इस लेख में हम ‘भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण’ पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे,

तो अच्छी तरह से समझने के लिए इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें और साथ ही भाषा से संबन्धित अन्य लेखों का लिंक दिया हुआ है उसे भी पढ़ें;

भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण

| भाषा का वर्गीकरण

भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का आधार है और दुनिया भर में खुद को अभिव्यक्त करने के लिए मनुष्य के पास ढेरों भाषाएँ हैं, ऐसे में सवाल आता है कि इतनी सारी भाषाएँ आखिर कैसे अस्तित्व में आयी, क्या सभी भाषाएँ एक-दूसरे से संबंधित हैं, इन भाषाओं का वर्गीकरण कैसे किया जाता होगा? ऐसे ढेरों सवाल भाषा के संबंध में हमारे मन में आ सकता है, भाषा विद्वानों के पास भी इस तरह की समस्याएँ आयी और उन लोगों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार विभिन्न आधारों पर भाषाओं का वर्गीकरण किया, जैसे कि, देश, काल, धर्म, महाद्वीप, आकृति और परिवार आदि।

हालांकि इनमें से बहुतों को स्वीकार नहीं किया जाता है क्योंकि उसका वर्गीकरण तर्कसंगत नहीं लगता है; उदाहरण के लिए, देश के आधार पर भाषा के वर्गीकरण को लें तो इसके अंतर्गत मात्र एक देश के अंदर बोलनेवाला भाषा आता है, लेकिन ये इसलिए असंगत लगता है क्योंकि प्रवास के कारण आज एक देश की भाषाएँ दूसरे देश में भी बोली जाने लगी है, और दूसरी बात कि ये जरूरी भी तो नहीं है कि एक देश में सिर्फ एक ही भाषा बोली जाती हो, जैसे कि भारत को ही लें ले तो यहाँ इतनी भाषाएँ बोली जाती है कि ये कहना कि ये अमुक भाषा सिर्फ इस देश की भाषा है; असंभव है।

इसी तरह धार्मिक आधार पर, काल के आधार पर एवं महाद्वीप के आधार पर भाषा का वर्गीकरण असंगत लगता है। लेकिन वहीं आकृति के आधार पर और परिवार के आधार पर भाषा का वर्गीकरण आज मान्य है। ये दो महत्वपूर्ण भाषा का वर्गीकरण है जो कि भाषा के बारे में बहुत सारी चीज़ें पूर्ण रूप से स्पष्ट कर देती है।

इस लेख में हम भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण समझेंगे और इसके अगले पार्ट में भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण समझेंगे, तो धैर्य से पढ़िये, लेख थोड़ा लंबा हो सकता है पर है बड़ा दिलचस्प।

| भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण

आकृतिमूलक वर्गीकरण में समान आकार वाले भाषा को रखा जाता है। ऐसा नहीं है भाषा का ये वर्गीकरण संपूर्णता को प्रदर्शित करता है लेकिन फिर भी ये भाषा के विकास संबन्धित प्रक्रिया को बहुत हद तक स्पष्ट करता है।

आकृति अर्थात शब्द या पद के रचना के आधार पर जो वर्गीकरण किया जाता है, उसे आकृतिमूलक वर्गीकरण कहा जाता है। चूंकि पद में लगने वाले प्रत्ययों का दूसरा नाम रूपतत्व भी है इसीलिए इसे रूपात्मक वर्गीकरण भी कहा जाता है। इसके साथ ही इसे पदात्मक या वाक्यमूलक वर्गीकरण भी कहा जाता है। इसे इंग्लिश में morphological या syntactical classification कहा जाता है।

आकृतिमूलक वर्गीकरण मुख्य रूप से विश्लेषण पर आधारित है इसीलिए इसका महत्व स्वयं सिद्ध है। कुल मिलाकर आकृतिमूलक वर्गीकरण में विभिन्न भाषा में प्रयुक्त पद की आकृति अर्थात रूप रचना पर ध्यान दिया जाता है। आकृतिमूलक आधार पर किया गया वर्गीकरण दो प्रकार का होता है; 1. अयोगात्मक भाषा (Isolation Language) और 2. योगात्मक भाषा (Agglutinating language)

आकृतिमूलक वर्गीकरण चार्ट

1. अयोगात्मक भाषा (Isolation Language)

इस अयोगात्मक में आयोग का अर्थ ये है की यहाँ शब्द में ‘उपसर्ग’ या ‘प्रत्यय’ जोड़ कर रूप रचना नहीं किया जाता है बल्कि इस पद्धति में प्रत्येक शब्द का अपना एक स्वतंत्र सत्ता विद्यमान होता है। इसी कारण से इस वर्ग के भाषा में प्रत्येक शब्द स्वतंत्र रीति से अलग-अलग प्रयुक्त होता है।

दूसरे शब्दों में कहें तो इस तरह के भाषा में में शब्द का स्थान परवर्तित होने से अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। इसके अतिरिक्त शब्द संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया विशेषण आदि भेद भी नहीं होता है। उदाहरण के चीनी भाषा को ले सकते हैं;

चीनी भाषा में,

न्गी तनि = हम तुम्हें मारते हैं
न तन्गो = तुम मुझे मारते हो

हिन्दी का उदाहरण देखें तो,

कुत्ते ने सांप को काट लिया
सांप ने कुत्ते को काट लिया

यहाँ जो अर्थ बदला है वो रूप परिवर्तन से नहीं बल्कि स्थान भेद से बदला है। यानी कि कर्ता और कर्म की भूमिका स्थान परिवर्तन के कारण बदला है।

कभी-कभी निपात द्वारा भी अर्थ परिवर्तन होता है। जैसे कि ‘वांग पाओ मिनक’ का अर्थ होता है राजा जनता की रक्षा करता है। लेकिन इस वाक्य में वांग के बाद ‘छिह’ निपात का प्रयोग करने पर शब्द होगा ‘वांग छिह पाओ मिन’ जिसका अर्थ होता है राजा द्वारा रक्षित जनता।

इसके अतिरिक्त चीनी भाषा, सुर के भेद से नितांत विरोधी अर्थ प्रकट करता है। चीनी भाषा में मुख्य रूप से चार प्रकार के सुर का व्यवहार होता है।

  1. सामान्य सम्पूर्ण – शब्द का सामान्य लहजा
  2. नीचे से ऊंचाई की तरफ – शब्द के पूर्वांश नीचा सुर में तथा उत्तरांश ऊंचा सुर में
  3. ऊंचाई से नीचे की दिशा में – पूर्वांश ऊंचे तथा उत्तरांश नीचे सुर में
  4. उच्च सम्पूर्ण शब्द का उच्चारण उच्च सुर में

उदाहरण के लिए ब, ब , ब , ब, इन चारों अक्षर का उच्चारण विभिन्न सुर में करने से अर्थ क्रमशः होता है, तीन महिला, राजा के, कुपात्रक, कान अमेठा।

इस वर्ग के भाषा में सूडानी, तिब्बती, बर्मी, स्यामी, चीनी, आदि भाषा आता है। उदाहरण के लिए, अयोगात्मक वर्गीकरण भाषा में

  1. चीनी भाषा में स्थान तथा सुर
  2. सूडानी में स्थान
  3. स्यामी में सुर
  4. बर्मी, तिब्बती में निपात, विशेष महत्व रखता है।

2. योगात्मक भाषा ( Agglutinating language)

जहां अयोगात्मक भाषा का प्रत्येक शब्द स्वतंत्र होता है वहीं योगात्मक भाषा में आकृति-प्रत्यय योग से शब्द निष्पन्न होता है। इस में संबंध तत्व और अर्थ तत्व दोनों का योग होता है। जैसे – राम: हस्तेन धनन ददाति (राम हाथ से धन देता है) इस वाक्य में राम (अर्थ तत्व) और आ: (संबंध तत्व), हस्त (अर्थ तत्व) और एन (संबंध तत्व), धन (अर्थ तत्व) और अम (संबंध तत्व)। इस वाक्य से ये स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ अर्थ तत्व और संबंध तत्व में योग होता है।

योग के आकृति के आधार पर योगात्मक को तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है; (1) अशिलिष्ट योगात्मक, (2) शिलिष्ट योगात्मक, और (3) प्रशिलिष्ट योगात्मक

(1) अशिलिष्ट योगात्मक (simple agglutinating)

इसमें अर्थ तत्व के संग रचना तत्व का भी अंश होता है। लेकिन दोनों की स्थिति बिलकुल स्पष्ट होता है। यानी कि इस वर्ग की भाषाओं में अर्थ तत्व के साथ प्रत्यय या विभक्ति का योग एक जगह होते हुए भी अलग-अलग दिखायी देता है।

एक कृत्रिम भाषा ‘Esperanto‘ (जिसको कि Second Universal Language of Communication भी कहा जाता है) का निर्माण इसी आधार पर हुआ है। इसके अलावा इस वर्ग के भाषा का उत्कृष्ट उदाहरण तुर्की है। वहाँ शब्द में अवयव का योग अत्यंत सुंदर होता है। जैसे कि

एव = घर (एकवचन)
एव-देन = घर से,
एव-इम – हमारा घर,
एव-इम-देन = हमारे घर से।

अशिलिष्ट योगात्मक में रचना तत्व और अर्थ तत्व कभी पहले तो कभी मध्य में तो कभी अंत में एवं कभी-कभी पूर्वान्त में जुटता है। इसीलिए इस आधार पर स्थिति के अनुसार इसे विभिन्न वर्गों में बांटा गया है, जो कि निम्नलिखित है;

(a) पूर्व योगात्मक या पुनः प्रत्यय प्रधान (prefixual agglutinative) – इस प्रकार के भाषा में प्रत्यय के स्थान पर उपसर्ग प्रयुक्त होता है। शब्द वाक्य के अंतर्गत सर्वदा अलग-अलग होता है। शब्द रूप रचना में, संबंध तत्व मात्र आरंभ में लगता है। इसीलिए इसे पूर्व योगात्मक कहा जाता है। अफ्रीका के बाँटू भाषा में ये प्रवृति देखा जाता है। इसी के जुलू भाषा का उदाहरण नीचे देखा जा सकता है;

उमुन्तु = एक इंसान
अबन्तु = अनेक इंसान

यहाँ पर ‘उमु’ एकवचन चिन्ह और ‘अब’ बहुवचन चिन्ह है जिसके मिलने से उपर्युक्त शब्द बना है और दोनों की स्थिति भी स्पष्ट है।

(b) मध्य योगात्मक भाषा (Infix Agglutinative) – इस भाषा में योग मध्य में होता है, संथाली भाषा में इसका उदाहरण देखा जा सकता है

मञ्झि = मुखिया,
मपञ्झि = बहुत मुखिया; मपञ्झि ; यहाँ ‘प’ बहुवचन चिन्ह है

(c) पूर्वान्त योगात्मक (Presuffix Agglutinative)- इस श्रेणी के भाषा में संबंध तत्व या अर्थ तत्व शब्द के आगे-पीछे पूर्व और अंत दोनों जगह में लगाया जाता है, इसीलिए इसे पूर्वान्त योगात्मक कहा जाता है इसका उदाहरण न्यू गिनी के मकोर भाषा में मिलता है।

उदाहरण – म्न्फ़ शब्द का अर्थ होता है सुनना, इसी शब्द के आरंभ में ‘ज’ और अंत में ‘उ’ जोड़ देने पर इसका अर्थ ‘मैं तुम्हारी बात सुनता हूँ’ हो जाता है यानी कि – जम्न्फ़-उ

(d) अंत योगात्मक (Suffix Agglutinative) – इस वर्ग के भाषा में योग क्रिया शब्द के अंत में सम्पन्न होता है। भारत के द्रविड़ भाषा तथा यूराल-अल्टाइक परिवार की भाषा इसी वर्ग के अंतर्गत आता है, उदाहरण के लिए, कन्नड भाषा का ‘सेवक’ और तुर्की भाषा का ‘एव’ शब्द लिया जा सकता है।

सेवक (बहुवचन)
करता – सेवक -रू,
कारण – सेवक -रिंद ,
संबंध – सेवक – र

एव = घर,
एवलेर = कितना घर,
एवलेइरम = हमारा घर

(e) आंशिक योगात्मक (Partially Agglutinative)- इस प्रकार के भाषा में योग और अयोग दोनों चिन्ह मिलता है। यह भाषा अशिलिष्ट योगात्मक भाषा से भी कुछ समानता रखता है। वास्क, हौसा, न्यूजीलैंड तथा हवाई द्वीप के भाषा में इसका उदाहरण ढूंढा जा सकता है;

वास्क,
जल्दी= घोड़ा, जल्दी अ = वह घोडा।

(f) सर्व योगात्मक और सर्व प्रत्यय प्रधान (Wholly Agglutinative)- इस भाषा में आदि, मध्य एवं अंत तीन प्रकार का योग होता है जैसे कि, मलय परिवार के तगल भाषा में सुलत = लिखेंगे, सुंग-सुलत = लिख लिया।

(2) शिलिष्ट योगात्मक (Imflecting Agglutinating)

शिलिष्ट योगात्मक वर्ग में वे सभी भाषाएँ आती है जिस-जिस में रचनात्मक योग से मूल या अर्थ तत्व के कुछ अंश में परिवर्तन आ जाता है। जैसे कि – वेद, देह, नीति, देह, आदि शब्द से ‘इक’ प्रत्यय लगाने पर क्रमशः वैदिक, नैतिक, दैहिक, आदि शब्द बनता है।

यहाँ रचना तत्व ‘इक’ के योग से अर्थ वाला अंश में परिवर्तन हो गया इसके बावजूद भी अर्थ तत्व एवं रचना तत्व को पहचानने में कोई समस्या नहीं आती है।

इसी प्रकार से अरबी में निम्नलिखित उदाहरण द्रष्टव्य है – अरबी में क, त, ब, धातु से अनेक शब्द बनता है – कत्ब= अभिलेख, कतीब = लिखा हुआ, किताब = पोथी, कत्ल = हत्या या वध।

संस्कृत के अतिरिक्त लैटिन, ग्रीक, अवेस्ता, रूसी आदि की रचना प्रणाली इसी के सदृश है। ये सब संयोगावस्था से वियोगावस्था की तरफ जाने की प्रवृति रखता है। जैसे, संस्कृत से हिन्दी, लातिनी से फ्रांसीसी।

शिलिष्ट योगात्मक को दो उपवर्ग में बांटा गया है।

(1) अंतर्मुखी (Internal Inflectional) – इस वर्ग के भाषा में जोड़ा गया भाग प्रधानतः मूल भाग (अर्थ तत्व) के पश्चात आता है। सीमेटिक परिवार की प्रमुख भाषा अरबी इसी प्रकार का होता है। अरबी भाषा के क़त्ल तथा कत्ब का उदाहरण ऊपर बताया गया है। संस्कृत और अरबी को ध्यान में रखकर अंतर्मुखी को भी दो भागों में बांटा जाता है; (1) संयोगात्मक जैसे कि अरबी और 2. वियोगात्मक जैसे कि हिब्रू

वर्तमान में इस वर्ग का भाषा भी शिलिष्ट योगात्मक भाषा होता जा रहा है, संस्कृत और हिन्दी के विकास इसका अच्छा उदाहरण है। संस्कृति में विभक्ति साथ ही लगता था इसीलिए वह योगात्मक था, लेकिन हिन्दी में ऐसा नहीं होता है क्योंकि उस में विभक्ति अलग से लगाया जाता है।

(2) बहिर्मुखी (External Inflectional) – विभक्ति प्रधान – इस में विभक्ति (प्रत्यय) आकृति के बाहर से जुड़ता है। ये आकृति के पूर्व में जुड़ सकता है और बाद में भी। भारोपीय परिवार के भाषा संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, अवेस्ता आदि इसी वर्ग के भाषा हैं।

उदाहरण – ‘भविता’ यहाँ भू (भाव) धातु से ‘अ’ विकिरण तथा ‘वी’ प्रत्यय विभक्ति के बाद में आकृति के बाहर लगा हुआ है। इसको भी दो वर्गों में बांटा जाता है;

(1) संयोगात्मक – भारोपीय परिवार के प्राचीन भाषा ग्रीक, लैटिन, संस्कृत, अवेस्ता आदि संयोगात्मक होता है, शब्द में ही संबंध तत्व लगा हुआ होता है उदाहरण – संस्कृत में स: पठती = वह पढ़ता है।

(2) वियोगात्मक – भारोपीय परिवार का ज्यादा भाषा आधुनिक समय में वियोगात्मक हो गया है। बहुत पहले ही उसका विभक्ति प्रायः लुप्त हो गया एवं सहायक क्रिया के रूप में शब्द रखा जाने लगा है। अंग्रेजी, हिन्दी एवं बांग्ला आदि वियोगात्मक है।

(3) प्रशिलिष्ट योगात्मक (Incorporating Agglutinating)

इस वर्ग के भाषा में अर्थ तत्व और रचना तत्व इस तरह मिश्रित हो जाता है कि उसमें पृथक्करण संभव नहीं है। इस में अनेक अर्थ तत्व का थोड़ा-थोड़ा अंश काट कर एक शब्द बनाया जाता है। और शब्द मात्र एक शब्द का अर्थ नहीं बता कर पूरे वाक्य का अर्थ बताता है।

जैसे, संस्कृत शब्द ‘जिगमिषती’ यानी कि वह जाना चाहता है। इस एक ही शब्द में वर्तमान काल, अन्य पुरुष और एकवचन का इस्तेमाल होता है। इसी कारण जिगमिष एक शब्द होते हुए भी पूरा वाक्य का काम करता है।

प्रशिलिष्ट योगात्मक भाषा को समास प्रधान भाषा भी कहा जाता है इसके भी दो भेद होते हैं;

  1. पूर्णत: समास प्रधान (copletely incorporative) – इस में वाक्य एक शब्द के सदृश प्रयोग में आता है जैसे कि उतरी अमेरिका के चेरी भाषा मे नाधोलिनी का अर्थ होता है ‘मेरे पास मत आओ’।
  2. अंशतः समास प्रधान – इस में स्वतंत्र शब्द भी होता है और ये पृथक भी व्यवहार में आता है। यूरोप के एक भाषा का शब्द ‘दकारकिओत’ का अर्थ होता है तुम मुझे ले जा रहे हो।

आंशिक समास कभी-कभी प्रत्यय प्रधान और विभक्ति प्रधान भाषा में भी काम में आता है। जबकि पूर्ण प्रशिलिष्ट में संज्ञा, विशेषण, क्रिया और अव्यय आदि सब का योग संभव नहीं होता है। भारोपीय परिवार की भाषा में भी इसका कुछ उदाहरण मिलता है। जैसे कि गुजरती में ‘मे कहु जे’ का मकुजे (मैंने वो कहा), मेरठ की में उन्नेका – उसने कहा।

कुल मिलाकर आकृतिमूलक वर्गीकरण मुख्य रूप से विश्लेषण पर आधारित होता है इसीलिए इसका महत्व स्वयं-सिद्ध है। और ये संयोगात्मक से वियोगात्मक की तरफ बढ़ता है एवं पूर्णतः वियोगात्मक हो जाने पर ये फिर से संयोगात्मक होना शुरू होता हाई और इस तरह से भाषा का चक्र चलता रहता है।

| भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण की आलोचनाएँ

1. इस में अनेक ऐसे भाषा को एक साथ रख दिया गया है जो कि बहुत दूर-दूर है तथा जिसमें परस्पर कोई संबंध नहीं है। जैसे कि आयोगात्मक वर्ग में चीनी एवं सूडानी और प्रत्यय प्रधान वर्ग में तुर्की, काफिर मुंडा और द्रविड़ बहुत दूर-दूर है।

2. इस वर्ग की भाषाएँ अपने वर्ग का पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करता है। तथा उसी में अन्य भाषा वर्ग के लक्षण भी दिखायी देता है।

3. विश्व की सारी भाषाओं का जब तक पूर्ण अध्ययन नहीं हो जाता है तब तक आकृति को संपूर्णता से नहीं जाना जा सकता है। अब तक तो कई भाषाओं पर शोध भी नहीं हुआ है इसीलिए इस वर्गीकरण को सम्पूर्ण नहीं माना जा सकता है।

कुल मिलाकर यही है भाषा का आकृतिमूलक वर्गीकरण; उम्मीद है समझ में आया होगा। इसके अलावा भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण सबसे महत्वपूर्ण है, उसे भी अवश्य पढ़ें।

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