भारत गाँवों का देश है और पंचायती राज व्यवस्था गाँवों को चलाने का एक व्यवस्थित और प्रामाणिक स्थानीय स्व-शासन व्यवस्था है,

इस लेख में हम पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे और इसके सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को समझेंगे; इसीलिए लेख को अंत तक जरूर पढ़ें, संक्षिप्त में आपको पंचायती राज व्यवस्था से संबंधित बहुत कुछ जानने को मिलेगा।

पंचायती राज व्यवस्था
📌 Join YouTube📌 Join FB Group
📌 Join Telegram📌 Like FB Page
📖 Read in English📥 PDF

विषय सूची

पंचायती राज व्यवस्था की पृष्ठभूमि

भारत में पंचायत या ग्राम कोई नई अवधारणा या कोई नई व्यवस्था नहीं है बल्कि इसके प्रमाण वैदिक युग से मिलने शुरू हो जाते हैं। जहां कई वैदिक ग्रन्थों में पंचायतन शब्द का उल्लेख मिलता है।

हालांकि उस समय ये पाँच आध्यात्मिक लोगों का समूह हुआ करता था। फिर महाभारत और रामायण जैसे धर्मग्रंथों की बात करें तो वहाँ भी ग्राम या जनपद के साक्ष्य मिलते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में ग्राम पंचायतों का उल्लेख मिलता है।

सल्तनत काल के दौरान भी दिल्ली के सुल्तानों ने अपने राज्य को प्रान्तों में विभाजित किया था। जिसे कि वे विलायत कहते थे। फिर ब्रिटिश काल की बात करें तो शुरुआती दौर में तो ग्राम पंचायतों को कमजोर करने की कोशिश की गई लेकिन 1870 के मेयो प्रस्ताव ने स्थानीय संस्थाओं को मजबूत करने की कोशिश की।

इसी को आगे बढ़ाते हुए 1882 में लॉर्ड रिपन ने इन स्थानीय संस्थाओं को जरूरी लोकतांत्रिक ढांचा प्रदान किया। इसीलिए लाॅर्ड रिपन भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है।

इसके बाद उतरोत्तर क्षेत्रीयता को बढ़ावा ही मिला और बहुत सारी शक्तियों को प्रान्तों में स्थानांतरित किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात अनुच्छेद 40 में DPSP के तहत पंचायतों का उल्लेख भी किया गया। पर ये एक अनौपचारिक व्यवस्था ही बना रहा। इसे कभी भी संवैधानिक सपोर्ट देने की कोशिश नहीं की गई।

भारत के स्वतंत्र होने के लगभग 45 साल बाद पंचायती राज व्यवस्था को ”73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992” के माध्यम से एक संवैधानिक दर्जा दिया गया। हम भारत में पंचायती राज के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को पहले ही समझ चुके हैं।

इस लेख में हम पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद की स्थिति, महत्वपूर्ण प्रावधानों, लाभों और कुछ त्रुटियों आदि की चर्चा करेंगे।

पंचायती राज व्यवस्था का विकास

भारत में पंचायती राज शब्द का अभिप्राय ग्रामीण स्थानीय स्वशासन पद्धति से है। यह भारत के सभी राज्यों में, जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के निर्माण हेतु राज्य विधानसभाओं द्वारा स्थापित किया गया है।

सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दिशा में ये सबसे महत्वपूर्ण कदम है। इस व्यवस्था ने ग्रामीण विकास की दिशा और दशा बदल के रख दी। पर स्वतंत्र भारत में इसकी शुरुआत कुछ अच्छी नहीं रही ढेरों समितियां बनायी गई, हजारों सिफ़ारिशें की गई। जैसे कि

बलवंत राय मेहता समिति

इसने नवम्बर 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना की सिफ़ारिश की। इसकी जो सबसे महत्वपूर्ण सिफ़ारिशें है, वो हैं

(1) तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना – यानी कि गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद

(2) ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा होना चाहिए, जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए, आदि।

समिति की इन सिफ़ारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा जनवरी, 1958 में स्वीकार किया गया। लेकिन परिषद ने कोई एक निश्चित फ़ारमैट तैयार नहीं किया और इसे राज्यों पर छोड़ दिया कि वे जिस तरह से इसे चाहे लागू करें। इससे हुआ ये कि पंचायती राज व्यवस्था में कोई एकरूपता नहीं आ पायी।

अशोक मेहता समिति

दिसम्बर 1977 में, जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं पर एक समिति का गठन किया। इसने अगस्त 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंपी। इनकी मुख्य सिफ़ारिशें कुछ इस प्रकार थी

(1) त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में बदलना चाहिए। जिला स्तर पर जिला परिषद, और उससे नीचे मण्डल पंचायत (जिसमें 15 हज़ार से 20 हज़ार जनसंख्या वाले गाँव के समूह होने चाहिए)

(2) नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला को माना और अपने आर्थिक स्रोतों के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पास कर लगाने की अनिवार्य शक्ति की बात की,

(3) पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए। इससे उन्हे उपयुक्त हैसियत के साथ ही सतत सक्रियता का आश्वासन मिलेगा।

उस समय की जनता पार्टी सरकार के भंग होने के कारण, केन्द्रीय स्तर पर अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशें नजरंदाज कर दी गई। फिर भी तीन राज्य कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश ने अशोक मेहता समिति की सिफ़ारिशों को ध्यान में रखकर पंचायती राज संस्थाओं के पुनरुद्धार के लिए कुछ कदम उठाए।

जी.वी.के. राव समिति

ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा करने के लिए योजना आयोग द्वारा 1985 में जी. वी. के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।

इन्होने भी अपनी सिफ़ारिश में नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला को माना और जिला परिषद को विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए मुख्य निकाय बनाए जाने की सिफ़ारिश की।

एल.एम. सिंघवी समिति

1986 में राजीव गांधी सरकार ने लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनरुद्धार पर एक अवधारणा पत्र तैयार करने के लिए एक समिति का गठन एल. एम. सिंघवी की अध्यक्षता में किया।

इन्होने सबसे मुख्य बात पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने की करी एवं इसने पंचायती राज विकास के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करने के संवैधानिक उपबंध बनाने की सलाह भी दी।

थुंगन समिति

1988 में, संसद की सलाहकार समिति की एक उप समिति पी. के. थुंगन की अध्यक्षता में राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच करने के उद्देश्य से गठित की गई। इन्होने भी पंचायती राज्य संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता की बात कही। साथ ही गाँव, प्रखंड तथा जिला स्तरों पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज को उपयुक्त बताया आदि।

गाडगिल समिति

1988 में वी. एन. गाडगिल की अध्यक्षता में एक नीति एंव कार्यक्रम समिति का गठन काँग्रेस पार्टी ने किया था। इस समिति से इस प्रश्न पर विचार करने के लिए कहा गया कि पंचायती राज संस्थाओं (Panchayati Raj System) को प्रभावकारी कैसे बनाया जा सकता। इस समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में वहीं बातें दोहराई जैसे कि-

1. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।
2. गाँव, प्रखंड तथा जिला स्तर पर त्रि- स्तरीय पंचायती राज होना चाहिए।
3. पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पाँच वर्ष सुनिश्चित कर दिया जाए इत्यादि।

अंततः गाडगिल समिति की ये अनुशंसाएँ एक संशोधन विधेयक के निर्माण का आधार बनी। और पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System) को संवैधानिक दर्जा तथा सुरक्षा देने की कवायद शुरू हुई।

पंचायती राज व्यवस्था का संवैधानिकरण

राजीव गांधी ने अपने शासन काल में लोकसभा से इसे पारित करवा लिए पर राज्यसभा से पारित नहीं हो सका और इसके बाद जब वी.पी. सिंह की सरकार आई तो इन्होने भी इसे लाने की कोशिश की लेकिन इनकी सरकार ही गिर गई।

अंततः नरसिम्हा राव सरकार के प्रधानमंत्रित्व में काँग्रेस सरकार ने एक बार फिर पंचायती राज के संवैधानिकरण के मामले पर विचार किया। इसने पहले के विवादास्पद प्रावधानों को हटाकर नया प्रस्ताव रखा और सितंबर 1991 को लोकसभा में एक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। आखिरकार यह विधेयक 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के रूप में पारित हुआ और 24 अप्रैल 1993 को प्रभाव में आया।

73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992

इस अधिनियम ने भारत के संविधान में ‘पंचायतें’ नामक एक नया खंड 9 सम्मिलित किया। और अनुच्छेद 243 से 243(O) के प्रावधान सम्मिलित किए गए। इस अधिनियम ने संविधान में एक नई 11वीं अनुसूची भी जोड़ी। इस सूची में पंचायतों की 29 कार्यकारी विषय-वस्तु↗️ है जिसे कि अनुच्छेद 243 (G) के तहत पंचायतों की शक्तियाँ, प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व के रूप में शामिल किया गया है।

73वां संविधान संशोधन अधिनियम का महत्व

आखिरकार इस अधिनियम ने संविधान के 40वें अनुच्छेद (जो कि डीपीएसपी का एक हिस्सा है) को एक व्यावहारिक रूप दिया। इस अधिनियम ने पंचायती राज संस्थाओं को एक संवैधानिक दर्जा दिया जिसे अपनाने के लिए राज्य सरकारे संवैधानिक रूप से बाध्य है।

इस अधिनियम के उपबंधों को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है – अनिवार्य (mandatory) और स्वैच्छिक (optional)

अधिनियम के अनिवार्य हिस्से को पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System) के गठन के लिए राज्य के कानून में शामिल किया जाना आवश्यक है। दूसरे भाग के स्वैच्छिक उपबंधों को राज्यों के स्व-विवेकानुसार सम्मिलित किया जा सकता है।

1. अनिवार्य प्रावधान (Mandatory provision)

(1) एक गाँव या गाँव के समूह में ग्राम सभा का गठन
(2) गाँव स्तर पर, माध्यमिक स्तर एवं जिला स्तर पर पंचायतों की स्थापना
(3) माध्यमिक और जिला स्तर के प्रमुखों के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव
(4) पंचायतों में चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होनी चाहिए
(5) सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति एवं जनजतियों के लिए आरक्षण सभी स्तरों पर एक-तिहाई पद महिला के लिए आरक्षित
(6) पंचायतों के साथ ही मध्यवर्ती एवं जिला निकायों का कार्यकाल पाँच वर्ष होनी चाहिए
(7) पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव कराने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना
(9) पंचायतों की वित्तीय स्थिति का समीक्षा करने के लिए प्रत्येक पाँच वर्ष बाद एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना की जानी चाहिए।

2. स्वैच्छिक प्रावधान (Optional provision)

(1) विधानसभाओं एवं संसदीय निर्वाचन क्षेत्र विशेष के अंतर्गत आने वाली सभी पंचायती राज संस्थाओं में संसद और विधानमंडल के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना।

(2) पंचायत के किसी भी स्तर पर पिछड़े वर्ग के लिए स्थानों का आरक्षण
(3) पंचायतें स्थानीय सरकार के रूप में कार्य कर सकें, इस हेतु उन्हे अधिकार एवं शक्तियाँ देना

(4) पंचायतों को सामाजिक न्याय एवं आर्थिक निकाय के लिए योजनाएँ तैयार करने के लिए शक्तियों और दायित्वों का प्रत्यायन और संविधान की 11वीं अनुसूची के 29 प्रकार्यात्मक, में से सभी अथवा कुछ को सम्पन्न करना

(5) पंचायतों को वित्तीय अधिकार देना, अर्थात उन्हे उचित कर, पथकर और शुल्क आदि के आरोपण और संग्रहण के लिए प्राधिकृत करना। आदि।

73वां संविधान संशोधन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ

इस अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित है:

ग्राम सभा: अनुच्छेद 243(A) पंचायती राज के ग्राम सभा का प्रावधान करता है। यह पंचायत क्षेत्र में पंजीकृत मतदाताओं की एक ग्राम स्तरीय सभा है। यह उन शक्तियों का प्रयोग करेगी और ऐसे कार्य कर सकती है जो राज्य के विधानमंडल द्वारा निर्धारित किए गए है।

त्रिस्तरीय प्रणाली: अनुच्छेद 243(C) सभी राज्यों के लिए त्रिस्तरीय प्रणाली का प्रावधान करता है, अर्थात ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, माध्यमिक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद। अत: यह अधिनियम पूरे देश में पंचायत राज की संरचना में समरूपता लाता है। फिर भी, ऐसा राज्य जिसकी जनसंख्या 20 लाख से ऊपर न हो, को माध्यमिक स्तर पर पंचायतें की गठन न करने की छूट देता है।

सदस्यों एवं अध्यक्ष का चुनाव: अनुच्छेद 243(K) के तहत गाँव, माध्यमिक तथा जिला स्तर पर पंचायतों के सभी सदस्य लोगों द्वारा सीधे चुने जाएँगे। जबकि माध्यमिक स्तर पर प्रमुख का चुनाव पंचायत समिति अप्रत्यक्ष रूप से करेंगे, इसी प्रकार जिला स्तर पर जिला परिषद के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से जीते हुए जिला परिषद के सदस्य करते हैं। जबकि गाँव स्तर पर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव राज्य के विधानमंडल द्वारा निर्धारित तरीके से किया जाएगा।

सीटों का आरक्षण: अनुच्छेद 243(D) के तहत यह अधिनियम प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति एवं जनजाति को उनकी संख्या के कुल जनसख्या के अनुपात में सीटों पर आरक्षण उपलब्ध कराता है। राज्य विधानमंडल गाँव या अन्य स्तर पर पंचायतों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए अध्यक्ष के पद के लिए आरक्षण भी प्रदान करेगा।

इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई है की आरक्षण के मसले पर महिलाओं के लिए उपलब्ध कुल सीटों की संख्या एक तिहाई से कम न हो। इसके अतिरिक्त पंचायतों में अध्यक्ष व अन्य पदों के लिए हर स्तर पर महिलाओं के लिए आरक्षण एक तिहाई से कम नहीं होगा।

यह अधिनियम विधानमंडल को इसके लिए अधिकृत करता है की वह पंचायत अध्यक्ष के कार्यालय में पिछड़े वर्गों के लिए किसी भी स्तर पर आरक्षण की व्यवस्था करें।

पंचायतों का कार्यकाल: अनुच्छेद 243 (E) के तहत यह अधिनियम सभी स्तरों पर पंचायतों का कार्यकाल पाँच वर्ष के लिए निश्चित करता है। तथापि, समय पूरा होने से पूर्व भी उसे विघटित किया जा सकता है।

इसके बाद पंचायत गठन के लिए चुनाव होंगे 1 इसकी 5 वर्ष की अवधि खत्म होने से पूर्व या 2 विघटित होने की दशा में इसके विघटित होने की तिथि से 6 माह खत्म होने की अवधि के अंदर।

परंतु जहां शेष अवधि छह माह से कम है, वहाँ इस अवधि के लिए नई पंचायत का चुनाव आवश्यक नहीं होगा।

यहाँ यह ध्यान रखने की जरूरत है कि एक भंग पंचायत के स्थान पर गठित पंचायत जो भंग पंचायत की शेष अवधि के लिए गठित की गई है। वह भंग पंचायत की शेष अवधि तक ही कार्यरत रहेगी।

दूसरे शब्दों में, एक पंचायत जो समय-पूर्व भंग होने पर पुनर्गठित हुई है, वह पूरे पाँच वर्ष की निर्धारित अवधि तक कार्यरत नहीं होती, बल्कि केवल बचे हुए समय के लिए ही कार्यरत होती है।

अनर्हताएँ (Disqualifications): अनुच्छेद 243 (F) के तहत कोई भी व्यक्ति पंचायत का सदस्य नहीं बन पाएगा यदि वह निम्न प्रकार से अनर्ह होगा।

1. राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचित होने के उद्देश्य से संबन्धित राज्य मे उस समय प्रभावी कानून के अंतर्गत, अथवा 2. राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी अन्य कानून के अंतर्गत।

हालांकि किसी भी व्यक्ति को इस बात पर अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा कि वे 25 वर्ष से कम आयु का है, यदि वह 21 वर्ष की आयु पूरा कर चुका है तो वह योग्य माना जाएगा। अयोग्यता संबन्धित सभी प्रश्न, राज्य विधान द्वारा निर्धारित प्राधिकारी को संदर्भित किए जाएँगे।

राज्य निर्वाचन आयोग (State election commission): राज्य में निर्वाचन प्रक्रिया की निगरानी, मार्गदर्शन, नियंत्रण और मतदाता सूची तैयार करने के लिए एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की स्थापना की जाएगी। इसमें राज्यपाल द्वारा नियुक्त राज्य चुनाव आयुक्त सम्मिलित है।

उसकी सेवा, शर्तें और पदावधि भी राज्यपाल द्वारा निर्धारित की जाएंगी। इसे राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायधीश का हटाने के लिए निर्धारित तरीके के अलावा अन्य किसी तरीके से नहीं हटाया जायगा। उसकी नियुक्ति के बाद उसकी सेवा शर्तों मे ऐसा कोई परिवर्तन नहीं किया जायगा जिससे उसका नुकसान हो।

पंचायतों के चुनाव संबन्धित सभी मामलों पर राज्य विधानमंडल कोई भी उपबंध बना सकता है।

वित्त (Finance) के मामले में राज्य विधानमंडल – (1) पंचायत को उपयुक्त कर, चुंगी, शुल्क लगाने और उनके संग्रहण के लिए प्राधिकृत कर सकता है।
(2) राज्य सरकार द्वारा आरोपित (Charged) और संगृहीत टैक्स, चुंगी, मार्ग टैक्स और शुल्क पंचायतों को सौंप सकता है।
(3) राज्य की समेकित निधि से पंचायतों को अनुदान सहायता देने के लिए उपबंध कर सकता है। आदि।

वित्त आयोग (Finance Commission): अनुच्छेद 243 (I) के तहत राज्य का राज्यपाल प्रत्येक 5 वर्ष के पश्चात पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए वित्त आयोग का गठन करेगा। यह आयोग राज्यपाल की निम्न सिफ़ारिशें करेगा:

(1) राज्य सरकार द्वारा लगाए गए कुल टैक्सों, चुंगी, मार्ग कर एवं एकत्रित शुल्कों का राज्य और पंचायतों के मध्य बंटवारा कैसे हो,
(2) पंचायतों को सौंपे गए करो, चुंगी, मांगकर और शुल्कों का निर्धारण,
(3) राज्य की समेकित निधि कोष से पंचायतों को दी जाने वाली अनुदान सहायता,

इसके अलावा आयोग पंचायतों को वित्तीय स्थिति के सुधार के लिए आवश्यक उपाय भी सुझाता है, और राज्यपाल द्वारा आयोग को सौंपे गए अन्य कामों को भी करता है।

वित्त आयोग की बनावट, इसके सदस्यों को आवश्यक अर्हता तथा उनके चुनने के तरीके को राज्य विधानमंडल निर्धारित कर सकता है।

केन्द्रीय वित्त आयोग (Central Finance Commission) भी राज्य में पंचायतों के पूरक स्रोतों में वृद्धि के लिए राज्य को समेकित विधि आवश्यक उपायों के बारे में सलाह देगा। (राज्य वित्त आयोग द्वारा दी गई सिफ़ारिशों के आधार पर)

लेखा परीक्षण: अनुच्छेद 243 (J) के तहत राज्य विधानमण्डल पंचायतों के खातों की देखरेख और उनके परीक्षण के लिए प्रावधान बना सकता है। चाहे तो विधानमंडल इसके लिए एक अलग लेखा परीक्षक संगठन बना सकता है या फिर उस राज्य के महालेखाकारों को ये काम सौंपा जा सकता है।

नोट – RTI Act 2005 के ताहट कोई भी व्यक्ति पंचायत के किसी भी वित्तीय लेन-देन से संबन्धित सूचना मांग सकता है।

संघ राज्य क्षेत्रों पर लागू होना: अनुच्छेद 243 (L) के तहत भारत का राष्ट्रपति किसी भी संघ राज्यक्षेत्र में इस भाग के उपबंध को अपवादों अथवा संशोधनों के साथ लागू करने के लिए निर्देश दे सकता है।

छूट प्राप्त राज्य व क्षेत्र: यह कानून नागालैंड, मेघालय, मिज़ोरम और कुछ अन्य विशेष क्षेत्रों पर लागू नहीं होगा। इन क्षेत्रों के अंतर्गत (1) उन राज्यों के अनुसूचित आदिवासी क्षेत्रों में (2) मणिपुर के उन पहाड़ी क्षेत्रों में जहां जिला परिषद अस्तित्व में हो (3) पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग जिला जहां पर ‘दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद’ अस्तित्व में है। हालांकि संसद चाहे तो इस अधिनियम को ऐसे अपवादों और संशोधनों के साथ अनुसूचित क्षेत्रों एवं जनजाति क्षेत्रों में लागू कर सकती है, जो वह उचित समझें।

चुनावी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप पर रोकयह अधिनियम पंचायत के चुनावी मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप पर रोक लगाता है। इसमें कहा गया है कि निर्वाचन क्षेत्र और इन निर्वाचन क्षेत्र में सीटों के आवंटन संबंधी मुद्दों को न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया जा सकता। इसमें यह भी कहा गया है कि किसी भी पंचायात के चुनावों को राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित प्राधिकारी अथवा तरीके के अलावा चुनौती नहीं दी जाएगी।

पंचायतों की शक्तियाँ एवं जिम्मेदारियाँ

संविधान की 11वीं अनुसूची में 29 विषयों का उल्लेख तो किया गया है परंतु संविधान में यह स्पष्ट नहीं है कि पंचायतों को इनमें से कौन से कार्य और जिम्मेदारियाँ सौंपना अनिवार्य है। इन बातों के निर्धारण का काम, राज्यों के विधानमंडल को सौंप दिया गया है।

तो कुल मिलाकर राज्य विधानमंडल पंचायतों को आवश्यकतानुसार ऐसी शक्तियाँ और अधिकार दे सकता है, जिससे कि वह स्व-शासन संस्थाओं के रूप में कार्य करने में सक्षम हो। जैसे की, राज्य विधानमंडल –

(1) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को तैयार करने और उसे क्रियान्वित करने से सबन्धित शक्ति पंचायतों को दे सकता है, या

(2) 11वीं अनुसूची के 29 मामलों से भी किसी प्रावधान के तहत शक्तियाँ दे सकती है।

संविधान का निर्देश है पंचायतों को ऐसी शक्तियों एवं प्राधिकारों से सम्पन्न होना चाहिए जो स्व-शासन को सुदृढ़ और सक्षम बनाए, जैसे कि उसे कुछ ऐसे भी कार्य दिये जायें जिसको पूरा करने की पूरी ज़िम्मेदारी उसी पर हो।

पंचायती राज के वित्तीय स्रोत

साधारणतः हमारे देश में पंचायतें निम्नलिखित तरीकों में राजस्व एकत्र करती है:

(1) संविधान की धारा 280 के आधार पर केंद्रीय वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार केंद्र सरकार से प्राप्त अनुदान।

(2) संविधान धारा 243 (I) के अनुसार राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

(3) राज्य सरकार से प्राप्त कर्ज अनुदान

(4) केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं तथा अतिरिक्त केंद्रीय मदद के नाम पर कार्यक्रम केन्द्रित आवंटन

(5) आंतरिक (स्थानीय स्तर) पर संसाधन निर्माण

? तो अब तक हमने पंचायती राज व्यवस्था के विशेषताओं, प्रावधानो आदि को समझा। आज ये व्यवस्था फल-फूल रहा है पर साथ ही ये कई समस्याओं और चुनौतियों से भी जूझ रहा है। वो क्या है आइये उसे देखते हैं –

पंचायती राज व्यवस्था की समस्या

ऐसा नहीं है कि सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था समस्याओं से जूझ रहा है। केरल, कर्नाटक एवं तमिलनाडु जैसे राज्यों में पंचायतों की स्थिति देशभर में सबसे अच्छी मानी जाती है। लेकिन ज़्यादातर राज्यों की बात करें तो वहाँ पंचायतों के सशक्तिकरण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।

इसके कारण है (1) पंचायतों के अपने संसाधन अत्यल्प है तथा वे आंतरिक संसाधन जुटाने में कमजोर है।

(2) पंचायतें अनुदान के लिए केंद्र तथा राज्य सरकारों पर अत्यधिक निर्भर है, उसका भी ज्यादा भाग किसी न किसी योजना केन्द्रित होता है इसीलिए व्यय करने के लिए ज्यादा कुछ बचता है नहीं,

(3) 11वीं अनुसूची के ज़्यादातर विषयों जैसे कि प्राथमिक शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, जलापूर्ति, स्वच्छता तथा लघु सिंचाई आदि से संबन्धित योजनाओं को ज़्यादातर केंद्र सरकार या राज्य सरकार ही संभालती है, तो कुल मिलाकर स्थिति यह है की पंचायतों के पास ज़िम्मेदारी बहुत है पर संसाधन बेहद कम।

पंचायती राज व्यवस्था के सामने चुनौतियाँ

73वें संविधान संशोधन के जरिये संवैधानिक स्थिति तथा सुरक्षा प्रदान करने के बावजूद पंचायती राज संस्थाओं का काम संतोषजनक और आशानुकूल नहीं रहा। इसकी निम्नलिखित वजहें है –

पर्याप्त वित्त हस्तांतरण का अभाव : कुछ राज्यों को छोड़ दे तो अधिकतर राज्य वित्त आयोग द्वारा सुझाए गए फ़ंड पंचायती राज व्यवस्था को उपलब्ध नहीं करवा पाते हैं। पंचायत समिति जैसे पद के लिए तो मुश्किल से अपने पूरे कार्यकाल के दौरान एक-दो अच्छे काम करने को मिलते है।

सरकारी निधि पर अत्यधिक निर्भरता : पंचायतें आमतौर पर सरकारी निधि व्यवस्था पर निर्भर होती है। क्योंकि पंचायतों को खुद आय प्राप्त करने के लिए बहुत ही कम विकल्प दिये जाते है, या फिर दिये ही नहीं जाते हैं।

वैसे संविधान ने पंचायतों को कुछ मामलों में कर लगाने की शक्ति दी है पर बहुत कम ही पंचायतें कर लगाने तथा वसूलने के अपने वित्तीय अधिकारों का प्रयोग करती हैं। क्योंकि अक्सर जिन लोगों के बीच रहते हैं उनसे कर वसूलना मुश्किल होता है।

ग्राम सभा की स्थिति : संविधान में ग्राम सभा की भूमिका को प्रमुखता से बताया गया है पर कई राज्यों ने ग्राम सभाओं के अधिकारों को स्पष्ट ही नहीं किया हैं। स्थिति तो ये है कि कई ग्राम पंचायतों को तो ये भी पता नहीं है कि ग्राम सभा नाम की भी कोई चीज़ होती है।

कमजोर संरचना: देश केअनेकों ग्राम पंचायतों में पूर्णकालिक सचिव नहीं होते। उससे भी बड़ी बात की लगभग 25% ग्राम पंचायतों के पास अपने कार्यालय भवन या पंचायत भवन तक नहीं होते। इसके अलावा इसके पास तथ्यों, आंकड़ों आदि को सहेज कर रखने की व्यवस्था नहीं होती।

भ्रष्टाचार और नौकरशाही की अनावश्यक हस्तक्षेप: ब्लॉक या पंचायतों के स्तर पर आमतौर पर भ्रष्टाचार संबंधी कोई ऑडिट नहीं होती इसीलिए यहाँ भ्रष्टाचार अपने उच्च स्तर पर होता है, इसके अलावा अधिकारी किसी योजना को तभी स्वीकृति देते हैं जब उसे कुछ कमीशन मिलता है।

अधिकांश पंचायती राज संस्थाओं के अधिकतर सदस्य अर्द्ध-शिक्षित होते है और उचित प्रशिक्षण के अभाव में ये अपनी भूमिका, जिम्मेदारी, कार्यप्रणाली तथा व्यवस्था के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं।

पंचायती राज व्यवस्था प्रैक्टिस क्विज


/10
0 votes, 0 avg
11

Chapter Wise Polity Quiz

पंचायती राज : स्वतंत्रता के बाद अभ्यास प्रश्न

  1. Number of Questions - 10 
  2. Passing Marks - 80 %
  3. Time - 8 Minutes
  4. एक से अधिक विकल्प सही हो सकते हैं।

1 / 10

पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए वित्त आयोग के गठन की बात किस अनुच्छेद का हिस्सा है?

2 / 10

दिए गए कथनों में से कौन सा कथन सही है?

  1. ग्राम सभा की व्यवस्था अनुच्छेद 243 (D) में की गई है।
  2. महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों पर आरक्षण की व्यवस्था अनुच्छेद 243(A) में किया गया है।
  3. पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्षों का होगा ये अनुच्छेद 243 (I) में लिखा हुआ है।
  4. अनुच्छेद 243 (F) के तहत कोई भी व्यक्ति पंचायत का सदस्य नहीं बन पाएगा यदि उसकी उम्र 21 वर्ष से कम है।

3 / 10

पंचायती राज व्यवस्था त्रि-स्तरीय व्यवस्था होगी, यह किस अनुच्छेद में लिखा हुआ है?

4 / 10

संविधान की 11वीं अनुसूची में 29 विषयों का उल्लेख किया गया है परंतु संविधान में यह स्पष्ट नहीं है कि पंचायतों को इनमें से कौन से कार्य और जिम्मेदारियाँ सौंपना अनिवार्य है। इन बातों के निर्धारण का काम, राज्यों के विधानमंडल को सौंप दिया गया है।

5 / 10

73वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुसार इनमें से कौन सा अनिवार्य प्रावधान है?

  1. त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था
  2. पंचायतों में चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष होनी चाहिए
  3. पंचायती राज संस्थाओं में चुनाव कराने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग की स्थापना
  4. सभी स्तरों पर एक-तिहाई पद महिला के लिए आरक्षित

6 / 10

73वां संविधान संशोधन अधिनियम के बारे में इनमें से कौन सा कथन सही है?

  1. इस अधिनियम ने भारत के संविधान में ‘पंचायतें’ नामक एक नया खंड 10 सम्मिलित किया।
  2. इस अधिनियम ने संविधान में एक नई 12वीं अनुसूची भी जोड़ी।
  3. 11वीं अनुसूची में में पंचायतों की 29 कार्यकारी विषय-वस्तु है.
  4. इसके तहत बनाए गए अनिवार्य प्रावधान को राज्यों द्वारा बनाए गए पंचायती कानून में शामिल करना जरूरी है।

7 / 10

किस संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक मान्यता दी गई?

8 / 10

पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए वित्त आयोग के गठन की बात किस अनुच्छेद का हिस्सा है?

9 / 10

अनुच्छेद 243 (J) के तहत राज्य विधानमण्डल पंचायतों के खातों की देखरेख और उनके परीक्षण के लिए प्रावधान बना सकता है। चाहे तो विधानमंडल इसके लिए एक अलग लेखा परीक्षक संगठन बना सकता है या फिर उस राज्य के महालेखाकारों को ये काम सौंपा जा सकता है।

10 / 10

संविधान की धारा 280 के आधार पर केंद्रीय वित्त आयोग की अनुशंसाओं के अनुसार केंद्र सरकार से प्राप्त अनुदान, पंचायती राज के वित्तीय स्रोत हैं;

Your score is

0%

आप इस क्विज को कितने स्टार देना चाहेंगे;


ये रहा पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System), उम्मीद है समझ में आया होगा। इस लेख से संबन्धित एक और महत्वपूर्ण लेख है, उसे भी जरूर पढे, लिंक नीचे दिया जा रहा है।

⚫ Other Important Articles ⚫

English ArticlesHindi Articles
History of Panchayati Raj
Municipality: Urban Local Self-Government
Types of Urban Local Self-Government
PESA Act: Brief Discussion
पंचायती राज का इतिहास
नगरपालिका : शहरी स्थानीय स्व-शासन
शहरी स्थानीय स्व-शासन के प्रकार
पेसा अधिनियम: संक्षिप्त परिचर्चा
Rules and regulations for hoisting the flag
Do you consider yourself educated?
Reservation in India [1/4]
Constitutional basis of reservation [2/4]
Evolution of Reservation [3/4]
Roster–The Maths Behind Reservation [4/4]
Creamy Layer: Background, Theory, Facts…
झंडे फहराने के सारे नियम-कानून
क्या आप खुद को शिक्षित मानते है?
भारत में आरक्षण [1/4]
आरक्षण का संवैधानिक आधार [2/4]
आरक्षण का विकास क्रम [3/4]
रोस्टर – आरक्षण के पीछे का गणित [4/4]
क्रीमी लेयर : पृष्ठभूमि, सिद्धांत, तथ्य…

भारत की राजव्यवस्था
मूल संविधान
पंचायत प्रशिक्षण पुस्तिका बिहार,
https://www.panchayat.gov.in/web/guest/home
पंचायती राज उत्तरप्रदेश