आशावादी कहानी: कहानी हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा हैं, हम सब किसी न किसी कहानी के पात्र होते हैं पर कुछ कहानियाँ ऐसी होती है जो हमारी तो नहीं होती है लेकिन वो हमारे लिए होती है।

इस पेज़ पर कुछ बेहतरीन आशावादी कहानी या विद्यार्थी के लिए प्रेरणादायक कहानी संकलित की गई है, जो हो सकता है हमारी न हो लेकिन वो हमारे लिए है, तो सारी कहानियों को जरूर पढ़ें, उम्मीद है पसंद आएगा।

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आशावादी कहानी

विद्यार्थियों के लिए आशावादी कहानी

आशावादी कहानियाँ ऐसी कहानियाँ हैं जो व्यक्तियों को प्रेरित करती हैं और उनका उत्थान करती हैं, उन्हें प्रोत्साहन, आशा और दृढ़ संकल्प की भावना प्रदान करती हैं।

इन कहानियों में अक्सर ऐसे नायक शामिल होते हैं जो बाधाओं, चुनौतियों या असफलताओं का सामना करते हैं लेकिन डटे रहते हैं और अंततः सफलता या व्यक्तिगत विकास हासिल करते हैं।

इन कहानियों का उद्देश्य सकारात्मक भावनाओं को जगाना, प्रेरणा जगाना और यह विश्वास पैदा करना है कि व्यक्ति कठिनाइयों को दूर कर सकता है और अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।

आशावादी कहानी

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आशावादी कहानी न. 1

मेहनत की कमाई

किसी शहर में एक प्रोफेसर साहब रहते थे। उनका बेटा बहुत आलसी था। उसे जब भी वे कोई काम कहते, तो उसके पास उस काम को न करने के कई बहाने होते, उसके इस आदत से वे परेशान थे।

बेटा अब बड़ा हो चला था और पढ़ाई भी पूरी कर ली थी, पर उसकी आदत में कोई सुधार न था।

एक दिन प्रोफेसर साहब ने बेटे को बुलाया और गुस्से से कहा, तुम इतने बड़े हो गए, दिन भर घर में पड़े रहते हो, आज घर से निकलो, कुछ कमा कर आओ, वरना तुम्हें आज खाना नहीं मिलेगा।

पिता की बात सुन कर दुखी मन से बेटा बाहर निकला और घर के बाहर ही पिता के काम पर जाने का इंतज़ार करने लगा। पिता के जाने के बाद वह घर आया और अपनी माँ को सारी बात कह रोने लगा।

माँ का कलेजा पसीज गया और उसने एक 100 रूपये बेटे को दे दी। शाम को पिता वापस घर आए, तो उन्होने बेटे से कमाई के बारे में पूछा।

बेटे ने वह 100 रूपये को पिता के सामने रख दिया। पिता समझ गए गए कि माँ  ने इसकी मदद की है। पिता ने बेटे से कहा – इस पैसे को नाली में फेंक दो। बेटा पैसा नाली में फेंक आया।

अगले दिन प्रोफेसर साहब की पत्नी किसी काम से मायके चली गयी। उन्होने फिर बेटे को बुलाया और कहा – आज फिर कुछ कमा लाओ, बगैर कमाए लौटे तो खाना नहीं मिलेगा।

बेटा बाहर निकला और पिता के काम पर जाते ही घर आकर अपनी बहन से सारी बात बता कर रोने लगा, भाई को रोते देख बहन ने उसे 50 रुपये दे दिये।

शाम को जब पिता आए,  तो बेटे ने वो 50 रुपये उनके सामने रख दिये। पिता समझ गए की आज बहन ने उसकी मदद कर दी। उन्होने कहा, इस रूपये को पास की नाली में फेंक आओ। बेटा उसे फेंक आया।

अगले दिन प्रोफेसर ने अपनी बेटी को उसकी सहेली के यहाँ भेज दिया और बेटे से कहा, आज भी तुम्हें कुछ कमा कर ही लौटना है।

बेटा बाहर निकला पर आज उसकी मदद करने वाला कोई नहीं था। थक हार कर वह एक जगह खड़ा हुआ, तो सामने सीमेंट का गोदाम था।

वह गोदाम में गया और मैनेजर से बोला, सर , क्या मुझे कोई काम मिलेगा? मैनेजर ने कहा, यदि तुम इन सीमेंट की बोरियों को उठा कर ट्रक पर डाल सकते हो, तो यह काम मैं तुमको दे सकता हूँ।

कोई अन्य चारा न देख लड़के ने बोरी उठानी शुरू कर दी। काम खत्म होने के बाद मिले 50 रुपये को ले कर वह घर पहुंचा। पिता लौटे, तो उसने वो 50 रुपये उनके सामने रख दिया।

पिता ने उन रुपयों को पास की नाली में फेंकने को कहा, तो बेटा आँखों में आँसू भर कर बोला, पिताजी! इन रुपयों को कमाने में मेरी कमर टूट गयी, कंधों में चोट आ गयी, पूरा शरीर दर्द कर रहा है और आप मुझे इन्हे नाली में फेंकने को कह रहे है।

पिता मुस्कुराए और बोले, बेटा, आज तुमने मेहनत से कमाए पैसे की कदर को समझ लिया, मैं तुम्हें यही अहसास करना चाहता था। यह कहकर पिता ने बेटे को गले से लगा लिया क्योंकि उस दिन उसने मेहनत की कमाई की कीमत को समझ चुका था। 


आशावादी कहानी न. 2

समस्या का समाधान

किसी शहर में एक व्यक्ति था, वह हमेशा दुखी रहा करता था, उसे हमेशा ऐसा लगता था कि उससे दुखी व्यक्ति संसार में और कोई नहीं है। जब भी कोई उससे बात करता तो वह अपनी समस्याओं का बखान करने लगता ।

थोड़ी देर में साथ वाला व्यक्ति उठ कर चला जाता। इस बात से तो वह और परेशान हो जाता कि उसकी बात कोई सुनने वाला नहीं है।  

एक दिन उसे पता चला कि शहर में कोई महात्मा आया है। जिनके पास सभी समस्याओं का समाधान है। यह जानकार वह महात्मा के पास पहुंचा। उस महात्मा के साथ हमेशा एक काफिला चला करता था जिसमें कई ऊंट भी थे।

महात्मा के पास पहुँच कर उस व्यक्ति ने कहा – गुरुजी, मैंने आपका बड़ा नाम सुना है कि आप सभी समस्याओं का समाधान करते है। मैं बहुत दु:खी व्यक्ति हूँ। मेरे इर्द-गिर्द हमेशा बहुत सारी समस्याएँ रहती है। एक को सुलझाता हूँ तो दूसरी पैदा हो जाती है।

मैं अपनी आपबीती किसी को सुनाता हूं तो कोई सुनता ही नहीं है। दुनिया बड़ी मतलबी हो गयी है। अब आप ही बताइये क्या करूँ ?        

महात्मा ने उसकी बातें ध्यान से सुनी और कहा – भाई, मैं अभी तो बहुत थक गया हूँ परंतु कल सुबह मैं तुम्हारी समस्या का समाधान अवश्य करूंगा।

इस बीच तुम मेरा एक काम कर दो, मेरे ऊंटों की देखभाल करने वाला आदमी बीमार है। आज रात तुम इनकी देखभाल कर दो। जब सभी ऊंट बैठ जाये तब तुम सो जाना। मैं तुमसे कल सुबह बात करूंगा ।

अगले दिन महात्मा ने उस आदमी को बुलाया। उसकी आंखे लाल थी। महात्मा ने पूछा – तो बताओ कल रात कैसी नींद आयी ? व्यक्ति बोला – गुरुजी, मैं तो रात भर सोया ही नहीं। आपने कहा था जब सभी ऊंट बैठ जाये तब सो जाना।

पर ऐसा नहीं हुआ जब भी कोशिश करके एक ऊंट को बिठाता दूसरा खड़ा हो जाता। सारे ऊंट बैठा ही नहीं इसीलिए मैं भर रात सो नहीं सका।   

महात्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा – मैं जानता था कि इतने ऊंट एक साथ कभी नहीं बैठ सकता, फिर भी मैंने तुम्हें ऐसा करने को कहा। यह सुनकर व्यक्ति क्रोधित होकर बोला – महात्मा जी, मैं आपसे हल मांगने आया था पर आपने भी मुझे परेशान कर दिया।

महात्मा बोले – नहीं भाई, दरअसल यह तुम्हारे समस्या का समाधान है। संसार के किसी भी व्यक्ति की समस्या इन ऊंटों की तरह ही है। एक खत्म होगी तो दूसरी खड़ी हो जाएगी ।

अतः सभी समस्याओं के खत्म होने का इंतज़ार करोगे तो कभी भी चैन से नहीं जी पाओगे। समस्याएँ तो जीवन का ही अंग है। इसे महसूस करते हुए जीवन का आनंद लो। जीवन में सहज रहने का यही एक उपाय है।    

दुनिया के किसी भी व्यक्ति को तुम्हारी समस्याएँ सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं है क्यूंकी उनकी भी अपनी समस्याएँ है। महात्मा जी की बात सुनकर व्यक्ति के चेहरे पर संतोष और सहजता के भाव उमड़ पड़े। मानो उसे अपनी सभी समस्याओं से निपटने का अचूक मंत्र प्राप्त हो गया हो। 


आशावादी कहानी न. 3

अपनी मदद खुद करें

किसी गाँव में एक पुजारी रहता था वो भगवान का बहुत बड़ा भक्त था। एक बार उसके गाँव में बाढ़ आई। गाँव के सभी लोग जरूरत का सामान लेकर ऊंचे स्थान की ओर जाने लगे

जाते-जाते लोगों ने पुजारी को भी चलने को कहा पर पुजारी ने कहा कि तुमलोग जाओ मुझे विश्वास है कि भगवान मेरी रक्षा करने जरूर आएगा।

पुजारी भगवान का इंतज़ार करने लगा। तभी एक जीप पुजारी के सामने आकर रुका। जीप में बैठे लोगों ने पुजारी को चलने को कहा पर पुजारी ने फिर वही जवाब दिया, तुम लोग जाओ मुझे तो भगवान बचाने आएगा।

पानी बढ़ता ही जा रहा था। कुछ समय बाद एक नाव वाला पुजारी के पास आया और चलने को कहा पर पुजारी ने उससे भी वही बात कही।

पानी अब कंधे तक आ गया था पर पुजारी को अब भी विश्वास था कि भगवान उसे बचाने जरूर आएगा। पानी और बढ्ने पर वो घर के छत पर चढ़ गया और भगवान का इंतज़ार करने लगा ।

थोड़ी देर में एक बचाव हेलिकॉप्टर आता है और ऊपर से रस्सी फेंकते हुए पुजारी को पकड़ लेने को कहता है; पर अब भी पुजारी वही बात दोहराता है कि तुमलोग जाओ मुझे तो भगवान बचाने आएगा, पानी बढ़ता गया।

आखिरकार पानी इतना बढ़ गया कि पुजारी उसमे डूब गया और मर गया। मरने के बाद जब वो भगवान के पास पहुंचा तो भगवान पर चिल्लाते हुए उसने कहा कि मैं आपका इतना बड़ा भक्त था।

मुझे पूरा विश्वास था कि आप बचाने आएंगे। मैं इंतज़ार करता रहा पर आप नहीं आए, क्यो ? भगवान ने कहा मैं तो तीन बार तुम्हें बचाने की कोशिश की पर तुम खुद ही बचना नहीं चाहता थे ।

पहली बार मैंने तुम्हारे लिए जीप भेजा, तुम नहीं आए। दूसरी बार मैंने तुम्हारे लिए नाव भेजा पर तुम नहीं आए। तीसरी बार मैंने तुम्हारे लिए हेलिकॉप्टर पर फिर भी तुम नहीं आए। तो मैंने तुम्हारे विश्वास को नहीं तोड़ा बल्कि तुमने खुद ऐसा किया।


आशावादी कहानी न. 4

मेंढक का मेंढक

एक मेंढक बड़ी उग्र तपस्या करने लगा। क्षुद्र प्राणी की इतनी प्रबल निष्ठा देखकर शंकर जी दयार्द्र हो उठे, उन्होने उससे पूछा – “वत्स तुझे कुछ कष्ट तो नहीं !”

मेंढ़क ने कहा -”भगवन्‌! पड़ोस में एक दुष्ट सर्प रहता है जो मुझे भय देता रहता है। उससे ध्यान में विघ्न पड़ता है। कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे मेरा भय दूर हो और निश्चिंत मन से तपस्या कर सकूँ।”

शंकर जी ने मेंढक को साँप बना दिया। अब उसे कुछ भय न रहा, पर थोड़े दिन बाद एक नेवला उधर आने लगा। मेंढक को फिर भय उत्पन्न हो गया। मेंढक ने भगवान शिव का ध्यान किया तो वे प्रकट हो गए। कारण पूछने पर उसने नई व्यथा सुनाई। भगवान ने उसे नेवला बना दिया।

नेवला बना मेंढ़क सुखपूर्वक तप करने लगा। अब एक वनविलाव उधर आने लगा और नेवले की घात सोचने लगा। मेंढ़क ने यह व्यथा कही तो भगवान ने उसे वनविलाव बना दिया।

कुछ दिन बाद सिंह की आँखें वनविलाव पर लगी तो शिव जी की कृपा से उसे सिंह का शरीर प्राप्त हो गया। इतने पर भी चैन न मिला, शिकारी अपना जाल और धनुष सँभाले सिंह की घात में फिरने लगे।

मेंढ़क ने दु:खी मन से फिर शिव जी को पुकारा, जब वे पधारे तो उसने कहा -” प्रभो! मुझे मेंढक ही बना दीजिए। ”सिंह का शरीर छोड़कर पुनः उसी छोटे शरीर में लौटने की इच्छा करने वाले मेंढ़क से आश्चर्य पूर्वक भगवान शिव ने पूछा -”भला ऐसा क्यों ?’!

मेंढ़क ने कहा -”प्रभो! भय कभी दूर नहीं होता और न बाधाएँ कभी समाप्त होती हैं। जीव जिस स्थिति में भी है उसी में कठिनाइयों से साहसपूर्वक लड़ते हुए आगे बढ़ सकता है। ऐसा मैंने समझा है।

यह बात सत्य हो तो मुझे अपने असली शरीर में रहकर ही प्रसन्न रहने का अवसर दीजिए। ”उसकी मान्यता ठीक थी। शंकर जी बहुत संतुष्ट हुए और सिंह को मेंढक रहकर ही तपस्या पूर्ण करने की आज्ञा दे दी।


आशावादी कहानी न. 5

समय निकालना पड़ता है!

एक बार की बात है। दिल्ली में एक रिटायर्ड अधिकारी अपनी पत्नी के साथ रहा करते थे। उनका एक लड़का था, जो अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत था उनकी एक बेटी भी थी, जो सिंगापुर में एक मैनेजमेंट कंसलटेंट के पद पर कार्यरत थी।

एक बार उनके पिता ने अपने लड़के को फोन किया, कहा, बेटा, मैं तुम्हारी माँ को आज तलाक दे रहा हूँ, मैंने सोचा यह निर्णय लेने से पहले मैं तुनको सब बता दूँ।

पिता की बात सुन कर बेटा अवाक रह गया। बोला, पिता जी, ये आप क्या बोल रहें है? माँ को आप इस उम्र में तलाक दे रहे है, आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?

पिता ने कहा, मैं तुम्हारी माँ की रोज की चिक-चिक से तंग आ गया हूँ अब मैं उसके साथ नहीं रह सकता, तुम ये बात अपनी बहन को भी बता दो।

यह सब सुन कर बदहवास बेटे ने सिंगापूर अपनी बहन को फोन किया और सारी बात बताई। बेटी ने भी घबरा कर अपने पिता को फोन मिलाया, पिता जी, ये मैं क्या सुन रही हूँ? आप ऐसा कैसे कर सकते हैं?

माँ को ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं? पिता ने कहा, देखो मैंने यह निर्णय ले लिया है, अब हमारा एक साथ रहना संभव नहीं है और मैं आज ही तलाक के कागजात पर दस्तखत करने जा रहा हूँ।

बेटी ने कहा, पिता जी, ऐसा मत कीजिये, आप ठहरिए, मैं और भाई अगले दो दिनों में इंडिया आ रहे हैं आपके पास, हम आपसे बात करेंगे, आखिर आप यह क्या कर रहे हैं? आपको मेरी कसम, जब तक हम आपके पास पहुँच नहीं जाते, ऐसा कुछ भी नहीं कीजिएगा। बेटी ने पिता की सहमति मिलते ही फोन रख दिया।

अब वह पिता अपनी पत्नी की ओर घूमा और बोला, बधाई हो! वे दोनों दो दिन बाद हमारे पास आ रहे हैं, पति की बात सुन कर पत्नी के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी और आंखो में अपने बच्चों को देखने की ललक छा गयी। 

दरअसल वे दोनों कई सालों से अपने पिता के कितना भी कहने पर बस यही कहता था कि समय नहीं मिलता है जो वहाँ आएंगे। दरअसल हमें कभी समय नहीं मिलता, उसे निकालना पड़ता है।


आशावादी कहानी न. 6

सही समय और सही निर्णय

एक बार की बात है। किसी शहर में एक प्रोफेसर साहब अपने 25 साल के बेटे के साथ रहते थे। वह अपने बेटे की हमेशा कनफ्यूज्ड रहेने की आदत से बेहद परेशान थे।

उनका बेटा कभी भी सही समय पर कोई काम नहीं करता, कोई निर्णय नहीं ले पाता, इस वजह से कई बार उसकी नौकरी छूटती। लेकिन उसे यह बात समझ ही नहीं आती थी कि जीवन में सही निर्णय कब लिया जाये।

प्रोफेसर साहब हमेशा उससे कहा करते, यदि समय पर निर्णय नहीं लोगे, तो तुम्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन बेटे के कान पर जूं नहीं रेंगति।

एक दिन प्रोफेसर साहब को एक युक्ति सूझी। उन्होने अपने बेटे को अपने लैब में बुलाया। बेटा वहाँ पहुंचा, तो उसने देखा कि प्रोफेसर साहब ने एक मेंढक मँगवा रखा है।

उन्होने चूल्हे पर एक पतीले में पानी चढ़ाया और उसे उबलने दिया। पानी जब पूरा उबाल गया, तो उन्होने मेंढक को उस पानी में डाल दिया।

मेंढक को जैसे ही पानी गरम लगा, तो उसने तुरंत छलांग लगाई और खौलते पानी से बाहर आ गया। बेटे को कुछ समझ नहीं आया कि यह क्या हो रहा है।

प्रोफेसर साहब ने बेटे को बैठने और वहाँ जो भी कुछ हो रह है, देखते रहने का इशारा किया। अब उन्होने एक दूसरे पतीले में पानी लिया, उसमें उस मेंढक को डाल दिया और पानी को गरम करने लगे।

थोड़ी देर में पानी खौल गया, लेकिन मेंढक ने उस पानी से बाहर छलांग नहीं लगाया और कुछ देर में डूब कर मर गया। बेटे को यह सब देख कर आश्चर्य हुआ।

अब प्रोफेसर साहब ने उससे पूछा, बेटे, अब जरा बताओ कि पहले मेंढक ने बाहर छलांग लगा दी, लेकिन अब वह मर गया, इसका क्या कारण है?

बेटा कुछ समझ नहीं पाया। प्रोफेसर साहब ने कहा, पहले जब मेंढक को खौलते पानी में डाला गया, तो उसे पानी के गरम होने का अहसास हो गया और उसने छलांग लगा दी,

पर बाद में जैसे- जैसे पानी गरम होने लगा, मेंढक अपनी अंदरूनी ऊर्जा को खर्च कर स्वयं को उस पानी के लायक बनाता रहा और जब पानी पूरी तरह गरम हो गया, तब तक उस मेंढक के अंदर इतनी ऊर्जा नहीं बची थी कि वह बाहर छलांग लगा पाता, क्योंकि उसने अपनी सारी ऊर्जा खुद को पानी के तापमान के बराबर में खर्च कर दी थी।

यदि पानी के गरम होने की शुरुआत में वह मेंढक सही निर्णय लेकर छलांग लगा देता, तो उसकी यह गयी नहीं होती, इसीलिए जीवन में सही समय पर आकलन कर सही निर्णय लेना बेहद आवश्यक है,

पिता की बात सुन कर बेटे की आंखों में चमक आ गयी, मानो उसे जीवन को देखने का एक नया नजरिया मिल गया हो।


आशावादी कहानी न. 7

उपदेश से करनी भली

एक गाँव में एक बूढ़ा मुखिया रहता था। काफी उम्र हो जाने के बाद वह एक उपदेशक बन गया अपने गाँव के चौपाल पर बैठ कर वह लोगों को यही समझाया करता था कि अगर जीवन में सुख-समृद्धि से रहना है, तो कभी किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए।

एक बार एक युवक उस गाँव से गुजर रहा था, उसके कान में भी उस बूढ़े की बात पड़ी। उसे उसकी बात बहुत अच्छी लगी।

उसे, उस बूढ़े से मिलकर कुछ और बात करने की उत्सुकता हुई। तो उसने बूढ़े से फिर पूछा, बाबा, जीवन में शांति से रहना है तो क्या करना चाहिए?

बूढ़े ने फिर वही बात दोहराया, यदि शांति से रहना चाहते हो तो कभी किसी पर क्रोध मत करना, चाहे तुम्हारे सामने जो भी परिस्थिति हो, क्योंकि क्रोध विवेक को खा जाता है और फिर इंसान सही गलत का भेद भूल जाता है।

युवक ने पूछा, जी, क्या कहा आपने? मैंने कहा कि तुम जीवन में कभी किसी पर क्रोध मत करना।

युवक ने बात नहीं सुनने का नाटक किया और फिर पूछा, जी, मैंने सुना नहीं, क्या करना चाहिए, क्या कहा आपने ? बूढ़े ने कहा, अरे भाई, किसी पर किसी भी परिस्थिति में क्रोध नहीं करना चाहिए, यही जीवन में सुखी रहने का मंत्र है।

युवक ने फिर बात नहीं सुन पाने का नाटक किया और बोला, बाबा, मैं आपकी बात सुन नहीं पाया, क्या कहा था आपने? बाबा ने फिर कहा, कान खोल कर सुन लो, किसी भी परिस्थिति में कभी भी किसी पर क्रोध कदापि नहीं करना।

इस बार बाबा की आवाज में तल्खी थी। युवक ने एक बार फिर नही सुनने का नाटक करते हुए कहा, जी बाबा, मैं ठीक से सुन नहीं पाया, फिर से बोलिए-

इस बार बूढ़ा चिल्लाया, अबे गधे, मैंने कितनी बार कहा कि जीवन में सुखी रहना है, तो किसी पर कभी भी क्रोध मत कर, पर तू सुनता ही नहीं, बहरा हो गया है क्या?

युवक ने फिर बोला, जी बाबा आपने ठीक कहा मैंने सुना नहीं, एक बार फिर बोलिए क्या कहा था आपने।

अब बूढ़े का गुस्सा सातवें आसमान पर था, उसने पास रखी एक छड़ी उठा ली और युवक को घूरते हुए कहा, अब अगर तुमने मेटी बात नहीं सुनी, तो मार मार कर इस छड़ी से तेरी पीठ लाल कर दूंगा,

मैंने कहा कि किसी भी परिस्थिति में किसी पर क्रोध नहीं करना चाहिए, अब बता तूने सुना कि नहीं, नहीं सुना तो अभी तेरी खबर लेता हूँ। युवक मुस्कराया और उठ कर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा।

अगर उस बूढ़े की तरह हमें भी उपदेश देने की आदत है, तो सबसे पहले हमें स्वयं उस उपदेश के सिद्धांतों पर चल कर अपनी प्रामाणिकता साबित करनी होगी, अन्यथा कोई भी हमारी बात को गंभीरता से नहीं लेगा।

यदि कोई असफल व्यक्ति लोगों को सफलता के मंत्र बताने लगे, तो उसका उपहास तय है।

यदि कोई सिगरेट पीनेवाला व्यक्ति धूम्रपान से होनेवाली बीमारियों पर प्रवचन देने लगे, तो उसके दोस्त मित्र ही उसकी हंसी उड़ाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ेंगे। हमारी यही तो परेशानी यह है कि हम हमेशा दूसरों को सुधारने में लग जाते है पर खुद अपने ऊपर वह बात लागू नहीं करते।


आशावादी कहानी न. 8

आदत छूटे नहीं छूटती

किसी समय चंद्रमा बहुत सुंदर था। हर दिन उसका चेहरा खिला ही रहता था और चाँदनी पूरी रात छिटकी रहती थी। कुछ दिन बाद चाँद पर मनहूसी सवार हुई। वह चुप रहने लगा, हँसने और मुस्कुराने की आदत छोड़कर वह मुँह लटकाए बैठा रहता।

जैसे-जैसे चुप्पी बढ़ी वैसे-वैसे चाँद की रोशनी भी घटने लगी। यहाँ तक कि पंद्रह दिन में वह बिलकुल कुरूप हो गया। न उसके चेहरे पर रोशनी रही न चाँदनी निकली। लोगों को भी अखरा।

चाँद अपना दुखड़ा रोने विधाता के पास पहुँचा और कहा -”मेरी खूबसूरती कहाँ चली गई ? मैं काला कुरूप क्‍यों हो गया ? ”विधाता ने कहा -”मूर्ख तू इतना भी नहीं जानती। हँसना ही खूबसूरती है, मुसकराहट का नाम ही चाँदनी है। जा, मनहूसी छोड़ और हर दिन हर घड़ी खिलखिलाता रह, तेरी खूबसूरती फिर वापस आ जाएगी।”

चंद्रमा ने विधाता कौ बात मानी, वह फिर हँसने की कोशिश करने लगा। जितनी सफलता मिलती गई उतनी ही उसकी खूबसूरती चमकती गई पंद्रह दिन में फिर पुरानी हालत पर पहुँच गया। पूर्णमासी के दिन पूरे प्रकाश के साथ चमका।

पर हाय री पुरानी आदत ! वह छुड़ाए न छूटी। मनहूसी फिर उस पर सवार हुई, चेहरा लटकाने और चुप रहने का ढर्रा उसने फिर अपनाया तो वही हालत फिर हुई। अमावस्या आते-आते वह फिर काला कुरूप हो गया।

यह देखकर वह घबराया और विधाता की नसीहत को ध्यान में रख फिर मुसकराने लगा और धीरे-धीरे अपनी खोई खूबसूरती उसने फिर बढ़ा ली।

दूसरों की तरह चंद्रमा भी आखिर आदत का गुलाम बन गया। पंद्रह दिन इस पर मनहूसी सवार होती है तो मुँह लटकाए रहता है, और उसकी रोशनी घटती जाती है। जब फिर होश सँभालता है तो हँसते मुसकराते अपनी खोई सुंदरता फिर प्राप्त कर लेता है। मुद्दतों से यह क्रम चलता आ रहा है। इसी को हम अमावश और पूर्णिमा कहते हैं।

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