभा अस्वीकृत कर दे तो विधेयक खत्म हो जाता है।
9. परिषद भारत के राष्ट्रपति और राज्यसभा मे राज्य के प्रतिनिधि के चुनाव में भाग नहीं ले सकती ।
10. संविधान संशोधन विधेयक में परिषद प्रभावी रूप में कुछ नहीं कर सकती। इस मामले में भी विधानसभा ही अभिभावी रहती है। अंततः परिषद का अस्तित्व ही विधानसभा पर निर्भर करता है। विधानसभा की सिफ़ारिश के बाद संसद विधान परिषद को समाप्त कर सकती है।
संविधान ने परिषद को राज्यसभा के मुक़ाबले निम्नलिखित कारणों से कम प्रभावी बनाया है:
1. राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व होता है इसीलिए यह राज्य व्यवस्था की संघीय पद्धति का प्रतिबिंब है। यह केंद्र द्वारा आनावश्यक हस्तक्षेप के विरुद्ध राज्यों के हितों को संरक्षण प्रदान कर संघीय समंजस्य बनाए रखती है। इस तरह यह परिषद की तरह केवल साधारण इकाई या केवल सलाहकार इकाई नहीं है, वरन एक प्रभावी पुनरीक्षण इकाई है।
2. परिषद का गठन विषमांगी है यह विभिन्न हितों को प्रदर्शित होते हैं और इसमें विभिन्न रूप से निर्वाचित सदस्य होते हैं और कुछ नामित सदस्य भी सम्मिलित होते है। दूसरी ओर राज्यसभा का गठन समांग है। यह राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है और इसमे मुख्यतः निर्वाचित सदस्य होते है। 250 में से सिर्फ 12 नामित होते हैं।
3. परिषद को प्रदत दर्जा लोकतन्त्र के सिद्धांतों के अनुरूप है। परिषद को सभा के अनुसार कार्य करना होता है क्योंकि सभा निर्वाचित सदन होता है। यह साधारण विधेयक को अधिकतम एक माह और धन विधेयक को एक माह के लिए रोक सकता है।
विधान परिषद की कमजोर, शक्तिविहीन और प्रभावहीन स्थिति और भूमिका को देखते हुए आलोचक विधानपरिषद को द्वितीय चैंबर को खर्चीली, सफ़ेद हाथी आदि कहते है।
विधान परिषद की उपयोगिता
यद्यपि परिषद को सभा के मुक़ाबले कम अधिकार दिये गए है, फिर भी इनकी उपयोगिता निम्नलिखित मामलों में है: 1. यह विधान सभा द्वारा जल्दबाज़ी, त्रुटिपूर्ण, असावधानी और गलत विधानों के पुनरीक्षण और विचार हेतु उपबंध बनाकर उनकी जांच करती है।
2.यह प्रसिद्ध व्यक्तियों और विशेषज्ञों को प्रतिनिधित्व प्रदान करती है जो प्रत्यक्ष चुनाव का सामना नहीं कर पाते। राज्यपाल, परिषद में 1/6 ऐसे सदस्यों को नामित करते है।
ये रही विधानसभा और विधान परिषद से संबन्धित मुख्य बातें। बेहतर समझ के लिए संबन्धित अन्य लेखों को भी पढ़ें।
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