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इस लेख में हम वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency) और तीनों ही आपातकाल की आलोचनाएँ क्या-क्या हैं, उन पर चर्चा करेंगे।

वित्तीय आपातकाल और आपातकाल की आलोचना
जैसा कि हम जानते हैं भारत में तीन प्रकार के आपातकाल की व्यवस्था है। जिसमें से हमने ↗️राष्ट्रीय आपातकाल और ↗️राष्ट्रपति शासन पर चर्चा कर चुके हैं।
अब बचा है वित्तीय आपातकाल, जिसकी चर्चा तो हम इस लेख में करेंगे ही साथ ही साथ तीनों आपातकालों की किस कदर आलोचना हुई है है उसपर भी चर्चा करेंगे।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 360 में वित्तीय आपातकाल की चर्चा की गयी है। चूंकि ये आज तक कभी लगा ही नहीं है, इसीलिए इससे कोई विवाद नहीं जुड़ा हुआ है।
बांकी दो आपातकालों को कम से कम इतना बार लगाया गया कि व्यावहारिक तौर पर उसे कैसा होना चाहिए वो स्पष्ट हो गया है।
लेकिन वित्तीय आपातकाल लगाया ही नहीं गया है, इसीलिए अभी इसके सैद्धांतिक पहलू ही हमारे सामने है। जिस पर की हम चर्चा करने जा रहे हैं।
वित्तीय आपातकाल के उद्घोषणा का आधार
(Basis of declaration of financial emergency)
अनुच्छेद 360 राष्ट्रपति को वित्तीय आपात कि घोषणा करने की शक्ति प्रदान करता है, यदि वह संतुष्ट हो कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है, जिसमें भारत अथवा उसके किसी क्षेत्र की वित्तीय स्थिति अथवा साख खतरे में है।
38वें संविधान संशोधन अधिनियम 1975 के बारे में हम जानते ही है, इसकी चर्चा हमने पिछले दोनों आपातकालों में देखा है कि किस प्रकार आपातकाल को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया था।
वित्तीय आपातकाल के बारे में भी कुछ ऐसा ही था। इसके बारे में इसमें साफ कहा गया कि राष्ट्रपति की वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने की संतुष्टि अंतिम और निर्णायक है तथा किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर प्रश्नयोग्य नहीं है।
परंतु जैसा कि हम जानते हैं 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 में इस प्रावधान को समाप्त कर यह कहा गया कि राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है।
संसदीय अनुमोदन एवं समायावधि
(Parliamentary approval and time period)
वित्तीय आपातकाल की घोषणा को, घोषित तिथि के दो माह के भीतर संसद की स्वीकृति मिलना अनिवार्य है।
यदि वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने के दौरान यदि लोकसभा विघटित हो जाये अथवा दो माह के भीतर इसे मंजूर करने से पूर्व लोकसभा विघटित हो जाये तो यह घोषणा
लोकसभा के पुनर्गठन के प्रथम बैठक के बाद तीस दिनों तक प्रभावी रहेगी, परंतु इस अवधि में इसे राज्यसभा की मंजूरी मिलना आवश्यक है। क्योंकि राज्यसभा विघटित नहीं होता है।
एक बार यदि संसद के दोनों सदनों से इसे मंजूरी प्राप्त हो जाये तो वित्तीय आपात अनिश्चितकाल के लिए तब तक प्रभावी रहेगा जब तक इसे वापस न लिया जाये। ऐसा इसलिए है क्योंकि
1. ✅ इसकी अधिकतम समय सीमा निर्धारित नहीं की गही है। और
2. ✅ इसे जारी रखने के लिए संसद की पुनः मंजूरी आवश्यक नहीं है।
वित्तीय आपातकाल की घोषणा को मंजूरी देने वाला प्रस्ताव, संसद के किसी भी सदन द्वारा सामान्य बहुमत द्वारा पारित किया जा सकता है अर्थात सदन में उपस्थित एवं मतदान का बहुमत।
वित्तीय आपातकाल को खत्म करना भी काफी आसान है। राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय एक अनुवर्ती घोषणा द्वारा वित्तीय आपात की घोषणा वापस ली जा सकती है। ऐसी घोषणा को किसी संसदीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।
वित्तीय आपातकाल के प्रभाव
(Effects of financial emergency)
वित्तीय आपातकाल की निम्नलिखित प्रभाव या घटनाएँ हो सकती हैं।
1. ✅ केंद्र की आधिकारिक कार्यकारिणी का विस्ता, जहां केंद्र किसी राज्य को वित्तीय औचित्य संबंधी सिद्धांतों के पालन का निर्देश दे सकता है।
राष्ट्रपति यदि चाहे तो किसी उद्देश्य के लिए पर्याप्त और आवश्यक निर्देश दे सकता है।
2. ✅ इस तरह के किसी भी निर्देश में इन प्रावधानों का उल्लेख हो सकता है, जैसे कि – राज्य की सेवा में किसी भी अथवा सभी वर्गों के सेवकों की वेतन एवं भत्तों में कटौती,
और राज्य विधायिका द्वारा पारित एवं राष्ट्रपति के विचार हेतु लाये गए सभी धन विधेयकों अथवा अन्य वित्तीय विधेयकों को आरक्षित रखना, इत्यादि।
3. ✅ राष्ट्रपति वेतन एवं भत्तों में कटौती हेतु निर्देश जारी कर सकता है – (1). केंद्र की सेवा में लगे सभी अथवा किसी भी श्रेणी के व्यक्तियों को और (2). उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की।
अत: वित्तीय आपातकाल की अवधि में राज्य के सभी वित्तीय मामलों में केंद्र का नियंत्रण हो जाता है। संविधान सभा के एक सदस्य एच एन कुंजुरु ने कहा कि वित्तीय आपातकाल राज्य की वित्तीय संप्रभुता के लिए एक गंभीर खतरा हैं।
आपातकालीन प्रावधानों की आलोचना
(Criticism of emergency provisions)
संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने संविधान में आपातकालीन प्रावधानों की निम्न आधार पर आलोचना कि: जैसे कि –
1. संविधान का संघीय प्रभाव नष्ट होगा तथा केंद्र सर्वशक्तिमान बन जाएगा।
2. राज्यों की शक्तियाँ (एकल एवं संघीय दोनों) पूरी तरह से केन्द्रीय प्रबंधन के हाथ में आ जाएंगी।
3. राष्ट्रपति ही तानशाह बन जाएगा।
4. राज्यों की वित्तीय स्वायतत्ता निरर्थक हो जाएंगी।
5. मूल अधिकार अर्थहीन हो जाएँगे और परिणामस्वरूप संविधान की प्रजातंत्रीय आधारशिला नष्ट हो जाएगी।
एच वी कामथ |
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मुझे डर है कि इस एकल अध्याय द्वारा हम एक ऐसे सम्पूर्ण राज्य की नींव डाल रहे है जो एक पुलिस राज्य, एक ऐसा राज्य जो उन सभी सिद्धांतों और आदर्शों का पूर्ण विरोध करता है जिसके लिए हम पिछले दशकों में लड़ते रहें। एक राज्य जहां सैकड़ों मासूम महिलाओं एवम पुरुषों के स्वतंत्रता के अधिकार सदैव संशय में रहेंगे। एक राज्य जहां कहीं शांति होगी जो वह कब्र में होगी और शून्य अथवा रगिस्तान में होगी। यह शर्म और दुख का दिन होगा जब राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग करेगा, इनका विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक देश के संविधान में कोई नहीं साम्य होगा। |
के टी शाह |
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प्रतिक्रिया और पतन का एक अध्याय; मुझे ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता और लोकतन्त्र का नाम केवल संविधान में ही रह जाएगा। |
टी टी कृष्णामाचारी |
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इन प्रावधानों के द्वारा राष्ट्रपति एवं कार्यकारी, संवैधानिक तानाशाही का प्रयोग करेंगे। |
एच एन कुंजुरु |
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वित्तीय आपातकाल के प्रावधान राज्य की वित्तीय स्वायतत्ता के लिए के गंभीर खतरा उत्पन्न करते है। |
हालांकि संविधान में इन प्रावधानों के समर्थक भी थे। सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर ने इसे संविधान का जीवन साथी बताया।
महावीर त्यागी ने कहा कि यह सुरक्षा वाल्व की तरह कार्य करेंगे और संविधान की रक्षा करने में सहायता प्रदान करेंगे।
आपातकालीन प्रावधान

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Financial Emergency
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