इस लेख में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों (Discretionary Powers of President & Governor) पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे;

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Discretionary Powers of President & Governor in Hindi
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राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ: भूमिका

संविधान के हिसाब से देखें तो अनुच्छेद 52 से लेकर अनुच्छेद 237 तक केंद्र की कार्यपालिका, राज्य की कार्यपालिका, सुप्रीम कोर्ट और अन्य कोर्ट तथा संसद और राज्य विधानमंडल की चर्चा की गयी है।

अनुच्छेद 52 से लेकर अनुच्छेद 151 तक केंद्र के कार्यपालिका और न्यायपालिका की चर्चा है। वहीं अनुच्छेद 152 से लेकर अनुच्छेद 237 तक राज्य के कार्यपालिका और न्यायपालिका की चर्चा है।

◾अनुच्छेद 52 से लेकर अनुच्छेद 78 तक केंद्र की कार्यपालिका की चर्चा है और अनुच्छेद 152 से लेकर अनुच्छेद 167 तक राज्य की कार्यपालिका की चर्चा है।

◾केंद्र में जिस तरह से राष्ट्रपति होता है कमोबेश इसी तरह से राज्य में राज्यपाल होता है। दोनों ही अपने क्षेत्र में संवैधानिक या औपचारिक कार्यपालिका है।

◾राष्ट्रपति को बहुत सारी शक्तियाँ प्राप्त है लेकिन अनुच्छेद 74 के तहत राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद का गठन किया गया है जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री करता है।

◾इसी तरह से अपने क्षेत्र के हिसाब से राज्यपाल को भी बहुत सारी शक्तियाँ प्राप्त है लेकिन अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद का गठन किया गया है जिसकी अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं।

कुल मिलाकर कहने का अर्थ है कि भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यपाल में विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियाँ निहित हैं। लेकिन मंत्रिपरिषद (CoM) द्वारा दी गई सलाह राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के लिए बाध्यकारी है।

दूसरे शब्दों में इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि चूंकि भारत संसदीय व्यवस्था के तहत चलता है इसीलिए अधिकांश शक्तियां मंत्रिपरिषद (CoM) के पास होती है पर निर्णय भारत के राष्ट्रपति या राज्यपाल के नाम पर लिए जाते हैं।

इसीलिए संविधान में हमें अलग से ऐसा कोई अनुच्छेद या भाग नहीं दिखता है जो कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधीन शक्तियों के बारे में हो।

◾कहने का अर्थ है कि भारतीय संविधान में भारतीय राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है। लेकिन जिन मामलों में राष्ट्रपति या राज्यपाल मंत्रिपरिषद (CoM) की सलाह पर काम नहीं करते हैं, उन्हें हम राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of President and Governor) कहते हैं।

इस लेख को दो भागों में बांटकर समझेंगे; पहले हम राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of President) को समझेंगे एवं इसके बाद राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of Governor) के बारे में समझेंगे;

Explanation of Discretionary Powers of Indian President

अनुच्छेद 74 के तहत मंत्रिपरिषद (CoM) द्वारा दी गई सलाह भारतीय राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होती है क्योंकि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 74 कहता है कि राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए प्रधान मंत्री के साथ एक मंत्रिपरिषद होगी, जो अपने कार्यों के प्रयोग में, ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगी।

हालांकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद को इस तरह की सलाह पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकता हैं लेकिन अगर मंत्रिपरिषद द्वारा बिना किसी संशोधन के भी उस निर्णय को लौटा दिया जाता है तब राष्ट्रपति को इस तरह के पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह के अनुसार कार्य करना पड़ेगा।

◾ लेकिन बहुत से ऐसे निर्णय हैं जो कि राष्ट्रपति अपने मन से लेता है और उस निर्णय में मंत्रिपरिषद (CoM) की कोई भूमिका नहीं होती है।

दूसरे शब्दों में कहें तो बहुत सारी ऐसी स्थितियाँ बनती है जब राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य नहीं होता है और इस तरह से राष्ट्रपति का विवेक संवैधानिक रूप से मान्य होता है।

राष्ट्रपति की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of President) निम्नानुसार हैं:

# कुछ प्रकार के वीटो के मामले में:

हमने वीटो वाले लेख में समझा था कि राष्ट्रपति आमतौर पर दो प्रकार के वीटो का प्रयोग करता है – निलंबनकारी वीटो (Suspensive Veto) और पॉकेट वीटो (Pocket veto)।

जब कोई विधेयक राष्ट्रपति की सहमति के लिए प्रस्तुत होता है तो उसके पास तीन विकल्प होते हैं।

1. वह विधेयक पर अपनी स्वीकृति दे सकता है;
2. विधेयक पर अपनी स्वीकृति को सुरक्षित रख सकता है; अथवा
3. वह विधेयक (यदि विधेयक धन विधेयक नहीं है तो) को संसद के पुनर्विचार हेतु लौटा सकता है।

◾जब विधायिका द्वारा पारित विधेयक को राष्ट्रपति पुनः संसद को पुनर्विचार के लिए लौटा देता है, तो हम इसे निलंबनकारी वीटो (Suspensive Veto) कहते हैं।

यह राष्ट्रपति के पास विवेकाधीन शक्ति होती है। राष्ट्रपति चाहे तो अपने मन से इस शक्ति का उपयोग कर सकता है। हालांकि याद रखिए कि यदि संसद इस विधेयक को पुनः बिना किसी संशोधन के अथवा संशोधन करके, राष्ट्रपति के सामने प्रस्तुत करे तो राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

◾ जब राष्ट्रपति विधेयक पर न तो कोई सहमति देता है, न अस्वीकृत करता है, और न ही लौटाता है परंतु एक अनिश्चित काल के लिए विधेयक को लंबित कर देता है, तो राष्ट्रपति की विधेयक पर किसी भी प्रकार का निर्णय न देने की (सकारात्मक अथवा नकारात्मक) शक्ति, पॉकेट वीटो के नाम से जानी जाती है।

राष्ट्रपति इस वीटो शक्ति का प्रयोग इस आधार पर करता है कि संविधान में उसके समक्ष आए किसी विधेयक पर निर्णय देने के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है।

यानी कि संविधान में कोई विशेष अवधि नहीं लिखी गई है कि इतने दिनों में राष्ट्रपति को स्वीकृति देनी ही पड़ेगी इसीलिए राष्ट्रपति इसका इस्तेमाल वीटो के रूप में करता है। यह भारतीय संविधान में उल्लिखित प्रावधान नहीं है, लेकिन यह एक संभावित स्थिति है जब भारत के राष्ट्रपति अपनी विवेकाधीन शक्ति का उपयोग कर सकते हैं।

उदाहरण: सन 1986 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा ‘भारतीय डाक संशोधन अधिनियम’ के संदर्भ में इस वीटो का प्रयोग किया गया था।

विस्तार से समझें: राष्ट्रपति की वीटो पावर

# राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री से जानकारी मांगना:

अनुच्छेद 78 के तहत राष्ट्रपति को संघ के मामलों के प्रशासन के संबंध में प्रधान मंत्री से जानकारी मांगने का अधिकार प्राप्त है।

अनुच्छेद 78ख के तहत राष्ट्रपति जब भी संघ के प्रशासन संबंधी एवं विधान से संबन्धित कोई प्रस्थापनाएं (proposals) मांगे तो प्रधान मंत्री का कर्तव्य है कि वह इसे राष्ट्रपति के समक्ष उपलब्ध कराएं।

अनुच्छेद 78ग के तहत अगर किसी मंत्री ने कोई निर्णय लिया है लेकिन उस निर्णय के बारे में मंत्रिपरिषद को नहीं बताया है तो ऐसी स्थिति में अगर राष्ट्रपति की यह इच्छा है कि उसे मंत्रिपरिषद के समक्ष प्रस्तुत करवाया जाना चाहिए तो प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य बनता है कि उस निर्णय के बारे में मंत्रिपरिषद को बताएं।

# संसद का सत्र आहूत करना एवं लोकसभा भंग करना:

अनुच्छेद 85 के तहत, राष्ट्रपति संसद के प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर मिलने के लिए बुला सकता है, जैसा वह उचित समझे। .

अनुच्छेद 85 के ही दूसरे खंड के तहत यह व्यवस्था है कि राष्ट्रपति लोकसभा का विघटन कर सकेगा। दरअसल होता ये है कि जब मंत्रिपरिषद, लोकसभा में बहुमत खो देता है तो यह राष्ट्रपति को तय करना होता है कि उन्हें लोकसभा को भंग करना चाहिए या नहीं।

यहाँ यह याद रखें: राष्ट्रपति केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही लोकसभा को भंग कर सकते हैं लेकिन सलाह तभी बाध्यकारी होती है जब सरकार बहुमत वाली सरकार हो। लेकिन जैसे ही सरकार अल्पमत में आती है राष्ट्रपति को अपने विवेक का इस्तेमाल करने का मौका मिल जाता है।

यह राष्ट्रपति को तय करना होता है कि क्या उन्हें मंत्रिपरिषद को भंग करना चाहिए या नहीं।

# बहुमत नहीं होने का मामला:

जब किसी राजनीतिक दल या पार्टियों के गठबंधन को लोकसभा में बहुमत नहीं मिलता है, तो राष्ट्रपति के पास उस पार्टी या पार्टियों के गठबंधन के नेता को आमंत्रित करने का विवेक होता है।

जो उनकी राय में एक स्थिर सरकार बनाने में सक्षम होता है, वे उन्ही पार्टी या पार्टियों के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है।

# कार्यवाहक सरकार का मामला:

अगर एक कार्यवाहक सरकार बनती है तब राष्ट्रपति को दिन-प्रतिदिन के फैसले लेने का विवेकाधिकार मिल जाता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में कार्यवाहक सरकार को लोकसभा का विश्वास प्राप्त नहीं होता है और इसलिए उससे प्रमुख निर्णय लेने की उम्मीद नहीं की जाती है, बल्कि केवल दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक निर्णय लिए जाते हैं।

Explanation of Discretionary Powers of Governors

राज्य के राज्यपाल को अपने विवेक से कार्य करने के लिए कई शक्ति प्रदान की गई है, ऐसी कई स्थितियाँ आती हैं जहां राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करने को बाध्य नहीं होता है और राज्यपाल का विवेक संवैधानिक रूप से मान्य होता है।

राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल को भी कई मामलों में विवेकाधिकार इस्तेमाल करने का मौका मिलता है। निम्नलिखित मामलों में राज्यों के राज्यपाल अपने संवैधानिक विवेक से कार्य कर सकते हैं:

◾जब उन्हें भारत के राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना होता है, तो राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना स्वयं निर्णय ले सकते हैं

◾जब उसे राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी हो तो वह अपने विवेक से कार्य कर सकता है

◾जब उसे केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक के रूप में अतिरिक्त प्रभार दिया जाता है तो वह अपने विवेक से कार्रवाई कर सकता है

◾जब उसे असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम सरकार द्वारा एक स्वायत्त आदिवासी जिला परिषद को खनिज अन्वेषण के लिए लाइसेंस से अर्जित रॉयल्टी के रूप में देय राशि का निर्धारण करना होता है तब वे स्वयं निर्णय ले सकते हैं।

◾जब उन्हे मुख्यमंत्री से प्रशासनिक और विधायी मामलों के संबंध में जानकारी लेना हो तब अनुच्छेद 167 के तहत अपने विवेक का इस्तेमाल वैसे ही कर सकता है जैसे कि अनुच्छेद 78 के तहत राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से जानकारी मांगने के लिए करता है।

◾जब चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राज्यपाल को मुख्यमंत्री नियुक्त करना हो तो वहाँ पर राज्यपाल अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है।

◾जब मंत्रिपरिषद राज्य विधान सभा में विश्वास साबित करने में असमर्थ हो तब राज्यपाल मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर सकता है भंग कर सकता है

उम्मीद है आपको राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers of President and Governor) समझ में आई होंगी। संबंधित अन्य लेखों को अवश्य पढ़ें और इस लेख को शेयर जरूर करें;


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