इस पेज़ पर कुछ बेहतरीन प्रेरणादायक धार्मिक कहानी संकलित की गई है, सारे कहानियों को पढ़ें क्योंकि सारे ही मजेदार और दिलचस्प है।

प्रेरणादायक धार्मिक कहानी
जैसा ध्यान-वैसा निर्माण
महाप्रलय की रात्रि का चौथा चरण, प्रजापति ब्रह्मा की निद्रा टूटी। परमेश्वर का स्मरण कर पुन: सृष्टि रचना की इच्छा से उन्होंने शैया-त्याग की और बाहर आए तो देखा कि सृष्टि तो पहले से ही तैयार है। “जिस सृष्टि को रचना की बात मेरे मन में आ रही थी, वह तो पहले से ही तैयार है।” यह सोचकर ब्रह्मा को बड़ा विस्मय हुआ,’
उन्होने सूर्य भगवान से प्रश्न किया–”देव! मैं यह क्या देख रहा हूँ, सृष्टि निर्माण की क्षमता और अधिकार तो केवल मुझ प्रजापति को ही है, फिर यह सृष्टि किसने रचकर तैयार कर दी ?”! जगदात्मा सविता देवता हँसे और बोले–”महापुरुष! यह तो आपने एक ओर ही देखा। अभी आप आग्नेय, दक्षिण नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान, ऊर्ध्व और अध:दिशाओं की ओर भी तो दृष्टिपात करें।’!
प्रजापति ने दशों दिशाओं की ओर घूमकर देखा तो उन्हें सर्वत्र एक-एक सृष्टि के दर्शन हुए। इससे उनका असमंजस और भी गहरा होता गया! विस्मित ब्रह्मा ने कहा–”भगवन्! अब और अधिक पहेली मत बुझाइए। कृपया यह बताइए कि ये सब सृष्टियाँ रचीं किसने ? मुझ जैसी क्षमता किसी में आई तो कैसे आई ?’!
सूर्य भगवान ने बताया–‘“ प्रजापति ! आपकी पूर्व रचित सृष्टि में इंदु नामक एक ब्राह्मण के बहुत समय तक कोई संतान न हुई, तब उसने भगवान शिव की पूजा की।
शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें दस पुत्रों का वरदान दिया। समय पाकर इंदु के दस पुत्र उत्पन्न हुए। उनकी शिक्षा-दीक्षा संपन्न हुई ही थी कि एक दिन ब्राह्मण इंदु की मृत्यु हो गई।
पुत्रों ने सोचा कोई ऐसा काम करना चाहिए, जिससे हमारे पिता की कीर्ति अमर हो जाए। उन सबने निर्णय किया कि आज तक किसी मनुष्य ने सृष्टि नहीं रची सो हम दसों को दस ब्रह्मा बनकर अपने पिता की स्मृति में दस सृष्टियों की रचना करनी चाहिए। इस निर्णय के साथ ही वह आपका ध्यान करने बैठ गए।
कुछ ही दिन में आपका ध्यान करते-करते उनका संकल्प पक गया तो उनमें भी आपकी सी शक्ति आ गई और उसके आगे का चमत्कार आप देख ही रहे हैं।” इतनी कथा सुनाने के बाद महर्षि वशिष्ठ ने कहा–“’हे राम! मंत्र के साथ ध्यान का यही विज्ञान है। मनुष्य जिसका भी दृढ़ता से ध्यान करता है, वैसी ही शक्ति वाला बन जाता है।”
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प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 2
जीवन का रहस्य
देवों और असुरों में घोर युद्ध हो रहा था। राक्षसों के शस्त्र बल और युद्ध कौशल के सम्मुख देवता टिक ही नहीं पाते थे। वे हार कर जान बचाने भागे, सब मिलकर महर्षि दत्तात्रेय के पास पहुँचे और उन्हें अपनी विपत्ति की गाथा सुनाई।
महर्षि ने उन्हें धैर्य बँधाते हुए पुनः लड़ने को कहा। फिर लड़ाई हुई। किंतु देवता फिर हार गए और फिर जान बचाकर भागे महर्षि दत्तात्रेय के पास।
अब की बार असुरों ने भी उनका पीछा किया। वे भी दत्तात्रेय के आश्रम में आ पहुँचे। असुरों ने दत्तात्रेय के आश्रम में उनके पास बैठी हुई एक नवयौवना स्त्री को देखा।
बस, दानव लड़ना तो भूल गए और उस स्त्री पर मुग्ध हो गए। स्त्री जो रूप बदले हुए लक्ष्मी जी ही थीं, असुर उन्हें पकड़ कर ले भागे। दत्तात्रेय जी ने देवताओं से कहा – अब तुम तैयारी करके फिर से असुरों पर चढ़ाई करो।” लड़ाई छिड़ी और देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की।
असुरों का पतन हुआ। विजय प्राप्त करके देवता फिर दत्तात्रेय के पास आए और पूछने लगे -‘भगवन्! दो बार पराजय और अंतिम बार विजय का रहस्य क्या है ?’ महर्षि ने बताया -‘जब तक मनुष्य सदाचारी संयमी रहता है तब तक उसमें उसका पूर्ण बल विद्यमान बना रहता है और जब वह कुपथ पर कदम धरता है तो उसका आधा बल क्षीण हो जाता है। नारी का अपहरण करने की कुचेष्टा में असुरों का आधा बल नष्ट हो गया था, तभी तुम उन पर विजय प्राप्त कर सके।”!
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प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 3
किम् आश्चर्यम्
पांडव वन में थे। एक दिन उन्हें बहुत जोरों की प्यास लगी। सहदेव पानी की तलाश में भेजे गए। शीघ्र ही उन्होंने एक सरोवर खोज लिया पर अभी पानी पीने को ही थे, किसी यक्ष की आवाज आई- “मेरे प्रश्नों का उत्तर दिए बिना पानी पिया तो अच्छा न होगा ”!
सहदेव प्यासे थे। आवाज की ओर ध्यान न देकर पानी पी लिया और वहीं मूच्छित होकर गिर पड़े। भीम और अर्जुन भी आए और मूर्च्छित होकर गिर गए। अंत में धर्मराज युधिष्ठिर पहुँचे।
यक्ष ने उनसे भी वही बात कही। युधिष्ठिर ने कहा -”देव ! बिना विचारे काम करने वाले अपने भाइयों की स्थिति मैं देख रहा हूँ। आपके प्रश्न का उत्तर दिए बिना पानी ग्रहण न करूँगा।” प्रश्न पूछिए। यक्ष ने पूछा -‘ किमाश्चर्यम्’ अर्थात संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया -”देव! एक-एक व्यक्ति करके सारा संसार मृत्यु के मुख में समाता जा रहा है, फिर भी जो जीवित हैं, वे सोचते हैं कि हम कभी न मरेंगे, इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या हो सकता है।’” यक्ष बहुत प्रसन्न हुए और पानी पीने की आज्ञा दे दी। चारों भाइयों को भी जिला दिया।
प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 4
शबरी
शबरी यद्यपि जाति की भीलनी थी, किंतु उसके हृदय में भगवान की सच्ची भक्ति भरी हुई थी। बाहर से वह जितनी गंदी दिखती थी, अंदर से उसका अंत:करण उतना ही पवित्र और स्वच्छ था। वह जो कुछ करती भगवान के नाम पर करती, भगवान के दर्शनों की उसे बड़ी लालसा थी और उसे विश्वास भी था कि एक दिन उसे भगवान के दर्शन अवश्य होंगे।
शबरी जहाँ रहती थी उस वन में अनेक ऋषियों के आश्रम थे। उसकी उन ऋषियों की सेवा करने और उनसे भगवान की कथा सुनने की बड़ी इच्छा रहती थी। अनेक ऋषियों ने उसे नीच जाति की होने कारण कथा सुनाना स्वीकार नहीं किया और श्वान की भाँति दुत्कार दिया।
किंतु इससे उसके हृदय में न कोई क्षोभ उत्पन्न हुआ और न निराशा। उसने ऋषियों की सेवा करने की एक युक्ति निकाल ली। वह प्रतिदिन ऋषियों के आश्रम से सरिता तक का पथ बुहारकर कुश-कंटकों से रहित कर देती और उनके उपयोग के लिए जंगल से लकड़ियाँ काटकर आश्रम के सामने रख देती। शबरी का यह क्रम महीनों चलता रहा, किंतु ऋषि को यह पता न चला कि उनकी यह परोक्ष सेवा करने वाला है कौन ?
इस गोपनीयता का कारण यह था कि शबरी आधी रात रहे ही जाकर अपना काम पूरा कर आया करती थी। जब वह कार्यक्रम बहुत समय तक अविरल रूप से चलता रहा तो ऋषियों को अपने परोक्ष सेवक का पता लगाने की अतीव जिज्ञासा हो उठी।
उन्होंने एक रात जागकर पता लगा ही लिया कि यह वही भीलनी है जिसे अनेक बार दुत्कार कर द्वार से भगाया जा चुका था। तपस्वियों ने अंत्यज महिला की सेवा स्वीकार करने में परंपराओं पर आघात होते देखा और उसे उनके धर्म-कर्मों में किसी प्रकार भाग न लेने के लिए धमकाने लगे।
मातंग ऋषि से यह न देखा गया। वे शबरी को अपनी कुटी के समीप ठहराने के लिए ले गए। भगवान राम जब वनवास गए तो उन्होंने मातंग ऋषि को सर्वोपरि मानकर उन्हें सबसे पहले छाती से लगाया और शबरी के झूठे बेर प्रेमपूर्वक चख-चखकर खाए।
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प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 5
मनुष्य की अपूर्णता
ब्रह्माजी की इच्छा हुई “सृष्टि रचें।” उसे क्रियान्वित किया। पहले एक कुत्ता बनाया और उससे उसकी जीवनचर्या की उपलब्धि जानने के लिए पूछा -“संसार में रहने के लिए तुझे कुछ अभाव तो नहीं ?’ कुत्ते ने कहा -”भगवन्! मुझे तो सब अभाव ही अभाव दिखाई देते हैं, न वस्त्र, न आहार, न घर और न इनके उत्पादन की क्षमता।”
ब्रह्माजी बहुत पछताए। फिर रचना शुरू की -एक बैल बनाया। जब अपना जीवनक्रम पूर्ण करके वह ब्रह्मलोक पहुँचा तो उन्होंने उससे भी यही प्रश्न किया। बैल दु:खी होकर बोला -” भगवन्! आपने भी मुझे क्या बनाया, खाने के लिए सूखी घास, हाथ-पाँवों में कोई अंतर नहीं, सींग और लगा दिए। यह भोंडा शरीर लेकर कहाँ जाऊँ।”
तब ब्रह्माजी ने एक सर्वाग सुंदर शरीरधारी मनुष्य पैदा किया। उससे भी ब्रह्माजी ने पूछा -‘वत्स, तुझे अपने आप में कोई अपूर्णता तो नहीं दिखाई देती ?” थोड़ा ठिठक कर नवनिर्मित मनुष्य ने अनुभव के आधार पर कहा -” भगवन्! मेरे जीवन में कोई ऐसी चीज नहीं बनाई जिसे मैं प्रगति या समृद्धि कहकर संतोष कर सकता।’!
ब्रह्माजी गंभीर होकर बोले -‘वत्स ! तुझे हृदय दिया, आत्मा दी, अपार क्षमता वाला उत्कृष्ट शरीर दिया। अब भी तू अपूर्ण है तो तुझे कोई पूर्ण नहीं कर सकता।”
प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 6
अनासक्त कर्म ही सच्चा योग
अश्वघोष को वैराग्य हो गया। भोग-विलास से अरुचि और संसार से विरक्ति हो जाने के कारण उसने गृह-परित्याग कर दिया। ईश्वर-दर्शन की अभिलाषा से वह जहाँ-तहाँ भटका, पर शांति न मिली। कई दिन से अन्न के दर्शन न होने से थके हुए अश्वघोष एक खलिहान के पास पहुँचे।
एक किसान शांति व प्रसन्न मुद्रा में अपने काम में लगा था। उसे देखकर अश्वघोष ने पूछा – “मित्र! आपकी प्रसन्नता का रहस्य क्या है?!” ‘ईश्वर-दर्शन’ उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।
मुझे भी उस परमात्मा के दर्शन कराइए ? विनीत भाव से अश्वघोष ने याचना की। अच्छा कहकर किसान ने थोड़े चावल निकाले। उन्हें पकाया, दो भाग किए, एक स्वयं अपने लिए, दूसरा अश्वघोष के लिए। दोनों ने चावल खाए, खाकर किसान अपने काम में लग गया। कई दिन का थका होने के कारण अश्वघोष सो गया।
प्रचंड भूख में भोजन और कई दिन के श्रम के कारण गहरी नींद आ गई। और जब वह सोकर उठा तो उस दिन जैसी शांति, हल्का-फुल्का, उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। किसान जा चुका था और अब अश्वघोष का क्षणिक वैराग्य भी मिट गया था। उसने अनुभव किया कि अनासक्त कर्म ही ईश्वर- दर्शन का सच्चा मार्ग है।
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प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 7
आत्माभिमुख बनो
माहिष्मती के प्रतापी सम्राट नृपेंद्र का यश पूर्णिमा के चंद्रमा की भाँति सर्वत्र फैल रहा था। राजकोष, सेना, स्वर्ण, सौंदर्य, शक्ति किसी वस्तु का कोई अभाव न था। महाराज नुपेंद्र प्रजावत्सल और न्यायकारी थे। संपूर्ण प्रजा भी उन्हें बहुत श्रद्धा कौ दृष्टि से देखती थी।
समय बीता। शक्तियाँ घटीं। शरीर टूटा। वृद्धावस्था बढ़ने लगी और उसके साथ ही नृषति के अंतर में उद्देत और क्षोभ छाने लगा। उन्होंने बोलना-चलना बंद कर दिया। किसी से मिलते भी नहीं थे। उदास, बेचैन राजा न जाने किस चिंता में डूबे रहते।
एक दिन बड़े सवेरे सम्राट राजवन की ओर निकल गए। एक स्फटिक शिला पर पूर्वाभिमुख अवस्थित नृप अब भी कोई वस्तु खोज रहे थे। धीरे-धीरे प्रात: रवि उदित हुआ। राजसरोवर में उनकी बालकिरणें पड़ीं और सहस्न दल कमल खिलने लगा। धीरे-धीरे कमल पूर्ण रूप से खिल गया और अपना सौरभ सर्वत्र बिखेरने लगा।
आत्मा से आवाज फूटी-क्या तुम अब भी रहस्य नहीं जान पाए कि सूर्य का प्रकाश कहाँ से आता है? प्रकाश उसका अंतर स्फुरण नहीं है क्या? कमल का सौरभ उसके भीतर से ही फूटता है।
यह जो सर्वत्र जीवन दिखाई देता है वह सब विश्व-आत्मा के भीतर से ही फूटता है। आनंद का स्रोत तुम्हारे भीतर है उसे तुम्हें ही जगाना पड़ेगा। उसके लिए आत्मोन्मुख बनना पड़ेगा और साधना करनी पड़ेगी।
प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 8
पंचाग्नि विद्या
वाजिश्रवा ने अपने पुत्र नचिकेता के लिए यज्ञ-फल की कामना से विश्वजित यज्ञ आयोजित किया। इस यज्ञ में वाजिश्रवा ने अपना सारा धन दे डाला।
दक्षिणा देने के लिए जब वाजिश्रवा ने गौएँ मँगाई तो नचिकेता ने देखा वे सब वृद्ध और दूध न देने वाली थीं, तो उसने निरहंकार भाव से कहा -“पिताजी निरर्थक दान देने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती।”
इस पर वाजिश्रवा क्रुद्ध हो गए और उन्होंने अपने पुत्र नचिकेता को ही यमाचार्य को दान कर दिया। यम ने कहा -“वत्स ! मैं तुम्हें सौंदर्य, यौवन, अक्षय धन और अनेक भोग प्रदान करता हूँ।” किंतु नचिकेता ने कहा -‘जो सुख क्षणिक और शरीर को जीर्ण करने वाले हों उन्हें लेकर क्या करूँगा, मुझे आत्मा के दर्शन कराइए। जब तक स्वयं को न जान लूँ वैभव – विलास व्यर्थ है।”
साधना के लिए आवश्यक प्रबल जिज्ञासा, सत्यनिष्ठा और तपश्चर्या का भाव देखकर यम ने नचिकेता को पंचाग्नि विद्या (कुंडलिनी जागरण) सिखाई, जिससे नचिकेता ने अमरत्व की शक्ति पाई।
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प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 9
देवता सेवा नहीं करते
एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों बड़े ईश्वरभक्त थे। ईश्वर उपासना के बाद वे आश्रम में आए रोगियों की चिकित्सा में गुरु की सहायता किया करते थे।
एक दिन उपासना के समय ही कोई कष्टपीड़ित रोगी आ पहुँचा। गुरु ने पूजा कर रहे शिष्यों को बुला भेजा। शिष्यों ने कहला भेजा – “अभी थोड़ी पूजा बाकी है, पूजा समाप्त होते ही आ जाएँगे।”! गुरुजी ने दुबारा फिर आदमी भेजा। इस बार शिष्य आ गए। पर उन्होंने अकस्मात बुलाए जाने पर अधैर्य व्यक्त किया।
गुरु ने कहा- “मैंने तुम्हें इस व्यक्ति की सेवा के लिए बुलाया था, प्रार्थनाएँ तो देवता भी कर सकते हैं, किंतु जरूरतमंदों की सहायता तो मनुष्य ही कर सकते हैं।
सेवा, प्रार्थना से अधिक ऊँची है, क्योंकि देवता सेवा नहीं कर सकते।” शिष्य अपने कृत्य पर बड़े लज्जित हुए और उस दिन से प्रार्थना की अपेक्षा सेवा को अधिक महत्त्व देने लगे।
प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 10
सच्चा गीतार्थी
चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण की यात्रा पर निकले थे। रास्ते में एक सरोवर के किनारे एक ब्राह्मण को गीता पाठ करते देखा। वह गीता के पाठ में इतना तल्लीन था कि उसे अपने शरीर की सुध नहीं थी, उसका हृदय गदगद् हो रहा था और नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही थी।
पाठ समाप्त होने पर चैतन्य ने पूछा -“तुम श्लोकों का अशुद्ध उच्चारण कर रहे थे, तुम्हें इसका अर्थ कहाँ मालूम होगा ?” उसने उत्तर दिया -”भगवन्! मैं कहाँ जानूँ संस्कृत।
मैं तो जब पढ़ने बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर बड़ी भारी सेना सजी हुई खड़ी है। जहाँ बीच में एक रथ पर भगवान कृष्ण अर्जुन से कुछ कह रहे हैं। उन्हें देखकर रुलाई आ रही है।” चैतन्य महाप्रभु ने कहा- “भैया तुम्ही ने गीता का सच्चा अर्थ जाना है।’” और उसे अपने गले लगा लिया।
| यहाँ से पढ़ें – राष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया
प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 11
भीष्म की पितृभक्ति
राजा शांतनु एक रूपवती निषाद कन्या सत्यवती से विवाह करना चाहते थे। उन्होने निषाद के आने पर प्रस्ताव रखा तो उसने उत्तर दिया कि यदि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न बालक को ही आप राज आदि देने का वचन दें तो मैं यह प्रस्ताव स्वीकार कर सकता हूँ।
शांतनु असमंजस में पड़े, क्योंकि उनकी पहली रानी गंगा का पुत्र भीष्म मौजूद था और वही राज्याधिकारी भी था। शांतनु लौट आए पर वे मन ही मन दुखी रहने लगे।
भीष्म को जब यह पता चला तो उन्होने पिता को संतुष्ट करना अपना कर्त्तव्य समझा और निषाद के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि मैं अपना राज्याधिकार छोड़ता हूँ।
सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा। इतना ही नहीं मैं आजीवन अविवाहित ही रहूँगा ताकि मेरी संतान कहीं उस गद्दी पर अपना अधिकार न जमाने लगे।
इस प्रतिज्ञा से निषाद संतुष्ट हुआ और उसने अपनी कन्या का विवाह शांतनु के साथ कर दिया। पिता के दोष को न देखकर उनकी प्रसन्नता के लिए स्वयं बड़ा त्याग करना भीष्म की आदर्श पितृभक्ति है।
। यहाँ से पढ़ें – राज्यसभा चुनाव कैसे होता है?
प्रेरणादायक धार्मिक कहानी न. 12
पढ़ने के साथ गुनो भी
एक दुकानदार व्यवहारशास्त्र की पुस्तक पढ़ रहा था। उसी समय एक सीधे-साधे व्यक्ति ने आकर कौतूहलवश पूछा– ‘क्या पढ़ रहे हो भाई ?” इस पर दुकानदार ने झुँझलाते हुए कहा -‘तुम जैसे मूर्ख इस ग्रंथ को क्या समझ सकते हैं।” उस व्यक्ति ने हँसकर कहा- “मैं समझ गया, तुम ज्योतिष का कोई ग्रंथ पढ़ रहे हो, तभी तो समझ गए कि मैं मूर्ख हूँ।”
दुकानदार ने कहा- ‘ज्योतिष नहीं, व्यवहार-शास्त्र की पुस्तक है।” उसने चुटकी ली -”तभी तो तुम्हारा व्यवहार इतना सुंदर है।” दूसरों को अपमानित करने वालों को स्वयं अपमानित होना पड़ता है। पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।
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