कावेरी जल विवाद : इतिहास, वर्तमान और समझौते #upsc
हमारे देश में बहुत सारी नदियों को लेकर जल विवाद है, उसमें से सबसे दिलचस्प मामलों में से एक है कावेरी जल विवाद (Cauvery water dispute)।
इस लेख में हम कावेरी जल विवाद (Cauvery water dispute) पर सरल और सरल चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे।
नदी जल विवाद (River Water Disputes)
एक संघीय व्यवस्था (Federal System) वाले देश में राज्य और राज्य के मध्य विवाद हो सकता है, केंद्र और राज्य के मध्य विवाद हो सकता है और इस विवाद के ढेरों कारण हो सकते हैं। इसी संदर्भ में नदी जल विवाद राज्य और राज्य के मध्य विवाद का एक प्रमुख कारण है।
एक संघीय व्यवस्था वाले देश में, दो या अधिक राज्यों से होकर बहने वाली नदियों के जल बंटवारे को लेकर अगर संबंधित राज्यों में विवाद हो जाये तो कोई नई बात नहीं क्योंकि जल की कमी एक समस्या है और जिस तरह से ये समस्या बढ़ रही है, आने वाले वक्त में ये और भी बड़ी समस्या का रूप ले सकती है ऐसे में सभी राज्य ज्यादा से ज्यादा पानी पर अधिकार चाहेगा ही।
भारत में नदी जल विवाद कितना बड़ा है इसे आप नीचे के चार्ट से समझ सकते हैं। यहाँ देखा जा सकता है कि कुछ राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में इस तरह की समस्या है।
और ये समस्या आज की नहीं हैं बल्कि कई दशकों पूर्व की है। कावेरी जल विवाद की बात करें तो ये तो 19वीं सदी से ही चल रही है। इस तरह से ये कहा जा सकता है कि नदी जल विवाद अंतर्राज्यीय संबंध (Inter-state relations)↗️ बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाता है।
न्यायाधिकरण का चार्ट
नाम | स्थापना वर्ष | संबंधित राज्य |
1. कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश |
2. गोदावरी जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं ओडीशा |
3. नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण | 1969 | राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश एवं महाराष्ट्र |
4. रावी एवं व्यास जल विवाद न्यायाधिकरण | 1986 | पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान |
5. कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण | 1990 | कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु एवं पुडुचेरी |
6. द्वितीय कृष्णा जल विवाद न्यायाधिकरण | 2004 | महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश |
7. वंशधरा जल विवाद न्यायाधिकरण | 2010 | ओडीशा एवं आंध्र प्रदेश |
8. महादायी जल विवाद न्यायाधिकरण | 2010 | गोवा, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक |
कावेरी जल विवाद (जिस पर हम चर्चा करने वाले हैं) बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण है और काफी दिलचस्प भी है क्योंकि ये विवाद वर्ष 1892 से चल रहा है जब भारत आजाद भी नहीं था।
कई बार समझौते हुए और तोड़े गए, यहाँ तक कि आजादी के बाद भी इस पर कई समझौते हुए या न्यायालय द्वारा फैसले दिये गए पर ये कभी भी ठीक से लागू नहीं हो पायी।
कावेरी जल विवाद क्या है?
कावेरी नदी का उद्गम कर्नाटक के कोडागु ज़िले के ब्रह्मगिरि पर्वत के तालकावेरी से होता है; यह लगभग 800 किलोमीटर लंबी है और मुख्य रूप से कर्नाटक और तमिलनाडु में बहती है।
कर्नाटक में जहां इसका जलग्रहण क्षेत्र 34,273 वर्ग किमी है वही तमिलनाडु में इसका जलग्रहण क्षेत्र 43,868 वर्ग किमी है। इसका कुछ भाग केरल और बहुत छोटा सा भाग पुडुचेरी भी साझा करता है। इसीलिए कर्नाटक और तमिलनाडु के साथ-साथ केरल और पुडुचेरी को भी इस पानी में से हिस्सा मिलता है।
कावेरी जल विवाद मुख्य रूप से दो राज्यों कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी के जल के बंटवारे को लेकर है। दोनों ही राज्य को ज्यादा से ज्यादा पानी चाहिए इसीलिए कोई एक पक्ष मानने को तैयार नहीं परिणामस्वरूप विवाद जारी है। पर ये विवाद कोई नया नहीं है बल्कि सवा सौ साल से भी पुराना है।
कावेरी जल विवाद क्यों है?
कावेरी जल विवाद भारत के आजाद होने से पहले से है। ब्रिटिश राज के समय से ही कावेरी जल बंटवारे का विवाद कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच विवाद का विषय रहा है। इसका मुख्य कारण है दोनों राज्यों के कई जिलों का सिंचाई के लिए कावेरी पर निर्भर होना। यहाँ तक कि बेंगलुरु शहर को भी पानी इसी नदी से मिलता है।
इस विवाद की शुरुआत साल 1892 से मानी जाती है क्योंकि इसी साल ब्रिटिश राज के तहत मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर रियासत के बीच कावेरी जल बंटवारे के विवाद की शुरुआत हुई थी इसका कारण यही था कि मैसूर रियासत इस नदी पर एक बांध बनाना चाहता था जबकि मद्रास प्रेसीडेंसी इस पर राजी नहीं था।
हालांकि 1910 में, दोनों राज्यों ने नदी के पानी को संग्रहीत करने के लिए जलाशयों (Reservoirs) के निर्माण के विचार की अवधारणा शुरू की। पर दोनों किसी एक समझौते पर नहीं पहुँच सके।
आगे चलकर 1924 में अंग्रेजों ने पानी के बंटवारे के मुद्दे की अध्यक्षता की और मद्रास प्रेसीडेंसी एवं मैसूर राज्य एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जहां कृष्णा राजा सागर (केआरएस) बांध के पानी के उपयोग के नियमों को सूचीबद्ध किया गया।
1924 के समझौते ने मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर राज्य को कावेरी नदी से अधिशेष पानी का उपयोग करने का अधिकार दिया। समझौते के अनुसार, तमिलनाडु और पुदुचेरी को अधिशेष जल (Surplus water) का 75% मिलेगा, जबकि कर्नाटक को 23% मिलेगा। शेष पानी केरल के लिए था।
जब तक भारत को आजादी मिली तब तक तो ये समझौता चलता रहा लेकिन आजादी के बाद समस्या गहराने लगा इसका कारण था (1) 1953 में मद्रास से आंध्र प्रदेश का अलग हो जाना और (2) राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956, जिसके तहत भारतीय राज्यों को काट-छांट, जोड़-घटाव आदि करके एक नया नक्शा वाला भारत बनाया गया जिसमें 14 राज्य और 6 केंद्र-शासित प्रदेश था।
इन्ही 14 राज्यों में से एक राज्य था मैसूर, जिसमें राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के तहत कुर्ग राज्य को भी मिला दिया गया था। यही मैसूर आगे चलकर 1973 में कर्नाटक के नाम से जाना जाने लगा।
[यहाँ से पढ़ें- भारतीय राज्यों के बनने की कहानी]
कुल मिलाकर अब जब राज्यों की सीमाएं बदल गई थी, क्षेत्रफल बदल गया था, तो स्वाभाविक था कि बंटवारे को लेकर भी अब नया समझौता करता पड़ता। पर बात सिर्फ इतनी नहीं थी 1924 का समझौता सिर्फ 50 वर्ष के लिए था जो कि 1974 में खत्म हो रहा था और कर्नाटक को ये रास नहीं आ रहा था कि नदी निकलती है उसके राज्य से लेकिन उसे सिर्फ 23 प्रतिशत पानी मिलता है और तमिलनाडु को 75 प्रतिशत पानी। शायद इसी कारण से कर्नाटक एक नया समझौता चाहता था।
इसके लिए कर्नाटक समान बंटवारे के सिद्धांत पर चलना चाहता था। कर्नाटक सरकार ने अपना प्रस्ताव रखा कि दोनों राज्य 47% पानी प्राप्त लें और शेष 6 प्रतिशत पानी को केरल और पुदुचेरी के बीच समान रूप से बांट दें।
तमिलनाडु इस बात से खुश नहीं था और 1924 के समझौते पर टीका रहना चाहता था। वर्ष 1986 में, तमिलनाडु के तंजावुर क्षेत्र में किसान संघ ने उच्चतम न्यायालय से यह माँग की कि जल बंटवारे के विवाद को सुलझाने के लिए एक न्यायाधिकरण (Tribunal) का गठन किया जाए।
1990 में, उच्चतम अदालत ने दोनों राज्यों द्वारा प्रस्तुत याचिकाओं पर सुनवाई की और उन्हें बातचीत से मामला सुलझाने का निर्देश दिया। पर जब बातचीत विफल रही, तो उच्चतम न्यायालय ने केंद्र को एक न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) बनाने का निर्देश दिया, जो दोनों राज्यों के बीच पानी के वितरण पर फैसला करेगा।
नदी जल विवाद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य |
संविधान का अनुच्छेद 262 – अंतर्राज्यिक नदियों या नदी घाटियों के जल संबंधी विवादों का न्यायनिर्णयन से संबंधित है जो दो प्रावधानों की व्यवस्था करता है:1. संसद, कानून बनाकर अंतर्राज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के जल के प्रयोग, बँटवारे तथा नियंत्रण से संबन्धित किसी विवाद का न्यायनिर्णयन (Adjudication) कर सकती है।2. संसद यह भी व्यवस्था कर सकती है कि ऐसे किसी विवाद में न ही उच्चतम न्यायालय तथा न ही कोई अन्य न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करें। यानी कि संसद न्यायालय की भूमिका को तय करे।इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल करते हुए संसद ने दो कानून बनाए। (1) नदी बोर्ड अधिनियम (1956) (2) अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956)।(1) नदी बोर्ड अधिनियम (1956) का काम है अंतरराज्यीय नदियों तथा नदी घाटियों के नियंत्रण तथा विकास के लिए नदी बोर्ड (River board) की स्थापना करना। (नदी बोर्ड की स्थापना संबन्धित राज्यों के निवेदन पर केंद्र सरकार द्वारा उन्हे सलाह देने हेतु की जाती है।)(2) अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956) का इस्तेमाल करके केंद्र सरकार दो या अधिक राज्यों के मध्य नदी जल विवाद के न्यायनिर्णयन हेतु एक अस्थायी न्यायालय (ट्रिब्यूनल) का गठन कर सकता है।? न्यायाधिकरण (Tribunal) का निर्णय अंतिम तथा विवाद से संबन्धित सभी पक्षों के लिए मान्य होता है। |
अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत केंद्र सरकार ने 2 जून, 1990 को कावेरी नदी जल विवाद न्यायाधिकरण का गठन किया, जिसने वर्ष 1991 में एक अंतरिम फैसला दिया। अन्तरिम फैसले में तमिलनाडु को 205 टीएमसी फिट (यानी कि 205 अरब क्यूबिक फीट) पानी देने को कहा गया।
ट्रिब्यूनल के इस फैसले से दोनों राज्यों में दंगे भड़क उठे, क्योंकि कर्नाटक ने ट्रिब्यूनल के इस निर्णय को अस्वीकार कर दिया और सर्वोच्च न्यायालय में इसे खारिज करने की मांग की। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने ट्रिब्यूनल के फैसले को बनाए रखा।
1993 में, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने चेन्नई में भूख हड़ताल की और कहा कि ट्रिब्यूनल के अंतरिम आदेश का कर्नाटक द्वारा पालन नहीं किया जा रहा है। दूसरी तरफ कर्नाटक का ये कहना था कि राज्य सूखे का सामना कर रहा है और इसलिए पानी नहीं छोड़ा जा सकता।
साल 1998 में, कावेरी नदी प्राधिकरण (CRA) का गठन किया गया था जिसमें अध्यक्ष के रूप में प्रधानमंत्री और चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सदस्य को शामिल किया गया। इस प्राधिकरण का काम था कावेरी नदी जल विवाद न्यायाधिकरण के अंतरिम आदेश को लागू करना।
कावेरी नदी जल विवाद न्यायाधिकरण का अंतिम निर्णय 2007
इस मुद्दे पर कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण ने अपना मुख्य फैसला लगभग 16 साल बाद 2007 में दिया गया। न्यायाधिकरण (Tribunal) ने कावेरी बेसिन में 740 टीएमसी फीट (अरब क्यूबिक फीट) पानी माना और फैसला दिया कि प्रतिवर्ष 419 टीएमसी फीट पानी पर तमिलनाडु का हक बनता है और 270 टीएमसी फीट पानी पर कर्नाटक का। इसके साथ ही केरल को 30 टीएमसी फीट और पुडुचेरी को 7 टीएमसी फीट पानी पर अधिकार दिया गया।
साथ ही न्यायाधिकरण ने ये भी कहा कि सामान्य मानसून वर्ष में कर्नाटक को हर साल 192 टीएमसी फीट पानी तमिलनाडु के लिए छोड़ना होगा।
हालांकि कर्नाटक और तमिलनाडु, दोनों ही इस फैसले से संतुष्ट नहीं थे इसीलिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद न्यायाधिकरण द्वारा 2007 में दिये गए फैसले के खिलाफ कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल द्वारा दायर याचिकाओं पर फरवरी 2018 में सुनवाई की।
इस फैसले में तमिलनाडु को मिलने वाले 192 टीएमसी फीट (अरब क्यूबिक फीट) पानी को घटाकर 177.25 टीएमसी फीट कर दिया गया यानी कि इसमें 14.75 टीएमसी फीट की कमी कर दी और इस पानी को कर्नाटक को दे दिया गया। इस तरह से कर्नाटक को अब 14.75 टीएमसी फीट पानी ज़्यादा मिलने लगा।
उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु के पानी में कटौती का आधार वहाँ के भूमिगत जल स्रोत को बताया। और इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने कावेरी बेसिन के कुल 20 टीएमसी फीट ‘भूमिगत जल’ में से 10 टीएमसी फीट अतिरिक्त पानी निकालने की अनुमति तमिलनाडु को दे दी।
केरल और पुदुचेरी को मिलने वाले पानी में कोई बदलाव नहीं किया गया है और इन्हें पहले की तरह क्रमशः 30 और 7 टीएमसी फीट पानी मिलता रहेगा। अदालत ने कहा कि यह नवीनतम फैसला दोनों राज्यों को 15 वर्ष के लिये मानना ही होगा।
तो कुल मिलाकर यही है कावेरी जल विवाद (Cauvery water dispute); अगर उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया मौजूदा फैसला कायम रहता है तो फिलहाल वर्ष 2032-33 तक दोनों राज्यों के बीच इस मामले में शांति बने रहने की उम्मीद है।