इस लेख में हम गरीबी या निर्धनता पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे, एवं भारत के संदर्भ में इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे;

तो अच्छी तरह से समझने के लिए लेख को अंत तक जरूर पढ़ें, और साथ ही हमारे समाज से जुड़े अन्य लेखों को भी पढ़ें, लिंक नीचे दिया हुआ है।

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| गरीबी क्या है?

गरीबी (Poverty) उस स्थिति को कहा जाता है जब कोई व्यक्ति रोटी, कपड़ा और मकान जैसे बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने में असमर्थ होता है।

विश्व बैंक के अनुसार, कल्याण में अभाव को गरीबी कहा जाता है। और ये कल्याण बहुत सारी चीजों पर निर्भर करती है, जैसे कि – स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छ जल, सुरक्षा, आवास, आय के बेहतर साधन आदि।

गरीबी का वर्गीकरण

आप इस चार्ट को देखकर समझ सकते हैं कि कुछ लोग हमेशा गरीब रहते हैं, जबकि कुछ व्यक्ति सामान्यतः गरीब होते हैं, साल या महीने में कुछ दिन काम मिल जाने के कारण वो गरीबी रेखा को लांघ जाता है। हालांकि इसके बावजूद भी चूंकि वो आमतौर पर गरीब ही होते हैं इसीलिए इसे चिरकालिक गरीब कहते हैं।

इसी तरह से कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कि गरीबी रेखा को अक्सर लांघता ही रहता है। और कुछ लोग तो आमतौर पर गरीबी रेखा के ऊपर ही होते हैं लेकिन साल में कुछ समय ऐसा आता है जब वो गरीबी रेखा के दायरे में आ जाता है। इस तरह के लोगों को अल्पकालिक निर्धन की श्रेणी में रखा जाता है।

इसी प्रकार के ऐसे लोग जो निर्धनता रेखा के हमेशा ऊपर होते हैं उसे गैर-निर्धन कहा जाता है।

। गरीबी के प्रकार

मुख्य रूप से गरीबी को दो भागों में बांटा जा सकता है – (1) सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty), और (2) निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty)

(1) सापेक्ष गरीबी (Relative Poverty) – ये गरीबी का एक सामाजिक और तुलनात्मक दृष्टिकोण है, जो कि किसी परिवेश में रहने वाली जनसंख्या के आर्थिक मानकों की तुलना में जीवन स्तर है, इसीलिए यह आय असमानता का एक उपाय है।

कहने का अर्थ ये है कि 1 लाख रुपए महीना कमाने वाला अगर 1 करोड़ रुपया महीना कमाने वाले से खुद की तुलना करेगा, तो उसके सामने गरीब ही नजर आएगा। इसीलिए इससे गरीबी का सही पता नहीं लगाया जा सकता है।

(2) निरपेक्ष गरीबी (Absolute Poverty) – ये गरीबी का एक सही तस्वीर पेश करता है। क्योंकि अगर कोई व्यक्ति इतना नहीं कमा पा रहा है कि वो अपनी बुनियादी जरूरतों को भी पूरा कर पाये तो फिर उसे तो पूर्णरूपेण ही गरीब माना जाएगा।

1990 में वर्ल्ड बैंक द्वारा आय के आधार पर गरीबी रेखा बनाया गया था जो कि एक डॉलर प्रतिदिन था। 2015 में इसे 1.90 डॉलर प्रतिदिन कर दिया गया। यानी कि 2015 के बाद से अगर कोई व्यक्ति प्रतिदिन कम से कम 1.90 डॉलर नहीं कमा पा रहा है तो उसे गरीब माना जाएगा।

हालांकि यहाँ ये जानना जरूरी है कि गरीबी की परिभाषा और मापने की विधियाँ अलग-अलग देशों में अलग-अलग होती है या हो सकती है। भारत की बात करें तो यहाँ भी गरीबी रेखा जैसी एक काल्पनिक रेखा बनायी गई है, उस रेखा से नीचे रहने वाले सभी लोगों को गरीब माना जाता है। आइये इसे विस्तार से समझते हैं;

| गरीबी या निर्धनता रेखा

भारत में गरीबी रेखा उपभोक्ता व्यय (consumer expenditure) पर आधारित है और इसका आकलन नीति आयोग के टास्क फोर्स द्वारा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (जो कि सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत आता है) द्वारा प्राप्त आंकड़ों के आधार पर किया जाता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में गरीबी, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षणों के आधार पर मापा जाता है। इस तरह से भारत में एक गरीब परिवार वह है, जिसका व्यय (expenditure) एक विशेष गरीबी रेखा के स्तर से कम होता है।

इसके अलावा कुल जनसंख्या में गरीबों की संख्या का अनुपात भी निकाला जाता है, जो कि प्रतिशत के रूप में होता है इसे गरीबी अनुपात या हेड काउंट अनुपात कहा जाता है। (उदाहरण के नीचे के चार्ट को देखा जा सकता है)

। निर्धनता रेखा का इतिहास

आज़ादी पूर्व सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने गरीबी रेखा की अवधारणा पर विचार किया था। उन्होने जेल की निर्वाह लागत को इसका आधार बनाया। उन्होने जेल में कैदियों को दिए जा रहे भोजन का बाजार कीमतों पर मूल्यांकन किया और इस जेल निर्वाह लागत में कुछ परिवर्तन कर गरीबी रेखा तक पहुँचने का प्रयास किया था।

आज़ादी के बाद, 1962 में, योजना आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी का अनुमान लगाने के लिए एक कार्य समूह का गठन किया, और इसने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 20 रूपये और शहरी क्षेत्रों के लिए 25 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष गरीबी रेखा बनायी।

वी.एम. दांडेकर और एन. रथ ने 1960-61 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के आंकड़ों के आधार पर 1971 में भारत में गरीबी का पहला व्यवस्थित मूल्यांकन किया। उन्होंने तर्क दिया कि गरीबी रेखा को उस व्यय से प्राप्त किया जाना चाहिए जो ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में प्रति दिन 2250 कैलोरी प्रदान करने के लिए पर्याप्त हो।

अलघ समिति (1979) : 1979 में योजना आयोग द्वारा गरीबी आकलन के उद्देश्य से एक टास्क फोर्स का गठन किया गया, जिसकी अध्यक्षता वाई. के. अलघ ने की। इन्होने पोषण संबंधी आवश्यकताओं के आधार पर ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए एक गरीबी रेखा का निर्माण किया।

क्षेत्र कैलोरीन्यूनतम उपभोग व्यय (रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह)
ग्रामीण240049.1
शहरी210056.7

ऊपर दिखाये गए चार्ट अलघ समिति द्वारा अनुशंसित 1973-74 मूल्य स्तरों के आधार पर पोषण संबंधी आवश्यकताओं और संबंधित खपत व्यय को दर्शाती है। उस समय ये सोचा गया था कि जैसे-जैसे भविष्य में महंगाई बढ़ेगी वैसे-वैसे मूल्य स्तर को समायोजित कर दी जाएगी।

लकड़ावाला समिति (1993) : 1993 में, डी.टी. लकड़ावाला की अध्यक्षता में गरीबी आकलन के लिए गठित एक विशेषज्ञ समूह ने सुझाव दिए कि (i) उपभोग व्यय की गणना पहले की तरह कैलोरी खपत के आधार पर की जानी चाहिए; और (ii) राज्य विशिष्ट गरीबी रेखाएं बनाई जानी चाहिए और इन्हें शहरी क्षेत्रों में औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-IW) और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि श्रम के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL) का उपयोग करके अपडेट किया जाना चाहिए;

तेंदुलकर समिति (2009) : 2005 में, सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में गरीबी आकलन के लिए एक अन्य विशेषज्ञ समूह का गठन योजना आयोग द्वारा किया गया। ऐसा इसीलिए किया गया क्योंकि पहले का जो उपभोग पैटर्न था वो पिछले 1973-74 के गरीबी रेखा के अनुसार था, जबकि उस समय से गरीबों के उपभोग पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव आ गया था। साथ ही पहले गरीबी रेखा ये मानकर बनाया गया था कि स्वास्थ्य और शिक्षा राज्य द्वारा प्रदान की जाएगी जबकि अब निजी क्षेत्र भी ये प्रोवाइड करने लगा था।

इस समिति ने मिश्रित संदर्भ अवधि (Mixed reference period) आधारित अनुमानों का उपयोग करने की सिफारिश की, जिसकी गणना निम्नलिखित मदों की खपत पर आधारित थी: *अनाज, दालें, दूध, खाद्य तेल, मांसाहारी वस्तुएं, सब्जियां, ताजे फल, सूखे मेवे, चीनी, नमक और मसाले, अन्य भोजन, नशीला पदार्थ, ईंधन, कपड़े, जूते, शिक्षा, चिकित्सा (गैर-संस्थागत और संस्थागत), मनोरंजन, व्यक्तिगत और शौचालय के सामान, अन्य सामान, अन्य सेवाएं और टिकाऊ वस्तुएं।

नोट – मिश्रित संदर्भ अवधि (Mixed reference period) पद्धति के तहत पिछले 365 दिनों में पांच कम आवृत्ति वाली वस्तुओं (कपड़े, जूते, अन्य टिकाऊ समान, शिक्षा और संस्थागत स्वास्थ्य व्यय) का सर्वेक्षण किया जाता है, और पिछले 30 दिनों के अन्य सभी वस्तुओं का सर्वेक्षण किया जाता है (जिसकी चर्चा ऊपर चर्चा की गई है)। इसीलिए इसे मिश्रित संदर्भ अवधि कहा जाता है।

वहीं अगर सभी वस्तुओं का सर्वेक्षण पिछले 30 दिनों के आधार पर ही किया जाये तो उसे समान संदर्भ अवधि (Uniform reference period) पद्धति कहा जाता है। तेंदुलकर समिति से पहले इसी अवधि का इस्तेमाल गरीबी रेखा के निर्धारण में किया जाता था।

कुल मिलाकर जहां पहले गरीबी रेखा, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमशः 2400 कैलोरी और 2100 कैलोरी का भोजन खरीदने के व्यय पर आधारित था। वहीं अब तेंदुलकर कमिटी ने गरीबी रेखा को भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि पर व्यय के आधार पर परिभाषित किया।

इस तरह से तेंदुलकर समिति ने प्रत्येक राज्य के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए नई गरीबी रेखा की गणना की। ऐसा करने के लिए, इसने आबादी द्वारा *ऊपर वर्णित वस्तुओं के मूल्य और खपत की मात्रा पर डेटा का उपयोग किया। और यह निष्कर्ष निकाला कि 2004-05 में अखिल भारतीय गरीबी रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रति माह 446.68 रुपये और शहरी क्षेत्रों में प्रति माह 578.80 रुपये प्रति माह थी।

ऐसा होने से लकड़ावाला समिति के आधार पर साल 2004-05 का जो गरीबी रेखा के नीचे की आबादी का प्रतिशत निकला था, वो तेंदुलकर समिति के अनुसार बदल गया। कितना बदला इसे आप नीचे के चार्ट में देख सकते हैं;

समितिग्रामीण शहरीकुल
लकड़ावाला समिति28.3 %25.7%27.5%
तेंदुलकर समिति41.8%27.5%37.2%

ऊपर के चार्ट से आप समझ सकते हैं कि लकड़ावाला समिति के अनुसार भारत में उस समय 27.5% लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे थे लेकिन तेंदुलकर समिति के अनुसार ये 37.2% था। इसीलिए बाद के सालों में गरीबी रेखा का आकलन, औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-IW) और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि श्रम के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL) के आधार पर करने के बजाय तेंदुलकर समिति के तरीकों के आधार पर किया गया। जो कि 2011-12 तक कुछ इस प्रकार था;

साल ग्रामीण शहरी
2004-05447 रुपया579 रुपया
2009-10673 रुपया860 रुपया
2011-12816 रुपया1000 रुपया
यहाँ पर रुपया प्रति व्यक्ति प्रति महीने की दर से है।

इस चार्ट के अनुसार 2011-12 में अगर एक ग्रामीण व्यक्ति 816 रुपया प्रति माह और शहरी व्यक्ति 1000 रुपया प्रति माह खर्च करने में सक्षम नहीं है तो इसका मतलब वो गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहा है।

वहीं प्रतिशत के रूप में बात करें तो तेंदुलकर समिति के अनुसार 2009-10 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का प्रतिशत 29.8% और 2011-12 में ये 21.9 % रह गया (जो कि भारत में गरीबी के घटते हुए प्रतिशत के बारे में बताता है)।

रंगराजन समिति 2012 : साल 2012 में योजना आयोग ने गरीबी के आकलन पर एक नया विशेषज्ञ पैनल गठित किया। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि

(1) गरीबी के स्तर की पहचान करने के लिए कोई और वैकल्पिक तरीका अगर है; तो उसे खोजा जा सके,

(2) राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा उपलब्ध कराए गए खपत डेटा और राष्ट्रीय लेखा समुच्चय (National Accounts aggregates) के बीच अंतर की जांच किया जा सके,

(3) अंतर्राष्ट्रीय गरीबी आकलन विधियों की समीक्षा की जा सके, और

(4) सिफ़ारिश की जा सके कि इन विधियों को भारत सरकार द्वारा बनाई गई विभिन्न गरीबी उन्मूलन योजनाओं के लिए पात्रता से कैसे जोड़ा जा सकता है।

समिति ने 2014 को अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की। और इस रिपोर्ट ने भारत में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के अनुमान को खारिज कर दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011-2012 में जनसंख्या का 29.5% लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रहे थे जबकि तेंदुलकर समिति के अनुसार 2011-12 के लिए गरीबी रेखा से नीचे का प्रतिशत 21.9 % ही था, जिसका अर्थ है कि भारत में 2011-12 में हर 10 में से 3 लोग गरीब थे।

| Poverty Statistics in India

वैसे तो ऊपर तेंदुलकर समिति के अनुसार भी गरीबी के आंकड़े भी बताए गए हैं लेकिन चूंकि सबसे लेटेस्ट समिति रंगराजन समिति है और उन्होने हालांकि तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया, जिसके लिए इनकी आलोचना भी की गई फिर भी इनके आकलन को एक तरह से स्वीकार किया गया।

तो रंगराजन समिति के 2011-12 के आकलन के अनुसार, यदि कोई शहरी व्यक्ति एक महीने में 1,407 रुपये (यानी कि लगभग 47 रुपये प्रति दिन) से कम खर्च करता है तो उसे गरीब समझा जाएगा, जबकि तेंदुलकर समिति के अनुसार ये मात्र 1000 रुपया था।

इसी तरह से यदि कोई ग्रामीण व्यक्ति एक महीने में 972 रुपए प्रति माह (यानी कि लगभग 32 रुपया प्रति दिन) से कम खर्च करता है तो उसे गरीब समझा जाएगा, जबकि तेंदुलकर समिति के अनुसार ये मात्र 816 रुपया प्रति माह था।

कुल मिलाकर रंगराजन समिति के अनुसार, 2011-12 में भारत में कुल 36.3 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे थे जबकि तेंदुलकर समिति के अनुसार ये 26.9 करोड़ था।

| चूंकि 2017 में जो सर्वेक्षण होना था वो डेटा अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है इसीलिए आधिकारिक रूप से अभी 2011-12 तक का ही डाटा उपलब्ध है, नीचे दिये गए चार्ट में आप राज्यवार, 2004-05 और 2011-12 के मध्य तुलना देख सकते हैं;

राज्य 2004-05 (%)2011-12 (%)कितना घटा (%)
आंध्र प्रदेश29.99.220.7
अरुणाचल प्रदेश31.134.7-3.6
असम34.4322.4
बिहार54.433.720.7
छतीसगढ़49.439.99.5
दिल्ली13.19.93.2
गोवा255.119.9
गुजरात31.816.615.2
हरियाणा24.111.212.9
हिमाचल प्रदेश22.98.114.8
जम्मू कश्मीर13.210.42.8
झारखंड45.3378.3
कर्नाटक33.420.912.5
केरल19.77.112.6
मध्य प्रदेश48.631.716.9
महाराष्ट्र38.117.420.7
मणिपुर3836.91.1
मेघालय16.111.94.2
मिज़ोरम15.320.4-5.1
नागालैंड918.9-9.9
ओडिसा57.232.624.6
पुडुचेरी14.19.74.4
पंजाब20.98.312.6
राजस्थान34.414.719.7
सिक्किम31.18.222.9
तमिलनाडु28.911.317.6
त्रिपुरा40.614.126.5
उत्तरप्रदेश40.929.411.5
उत्तराखंड32.711.321.4
पश्चिम बंगाल34.32014.3
पूरा भारत37.221.915.3
रिपोर्ट- तेंदुलकर समिति पर आधारित

Q. गरीबी का आकलन करना क्यों जरूरी है?

कोई भी राष्ट्र जो अपने नागरिकों का कल्याण चाहता हो, गरीबी का आकलन करना बहुत जरूरी हो जाता है; कुछ महत्वपूर्ण कारण निम्नलिखित है-

  • गरीबी का अनुमान लगाना जरूरी है क्योंकि यह गरीबी को खत्म करने के लिए शुरू की गई विभिन्न सरकारी योजनाओं के प्रभाव और सफलता का ट्रैक करने में मदद करता है।
  • इसकी मदद से वर्तमान में चल रही योजनाओं की कमियों को दूर किया जा सकता है और बेहतर समाधान तलाशे जा सकते हैं।
  • गरीबी आकलनों का उपयोग नई योजनाओं को तैयार करने के लिए किया जाता है जो समाज से गरीबी उन्मूलन को सुनिश्चित करेंगे।
  • भारत का संविधान एक न्यायसंगत समाज का वादा करता है, ऐसे में गरीबी का आकलन समाज के कमजोर वर्गों की पहचान करने में मदद करता है और एक इससे जनता के सामने एक स्पष्ट तस्वीर भी पेश होती है।
  • कुल मिलाकर गरीबी का आकलन गरीबी उन्मूलन का एक हिस्सा है।

| भारत में निर्धनता के कारण

गरीबी का दुष्चक्र – गरीबी के कारण बचत का स्तर पहले ही कम होता है या नहीं होता है, इसीलिए निवेश करने के लिए पैसे बहुत कम बचते हैं या नहीं बचते। इस तरह से व्यक्ति गरीबी के इस दुष्चक्र से निकल ही पाता है। क्योंकि गरीबी से निकलने के लिए अतिरिक्त पैसों की जरूरत पड़ती है।

अल्प प्राकृतिक संसाधन क्षमता – यदि किसी के पास आय कमाने वाली परिसंपत्तियों का योग (जिसमें भूमि, पूंजी तथा विभिन्न स्तरों का श्रम आता है) गरीबी रेखा से अधिक आय उपलब्ध नहीं करा सकता, तो वो हमेशा गरीब ही रहेगा।

सामाजिक सेवाओं तक पहुँच का अभाव – सामाजिक सेवाएँ जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा तक जन साधारण की पहुँच का अभाव तथा भौतिक और मानवीय परिसंपत्तियों के स्वामित्व में असमानता, गरीबी की समस्याओं को बढ़ा देते हैं। क्योंकि निर्धन व्यक्ति सूचना एवं ज्ञान का अभाव तथा सार्वजनिक कार्यालयों में भ्रष्टाचार के कारण इन सेवाओं का उचित लाभ बहुत कम प्राप्त कर पाता है।

संस्थागत साख तक पहुँच का अभाव – बैंक तथा अन्य वित्तीय संस्थाएं निर्धन लोगों को ऋण देने में पक्षपात करती है, क्योंकि उन्हे ऋण का भुगतान प्राप्त न होने का डर होता है। संस्थागत ऋण पहुँच के बाहर होने के कारण निर्धन लोगों को भू-स्वामी तथा अन्य अनियमित स्रोतों से बहुत ऊंची ब्याज की दर पर ऋण लेना पड़ता है, जिससे उनकी दशा और खराब हो जाती है।

कीमत वृद्धि या महंगाई – बढ़ती हुई कीमतों से मुद्रा की क्रय शक्ति कम हो जाती है और इस प्रकार मुद्रा आय का वास्तविक मूल्य घट जाता है। ऐसा इसीलिए क्योंकि जो समान वह पहले 10 रूपये में खरीदता था अब उसी के लिए उसे 12-13 रूपये देना पड़ता है। इससे निर्धन व्यक्तियों पर वित्तीय बोझ और बढ़ जाता है।

रोजगार का अभाव – निर्धनता की अधिक मात्रा का बेरोजगारी से सीधा संबंध है। क्योंकि अगर आय नहीं होगी पर जिंदा रहने के लिए खर्चा करना जरूरी होगा तो स्थिति और खराब होना तय है। बेरोजगारी के दुष्परिणाम सभी क्षेत्र को भोगना पड़ता है।

तीव्र जनसंख्या वृद्धि – जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि का अर्थ है – सकल घरेलू उत्पाद में धीमी वृद्धि और इसीलिए रहन-सहन के औसत स्तर में धीमा सुधार होता है। इसके अतिरिक्त जनसंख्या में बढ़ती हुई वृद्धि से उपभोग बढ़ता है तथा राष्ट्रीय बचत कम होती है, जिससे पूंजी निर्माण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि सीमित हो जाती है। जनसंख्या वृद्धि ने किस हद तक स्थिति खराब कर रखी है उसके लिए ‘जनसंख्या समस्या और समाधान’ लेख अवश्य पढ़ें।

कृषि उत्पादकता में कमी – खेतों के छोटे-छोटे और बिखरे हुए होने, पूंजी का अभाव, कृषि की परंपरागत विधियों का प्रयोग, अशिक्षा आदि के कारण, कृषि में उत्पादन का स्तर नीचा है। ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता का यह मुख्य कारण है क्योंकि ज़्यादातर लोग कृषि से ही जुड़े होते हैं।

शिक्षा की कमी – निर्धनता शिक्षा से भी घनिष्ठ रूप से संबंधित है और इन दोनों में चक्रीय संबंध है। आज के समय में कोई व्यक्ति कितना कमाएगा ये उसकी उसकी शिक्षा पर बहुत हद तक निर्भर करता है। किन्तु निर्धन लोगों के पास मानव पूंजी निवेश के लिए निधि नहीं होती और इस प्रकार इससे उनकी आय भी सीमित होती है।

सामाजिक प्रथाएँ – ग्रामीण लोग प्रायः अपनी कमाई का अधिक प्रतिशत सामाजिक प्रथाओं, जैसे- शादी, मृत्यु भोज आदि पर व्यय करते हैं और इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अधिक ऋण भी लेते हैं। परिणामस्वरूप वे ऋण तथा निर्धनता में रहते हैं।

औपनिवेशिक कारण – पहले तो मुगलों और अन्य विदेशी लुटेरों ने भारत को लूटा और जो बचा-खुचा कसर रह गया था, उसे अंग्रेजों ने पूरा कर दिया। अंग्रेजों ने तो भारत को संस्थागत तरीके से लूटा – किसान को कंगाल कर दिया, वस्त्र उद्योग को तबाह कर दिया, या यूं कहें कि उसने भारत में औद्योगीकरण होने ही नहीं दिया। इस तरह से जब भारत आजाद हो भी गया था तब भी यहाँ गरीबी, भुखमरी, कुपोषण अपने चरम पर था, जिससे कि आज भी पूरी तरह से उभरा नहीं जा सका है। जलवायुगत कारण

जलवायुगत कारण – सबसे अधिक गरीबी वाले जितने भी राज्य है (जैसे कि बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिसा, छतीसगढ़, झारखंड आदि) सभी आमतौर पर प्राकृतिक आपदाओं जैसे कि बाढ़, सूखा, भूकंप, चक्रवात आदि से जूझते रहते हैं, और ये भी गरीबी को बढ़ाने में अपना योगदान देता है।

| कुल मिलाकर अब तक हमने इस लेख में निम्नलिखित चीज़ें पढ़ी हैं;

  1. गरीबी क्या है?
  2. गरीबी के प्रकार
  3. गरीबी या निर्धनता रेखा क्या है?
  4. निर्धनता रेखा का इतिहास
  5. निर्धनता आंकड़े (Poverty Statistics in India)
  6. गरीबी का आकलन करना क्यों जरूरी है?
  7. भारत में निर्धनता के कारण

इसके अगले पार्ट में हम गरीबी उन्मूलन के सरकारी प्रयास, गरीबी उन्मूलन के समक्ष चुनौतियाँ, गरीबी दूर करने की नीति आयोग की रणनीति आदि को समझेंगे, तो बेहतर समझ के लिए इसके अगले पार्ट को अवश्य पढ़ें; लिंक नीचे दिया हुआ है-