भारतीय संसद (Indian Parliament) हमारी समृद्ध लोकतांत्रिक परंपरा का एक जीता-जागता नमूना है, इस संस्था ने लगातार हमारे देश को बेहतर बनाने की दिशा में काम किया है।
इस लेख में हम भारतीय संसद (Indian Parliament) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे; तो बेहतर समझ के लिए लेख को अंत तक जरूर पढ़ें साथ ही संबंधित अन्य लेखों को भी पढ़ें।
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भारतीय संसद (Indian Parliament) का इतिहास
औपचारिक रूप से 26 जनवरी 1950 को भारत एक संसदीय लोकतंत्र बना। हालांकि लोकतंत्र एवं संसद जैसी संस्थाएँ भारत के लिए नया नहीं है बल्कि इसके स्पष्ट साक्ष्य वैदिक तो काल से ही दिखने शुरू हो जाते हैं।
वैदिक काल में सभा और समिति नामक दो संस्थाएं हुआ करती थी। जहां समिति एक आम सभा हुआ करती थी और सभा एक छोटा निकाय था जिसमें कुछ चयनित वरिष्ठ शामिल होते थे। (आज के राज्यसभा की तरह)।
इन निकायों की खास बात ये थी कि इसमें आज की तरह विभिन्न जरूरी विषयों पर चर्चाएं हुआ करती थी और फैसले आमतौर पर बहुमत से लिए जाते थे। और इन फैसलों की की उपेक्षा कर पाना संभव नहीं होता था।
इससे पता चलता है कि बेहतर निर्णय एवं शासन के लिए आज से तीन हज़ार साल पहले के लोग भी संसद जैसी संस्थाओं की अहमियत को समझता था।
जबकि उस समय की राजनैतिक व्यवस्था आमतौर पर राजतंत्रीय अवधारणा पर आधारित था। हालांकि बड़े-बड़े साम्राज्यों के स्थापित होने के बाद सभा और समिति जैसी संस्थाएं धीरे-धीरे लुप्त होती चली गई पर ये ग्राम संघ, ग्राम सभाएं या पंचायत के रूप में ग्रामीण भारत में हमेशा विद्यमान रही; चाहे वो इस्लामी शासन के अंतर्गत हो या फिर ब्रिटिश शासन के अंतर्गत।
आधुनिक भारतीय संसदीय व्यवस्था का उद्भव
ब्रिटिश शासन काल के दौरान से आधुनिक भारतीय संसदीय व्यवस्था का उद्भव देखा जा सकता है। हालांकि ये बहुत ही धीरे-धीरे लगभग 100 सालों के दौरान विकसित हुआ। जिसे की नीचे देखा जा सकता है।
चार्टर अधिनियम 1833 – इसी अधिनियम के माध्यम से बंगाल के गवर्नर जनरल के स्थान पर भारत का गवर्नर जनरल की व्यवस्था शुरू की गई थी। इसके तहत भारत के गवर्नर जनरल के लिए एक काउंसिल बनाया गया जिसे इंडियन काउंसिल कहा गया।
इसी इंडियन काउंसिल के कारण भारत में केंद्रीय विधानमंडल की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। इस काउंसिल में तीन सदस्य थे और ये विधि निर्माण के लिए अलग बैठक करते थे और प्रशासनिक कार्यों के लिए अलग बैठक। चौथे सदस्य के रूप में लॉर्ड मैकाले को शामिल किया गया था जो कि विधि विशेषज्ञ थे।
हालांकि ये आज की तरह नहीं था लेकिन फिर भी केन्द्रीय विधानमंडल की शुरुआत हो चुकी थी ऐसा तो कहा ही जा सकता था।
चार्टर अधिनियम 1853 – इस अधिनियम के तहत पहले बनाए गए काउंसिल में 6 और सदस्य जोड़ दिया गया और उसे विधान पार्षद नाम दिया गया।
इसे एक छोटी संसद की तरह काम करने के लिए बनाया गया था। इस तरह से अब केन्द्रीय काउंसिल के प्रशासनिक और विधायी कार्यों को पूरी तरह से अलग कर दिया गया।
इस तरह से इस काउंसिल में गवर्नर जनरल को छोड़कर 10 सदस्य हो गया। बाद में इसमें कमांडर इन चीफ़ को भी शामिल कर लिया गया। इस नए काउंसिल के द्वारा उसी तरह काम करने की कोशिश की गई जैसे कि ब्रिटिश संसद में होता है।
इंडियन काउंसिल अधिनियम 1861 – ये अधिनियम इस मायने में खास है कि इसके तहत कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल किए जाने की शुरुआत हुई।
नोट – भारत शासन अधिनियम 1858 के द्वारा गवर्नर जनरल पद को खत्म करके वायसराय पद की शुरुआत की गई। यानी कि अब गवर्नर जनरल वायसराय कहलाने लगा।
दरअसल इस इस अधिनियम के तहत वायसराय को अपने काउंसिल में कम से कम 6 और ज्यादा से ज्यादा 12 सदस्य शामिल करने की छूट दी गई थी। इसी के तहत उस समय के वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों – बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को काउंसिल में शामिल किया।
इस अधिनियम के तहत एक और खास बात ये हुआ कि तीन प्रांतीय विधान परिषदों का गठन किया गया। बंगाल में 1862 में, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में 1866 में और पंजाब में 1897 में।
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि आज के राज्य विधानमंडल की नींव यहाँ पड़ चुकी थी। दूसरी बात कि इस काल खंड में (1885 में) काँग्रेस का भी गठन हुआ जिसका शुरुआती उदेश्य यही था कि प्रांतीय परिषदों की संख्या बढ़ें और उसमें भारतीय सदस्यों की संख्या बढ़ें। और वे अपने मकसद में कामयाब भी होते दिखे।
इंडियन काउंसिल अधिनियम 1892 – जैसा कि काँग्रेस चाहता था; ये अधिनियम भारतीय प्रतिनिधित्व को विधान परिषदों में बढ़ाने के लिए लाया गया था।
इसके तहत ये व्यवस्था थी कि वायसराय की काउंसिल में 16 सदस्य तक शामिल किया जा सकता था। इसी के तहत वायसराय की काउंसिल में (यानी कि भारतीय विधान परिषद में) 5 सदस्य शामिल किए गए। जिसमें से 4 को प्रांतीय विधानपरिषदों से चुनकर भेजा गया और 1 को कलकत्ता वाणिज्य मंडल द्वारा।
हालांकि इस सब के बावजूद भी बहुमत सरकारी सदस्यों का ही होता था। यानी कि गैर-सरकारी सदस्य मिल कर भी ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे। लेकिन फिर ये अधिनियम इस मायने में खास था कि सदस्यों को चुनने के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था को अपनाया गया और विधान परिषद के सदस्यों को प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया।
इंडियन काउंसिल अधिनियम 1909 – ये अधिनियम भी काँग्रेस द्वारा चलाये गए अभियानों का ही नतीजा है। इसके तहत विधान परिषद में सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। इसी तरह प्रांतीय विधान परिषद में भी सदस्यों की संख्या दोगुने से अधिक बढ़ा दिया गया।
हालांकि केन्द्रीय विधान परिषद में अब भी बहुमत सरकारी सदस्यों का ही था लेकिन प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्य भी बहुमत में आ सकते थे। साथ ही परिषद के सदस्यों के अधिकारों में भी वृद्धि की गई जैसे कि बजट पर मतदान करने का अधिकार, अनुपूरक प्रश्न पूछने का अधिकार आदि।
इस अधिनियम की सबसे खराब बात ये थी कि इसने चुनाव की व्यवस्था तो की लेकिन सांप्रदायिक आधार पर। यानी कि मुस्लिम प्रतिनिधि को मुसलमान ही चुन सकता है आदि।
भारत शासन अधिनियम 1919 – इस अधिनियम की सबसे बड़ी विशेषता ये थी इसके तहत केंद्र में द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया। एक था राज्य परिषद (जिसे कि आज हम राज्यसभा कहते हैं) और दूसरा था विधान सभा (जिसे आज हम लोकसभा कहते हैं)
राज्य परिषद में अधिकतम 60 सदस्य हो सकते थे जिसमें से सिर्फ 20 ही सरकारी सदस्य हो सकता था। विधान सभा में सदस्यों की संख्या 60 से बढ़ाकर अस्थायी रूप से 140 कर दी गई। जिसमें से 100 को चुनाव के माध्यम से चुना जाना था।
इस अधिनियम के तहत दो सूची बनाई गई और इस तरह से केंद्र और प्रांत के विधायी विषयों को पृथक कर दिया गया। (जैसा कि आज के व्यवस्था में होता है)
कुल मिलाकर इस अधिनियम से बहुत हद तक एक संसदीय व्यवस्था जैसी व्यवस्था आकार ले चुका था। क्योंकि अब केन्द्रीय बजट और प्रांतीय बजट भी अलग-अलग हो चुका था। सिविल सेवकों के लिए लोक सेवा आयोग का गठन किया गया आदि।
भारत शासन अधिनियम 1935 – इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में एक संघीय व्यवस्था कायम करना था। इसके लिए इस अधिनियम द्वारा 6 प्रान्तों में द्विसदनीय व्यवस्था शुरू की गई। मताधिकार को आबादी के 10 प्रतिशत लोगों तक बढ़ा दिया गया।
केंद्र में वायसराय को सहायता और सलाह के लिए मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गई। मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिए भारतीय रिजर्व बैंक कि स्थापना की गई। 1937 में एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई, आदि।
हालांकि इस अधिनियम के बहुत सारे प्रावधान कभी अस्तित्व में नहीं आ पाया। लेकिन इस अधिनियम के बहुत सारी अच्छी बातों को हमारे संविधान में शामिल किया गया है।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 – इस अधिनियम के तहत भारत में ब्रिटिश राज समाप्त हो गया और 15 अगस्त, 1947 से भारत एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बन गया। और 4 नवम्बर 1948 को संविधान का प्रारूप पेश करते हुए डॉ. बी आर अंबेडकर ने संसदीय शासन प्रणाली को अपनाने की बात कही।
26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ और इस तरह से भारत एक संसदीय व्यवस्था वाला देश बन गया। 1951-52 में इस आधार पर पहली बार चुनाव हुआ और आज तक भारत उसी व्यवस्था के तहत चल रहा है।
संसद क्या है?
संसद, केंद्र सरकार का विधायी अंग है जहां से पूरे देश का भाग्य लिखा और मिटाया जाता है। दूसरे शब्दों में, हमारी सामूहिक सोच और चिंतन का नाम संसद है।
भारतीय संविधान के अनुसार संसद तीन घटकों से मिल कर बना है – राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा। यानी कि इन तीनों घटकों को ही सम्मिलित रूप से संसद कहा जाता है।
हालांकि राष्ट्रपति संसद में नहीं बैठते हैं लेकिन फिर भी वे संसद का एक अभिन्न अंग है। ऐसा क्यों है? इसे आगे समझाया गया है।
संविधान के 5वें भाग के अंतर्गत अनुच्छेद 79 से अनुच्छेद 122 में संसद के गठन, संरचना, अवधि, अधिकारियों, प्रक्रिया, विशेषाधिकार व शक्ति आदि का वर्णन किया गया है। हम सभी को आगे समझने वाले हैं।
भारतीय संसद (Indian Parliament) की भूमिका
संसद उन लोगों के बैठने की जगह है जो जनता के किसी खास हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। संसद का मुख्य काम है कानून या विधि बनाना या फिर अप्रासंगिक एवं गैर-जरूरी क़ानूनों को खत्म करना या उसमें बदलाव करना; ताकि एक ऐसी व्यवस्था बनी रहे जो उस समय-काल के हिसाब से तर्कसंगत एवं न्यायसंगत हो।
संसद का गठन (constitution of indian parliament)
अनुच्छेद 79 के अनुसार, भारतीय संसद, देश का सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है जो अपने तीन घटकों के द्वारा संचालित (या गठित) होता है- राष्ट्रपति (President) और दो सदन—राज्यसभा (Rajya Sabha) एवं लोकसभा (Lok Sabha)।
राष्ट्रपति (President) – राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रमुख है और अपने कार्यों का संचालन राष्ट्रपति भवन से करता है। ये संसद का एक अभिन्न अंग है और इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि संसद द्वारा पारित कोई भी विधेयक तब तक अधिनियम नहीं बनता है जब तक राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति न दे दें।
दूसरी बात ये कि कार्यपालिका जो कि संसद के ही बहुमत प्राप्त दल के कुछ सदस्य होते हैं; अपना सारा काम राष्ट्रपति के नाम पर ही करते हैं। [ज्यादा जानकारी के लिए – राष्ट्रपति↗️ पढ़ें]
लोकसभा (Lok Sabha) – संसद के निचले सदन को लोकसभा कहा जाता है। इसकी चर्चा अनुच्छेद 81 में की गई है। इसके सदस्यों को जनता प्रत्यक्ष रूप से चुन कर भेजती है। फिलहाल लोकसभा में 543 सीटें हैं। लोकसभा इस मायने में खास है कि सरकार यही बनाती है। [ज्यादा जानकारी के लिए – लोकसभा↗️ पढ़ें]
राज्यसभा (Rajya Sabha) – संसद के ऊपरी सदन को राज्यसभा कहा जाता है। इसकी चर्चा अनुच्छेद 80 में की गई है। इसे बुद्धिजीवियों का सभा भी कहा जाता है क्योंकि आमतौर पर यहाँ ऐसे ही लोगों को भेजने की परंपरा है। इसका चुनाव जनता सीधे नहीं करती है और ये निरंतर चलते रहने वाली सदन है। फिलहाल अभी इसमें 245 सीटें है। [ज्यादा जानकारी के लिए राज्यसभा↗️ पढ़ें]
संसद की सदस्यता (Membership of Indian Parliament)
अर्हताएं (Qualifications) – संविधान के अनुच्छेद 84 के तहत भारतीय संसद में चुने जाने के लिए निम्नलिखित अर्हताएं निर्धारित है-
1. उसे भारत का नागरिक होना चाहिए
2. उसे इस उद्देश्य के लिए चुनाव आयोग द्वारा अधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी होगी।
अपने शपथ में वह सौगंध लेता है कि वह भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखेगा एवं वह भारत की संप्रभुता एवं अखंडता को अक्षुण्ण रखेगा।
3. उसे राज्यसभा में स्थान पाने के लिए कम से 30 वर्ष की आयु और लोकसभा में स्थान पाने के लिए कम से कम 25 वर्ष की आयु का होना चाहिए
4. इसके अलावा भी उसके पास अन्य अर्हताएँ होनी चाहिए जो संसद द्वारा मांगी गई हो।
संसद से निष्कासन
निरर्हताएं (Disqualification) – अनुच्छेद 102 के अनुसार कोई व्यक्ति भारतीय संसद सदस्य नहीं बन सकता यदि,
1. वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर हो
2. यदि वह विकृत चित है और न्यायालय ने ऐसी घोषणा की है
3. यदि वह घोषित दिवालिया है
4. यदि वह भारत का नागरिक नहीं है
5. यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा निरर्हित (Disqualified) कर दिया जाता है। जैसे कि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, दल बदल अधिनियम आदि।
⚫ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत निम्नलिखित प्रावधानों को भी निरर्हता माना जाता है। जैसे कि –
1. वह चुनावी अपराध या चुनाव में भ्रष्ट आचरण के तहत दोषी करार दिया गया हो
2. उसे किसी अपराध में दो वर्ष या उससे अधिक की सजा हुई हो
3. वह निर्धारित समय के अंदर चुनावी खर्च का ब्योरा देने में असफल रहा हो
4. उसे सरकारी ठेका काम या सेवाओं में दिलचस्पी हो
5. वह निगम में लाभ के पद पर हो, जिसमें सरकार का 25 प्रतिशत हिस्सेदारी हो
6. उसे भ्रष्टाचार या निष्ठाहीन होने के कारण सरकारी सेवाओं से बर्खास्त किया गया हो
7. उसे विभिन्न समूहों में शत्रुता बढ़ाने या रिश्वतखोरी के लिए दंडित किया गया हो
8. उसे छुआछूत, दहेज जैसे सामाजिक अपराधों के प्रसार में संलिप्त पाया गया हो।
किसी सदस्य में उपरोक्त निरर्हताओं संबंधी प्रश्न पर राष्ट्रपति का फैसला अंतिम होता है, हालांकि ये फैसला वो निर्वाचन आयोग से राय लेकर करता है।
दल-बदल के आधार पर निरर्हता – संविधान के अनुसार किसी व्यक्ति को संसद की सदस्यता से निरर्ह ठहराया जा सकता है, अगर वो 10वीं अनुसूची के उपबंधों के अनुसार, दल-बदल का दोषी पाया गया हो। जैसे की –
1. अगर वह स्वेच्छा से उस राजनीतिक दल का त्याग करता है, जिस दल के टिकट पर वह चुनाव जीत के आया है,
2. अगर वह अपने पार्टी द्वारा दिये गए निर्देशों के विरुद्ध सदन में मतदान करता है,
3. अगर निर्दलीय चुना गया सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है
4. अगर कोई नामित सदस्य (Nominated member) छह महीने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
दल-बदल से संबन्धित जितने भी मामले होते हैं राज्यसभा में उसे सभापति द्वारा और लोकसभा में उसे अध्यक्ष द्वारा निपटारा किया जाता है। लेकिन याद रखिए कि उच्चतम न्यायालय अध्यक्ष और सभापति द्वारा लिए गए इस निर्णय की न्यायिक समीक्षा कर सकता है।
भारतीय संसद में स्थान का रिक्त कब होता है?
अनुच्छेद 101 के अनुसार, निम्नलिखित स्थितियों में भारतीय संसद सदस्य को अपना स्थान रिक्त करना पड़ता है :-
दोहरी सदस्यता – कोई भी व्यक्ति एक समय में संसद के दोनों सदनों का सदस्य नहीं हो सकता। इससे संबंधित प्रावधान, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में वर्णित है। जैसे कि
(1) यदि कोई व्यक्ति संसद के दोनों सदनों में चुन लिया जाता है तो उसे 10 दिनों के भीतर यह बताना होगा कि उस किस सदन में रहना है। सूचना न देने पर, राज्यसभा में उसकी सीट खाली हो जाएगी।
(2) अगर किसी सदन के सदस्य को दूसरे सदन का सदस्य भी चुन लिया जाता है तो पहले वाले सदन में उसका पद रिक्त हो जाता है।
(3) अगर कोई व्यक्ति एक ही सदन में दो सीटों पर चुना जाता है, तो उसे स्वेच्छा से किसी एक सीट को खाली करना पड़ेगा अन्यथा, दोनों सीटें रिक्त हो जाती है। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि कई बार कोई प्रत्याशी दो जगह से चुनाव लड़ लेता है।
(4) कोई व्यक्ति एक ही समय में संसद का भी और राज्य विधानमंडल का भी सदस्य नहीं हो सकता है।
अगर कोई व्यक्ति दोनों जगह निर्वाचित हो जाता है तो उसे 14 दिनों के अंदर राज्य के विधानमंडल की सीट को खाली करना होता है अगर नहीं करता है तो संसद में उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती है।
पदत्याग (resignation) :- कोई सदस्य चाहे तो राज्यसभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष को संबोधित त्यागपत्र द्वारा अपना पद त्याग सकता है। सभापति या अध्यक्ष त्यागपत्र को स्वीकार नहीं भी कर सकता है और नहीं भी।
अगर त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया जाता है तब तो उसका स्थान रिक्त हो जाता है और अगर नहीं किया जाता है तो उसका स्थान रिक्त नहीं होता है।
अनुपस्थिति (Absence) :- यदि कोई सदस्य सदन की अनुमति के बिना 60 दिन की अवधि से अधिक समय के लिए सदन की सभी बैठकों में अनुपस्थित रहता है तो सदन उसका पद रिक्त घोषित कर सकता है।
(यहाँ पर एक बात याद रखिए कि इन 60 दिनों की अवधि की गणना में, सदन के स्थगन या सत्रावसान की लगातार चार दिनों से अधिक अवधि, को शामिल नहीं किया जाता है।)
इसके अलावा भी कई अन्य तरीकों से किसी सदस्य का स्थान रिक्त हो सकता है जैसे कि –
यदि न्यायालय उस चुनाव को अमान्य करार देता है जिस चुनाव से वह जीत के आया है,
यदि उसे सदन द्वारा निष्कासित कर दिया जाता है ,
यदि वह राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति चुन लिया जाता है या फिर यदि उसे किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाता है।
इस तरह के मुद्दों का निपटारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 द्वारा किया जाता है।
भारतीय संसद से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान
शपथ (Oath)
अनुच्छेद 99 के अनुसार, संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक सदस्य को अपना स्थान ग्रहण करने से पूर्व राष्ट्रपति या उसके द्वारा इस कार्य के लिए नियुक्त व्यक्ति के समक्ष शपथ लेता है और उस पर हस्ताक्षर करता है।
शपथ में संसद सदस्य प्रतिज्ञा करता है कि मैं :- 1. भारत के संविधान में सच्ची श्रद्धा व निष्ठा रखूँगा 2. भारत की प्रभुता व अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा 3. कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूंगा
अनुच्छेद 104 के अनुसार, जब तक सदस्य शपथ नहीं ले लेता, तब तक वह सदन की किसी बैठक में हिस्सा नहीं ले सकता है और न ही मत दे सकता है। उसे संसद के विशेषाधिकार और उन्मुक्तियों का लाभ भी नहीं मिलता है और बिना शपथ लिए बैठने के लिए जुर्माना भी भरना पड़ता है।
⚫ इसके अलावे भी किसी सदस्य को जुर्माना भरना पड़ सकता है यदि वह जानता है कि वह सदस्यता के लिए अर्हता नहीं रखता, या फिर जब उसे मालूम हो कि किसी संसदीय विधि के तहत उसे संसद में बैठने या मत देने का अधिकार नहीं है।
शपथ में क्या कहा जाएगा; ये तीसरी अनुसूची में लिखित है, चाहे तो आप यहाँ क्लिक↗️ करके उसे पढ़ सकते हैं।
संसद के पीठासीन अधिकारी
संसद के दोनों सदनों के अपने पीठासीन अधिकारी होते हैं। लोकसभा के लिए अध्यक्ष व उपाध्यक्ष और राज्यसभा के लिए सभापति व उपसभापति होते हैं।
इनका मुख्य काम सदन को सुचारु रूप से चलाना होता है। लोकसभा अध्यक्ष (Lok Sabha Speaker)↗️ और राज्यसभा सभापति (Chairman of Rajya Sabha)↗️ ये कैसे करते हैं? इस पर अलग से लेख उपलब्ध है, उसे जरूर पढ़ें।
संसद में भाषा
अनुच्छेद 120 में इसका जिक्र किया गया है। संविधान लागू होने से पहले भाषा पर संविधान सभा के सदस्यों में काफी मतभेद था कुछ सदस्य हिन्दी के पक्ष में थे तो कुछ अंग्रेजी के पक्ष में।
इसी मतभेद के कारण जब संविधान लागू हुआ तब किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया बल्कि हिन्दी और अंग्रेजी दोनों को सदन की कार्यवाही की भाषा घोषित की गई।
ये व्यवस्था की गई थी कि 15 वर्ष तक अंग्रेजी चलने देते हैं इसके बाद वो खुद ही खत्म हो जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं 1963 में राजभाषा अधिनियम बना जिसमें हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी की निरंतरता की भी अनुमति दी गयी।
हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि सदन में इन दोनों भाषाओं को छोड़कर कोई और भाषा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, अगर पीठासीन अधिकारी चाहे तो सदस्य को अपनी मातृभाषा में भी बोलने का अधिकार दे सकता है क्योंकि दोनों ही सदनों में अनुवाद की व्यवस्था होती है।
संसद में नेता (Leaders in Indian Parliament)
लोकसभा के नियमों के अनुसार प्रधानमंत्री या प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त कोई मंत्री सदन का नेता होता है लेकिन उसे लोकसभा का सदस्य होना जरूरी होता है।
राज्यसभा में भी एक सदन का नेता होता है। जिसे प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त किया जाता है लेकिन उसे राज्यसभा का सदस्य होना जरूरी होता है।
विपक्ष का नेता
संसद के दोनों सदनों में एक-एक विपक्ष का नेता होता है। विपक्ष का नेता बनने के लिए जरूरी होता है कि कम से कम कुल सदस्यों का दसवें भाग जितना सदस्य उसके पास हो।
यानी कि लोकसभा की बात करें तो जिस पार्टी के पास कम से कम 55 सीटें होंगी वही पार्टी अपना एक नेता चुनेगा जिसे विपक्ष का नेता कहा जाएगा।
विपक्ष का मुख्य कार्य सरकार के कार्यों की उचित आलोचना एवं वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था करना होता है इसीलिए लोकसभा एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता को 1977 में महता मिली। उसे वेतन, भत्ते तथा सुविधाएं कैबिनेट मंत्री की तरह मिलती हैं।
⚫ यहाँ पर एक बात याद रखिए कि सदन का नेता और विपक्ष का नेता जैसा कोई प्रावधान संविधान में उल्लिखित नहीं है ये एक तरह से परंपरा पर आधारित है।
व्हिप या सचेतक
व्हिप का भी उल्लेख न तो भारत के संविधान में है और न ही सदन के नियमों में। ये भी संसदीय सरकार की परंपरों पर आधारित है।
प्रत्येक राजनीतिक दल का, चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में, संसद में अपना व्हिप होता है। इसका सीधा सा मतलब होता है कि जब भी कोई पार्टी अपने सदस्यों से अपने पार्टी के अनुरूप व्यवहार कराना चाहती है तो व्हिप जारी किया जाता है।
जैसे कि अगर पार्टी चाहती है कि उसके सारे सदस्य सदन में उपस्थित रहे तो वे व्हिप जारी कर सकता है।
यदि कोई पार्टी चाहती है कि उसके सारे सदस्य किसी विधेयक पर पक्ष या विपक्ष में वोट दे तो वे व्हिप जारी कर सकता है। व्हिप जारी करने के बाद उस पार्टी के सदस्यों को वहीं करना पड़ता है जो उसे कहा जाये। अगर कोई सदस्य ऐसा नहीं करती है तो उस पर अनुशासनात्मक कारवाई की जा सकती है।
मंत्रियों एवं महान्यायवादियों के अधिकार
अनुच्छेद 88 के तहत, सदन का सदस्य होने के अतिरिक्त प्रत्येक मंत्री एवं भारत के महान्यावादी को इस बात का अधिकार होता है कि वह सदन में अपने विचार व्यक्त कर सकता है, सदन की कार्यवाही में भाग ले सकता है, दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में भाग ले सकता है, लेकिन मतदान के अधिकार बिना।
एक मंत्री जो लोकसभा का सदस्य है राज्यसभा की कार्यवाही में भाग ले सकता है उसी तरह एक मंत्री , जो राज्यसभा का सदस्य है, लोकसभा की कार्यवाही में भाग ले सकता है।
यहाँ तक कि एक मंत्री जो किसी भी सदन का सदस्य नहीं है वो भी दोनों सदनों की कार्यवाही में भाग ले सकता है लेकिन सिर्फ 6 महीने तक।
लेख बड़ा हो जाने के कारण संसद के सभी पहलुओं को इस लेख में शामिल नहीं किया जा सका है बल्कि उसपर अलग से लेख उपलब्ध करवाया गया है। नीचे दिये गए लिंक की मदद से अन्य लेखों को पढ़ सकते हैं।