इस लेख में हम इंडो-ईरानी भाषाएँ [Indo-Iranian languages] पर सरल एवं सहज़ चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

भारोपीय भाषा परिवार (Indo-European language family) यूरोप एवं एशिया के ज़्यादातर भाषाओं का प्रतिनिधित्व करता है। इसी भारोपीय भाषा परिवार का एक उपवर्ग है इंडो-ईरानी भाषाएँ [Indo-Iranian languages], ऐसे में इन भाषाओं के बारे में जानना बहुत ही रोचक हो जाता है।

बेहतर समझ के लिए इस लेख को अंत तक पढ़ें और इसके पिछले वाले लेख को अवश्य पढ़ें ताकि आप समझ सकें कि भाषाओं के वर्गीकरण का आधार क्या है?

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इंडो-ईरानी भाषाएं
इंडो-ईरानी भाषाएँ
इंडो-ईरानी भाषाएं [image source freepik]

| भारोपीय भाषा परिवार की पृष्ठभूमि

भाषा को मुख्य रूप से दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है – आकृतिमूलक वर्गीकरण (morphological या syntactical classification) और पारिवारिक वर्गीकरण (genealogical classification)।

पारिवारिक वर्गीकरण के तहत विद्वानों ने सम्पूर्ण भाषा को भौगोलिक आधार पर पहले चार खंड में विभाजित किया है, जो कि कुछ इस तरह है; (1) अमेरिकी खंड (2) अफ्रीका खंड (3) यूरेशिया खंड (4) प्रशांत महासागर खंड

इसी में से यूरेशिया खंड के तहत 10 भाषा परिवारों को रखा गया है, उसी में से एक है भारोपीय भाषा परिवार (Indo-European Language Family)। इस पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। इसी भाषा परिवार का एक उपवर्ग है, इंडो-ईरानी भाषाएँ [Indo-Iranian languages] और इस लेख में हम इसी पर चर्चा करने वाले हैं।

Read – भारोपीय भाषा परिवार (Indo-European Language Family)

| इंडो-ईरानी भाषाएँ [Indo-Iranian languages]

शतम वर्ग की एक महत्वपूर्ण शाखा भारत-ईरानी भाषाओं का है। इसके बोलने वाले की संख्या विश्व की आबादी का लगभग 20 प्रतिशत है। ईरान की फारसी, अफ़ग़ानिस्तान की पश्तो, पाकिस्तान की भाषाएँ, उत्तर भारत की आर्य भाषाएँ, नेपाल की नेपाली, बांग्लादेश की बांग्ला और श्रीलंका की सिंहली भाषा इसी शाखा में आती है।

भारोपीय परिवार की यह महत्वपूर्ण और अत्यंत प्राचीन शाखा है। ऋग्वेद के समान पुराना और समृद्ध साहित्य इस परिवार की किसी अन्य भाषा में नहीं मिलता है। इसकी कुछ ऋचाएँ ढाई हज़ार वर्ष ई.पू. की लिखी मानी जाती है। पारसियों का धर्म ग्रंथ जेंद अवेस्ता भी लगभग 7वीं सदी ई. पू. का है। इस शाखा की भाषाओं ने भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए पर्याप्त सामाग्री प्रदान की है। आप आगे चलकर स्पष्ट रूप से देख पाएंगे कि दोनों की भाषाएँ कितनी मिलती-जुलती है। आइए एक-एक करके दोनों को देखते हैं।

| ईरानी भाषाएँ

ईरानी भाषाओं को तीन वर्गों में बांटा जाता है, जैसा कि आप इस चार्ट में देख सकते हैं। आइए इस पर थोड़ा विस्तार से चर्चा करते हैं।

प्राचीन युग – ईरान का प्राचीन साहित्य काफी समृद्ध था, हालांकि आज उसका कुछ ही भाग उपलब्ध है। ऐसा इसीलिए भी है क्योंकि इसे कई बार नष्ट करने का प्रयास किया गया और वो सफल भी रहे। नष्ट करने वालों में सिकंदर का नाम भी शामिल है। इसके बावजूद भी जो कुछ बचा उसे अवेस्ता में संगृहीत किया गया। प्राचीन ईरान की दो मुख्य भाषाएँ थी –

इंडो-ईरानी भाषाएं [Image credit – mustgo.com]

(1) पूर्वी ईरानी – इसी को अवेस्ता कहा जाता है। यहाँ यह याद रखिए कि पारसियों के धर्मग्रंथ को भी अवेस्ता कहा जाता है और उनकी भाषा को भी अवेस्ता कहा जाता है। अवेस्ता की जो टिकाएँ लिखी गई है उसे जेंद (Zend) कहा जाता है (जिसे कि संस्कृत में छंद कहते हैं)।

अवेस्ता को अवस्था का अपभ्रंश माना जाता है जिसका अर्थ होता है व्यवस्था या व्यवस्थित रूप से संगृहीत धर्मग्रंथ। प्रचलन के आधार पर अवेस्ता धर्मग्रंथों को जेंदावेस्ता (या जेंद अवेस्ता) कहा जाता है। अवेस्ता का समय काल 700 ई. पू. माना जाता है।

(2) पश्चिमी ईरानीइसको प्राचीन फ़ारसी भी कहते हैं। इसमें अकीमिनियन साम्राज्य के संस्थापक कुरुश (558-530 ई. पू.) के अभिलेख मिलते हैं। चूंकि ये अभिलेख आज तक सुरक्षित है इसीलिए प्राचीन फ़ारसी के स्वरूप का ज्ञान इससे हो पाता है। Darius प्रथम (522-486 ई. पू.) के राज्यकाल में प्राचीन फ़ारसी राजभाषा थी। यह अवेस्ता से काफी मिलती-जुलती है।

जैसे कि संस्कृत के अहम को अवेस्ता में अजेम कहा जाता है और प्राचीन फ़ारसी में अदम। यानी कि संस्कृत का ‘ह’ अवेस्ता में ‘ज’ हो गया है और प्राचीन फ़ारसी में ‘द’।

मध्ययुग – प्राचीन फ़ारसी का ही विकसित रूप मध्ययुग में पहलवी के नाम से जाना गया। पहलवी का प्राचीनतम शिलालेख अर्दशिर (226-241 ई. पू.) के राज्यकाल का है। पहलवी के दो रूप है – 1. हुज्वारेश, 2. पारसी या पाजन्द

1. हुज्वारेश – यह ससानियन राजवंश (216 ई.-652 ई.) की भाषा थी। इसमें सेमेटिक शब्दावली की संख्या बहुत अधिक हुआ करती थी जिसे कि ससानी काल में पहलवी शब्दावली से बदलने का प्रयास किया गया।

2. पारसी या पाजन्द – यह पहलवी का परिष्कृत रूप था। इसकी वर्णमाला सुस्पष्ट थी। इसमें एक ध्वनि के लिए एक चिन्ह रखा गया। इसमें आर्य शब्दावली का प्रयोग विशेष रूप से हुआ और सामी शब्दों का बहिष्कार किया गया। भारत में आने वाले पारसियों की यही भाषा थी।

आधुनिक युग – प्राचीन फ़ारसी से आधुनिक फ़ारसी का विकास हुआ है। आधुनिक फ़ारसी वियोगात्मक हो गई है। यह ईरान की राष्ट्रभाषा है। इसका प्रारम्भिक ग्रंथ महाकवि फिरदौसी (940-1020 ई.) का ‘शाहनामा’ है। इसमें अरबी शब्दों का बहुत ज्यादा प्रयोग नहीं है जबकि वर्तमान फारसी में 70 प्रतिशत शब्द अरबी है। यहाँ तक की आधुनिक फ़ारसी लिखी भी अरबी लिपि में जाती है। आधुनिक फ़ारसी की अनेक बोलियाँ है। जिसमें से प्रमुख हैं- (1) पश्तो, (2) बलूची, (3) पामीरी, और (4) कुर्दिश। आइए इसे संक्षेप में समझ लेते हैं;

(1) पश्तो – यह अफ़ग़ानिस्तान की भाषा है इसे अफगानी भी कहते हैं। यह भारतीय और ईरानी के मध्य की भाषा है इसीलिए इस पर भारतीय भाषाओं का प्रभाव दिखता है।

(2) बलूची – यह बलोचिस्तान की भाषा है। यह आधुनिक फ़ारसी के समीप है। व्याकरण और साहित्य की दृष्टि से यह काफी पिछड़ा हुआ है।

(3) पामीरी – पामीरी भाषाएँ पामीर के पठार की घाटियों में फैली है। हिंदुकुश पर्वत में पामीरी भाषा की वारवी और यिदघाह बोलियाँ प्रचलित है। इन बोलियों पर ईरानी का प्रभाव है।

(4) कुर्दिश – यह वर्तमान फ़ारसी के निकट है। यह कुर्दिस्तान की बोली है। इसमें शब्दों के रूप छोटे हो गए है। जैसे कि बिरादर का बेरा हो गया है और सिपेद (सफ़ेद) का स्पी हो गया है।

* एक और भाषा है जो ईरानी भाषाओं के अंतर्गत ही आता है, वो है दरद भाषा। इसका क्षेत्र पामीर और पश्चिमोत्तर पंजाब के मध्य में है। रचना की दृष्टि से दरद भाषाएँ पश्तो के तुल्य भारतीय और ईरानी के मध्यगत है, हालांकि इसका ज्यादा झुकाव भारतीय भाषाओं की ओर है। प्राचीन समय में दरद भाषाओं को पैशाची प्राकृत कहते थे। इसकी बोलियों में चित्राली एवं शीना प्रमुख है। कश्मीरी भाषा को कुछ विद्वान दरद भाषाओं में शामिल करके देखते हैं। हालांकि इस पर संस्कृत का बहुत ज्यादा प्रभाव है। इतना कि दरद शब्द भी संस्कृत शब्द ही है जिसका मतलब होता है पर्वत।

| भारतीय आर्य भाषाएँ

भारतीय आर्य भाषाएँ भारतीय उपमहाद्वीप के 5 देशों में बोली जाती है, जिनमें पाकिस्तान की उर्दू, नेपाल की नेपाली, बांग्लादेश की बंगलादेशी और श्रीलंका की सिंहली भी शामिल है। इन सभी भाषाओं का विकास संस्कृत से हुआ है। हिन्दी, मराठी, गुजराती एवं मैथिली आदि भाषाओं का संबंध इसी से है। इसीलिए भारोपीय भाषा परिवार की आर्य उपशाखा की भारतीय आर्य भाषा का परिवार इतना महत्वपूर्ण है। इतिहास को आधार बनाकर, मोटे तौर पर इसे तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है;

(1) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (1500 ई. पू. से 500 ई. पू. तक)
(2) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा (500 ई. पू. से 1000 ई. तक)
(3) आधुनिक भारतीय आर्य भाषा (1000 ई. से वर्तमान समय तक)

इंडो-ईरानी भाषाएं
इंडो-ईरानी भाषाएं [Image source – wikipedia]

(1) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (1500 ई. पू. से 500 ई. पू. तक)

विकासक्रम के अनुसार इसे दो भागों में विभक्त किया जाता है;- (1) वैदिक संस्कृत, और (2) लौकिक संस्कृत

वेद जिस भाषा में लिखा गया है उसे वैदिक संस्कृत कहा जाता है। ये आज के संस्कृत से काफी भिन्न है। वैदिक संस्कृत किसी समय जनभाषा थी। यह मुख्य रूप से साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यों के लिए प्रयुक्त होती थी।

दरअसल लौकिक संस्कृत को प्रायः संस्कृत ही कहा जाता है। यास्क, कात्यायन, पतंजलि आदि के लेखों से सिद्ध है की ईसापूर्व तक संस्कृत लोक-व्यवहार की भाषा थी। संस्कृत में ही समस्त प्राचीन ज्ञान, विज्ञान, कला, नाटक एवं काव्य आदि है। संस्कृत ने न केवल भारतीय भाषाओं को अनुप्राणित किया है, बल्कि विश्व-भाषाओं, मुख्यतया भारोपीय भाषाओं, को भी प्रभावित किया है।

हालांकि यहाँ यह याद रखिए कि वैदिक और लौकिक; दोनों ही संस्कृत में समास-विधि है, धातुओं और शब्दों का अर्थ भी प्रायः एक ही है, दोनों में 3 लिंग, 3 वचन और 3 पुरुष है, दोनों में संधि-कार्य होते हैं और दोनों में कारक और विभक्तियाँ है। लेकिन फिर वैदिक और लौकिक संस्कृत एक दूसरे से अलग इसीलिए है क्योंकि वैदिक संस्कृत में स्वर-प्रयोग संगीतात्मक था, उसके धातुरूपों में बहुत विविधिता थी, संधि नियम ऐच्छिक था आवश्यक नहीं, उपसर्ग स्वतंत्र हुआ करता था इत्यादि।

(2) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा (500 ई. पू. से 1000 ई. तक)

मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं को तीन भागों में बांटा जाता है;

  • प्राचीन प्राकृत या पालि (500 ई. पू. से 100 ई. तक)
  • मध्यकालीन प्राकृत (100 ई. – 500 ई. तक)
  • आधुनिक प्राकृत या अपभ्रंश (500 ई. – 1000 ई. तक)

प्राचीन प्राकृत या पालि (500 ई. पू. से 100 ई. तक)

तीसरी सदी ई. पू. से प्रथम शती ई. तक के शिलालेख, पालि बौद्धग्रंथ (महावंश, जातक आदि), प्रारम्भिक नाटकों की भाषा, जैसे अश्वघोष का नाटक आदि इसी के तहत आता है।

मूल भाषा संस्कृत से उत्पन्न भाषाओं को प्राकृत कहा जाता है। कई विद्वानों द्वारा इसे संस्कृत का विकृत रूप कहा जाता है। प्रचलित एवं स्वीकार्य मत के अनुसार पाणिनी द्वारा संस्कृत का व्याकरणबद्ध किए जाने से इसका विकास रुक गया इसीलिए धीरे-धीरे यह जनभाषा नहीं रही, बल्कि इसके कई भाषाएँ विकसित हुई जिसे कि प्राकृत कहा गया।

पालि की बात करें तो इसे सबसे पुराना प्राकृत कहा जाता है, हालांकि इसके उत्पत्ति को लेकर विद्वानों का मत एक नहीं है। पालि साहित्य का संबंध मुख्यतः भगवान बुद्ध से है। क्योंकि पालि में उन्ही से संबद्ध काव्य, कथाओं या अन्य साहित्य-विधाओं की रचना प्रमुखतः हुई है।

मध्यकालीन प्राकृत (100 ई. – 500 ई. तक)

इसको साहित्यिक प्राकृत भी कहते हैं। ऐसा इसीलिए क्योंकि इस समय-काल में प्राकृत का विकसित साहित्यिक रूप प्राप्त होता है। प्राकृत भाषाओं का सर्वप्रथम जिक्र भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में मिलता है। उन्होने 7 प्राकृत भाषाओं का जिक्र किया है; मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सुरसेनी, अर्धमागधी, बाहलिक एवं दाक्षिणात्य (महाराष्ट्री)।

इसी तरह से प्राकृत व्याकरण के रचनाकार वररुचि ने चार प्राकृत मानी; शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी एवं पैशाची। चूंकि मागधी के दो रूप माने गए है – (मागधी एवं अर्धमागधी) इसीलिए कुल मिलाकर 5 प्राकृत माने जाते हैं – शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी एवं पैशाची। हालांकि यहाँ यह याद रखिए कि प्राकृत के अंतर्गत दो दर्जन से अधिक भाषाएँ आती है लेकिन भाषा विद्वान केवल इन पांचों को मुख्य प्राकृत मानते हैं। कुछ प्राकृत ग्रन्थों की बात करें तो ये हैं; अश्वघोष (100 ई.) एवं धम्मपद (200 ई. के आसपास एवं खरोष्ठी लिपि में लिखा गया)।

शौरसेनी – इसका क्षेत्र शूरसेन (मथुरा के आस-पास) का प्रदेश था। इसका विकास पालि-कालीन स्थानीय भाषा से हुआ माना जाता है। यह मध्यदेश की भाषा हुआ करती थी। और उस समय के नाटकों में इसका सर्वाधिक प्रयोग हुआ है, उदाहरण के लिए भास और कालिदास के नाटकों को लिया जा सकता है। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि वर्तमान हिन्दी का विकास इसी से हुआ है।

महाराष्ट्री – इसे दाक्षिणात्य के नाम से भी जाना जाता है और इसका मूलस्थान महाराष्ट्र रहा है। इससे ही मराठी भाषा का विकास हुआ है। और प्राकृत में सबसे ज्यादा साहित्य महाराष्ट्री में ही है।

मागधी – यह मगध की भाषा हुआ करती थी। इसका साहित्य बहुत कम मिलता है। इसका प्राचीनतम रूप अश्वघोष के नाटकों में मिलता है। इसके अलावा कालिदास के नाटकों में तथा शूद्रक के मच्छकटिक में मागधी का प्रयोग मिलता है। मागधी से ही भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला, उड़िया एवं आसामी भाषा का विकास हुआ है।

अर्धमागधी – अर्धमागधी का क्षेत्र मुख्य रूप से मागधी और शौरसेनी के मध्य मानी जाती है। यानी कि यह प्राचीन कोसल एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्रों की भाषा थी। इसमें मागधी के गुण है पर ये शुद्ध मागधी नहीं है। भगवान महावीर के सारे धर्मोपदेश इसी भाषा में है, इसीलिए इस भाषा में प्रचुर मात्रा में जैन साहित्य मिलते हैं। पूर्वी हिन्दी का विकास इसी से हुआ है।

पैशाची – इसका क्षेत्र पश्चिमोत्तर भारत एवं अफ़ग़ानिस्तान था। चूंकि पैशाची से भूत-प्रेत का बोध होता है इसीलिए इसे भूतभाषा या पैशाचिकी भी कहा जाता है। लहंदा भाषा इसका ही विकसित रूप है। गुणाढ्य की प्रसिद्ध रचना बहतकथा पैशाची प्राकृत में ही थी।

आधुनिक प्राकृत या अपभ्रंश (500 ई. – 1000 ई. तक)

इसे परकालीन प्राकृत या तृतीय प्राकृत भी कहा जाता है। अपभ्रंश का मतलब होता है बिगड़ा हुआ, भ्रष्ट या गिरा हुआ। यहाँ ये याद रखिए कि कुछ भाषा विद्वानों द्वारा इसका काल 1200 ई. तक माना जाता है। अपभ्रंश शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य व्याडि और पतंजलि (150 ई. पू.) के आस-पास किया था। भरत मुनि (400 ई. पू.) ने भी इसका जिक्र किया है। इसमें साहित्य के भंडार मिलते हैं, जैसे कि पुष्पदंत-कृत महापुराण, विद्यापति कृत कीर्तिलता एवं अब्दुर रहमान कृत संदेश-रासक इत्यादि।

भाषा विद्वानों का इस पर एक मत है कि पाँच प्राकृत से ही पाँच अपभ्रंश का विकास हुआ है और इस अपभ्रंश से आधुनिक भाषाओं का विकास हुआ है। इसीलिए प्राचीन प्राकृत और आधुनिक भाषाओं को मिलाने वाली कड़ी को अपभ्रंश कहा जाता है।

इसके बीज भारत मुनि के नाट्यशस्त्र में दिखने शुरू हो जाते हैं। आगे चलकर कालिदास के नाटक विक्रमोर्वशीय के चौथे अंक में अपभ्रंश के कुछ छंद मिलते हैं। छठी सदी तक आते-आते अपभ्रंश में काव्य-रचना होने लगी थी और यह 15वीं – 16वीं सदी तक चलती रही। हालांकि यहाँ यह याद रखिए कि बोलचाल की भाषा के रूप में लगभग 1000 ई. के आस-पास यह समाप्त होने लग गया था।

(3) आधुनिक भारतीय आर्य भाषा (1000 ई. से वर्तमान समय तक)

आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास मध्यकालीन अपभ्रंश भाषाओं से हुआ है। प्राचीन पाँच प्राकृतों से पाँच अपभ्रंश भाषाओं का विकास हुआ है। इन पाँच अपभ्रंशों के साथ ही ब्राचड एवं खास दो अपभ्रंशों को और लिया जाता है। (ये दोनों क्या है इस पर आगे चर्चा की गई है) इस तरह से सात अपभ्रंशों से आधुनिक भाषाओं का विकास माना जाता है। किस अपभ्रंश से कौन सी आधुनिक भाषा निकली है इसे आप नीचे के चार्ट में देख सकते हैं;

अपभ्रंशविकसित आधुनिक भाषाएँ
1. शौरसेनी(1) पश्चिमी हिन्दी, (2) राजस्थानी, (3) गुजराती,
2. महाराष्ट्रीमराठी
3. मागधी(1) बिहारी, (2) बंगाली, (3) उड़िया, (4) आसामी
4. अर्धमागधीपूर्वी हिन्दी
5. पैशाचीलहंदा
6. ब्राचड(1) सिंधी, (2) पंजाबी
7. खसपहाड़ी
इंडो-ईरानी भाषाएँ

| आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का संक्षिप्त परिचय

पश्चिमी हिन्दी – जैसा कि हमने ऊपर देखा, इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसकी पाँच प्रमुख बोलियाँ हैं – खड़ी बोली, ब्रजभाषा, बांगरु, कन्नौजा और बुन्देली।

1. खड़ी बोली: यह उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों (मेरठ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, रामपुर आदि) की भाषा है। इसी के दो साहित्यिक रूप विकसित हुए, हिन्दी और उर्दू। हिन्दी में संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है और उर्दू में अरबी-फारसी शब्दों की।

2. ब्रजभाषा: यह मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुर आदि जगहों की भाषा है। इसमें उच्चकोटि का साहित्य विद्यमान है क्योंकि ढेरों साहित्यकारों ने इस भाषा में अपनी रचनाएँ की। जैसे कि सूरदास, नंददास, मीरा, केशव, बिहारी, रसखान एवं रहीम आदि।

3. बांगरु: यह दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार, पटियाला एवं जींद आदि जगहों की बोली है। इसे हरियाणवी या जाटू के नाम से भी जाना जाता है। इस पर पंजाबी का प्रभाव दिखता है।

4. कन्नौजी: अवधि और ब्रज के मध्य इसका क्षेत्र है। इटावा, फ़र्रुखाबाद, कानपुर, हरदोई, पीलीभीत आदि जिलों में यह बोली जाती है। इसमें भी कई साहित्यिक रचनाएँ हुई है। इसे ब्रजभाषा का ही एक अंग माना जाता है।

5. बुन्देली: यह झाँसी, जालोन, हमीरपुर, बांदा, ग्वालियर, ओरछा एवं नरसिंहपुर आदि जगहों की बोली है। इसे भी ब्रजभाषा का ही एक अंग माना जाता है। इसमें साहित्य की रचना न के बराबर हुई है।

6. राजस्थानी – इसका विकास शौरसेनी के नागर अपभ्रंश से हुआ है। इसका प्रमुख क्षेत्र राजस्थान है। इसकी लिपि नागरी और महाजनी है। इसकी चार प्रमुख बोलियाँ हैं – मारवाड़ी, जयपुरी, मालवी और मेवाती।

(1). मारवाड़ी: यह पश्चिमी राजस्थान की बोली है। इसका क्षेत्र है-जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि। पुरानी मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं।

(2). जयपुरी: यह राजस्थान के पूर्वी भाग में बोली जाती है। इसका क्षेत्र है – जयपुर, कोटा, बूंदी।

(3). मालवी: यह राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी भाग की भाषा है। इसका केंद्र इंदौर है।

(4). मेवाती: यह अलवर और हरियाणा में गुड़गाँव जिले के कुह भागों में बोली जाती है। इस पर ब्रजभाषा का प्रभाव है।

7. गुजराती – शौरसेनी अपभ्रंश के नागर रूप से गुजराती का विकास हुआ है। यह गुजरात प्रांत की भाषा है। इसकी भाषा राजस्थानी से बहुत साम्य रखती है। गुजरात का प्राचीन नाम लाट था और यहाँ की भाषा लाटी थी।

8. मराठी – यह महाराष्ट्री अपभ्रंश से निकली है। इसकी चार प्रमुख बोलियाँ है; देशी (यह दक्षिण भाग में बोली जाती है), कोंकणी (यह समुद्र किनारे बोली जाती है), नागपुरी (यह नागपुर के आसपास बोली जाती है) और बरारी (यह बरार की बोली है)।

9. बिहारी – यह मागधी अपभ्रंश से निकली है। वस्तुतः बिहारी कोई भाषा नहीं है। यह बिहार में बोली जाने वाली भाषाओं का समूह है। इसमें प्रमुख भाषाएँ हैं- भोजपुरी, मैथिली और मगही।

(1). भोजपुरी का आधार भोजपुर गाँव है जो कि अब भोजपुर जिला है। अब यह भाषा बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में बोली जाती है। खासकर के पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार का क्षेत्र इसमें आता है। कबीर, धर्मदास एवं भीखा साहब से इसमें अपनी रचनाएँ दी है।

(2). मैथिली: यह मिथिला क्षेत्र की भाषा है। इसका क्षेत्र दरभंगा, सीतामढ़ी, सहरसा, सुपौल एवं अररिया आदि जिला है। बिहारी भाषाओं में सबसे अधिक साहित्य मैथिली में है। इसके प्रमुख कवि है – विद्यापति, मनबोध, चंदा झा इत्यादि।

(3). मगही: यह पटना, गया, हजारीबाग एवं भागलपुर के पूर्वी भागों में बोली जाती है। इसमें न के बराबर साहित्य की रचना की गई है।

10. बंगाली – यह बंगाल प्रांत की भाषा है। मागधी अपभ्रंश के पूर्वी रूप से इसका विकास हुआ है। इसमें संस्कृत के शब्दों का बाहुल्य है। इस भाषा के लिखित एवं उच्चारित रूप में भेद होता है। जैसे कि परमानंद को वहाँ पोरमानन्द, मैं को आमि इत्यादि बोला जाता है। साहित्यिक दृष्टि से यह भाषा समृद्ध माना जाता है, रवीद्रनाथ टैगोर, बंकिमचंद चटर्जी, शरतचंद आदि का योगदान इसमें अहम रहा है।

11. उड़िया – यह उड़ीसा की भाषा अहि। उत्कल जाति की भाषा होने के कारण इसे उत्कली भी कहा जाता है। इस पर बंगाली और तेलुगू का अधिक प्रभाव है।

12. असमी– असमी या आसामी असम की भाषा है। इसका बांग्ला से अधिक साम्य है। इसकी लिपि बांग्ला से सदृश है, केवल दो तीन वर्ण भिन्न है। इस पर तिब्बती-बर्मी, नागा आदि भाषाओं का भी प्रभाव है। इसके प्रमुख कवि है शंकरदेव, सरस्वती एवं माधवकंदली।

13. पूर्वी हिन्दी – यह अर्धमागधी अपभ्रंश से विकसित हुई है। इसकी तीन बोलियाँ हैं- अवधि, बघेली और छतीसगढ़ी

अवधि की बात करें तो यह लखनऊ, अयोध्या, सीतापुर, गोंडा, आदि जिलों में बोली जाती है। जायसी का पद्मावत और तुलसी का रामचरितमानस प्रसिद्ध ग्रंथ है।

बघेली की बात करें तो इसका क्षेत्र बघेलखंड है। और छतीसगढ़ी की बात करें तो इसका क्षेत्र रायपुर, बिलासपुर आदि जिलों में है।

14. लहंदा – इसका विकास पैशाची अपभ्रंश से हुआ है। यह पंजाब के पश्चिमी भाग तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग की भाषा है। जिसमें पश्तो भाषा प्रमुख है। यहाँ यह याद रखिए कि लहंदा का अर्थ होता है पश्चिमी। इसकी लिपि लंडा है हालांकि यह उर्दू और गुरुमुखी लिपि में भी लिखी जाती है। इसकी चार प्रमुख बोलियाँ है – केन्द्रीय बोली, दक्षिणी (मुलतानी बोली), उत्तरपूर्वी (पोठवारी) और उत्तरपश्चिमी (धन्नी)। अब इसका ज़्यादातर क्षेत्र पाकिस्तान में है।

15. सिंधी – यह प्राचीन सिंध प्रांत की भाषा है। इसकी पाँच बोलियाँ हैं – बिचौली, सिरेकी, लाड़ी, थरेली एवं कच्छी। इसमें बिचौली प्रमुख साहित्यिक भाषा है। इसकी लिपि लंडा है।

16. पंजाबी – यह पंजाब प्रांत की भाषा है। इस पर दरद भाषा का प्रभाव है। पंजाबी की एक बोली डोगरी है, जो जम्मू में बोली जाती है। इसकी लिपि गुरुमुखी है।

17. पहाड़ी – खस अपभ्रंश से इसका विकास हुआ है। यह हिमालय के निचले भाग में बोली जाती है। इसकी लिपि नागरी है। इसके तीन भाषा-वर्ग हैं- पश्चिमी, मध्य एवं पूर्वी। पश्चिमी पहाड़ी में लगभग 30 बोलियाँ है जो कि शिमला एवं आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। मध्य पहाड़ी के दो भाग है गढ़वाल की गढ़वाली और कुमायूं की कुमायूनी। और पूर्वी पहाड़ी में नेपाली आती है, इसे खसकुरा या गोरखाली भी कहा जाता है। यह नेपाल की राजभाषा है।

कुल मिलाकर यही है इंडो-ईरानी भाषाएं। उम्मीद है आपको यह समझ में आया होगा। भारतीय भाषाओं को विस्तार से समझने के लिए नीचे दिये गए लेख को पढ़ें;

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