कौन सी कहानी हमारी ज़िंदगी को बदल दे, क्या पता! इसी तथ्य को ध्यान में रखकर इस पेज पर 10 बेहतरीन प्रेरक कहानियों (Motivational story) का संकलन किया गया है, उम्मीद है आपको पसंद आएगा।

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10 motivational story

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motivational story

नज़रिया

नजरिया किस तरह हमारी ज़िंदगी को प्रभावित करती है – आइये इस लघु-कथा से समझते हैं।

किसी समय गोलियथ नामक एक राक्षस ने एक गाँव मे खूब दहशत फैला रखा था। वो बहुत बड़ा था इसीलिए लोग उसके भय से थर-थर कांपते थे।

एक बार डेविड नाम का एक लड़का भेड़ चराते हुए उसी गाँव के पास से गुजर रहा रहा था, तो उसने उस गाँव के लोगों से पूछा की आप लोग इस राक्षस को मारते क्यूं नहीं हैं, उसका सामना क्यूं नहीं करते है।

उन लोगों ने जवाब दिया की, “तुमने देखा नहीं की वो कितना बड़ा है, उसे मारा नहीं जा सकता है।”

डेविड ने कहा – बात यह नहीं है कि उसके बड़ा होने की वजह से उसे मारा नहीं जा सकता है; बल्कि हकीकत यह है की वह इतना बड़ा है की उस पर लगाया गया निशाना चूक ही नहीं सकता है।

उसके बाद डेविड और गाँव वालों ने मिलकर सिर्फ गुलेल से उसे मार दिया। राक्षस वही था पर उसके बारे में डेविड का नजरिया अलग था।


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motivational story no. 2

हौसलों की उड़ान

मुंबई के एक पार्क में एक लड़का उदास बैठा कुछ सोच रहा था। वो किसी बात को लेकर दुखी था। बीच-बीच में वह रोने लगता और फिर कुछ सोचने लगता; तभी एक बुजुर्ग पास में आकर बैठा और उदासी का कारण पूछा।

लड़के ने बताया कि मैं बहुत परेशान हूँ। मैंने एक व्यवसाय किया, जिसमें मुझे 10 लाख रूपये का नुकसान हो गया। अब मेरे ऊपर 10 लाख रूपये का बैंक कर्ज है, मेरा मकान गिरवी पड़ा है, मेरी बूढ़ी माँ बीमार है,

ऐसा लगता है कि दुनिया भर की परेशानी भगवान ने मुझे ही दे दी है। समझ में नहीं आता है कि मैं अब क्या करूँ।            

बुजुर्ग ने उसकी बातें ध्यान से सुनी। फिर उसने अपने बैग से एक चेक निकाला और बोला – चलो मैं तुम्हारी परेशानी दूर कर देता हूँ।

मेरा नाम जमशेदजी टाटा है और मैं भारत में सबसे धनवान व्यक्तियों में से हूँ। ये लो, मैं तुम्हें 10 लाख रूपये का चेक दे रहा हूँ।

तुम इससे अपनी परेशानी दूर कर लो और फिर पैसे कमाकर एक साल में मुझे वापस कर देना। मैं तुमको अब से ठीक एक साल बाद यही मिलुंगा और अपने पैसे ले लूँगा।

इतना कहकर वो बुजुर्ग वहाँ से चला गया। लड़का आवक रह गया। जैसे कि वह कोई सपना देख रहा हो। पल भर में उसकी सारी समस्याएँ दूर हो चुकी थी।

वह जमशेदजी के नाम से तो परिचित था, पर कभी देखा नहीं था। उसे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था, कि कोई इतनी बड़ी रकम किसी अंजान व्यक्ति को कैसे दे सकता है।

उसने सोचा कि जब अंजान व्यक्ति मुझ पर भरोसा कर सकता है तो मुझे खुद पर भरोसा क्यूँ नहीं है। अब उसने निश्चय किया कि पहले वो चेक इस्तेमाल नहीं करेगा पहले वह अपना पूरा प्रयास पूरी ईमानदारी से करेगा और

यदि वह अपने पहले प्रयास में असफल रहा तभी वो उस चेक का इस्तेमाल करेगा। उसने चेक को अलमारी में सुरक्षित रख दिया और अपने काम में पूरी तन्मयता से लग गया।

अब उसके सर पर एक ही जुनून सवार था कि किसी तरह से एक साल के अंदर कर्ज को चुकाना है और खुद को अच्छी स्थिति में लाना है।

उसकी मेहनत रंग लायी। साल भर में वह न केवल अपने कर्ज को चुका दिया बल्कि अपनी आर्थिक स्थिति भी सुधार लिया।

ठीक एक वर्ष बाद उसी तारीख को उसी चेक को लेकर वह पार्क पहुंचा और उस बुजुर्ग का इंतज़ार करने लगा। तभी वो बुजुर्ग आते दिखे।

लड़के ने बहुत सम्मान से अभिवादन किया और चेक बढ़ा कर कुछ कहना चाहा ही था कि तभी एक नर्स आयी और उस बुजुर्ग को पकड़ लिया और ले जाने लगा।

लड़के ने नर्स से पूछा कि क्या हुआ। नर्स ने कहा, यह एक पागल व्यक्ति है, दूसरों को अपना नाम जमशेदजी टाटा बताता रहता है और खुद को देश का बड़ा उद्योगपति समझता है। बार-बार पागलखाने से भाग जाता है ।

यह सुनते ही लड़का आवक रह गया कि जिस चेक ने उसके सोये हुए आत्मविश्वास को जगाया और जिसकी बदौलत उसने फिर से अपना कैरियर बना लिया और अपना पूरा कर्ज चुका लिया, वो चेक फर्जी था।


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motivational story no. 3

सही कर्म से दैवीय कृपा मिलती है

संसार के कुशल समाचार जानने के लिए एक दिन भगवान विष्णु ने नारद को पृथ्वी पर भेजा। नारद भगवान का आज्ञा पालन करते हुए पृथ्वी पर आए।

उन्हें सबसे पहले एक दीन दरिद्र वृद्ध पुरुष मिला जो अन्न-वस्त्र के लिए तरस रहा था। नारद जी को उसने पहचान लिया और अपनी कष्ट कथा रो-रोकर सुनाने लगा और कहा–““जब आप भगवान से मिलें तो मेरे गुजारे का प्रबंध उनसे करा दें।”!

नारद उदास मन आगे बढ़े तो एक धनी से उनकी भेंट हो गई। उसने भी नारद जी को पहचाना और खिन्‍न होकर कहा–” मुझे भगवान ने किस जंजाल में फँसा दिया। थोड़ा मिलता तो मैं शांति से रहता और कुछ भजन-पूजन कर पाता, पर इतनी दौलत तो सँभाले नहीं सँभलती। ईश्वर से मेरी प्रार्थना करें कि इस जंजाल को घटा दें।” यह विषमता नारद मुनि को अखरी। क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले उसका अनुभव कुछ और था।

खैर, वे ये सब सोचते हुए आगे चल ही रहे थे कि साधुओं की एक जमात से भेंट हो गई। जमात वाले उन्हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गए और बोले–” स्वर्ग में तुम अकेले ही मौज करते रहते हो। हम सबके लिए भी वैसे ही राजसी ठाठ जुटाओ, नहीं तो नारद बाबा चिमटे मार-मार कर तुम्हारा भूसा बना देंगे।’! घबराए नारद ने उनकी माँगी वस्तुएँ मँगा दी और जान छुड़ा कर भगवान के पास वापस लौट गए।

जो कुछ देखा वही उनके लिए बहुत था और देखने की उन्हें इच्छा ही न रही।

भगवान ने नारद से उस यात्रा का वृतांत पूछा तो नारद जी ने तीनों घटनाएँ कह सुनाई और भगवान से कहा कि हे! प्रभु आप इन सभी के इच्छाओं को पूरी क्यों नहीं कर देते हैं?

नारायण हँसे और बोले–‘देवर्षि, मैं कर्म के अनुसार ही किसी को कुछ दे सकने में विवश हूँ। जिसकी. कर्मठता समाप्त हो चुकी उसे मैं कहाँ से दूँ।

तुम अगली बार जाओ तो उस दीन-हीन वृद्ध से कहना कि दरिद्रता के विरुद्ध लड़े और जो वो चाहता है उसे खुद जुटाने का प्रयत्न करे तभी उसे दैवी सहायता मिल सकेगी।

इसी प्रकार उस धनी से कहना कि यह दौलत उसे दूसरों की सहायता के लिए दी गई है। यदि वह संग्रही बना रहा तो जंजाल ही नहीं, आगे चलकर वह विपत्ति भी बन जाएगी।! जब वो उस धन को दूसरों की मदद में लगाएगा अपने-अपने उसके मन को शांति मिलती जाएगी।

नारद जी ने पूछा-और उस साधु मंडली से क्‍या कहूँ?”

भगवान के नेत्र चढ़ गए और बोले–“उन दुष्टों से कहना कि त्यागी और परमार्थी का वेष बनाकर उसने साधूओं जैसा जीवन नहीं जिया इसीलिए उसे अपने कर्म का फल भोगना पड़ेगा।


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motivational story no. 4

किसी प्रथा को बदलना इतना आसान नहीं होता

राजगृह में एक कसाई रहता था। नाम था -‘काल कसूरी’। यथा नाम तथा गुण। वह प्रतिदिन एक सौ भैसों का वध किया करता था। धीरे-धीरे यह वृत्ति स्वभाव बन गई। वध किए बिना उसे चैन न मिलता।

एक दिन उसने एक भेंसे पर तलवार चलाई। भैंसा मजबूत और बलवान था, कटा नहीं। सारी शक्ति लगाकर छटपटाया तब पिता की सहायता के लिए पास खड़ा सुलस भी जुट गया। उथल-पुथल में तलवार की नोंक बिचक गई और सुलस के पाँव में लग गई। उससे बच्चे को तीक्र वेदना हुई। उसने अनुभव किया कि भैंसा मूक प्राणी है बोल नहीं सकता तो क्या, पर इसे भी निस्संदेह ऐसी ही पीड़ा होती होगी। बालक ने निश्चय किया वह कभी भी पशुओं का वध नहीं करेगा। पर यह बात काल कसूरी के लिए संभाव्य न थी।

एक दिन राजा श्रेणिक ने आज्ञा दी-”काल कसूरी ! तुम्हारा अंतिम समय है अब तुम पशु वध बंद कर दो।”” किंतु उसने सविनय उत्तर दिया–“’महाराज ! मेरे लिए यह असंभव है। संस्कार कितना ही बुरा क्यों न हो, पक जाता है तो ऐसा ही होता है, तब पाप भी पाप नहीं लगता वरन उससे भी मोह हो जाता है।’!

राजा श्रेणिक ने उसे बंदीगृह में डाल दिया। पर वहाँ भी काल कसूरी कौ वह वृत्ति न छूटी। वह मिट्टी के भैंसे बनाता और लकड़ी की तलवार से उनका वध करता और इस तरह आत्म संतोष प्राप्त करता।

मृत्यु का समय पास आया। उसने अपने बच्चे सुलस को बुलाकर आग्रह किया–‘वत्स! मुझे आशा है कि तुम मेरी अंतिम इच्छा पूर्ण करोगे।’” बच्चे ने कहा–“’ पिताजी ! मेरे स्वभाव से विपरीत न होगा वह हर कार्य करने को तैयार हूँ।’”

काल कसूरी ने प्रसन्‍न होकर कहा–” मैं जानता हूँ, तेरी इच्छा और रुचि का मुझे ध्यान है। ऐसा कुछ न कहूँगा जिससे तेरी भावनाएँ दुखें। मेरी इच्छा है मेरे न रहने पर तुम घर के मुखिया बनो।’”

बालक सुलस ने उसे स्वीकार कर लिया। काल कसूरी की मृत्यु हो गई। नियत दिन सुलस को मुखिया बनाने की रस्म अदा की गई। अंत में कुलदेवी के सम्मुख भैंसां खड़ा कर सुलस को बुलाया गया और उसका वध करने को कहां गया।

पर वह स्तब्ध खड़ा रहा, तलवार ऊपर न उठी। बुजुर्गों ने कहा–” बेटे, यह कुल परंपरा है। जो मुखिया बनता है उसे देवी को प्रसन्‍न करने के लिए रक्तदान करना ही पड़ता है।’!

अच्छा यह बात है? पिताजी की इच्छा अपूर्ण न रहे, यह कह कर उसने तलंवार चलाई और अपना पाँव काट दिया। परिजनों ने कहा– ““सुलस! तुमने यह क्या किया।’” सब चीख-चिल्ला रहे थे। उस दिन से उस परिवार की हिंसा सदैव के लिए छूट गई।


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motivational story no. 5

गुरु निष्ठा

प्राचीनकाल में गुरु अपने शिष्यों को विद्याध्ययन के साथ-साथ अनुशासन, शिष्यचार, क्षमाशीलता, आदि सदगुणों की भी शिक्षा देते थे। उस समय यह विश्वास था कि विद्या के समान ही चरित्र भी आवश्यक है और उसके शिक्षण पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।

ऋषि धौम्य के आश्रम में कितने ही छात्र पढ़ते थे। वे उन्हें पूरी तत्परता से पढ़ाते, साथ ही सद्गुणों की वृद्धि हुई या नहीं, इसकी परीक्षा भी लेते रहते थे।

‘एक दिन मूसलाधार वर्षा हो रही थी। गुरु ने अपने छात्र आरुणि से कहा -‘“बेटा ! खेत में मेड़ टूट जाने से पानी बाहर निकला जा रहा है। तुम जाकर मेड़ बाँध आओ। ”’ छात्र तत्काल उठ खड़ा हुआ और खेत की ओर चल दिया। प्रानी का बहाव तेज था। छात्र से रुका नहीं। कोई उपाय न देख आरुणि उस स्थान पर स्वयं लेट गया। इस प्रकार पानी रोके रहने में उसे सफलता मिल गई।

बहुत रात बीत जाने पर भी जब छात्र न लौटा तो धौम्य को चिंता हुई और वे खेत पर उसे ढूँढ़ने पहुँचे। देखा तो छात्र पानी को रोके मेड़ के पास पड़ा है। देखते ही गुरु की छाती भर आई। उन्होने उठाकर शिष्य को गले लगा लिया।

इसी प्रकार धौम्य ने अपने एक दूसरे शिष्य उपमन्यु को गौएँ चराते हुए अध्ययन करते रहने की आज्ञा दी। पर उसके भोजन का कुछ प्रबंध न किया और देखना चाहा कि देखें वह किस प्रकार अपना काम चलाता है। छात्र भिक्षा माँग कर भोजन करने लगा। वह भी न मिलने पर गौओं का दूध दुह कर अपना काम चलाने लगा।

धौम्य ने कहा–“’बेटा उपमन्यु! छात्र के लिए उचित है कि आश्रम के नियमों का पालन करे और गुरु की आज्ञा बिना कोई कार्य न करे।”’ छात्र ने अपनी भूल स्वीकार की और कहा भविष्य में भूखा रहना तो बात क्या है, प्राण जाने का अवसर आने पर भी आश्रम की व्यवस्था का पालन करूँगा।

उपमन्यु ने कई दिन निराहार होकर बहुत दुर्बल हो जाने तक अपनी इस निष्ठा की परीक्षा भी दी। छात्र संतुष्ट थे कि उन्हें सदुगुण सिखाने के लिए कष्टसाध्य कार्यों के द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है। सच्ची विद्या अक्षर ज्ञान में नहीं, सदगुणों से परिपक्व श्रेष्ठ व्यक्तित्व में ही सन्निहित है।


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motivational story no. 6

‘द’ के तीन अर्थ

देव, दानव और मनुष्य की श्रेणी में बैठे हुए मानव प्राणी परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते और धरती को खून से लाल करते रहते। दु:खी होकर धरती माता ब्रह्मा के पास पहुँची और अपनी दुःख गाथा कह सुनाई। पुत्रों का रक्त बहते देखकर माता का दु:खी होना स्वाभाविक भी था।

ब्रह्मा जी ने तीनों बच्चों को बुलाया और कहा–”इस प्रकार लड़ते-झगड़ते रहने से तुम संसार को नरक बना दोगे और स्वयं भी नष्ट हो जाओगे।”!

अपराधी की तरह तीनों बालक शिर झुकाए खड़े थे। उसने पूछा–”पितामह ! कोई ऐसी शिक्षा दीजिए जिस पर चलते हुए हम कलह से बचें और शांति तथा सुविधा प्राप्त करें।”! ब्रह्मा जी गंभीर हो गए, उन्होंने पूरे मनोयोग से शांति की शिक्षा का एक ही बीज मंत्र बोला–‘ द’ ‘द’ ‘द’।

तीनों लड़के गंभीरतापूर्वक उसका अर्थ समझने और व्याख्या करने में लग गए। सोच-विचार बहुत देर होता रहा तो स्तब्धता को भंग करते हुए ब्रह्मा ने बच्चों से पूछा -““हमारी सूत्र शिक्षा का क्‍या अर्थ समझे ?”!

देवता ने कहा -”द अर्थात दान । जिसके पास सुख-साधन मौजूद हैं उन्हें उनका उपयोग अपने ही लिए नहीं करना चाहिए वरन दूसरे अभावग्रस्तों को अपनी कमाई देकर आंतरिक आनंद प्राप्त करना चाहिए।’!

अब मनुष्य की बारी आई। ब्रह्मा के प्रश्न का उत्तर देते हुए उसने कहा–‘ द अर्थात दमन अंतः:करण में वासना और तृष्णा के जो तूफान उठते रहते हैं उन्हें दमन करना, पौरुष में संलग्न रहना, आलस को दबाना। यही मैंने समझा है। मनुष्य का कल्याण इसी में दिखता है।”

असुर ने अपनी अभिव्यक्ति बताते हुए कहा-“द का अर्थ है दया। दुष्टता निर्दयी ही कर सकता है। जिसे दूसरों के कष्ट अपने कष्टों के समान चुभेंगे बह किसी को सताने की असुरता से बचेगा।!!

ब्रह्मा जी ने स्वीकृति से सि हिलाया और कहा–”यही मेरी शिक्षा का सारांश है जो तुमने समझा है। अपने दोषों को ढूँढ़ने, समझने और उन्हें सुधारने का प्रयत्न करते रहने पर ही तुम शांतिपूर्वक जीवनयापन कर सकोगे।”!

इस धर्म शिक्षा का सारांश जानते तो सब हैं पर खेद है कि मानने वाले कोई विरले ही निकलते हैं। ब्रह्मा जी की शांति शिक्षा आज भी सबके सामने प्रस्तुत है, यदि इस पर चला जा सके तो आनंदमय जीवन में कोई अड़चन न रहे।


motivational story no. 7

आत्मविजय

युवक अंकमाल भगवान बुद्ध के सामने उपस्थित हुआ और बोला–” भगवन्‌! मेरी इच्छा है कि मैं संसार की कुछ सेवा करूँ, आप मुझे जहाँ भी भेजना चाहें भेज दें ताकि मैं लोगों को धर्म का रास्ता दिखाऊँ।’”

बुद्ध हँसे और बोले–‘“तात! संसार को कुछ देने के पहले अपने पास कुछ होना आवश्यक है। जाओ पहले अपनी योग्यता बढ़ाओ फिर संसार की भी सेवा करना।”

अंकमाल वहाँ से चल पड़ा और कलाओं के अभ्यास में जुट गया। बाण बनाने से लेकर चित्रकला तक, मल्लविद्या से लेकर मल्लाहकारी तक जितनी भी कलाएँ हो सकती हैं उन सबका उसने 10 वर्ष तक कठोर अभ्यास किया। अंकमाल की कला-विशारद के रूप में सारे देश में ख्याति फैल गई।

अपनी प्रशंसा से आप प्रसन्‍न होकर अंकमाल अभिमानपूर्वक लौटा और तथागत की सेवा में उपस्थित हुआ। अपनी योग्यता का बखान करते हुए उसने कहा–” भगवन्‌! अब मैं संसार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ न कुछ सिखा सकता हूँ। अब मैं 64 कलाओं का पंडित हूँ।’”

भगवान बुद्ध मुसकराए और बोले–“अभी तो तुम ‘कलाएँ सीखकर आए हो, परीक्षा दे लो तब उन पर अभिमान करना।”” अगले दिन भगवान बुद्ध एक साधारण नागरिक का वेष बदल कर अंकमाल के पास गए और उसे अकारण खरी-खोटी सुनाने लगे। अंकमाल क्रुद्ध होकर मारने दौड़ा तो बुद्ध वहाँ से मुसकराते हुए वापस लौट पड़े।

उसी दिन मध्याह दो बौद्ध श्रमण वेष बदल कर अंकंमाल के समीप जाकर बोले–“’ आचार्य ! आपको सम्राट हर्ष ने मंत्रिपद देने की इच्छा की है। क्या आप उसे स्वीकार करेंगे ”

अंकमाल को लोभ आ गया, उसने कहा–“हाँ-हाँ अभी चलो।” दोनों श्रमण भी “मुस्कुरा दिए और चुपचाप लौट आए। अंकमाल हैरान था–बात क्या है ?

थोड़ी देर बाद पीछे भगवान बुद्ध पुनः उपस्थित हुए। उनके साथ आम्रपाली थी। अंकमाल, जितनी देर तथागत वहाँ रहे आम्रपाली की ही ओर बार-बार देखता रहा। बात समाप्त कर तथागत आश्रम लौटे। सायंकाल अंकमाल को बुद्ध देव ने पुन: बुलाया और पूछा– ““वत्स! क्या तुमने क्रोध, काम और लोभ पर विजय की विद्या भी सीखी है ?”’

अंकमाल को दिनभर की सब घटनाएँ याद हो आईं। उसने लज्जा से अपना सिर झुका लिया और उस दिन से आत्मविजय की साधना में संलग्न हो गया।


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motivational story no. 8

बहुमत का सत्य

एक साधु वर्तमान शासन तंत्र की आलोचना कर रहे थे, तब एक तार्किक ने उनसे पूछा-‘“कल तो आप संगठन शक्ति की महत्ता बता रहे थे, आज शासन की बुराई, शासन भी तो एक संगठन ही है।”’ इस पर महात्मा ने एक कहानी सुनाई–

“एक वृक्ष पर उल्लू बैठा था, उसी पर आकर एक हंस भी बैठ गया और स्वाभाविक रूप में बोला – आज सूर्य प्रचंड रूप से चमक रहा है। इससे गरमी तीत्र हो गई है। उल्लू ने कहा – सूर्य कहाँ है? गरमी तो अंधकार बढ़ने से होती है, जो इस समय भी हो रही है।

हंस ने ज़ोर देते हुए कहा कि देखो चूंकि तुम देख नहीं सकते हो इसीलिए तुम्हें सूर्य के बारे में कुछ पता नहीं है। पर उल्लू विरोध करने लगा और उस उल्लू की आवाज सुनकर एक बड़े बरगद वृक्ष पर बैठे अनेक उल्लू वहाँ आकर हंस को मूर्ख बताने लगे और सूर्य के अस्तित्व को स्वीकार न कर हंस पर झपटे।

हंस यह कहता हुआ उड़ गया कि यहाँ तुम्हारा बहुमत है, तुम जो कहोगे वही सच होगा। बहुमत में समझदार को सत्य के प्रतिपादन में सफलता मिलना दुष्कर ही है।” तार्किक संगठन और बहुमत के अंतर को समझकर चुप हो गया।


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motivational story no. 9

दार्शनिक की विजय

एक दिन देवलोक से एक विशेष विज्ञप्ति निकाली गई। जिसने आकाश, पाताल तथा पृथ्वी तीनों लोकों में हलचल मचा दी। प्रसारण इस प्रकार था – “अगले सात दिन तक लगातार श्री चित्रगुप्त जी की प्रयोगशाला के मुख्य द्वार पर कोई भी प्राणी असुंदर वस्तु देकर उसके स्थान पर सुंदर वस्तु प्राप्त कर सकेगा। शर्त यही है कि वह विधाता की सत्ता में विश्वास रखता हो। इसकी परीक्षा वहीं कर ली जाएगी।”

बस फिर क्‍या था, सभी अपनी-अपनी बदलने वाली वस्तुओं की सूची तैयार करने लगे। याद कर-कर के सबों ने अपनी वस्तुओं को लिख लिया जो उन्हें अरुचिकर या असुंदर लगती थीं।

निश्चित तिथि पर देवलोक से कई विमान भेजे गए, जो सुविधापूर्वक सबों को देवलोक पहुँचाने लगे। जब सब लोग वहाँ पहुँच गए तो विधाता ने अपने तीसरे नेत्र की योग दृष्टि से तीनों लोकों का अवलोकन किया कि कोई बचा तो नहीं आने से।

उन्होंने पाया कि स्वर्ग तथा पाताल में कोई शेष नहीं रहा, केवल पृथ्वी पर एक मनुष्य आराम से पड़ा अपनी मस्ती में डूबा आनंद मग्न है। पास जाकर उससे. पूछा–“’तात ! तुमने हमारा आदेश नहीं सुना क्या? तुम भी चित्रगुप्त के दरबार में क्यों नहीं चले जाते और अपने पास जो कुरूप, कुरुचिपूर्ण वस्तुएँ हैं, उन्हें बदलकर अच्छी वस्तुएँ ले आते, जानते नहीं कि अच्छाई की वृद्धि से सम्मान बढ़ता है।’!

वह व्यक्ति बड़ी ही नम्नता तथा गंभीरता से बोला–‘“सुना था भगवन्‌! किंतु मुझे तो आपकी बनाई इस सृष्टि में कुछ भी असुंदर नहीं दिखता। जब सभी कुछ आपका बनाया हुआ है, सब में ही आपकी सत्ता व्याप्त हो रही है तो असुंदरता कहाँ रह सकती हैं वहाँ? मुझे तो इस सृष्टि का कण-कण सुंदर दिखाई देता है, प्रभु! फिर भला मैं किसी को असुंदर कहने का दुस्साहस कैसे कर सकता हूँ ?’! बाद में पता चला कि उस कसौटी पर केवल वही मनुष्य खरा उतरा था।

बाकी सबको निराश ही लौटना पड़ा था। यह थी एक दार्शनिक की विश्व-विजय। जो संसार की कुरूप से कुरूप वस्तु में भी सौंदर्य का दर्शन करे वही सच्चा दार्शनिक है।


motivational story no. 10

सादगी सच्चा आभूषण

लोपामुद्रा ने अपने पति अगस्त्य से कुछ आभूषणों की प्रार्थना की। ऋषि असमंजस में पड़े, पर अपनी पत्नी की कामना पूर्ण करने के लिए उन्होंने अपने शिष्यों के पास जाने में हर्ज न समझा और दूसरे दिन कुछ शिष्यों को साथ लेकर श्रुतर्वा राजा के पास चल दिए।

राजा ने उनका समुचित सत्कार करके पधारने का कारण पूछा तो ऋषि ने अपना अभिप्राय कह सुनाया। साथ ही यह भी कहा कि जो धन धर्म-पूर्वक कमाया है और उचित कामों में खर्च करने से बचा हो उसी को मैं लूँगा।

श्रुतर्वा ने महर्षि को कोषाध्यक्ष के पास भेज दिया ताकि वे हिसाब जाँच कर देख सकें कि उनका इच्छित धन है या नहीं। अगस्त्य ने हिसाब जाँचा तो समस्त राज्य-कोष धर्म उपार्जित कमाई का ही पाया पर साथ ही उचित कार्यों का खर्च भी इतना रहा कि उसमें बचत कुछ भी न थी। जमा खरच बराबर था।

ऋषि वहाँ से चल दिए और राजा धनस्व के यहाँ पहुँचे और उसी प्रकार अपना अभिप्राय कह सुनाया। उसने भी श्रुतर्वा की तरह हिसाब जाँचने की प्रार्थना की। जाँचा गया तो वहाँ भी संतुलन ही पाया गया।

अगस्त्य वहाँ से भी बिना कुछ लिए ही चल दिए। इसी प्रकार वे अपने कई अन्य धनी समझे जाने वाले शिष्यों के यहाँ गए पर वे सभी धन की पवित्रता पर ध्यान रखने वाले निकले और उनके कोष में बचत कुछ भी न निकली।

अगस्त्य वापस लौट रहे थे कि रास्ते में इल्वण नामक दैत्य मिला। उसने महर्षि का अभिप्राय जाना तो अनुरोधपूर्वक प्रार्थना की कि मेरे पास विपुल संपदा है, आप जितनी चाहें प्रसन्‍नतापूर्वक ले जा सकते हैं।

ऋषि इल्वण के महल में पहुँचे और हिसाब जाँचना शुरू किया तो वहाँ सभी कुछ अनीति से उपार्जित पाया। उचित कामों में खर्च न करने की कंजूसी में से ही वह धन जमा हो सका था। अगस्त्य ने पाप- संचय लेने में पत्ती का अहित ही देखा और वे वहाँ से भी खाली हाथ लौट आए।

प्रतीक्षा में बैठी हुई लोपामुद्रा को सांत्वना देते हुए महर्षि ने कहा–‘ प्रिये, धर्म से कमाई करने और उदारतापूर्वक उचित खर्च करने वालों के पास कुछ बचता नहीं।

अनीति से कमाने वाले कृपण लोगों के पास ही धन पाया जाता है, सो उसके लेने से हमारे ऋषि जीवन में बाधा ही पड़ेगी। अपवित्र धन से शोभायमान होने की अपेक्षा तुम्हारे लिए पवित्रता की रक्षा करते हुए अभावग्रस्त रहना ही उचित है।’! लोपामुद्रा ने पति की शिक्षा का औचित्य समझा और शोभा सौंदर्य की कामना छोड़, सादगी के साथ सुखपूर्वक रहने लगी।


अधिक भोले भी न बनो

दो मित्रों ने ईख की खेत तैयार होने पर बाँटने की बात चली तो भोले मित्र ने कहा–“’तुम्हीं बांट कर दो, जो दोगे वही ले लूँगा।’” चालाक मित्र ने कहा कि जड़ मैं लेता हूँ तुम ऊपर का भाग ले लो। उसने स्वीकार किया। अतः गन्ने चालाक मित्र ने ले लिए और ऊपर का भाग जिसे अगोला कहते हैं, भोले मित्र के पल्ले पड़ा। संसार में अधिक भोलापन भी हानिप्रद है।

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