इतिहास की कुछ घटनाएँ ऐसी होती है जो वर्तमान को सीधे तौर पर प्रभावित करती है या फिर एक मिसाल बन जाती है। बेरुबाड़ी मामला (Berubari Case) कुछ ऐसा ही है;
इस लेख में हम बेरुबाड़ी मामले (Berubari Case) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे, एवं इसके अन्य पहलुओं को भी समझेंगे। ये एक बहुत ही दिलचस्प घटना है और इस दिलचस्प घटना के कारण और परिणाम भी काफी दिलचस्प है, तो इसे अंत तक जरूर पढ़ें;

नोट – अगर आप सीधे बेरुबाड़ी मामले (Berubari Case) को पढ़ रहें है तो संविधान के भाग 1 (भारतीय संघ एवं इसका क्षेत्र) को पहले जरूर समझ लीजिये क्योंकि ये उसी से संबन्धित है। फिर भी आइये उसे थोड़ा रिकॉल करने की कोशिश करते हैं।
| संविधान के भाग 1 का बेरुबाड़ी मामला से संबंध
हमने अनुच्छेद 1 के तहत समझा है कि ये अनुच्छेद भारत के विवरण के बारे में है। यानी कि हमने जाना कि भारत क्या है?, भारतीय संघ का क्या मतलब है? इत्यादि।
इसमें एक और महत्वपूर्ण बात ये था कि भारतीय संघ का क्षेत्र वही है जो अनुसूची 1 में लिखा है। कुल मिलाकर इस अनुच्छेद में कोई समस्या नहीं है।
अनुच्छेद 2 के तहत हमने समझा कि भारत इस अनुच्छेद की मदद से जो क्षेत्र भारतीय संघ में शामिल नहीं है उसे भी भारतीय संघ में शामिल कर सकती है।
यहाँ पर समझने वाली बात ये है कि इस अनुच्छेद में ये तो लिखा हुआ है कि भारत अपने संघ क्षेत्र के बाहर के क्षेत्र को अधिगृहीत कर सकता है लेकिन ये कहीं नहीं लिखा हुआ है कि भारत अपने क्षेत्र को किसी और देश को दे सकता है कि नहीं!।
अनुच्छेद 3 के तहत हमने समझा कि भारतीय संघ का जो क्षेत्र है संसद चाहे तो उसका पुनर्निर्धारण कर सकती है। इसके तहत कुल 5 प्रावधान है –
पहला – संसद, राज्य में से उसके कुछ भाग को अलग करके, या फिर दो या दो से अधिक राज्यों को मिलाकर या फिर उसके कुछ भाग को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकता है।
दूसरा – संसद किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकती है।
तीसरा – संसद किसी राज्य के क्षेत्र को घटा सकती है।
चौथा – संसद किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकता है।
पांचवा – संसद किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकती है।
कुल मिलाकर ये पूरी तरह से भारत के बारे में है और यहाँ भी ये नहीं लिखा हुआ है कि भारत अपने क्षेत्र को किसी और देश को दे सकता है कि नहीं। लेकिन इसका तीसरा प्रावधान ये जरूर कहता है संसद राज्य के किसी क्षेत्र को घटा सकती है। लेकिन क्या इस घटाने का मतलब ये है कि अपने क्षेत्र को किसी और देश को देकर अपना क्षेत्र घटाना? इसे आगे समझते हैं।
और अनुच्छेद 4 के तहत हमने समझा कि अनुच्छेद 2 और अनुच्छेद 3 के तहत जितने भी संशोधन किए जाएँगे वे सब अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन नहीं माना जाएगा। यानी कि संसद की सामान्य प्रक्रिया और सामान्य बहुमत से अनुच्छेद 2 और 3 के तहत पुनर्निर्धारण किया जा सकता है।
यहाँ चारों अनुच्छेदों को समझने के बाद आप एक चीज़ गौर करेंगे कि अनुच्छेद 3 का तीसरा प्रावधान ही है जो थोड़ा कन्फ्युजिंग है। इस पॉइंट को याद रखिए क्योंकि इसी पर ज्यादा बात की गई है।
| बेरुबाड़ी मामला घटनाक्रम (Berubari case developments)

दरअसल हुआ ये कि भारत और पाकिस्तान का दो अलग-अलग देश बन जाने के कारण बाउंड्री निर्धारण की समस्या आयी। इसी समस्या को सुलझाने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन ने इस काम को सर रेड्क्लिफ को सौंप दिया।
कहा जाता है कि सर रेड्क्लिफ को भारत की बिल्कुल भी समझ नहीं थी जो मन में आया उसने नक्शे पर लाइन खींच दी। बहुत जगह उसने पुलिस थाना को आधार बनाकर बाउंड्री का निर्धारण किया।
खैर जो भी हुआ रेड्क्लिफ महोदय तो लाइन खींच कर चले गए लेकिन एक विवाद को छोड़कर चले गए। आपको पता होगा कि उस समय बांग्लादेश भी पाकिस्तान का हिस्सा था जिसे कि पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था।
मामला ये था कि भारत के पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले के दक्षिणी भाग में एक जगह था जिसका नाम था बेरुबाड़ी। ये पूर्वी पाकिस्तान से सटा हुआ था। इस जगह को रेड्क्लिफ महोदय ने दिया तो इंडिया को था पर वे लिखकर देना भूल गए।
इसी का फ़ायदा उठाकर पाकिस्तान ने पहली बार 1952 में बेरुबाड़ी संघ का मुद्दा उठाया। चूंकि बेरुबारी एक मुस्लिम बहुल इलाका था तो पाकिस्तान ने कहा कि ये क्षेत्र मेरा है लेकिन गलती से भारत इस पर रूल कर रहा है। ये विवाद तब तक चलता रहा जब तक कि नेहरू – नून समझौता नहीं हो गया। ये बात है सितंबर 1958 की।
दरअसल उस समय के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोज़शाह नून और भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक समझौता किया। इस समझौते के तहत बेरुबाड़ी क्षेत्र को दो भागों में बाँट कर आधा पाकिस्तान को और आधा हिंदुस्तान को देने की बात कही गई।
पश्चिम बंगाल की सरकार बिल्कुल इससे खुश नहीं था और वहाँ की जनता भी इसको लेकर अपनी नाराजगी जाहिर कर रही थी क्योंकि उन लोगों ने जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री चुना था और अब वही उसे देश से अलग कर रहा था।
इस मामले को लेकर सरकार की बहुत आलोचनाएँ होने लगी। सब के मन में यही सवाल था कि भारत अपने हिस्से के क्षेत्र को दूसरे देश को कैसे दे सकता है?
दिलचस्प बात ये है कि इस समझौते को इम्प्लीमेंट करने के समय सरकार भी सोच में पड़ गया कि इसे अनुच्छेद 3 के तीसरे प्रावधान के तहत क्रियान्वित किया जाएगा या अनुच्छेद 368 के तहत।
उस समय देश के राष्ट्रपति थे डॉ. राजेंद्र प्रसाद, चूंकि वे संविधान सभा के अध्यक्ष भी रह चुके थे और संविधान उनके सामने ही बना था।
शायद उन्हे यह रियलाइज हुआ कि कुछ न कुछ तो कमी रह गई है, इसीलिए उन्होने मामले को सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिया। दरअसल राष्ट्रपति के पास अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से परामर्श लेने का अधिकार होता है, तो उन्होने इसी अधिकार का इस्तेमाल किया।
इसके तहत मुख्य रूप से दो चीजों पर परामर्श मांगा गया – (1) क्या बेरुबाड़ी यूनियन से संबंधित समझौते के कार्यान्वयन के लिए कोई विधायी कार्रवाई आवश्यक है? (2) अगर करना आवश्यक है तो क्या यह अनुच्छेद 3 के तहत किया जाना उचित रहेगा या अनुच्छेद 368 की मदद से संविधान में संशोधन करके।
यहाँ पर कुछ कानूनी पेंच भी फंसा था क्योंकि 7वीं अनुसूची के संघ सूची के एंट्री नंबर 14 के अनुसार भारत किसी अन्य देश के साथ संधि या समझौते कर सकता है और उस समझौते को देश में लागू भी कर सकता है। और इसे सपोर्ट करता है अनुच्छेद 253 जिसके अनुसार विदेशी देशों के साथ संधियों और समझौतों क्रियान्वित करने के लिए कानून भी बना सकता है।
वहीं कुछ और प्रावधानों की बात करें तो अनुच्छेद 245 (1) के अनुसार संसद को भारत के क्षेत्र के पूरे या किसी भी हिस्से के लिए कानून बनाने का अधिकार है।
अनुच्छेद 248 बताता है कि संसद के पास समवर्ती सूची, राज्य सूची और केंद्र सूची में शामिल नहीं होने वाले विषयों पर भी कानून बनाने की शक्ति है।
इस तरह से देखें तो भारत को उस समझौते को लागू करने में कोई अड़चन नहीं है। लेकिन फिर से एक कानूनी समस्या आ खरी हुई और वो था प्रस्तावना।
दरअसल प्रस्तावना में एक शब्द लिखा है लोकतांत्रिक गणराज्य। जाहिर है लोकतंत्र में सरकार को शक्ति जनता से मिलती है। पर क्या उससे मिली शक्ति का उपयोग करके उस जनता को ही दूसरे देश को सौंपा जा सकता है जिसने सरकार बनाया है?
दूसरी बात ये कि प्रस्तावना में एक और शब्द है संप्रभुता; जिसका मतलब है भारत अपने दम पर खड़ा एक देश है और कोई अन्य देश इसे कुछ ऐसा करने के लिए नहीं कह सकता है जिससे भारत की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचे।
इसका दूसरा मतलब ये भी है कि अगर भारत को अपने अंदरूनी मामले में कोई कुछ कह नहीं सकता है तो क्या अपने इस संप्रभुता का इस्तेमाल करके भारत अपने क्षेत्र को किसी और को दे नहीं सकता है?
तो कुल मिलाकर सवाल यही था कि क्या प्रस्तावना सरकार को ये शक्ति देती है जिससे वह उस समझौते को लागू कर सके।
| बेरुबाड़ी मामला पर सुप्रीम कोर्ट का परामर्श (Supreme Court’s consultation on Berubari case)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और ये सरकार को किसी भी प्रकार की कोई शक्ति नहीं देती।
दूसरी बात सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि अनुच्छेद 3 के आधार पर भारत के हिस्से को किसी और को नहीं सौंपा जा सकता, क्योंकि ये देश के अंदर ही सीमा को पुनर्निर्धारण करने की शक्ति देता है, अपनी जमीन को किसी दूसरे देश को देने के लिए नहीं।
तीसरी बात सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि अगर आपको उस समझौते को लागू करना ही है तो अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करके कर लीजिये।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यही किया। उन्होने 1960 में संविधान में 9वां संशोधन किया और समझौते के अनुरूप अनुसूची 1 में परिवर्तन कर दिया गया। इस तरह ये समझौता पूरा हुआ।
कुल मिलाकर यही है बेरुबाड़ी मामला (Berubari Case)। यहाँ जो सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं इसे बाद में चलकर न्यायालय द्वारा दुरुस्त किया गया।
इसी से संबन्धित एक और मामला है 2015 का, जिसमें भारत सरकार ने 100वां संविधान संशोधन अधिनियम करके भारत के कुछ भूभाग को बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिया और भारत ने बांग्लादेश के कुछ भूभाग को अधिगृहीत किया।
ये भारत और बांग्लादेश के बीच एक समझौते के तहत हुआ था जिसमें भारत ने 111 विदेशी अंतःक्षेत्रों को बांग्लादेश को हस्तांतरित कर दिया जबकि बांग्लादेश ने 51 अंतःक्षेत्रों को भारत को हस्तांतरित किया। तो ये करने के लिए भारत सरकार को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करना पड़ा।
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