इस लेख में हम ‘आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of Reservation)’ पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

there is a equality only among equals. To equate unequals is to perpetuate inequality.
केवल बराबर वालों के बीच ही समानता होती है। असमानों को बराबर करना असमानता को कायम रखना है।

– Mandal Commission

🔹 समझने की दृष्टि से इस पूरे लेख को चार मुख्य भागों में बाँट दिया गया है। यह इसका तीसरा भाग है। इसे पढ़ने से पहले इसके पहले और दूसरे भाग को अवश्य पढ़ लें, वहाँ हमने क्रमश: भारत में आरक्षण के आधारभूत तत्व[1/4] और आरक्षण का संवैधानिक आधार[2/4] को समझा था।

आगे आने वाले लेख में हम रोस्टर सिस्टम : आरक्षण के पीछे का गणित[4/4] को समझेंगे, तो बेहतर समझ के लिए संबन्धित सभी लेखों का अध्ययन करें।

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Evolution of Reservation
Evolution of Reservation - आरक्षण का विकास क्रम [3/4]
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| भारत में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in India):

भारत में आरक्षण बहुत ही विवादित मुद्दों में से एक रहा है। ये ऐसा विवादित मुद्दा है जिसपर आज भी विवाद जारी है और कब खत्म होगा कोई नहीं जानता।

जिसको आरक्षण मिलता है वो इसे अपना विशेषाधिकार समझता है और जिसे नहीं मिलता वो चाहता है या तो ये उसे भी मिले या जिसे मिल रहा है उसे भी न मिले।

भारत में आरक्षण सकारात्मक कार्रवाई की एक प्रणाली है जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से वंचित समूहों जैसे अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को सरकारी नौकरियों या शिक्षण संस्थानों में कोटा प्रदान करती है।

इन समूहों द्वारा सामना किए गए ऐतिहासिक अन्याय और भेदभाव को संबोधित करने के लिए भारत में आरक्षण की शुरुआत की गई थी। इसका उद्देश्य उन्हें समान अवसर प्रदान करना और उनके सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने में मदद करना था।

लेकिन आजादी के 75 साल में भी उस लक्ष्य को पूरा नहीं किया जा सका और धीरे-धीरे ये राजनीतिक नफा-नुकसान का मुद्दा बन गया।

आजादी के शुरुआती कुछ सालों में ही इस पर विवाद शुरू हुआ और धीरे-धीरे ये अपना आकार ग्रहण करते गया। आज पहले की तुलना में कई ज्यादा लोग इसका लाभ उठा रहे हैं, तो ये आज जिस स्थिति में है उस स्थिति तक पहुंचा कैसे, उसके लिए आइये समझते हैं आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in India)….💡

भारत में आरक्षण के विकास क्रम को समझने के लिए हम इसे दो भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं;

(1) आजादी मिलने से पूर्व भारत में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in India before independence), और

(2) आजादी के बाद भारत में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in India after independence)।

(1) आजादी मिलने से पूर्व भारत में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in India before independence)

ब्रिटिश भारत के कई क्षेत्रों में स्वतंत्रता से पहले कुछ जातियों और अन्य समुदायों के पक्ष में कोटा प्रणाली मौजूद थी। उदाहरण के लिए, 1882 और 1891 में सकारात्मक भेदभाव (positive discrimination) के विभिन्न रूपों की मांग की गई थी।

[1882 में विलियम हंटर और ज्योतिराव फुले ने मूल रूप से जाति आधारित आरक्षण प्रणाली के विचार की कल्पना की थी।]

कोल्हापुर रियासत के महाराजा राजर्षि शाहू (यशवंतराव) ने गैर-ब्राह्मण और पिछड़े वर्गों के पक्ष में आरक्षण की शुरुआत की, जिनमें से अधिकांश 1902 में लागू हुए। उन्होंने सभी को मुफ्त शिक्षा प्रदान की और उनके लिए इसे आसान बनाने के लिए कई छात्रावास खोले। इसीलिए छत्रपति साहूजी महाराज (यशवंतराव) को आरक्षण व्यवस्था का जनक माना जाता है।

*उन्होंने यह सुनिश्चित करने का भी प्रयास किया कि शिक्षित लोगों को उपयुक्त रूप से नियोजित किया जाए; यानी कि उन्होने मुफ्त शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात की। साथ ही उन्होंने वर्ग-मुक्त भारत और अस्पृश्यता के उन्मूलन दोनों के लिए अपील की। उनके 1902 के उपायों ने पिछड़े समुदायों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण का सृजन किया।  

🔹 1918 में, प्रशासन के ब्राह्मण वर्चस्व की आलोचना करने वाले कई गैर-ब्राह्मण संगठनों के इशारे पर, मैसूर राजा नलवाड़ी कृष्णराज वाडियार ने गैर-ब्राह्मणों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लागू करने के लिए एक समिति बनाई थी। 

🔹 16 सितंबर 1921 को, पहली जस्टिस पार्टी सरकार ने पहला सांप्रदायिक सरकारी आदेश पारित किया, जिससे यह भारतीय विधायी इतिहास में आरक्षण कानून बनाने वाला पहला निर्वाचित निकाय बन गया, जो तब से पूरे देश में मानक बन गया।

[जस्टिस पार्टी, आधिकारिक तौर पर दक्षिण भारतीय लिबरल फेडरेशन, ब्रिटिश भारत के मद्रास प्रेसीडेंसी में एक राजनीतिक दल था। इसकी स्थापना 20 नवंबर 1916 को विक्टोरिया पब्लिक हॉलिन मद्रास में डॉ. सी. नतेसा मुदलियार द्वारा की गई थी और टीएम नायर, पी. थियागराय चेट्टी और अलामेलु मंगई थायरम्मल द्वारा सह-स्थापना की गई थी।]
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🔹 ब्रिटिश राज ने 1909 के भारत परिषद अधिनियम में आरक्षण के तत्वों को पेश किया। जिसमें मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन (separate electorate) की व्यवस्था की गई। इसके तहत मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गई जिसमें केवल मुसलमान ही वोट डाल सकते थे।

🔹 इसके अलावा, जून 1932 के गोलमेज सम्मेलन के परिपेक्ष्य में ब्रिटेन के प्रधान मंत्री, रामसे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक पुरस्कार (communal award) का प्रस्ताव रखा, जिसके अनुसार मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन और यूरोपीय के लिए अलग-अलग प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना था। 

दलित वर्गों, मोटे तौर पर एसटी और एससी को निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव द्वारा भरने के लिए कई सीटें सौंपी गई थीं, जिसमें केवल वे ही वोट दे सकते थे, हालांकि वे अन्य सीटों पर भी वोट दे सकते थे। प्रस्ताव विवादास्पद था: महात्मा गांधी ने इसके विरोध में उपवास किया लेकिन बी आर अंबेडकर सहित कई दलित वर्गों ने इसका समर्थन किया।

बातचीत के बाद, गांधी ने अम्बेडकर के साथ एक एकल हिंदू मतदाता के लिए समझौता किया, जिसमें दलितों के लिए सीटें आरक्षित थीं। इसे पूना पैक्ट के नाम से जाना गया।

खैर, अंग्रेजों ने जो तथाकथित आरक्षण जैसी व्यवस्था लायी थी, जाहिर है उससे उसका अपना हित ज्यादा सधता था। जो भी हो, पर इससे हमारे नेताओं के मन में आरक्षण या सकारात्मक भेदभाव के संबंध में एक धारणा तो जरूर बनी।

(2) आजादी के बाद भारत में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in India after independence)

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लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुच्छेद 330 और 332 के तहत एससी एवं एसटी वर्ग को आजादी के बाद ही संवैधानिक तौर पर आरक्षण मिल चुका था। इस संदर्भ में समझने के लिए जितनी भी बातें हैं, वो हमने पिछले लेख में जान लिया है।

अनुच्छेद 330 एवं 332 के तहत एससी एवं एसटी को लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में मिले आरक्षण को शुरुआती 10 वर्षो के लिए ही लागू किया जाना था। पर हर 10 वर्षों के बाद इसे और 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जाता रहा है। आखिरी बार इसे 104वां संविधान संशोधन अधिनियम 2020 के तहत 10 और वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया है।

क्योंकि 95वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जब इसे 2009 में बढ़ाया गया था तो इसकी अवधि 26 जनवरी 2020 को खत्म हो रही थी। अब जबकि इसे फिर से 10 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया है अब इसकी समाप्ति की अवधि 25 जनवरी 2030 हो गयी है। [इससे संबंधित जानकारी को आप अनुच्छेद 330, 331, 332, 334, एवं 335 में प्राप्त कर सकते हैं।
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दूसरी बात कि पंचायत और नगरपालिका जैसे प्रतिनिधि संस्थानों में जो आरक्षण दिया जाता है उसे भी हमने पिछले लेख में समझा है। हालांकि इन दोनों टॉपिक्स को विस्तार से समझने के लिए आपको स्थानीय स्व-शासन पढ़ना पड़ेगा।

तो यहाँ जो हम आरक्षण का विकास क्रम समझने वाले हैं, वो है

(1) शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in Educational Institutions) और,

(2) नियोजन या नियुक्ति में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in Appointment and Employment)।

यही वो आरक्षण है जिसके बारे में सबसे ज़्यादा हायतौबा मचती है, तो हम इसे अच्छे से समझने वाले हैं;

🔹 शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in admission in educational institutions)

पिछले भाग में हमने समझा कि किस तरह से अनुच्छेद 15 के तहत शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। अनुच्छेद 15 का खंड (1) और (2) तो विभेद रोकने की बात करता है पर इसी अनुच्छेद का खंड (3), (4), (5) एवं (6) महिलाओं, सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग, SC एवं ST वर्ग एवं EWS के लिए शिक्षण संस्थानों में विशेष प्रावधान की बात करता है।

हालांकि अनुच्छेद 15 का खंड (4), (5) एवं (6) मूल संविधान का हिस्सा नहीं था बल्कि इसे बाद में जोड़ा गया, ऐसा क्यों किया गया आइये समझें;

🔹 इसकी शुरुआत चंपकम दोराईराजन मामले 1951 मानी जा सकती है। दरअसल, उस समय मद्रास सरकार ने जाति के आधार पर कॉलेज में आरक्षण की व्यवस्था की थी। इसके खिलाफ चंपकम ने अपील की और दलील दी कि आरक्षण, अनुच्छेद 15(1) अनुच्छेद 29(2) एवं अनुच्छेद 16 के अनुसार नहीं दिया जा सकता है। 

जो कि सही भी था खासकर के अनुच्छेद 29 (2) तो पूरी तरह से इसके खिलाफ़ था क्योंकि ये कहता है कि राज्य द्वारा संचालित या राज्य निधि से संचालित किसी भी शिक्षण संस्थानों में किसी भी नागरिक को धर्म, नस्ल, जाति एवं भाषा या इनमें से किसी के आधार पर प्रवेश से नहीं रोका जा सकता है।

मद्रास सरकार ने दलील देते हुए कहा कि हम अनुच्छेद 46 को आधार बनाकर आरक्षण दे रहे है। यहाँ पर मद्रास सरकार भी सही था क्योंकि अनुच्छेद 46 इसे सपोर्ट करता है। दरअसल अनुच्छेद 46, एससी एवं एसटी एवं दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि की बात करता है। 

लेकिन चूंकि अनुच्छेद 46 राज्य का नीति निदेशक तत्व (DPSP) है, मौलिक अधिकार नहीं; इसीलिए उच्चतम न्यायालय ने मूल अधिकारों को DPSP से सर्वोपरि माना।

इसी को खारिज करने के लिए भारत सरकार ने पहला संविधान संशोधन किया। जिसके तहत अनुच्छेद 15(4) जोड़ा गया और ये व्यवस्था कर दी गई कि इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 (2) की कोई भी बात पिछड़े हुए नागरिकों के किन्ही वर्गों के लिए, या एसटी एवं एससी के लिए विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। 

इस तरह से शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण का रास्ता, पिछड़े वर्ग, एससी वर्ग या एसटी वर्ग के लिए साफ हो गया। 

शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण की पृष्ठभूमि
1954 में, शिक्षा मंत्रालय ने सुझाव दिया कि शैक्षणिक संस्थानों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए 20 प्रतिशत स्थान आरक्षित किए जाने चाहिए, जहाँ कहीं भी आवश्यक हो, प्रवेश के लिए न्यूनतम योग्यता अंकों में 5 प्रतिशत की छूट दी जाए।

1982 में, यह निर्दिष्ट किया गया था कि सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में रिक्तियों का 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत क्रमशः अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए।
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🔹 फिर से 93वां संविधान संशोधन 2005 के माध्यम से अनुच्छेद 15(5) जोड़ा गया और ये व्यवस्था किया गया कि – यह अनुच्छेद और अनुच्छेद 19(1)(g) की कोई बात, राज्य को, सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों एवं एसटी या एससी वर्ग के लिए, शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश (admission) में, विशेष उपबंध करने से रोकेगी नहीं। 

[यहाँ याद रखिए कि इसमें सरकारी शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ निजी शिक्षण संस्थान भी शामिल है। पर (अनुच्छेद 30(1) के तहत के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छोड़कर)] ]

सरकार ने शिक्षा में आरक्षण लागू करने के लिए विभिन्न कानून और नीतियां बनाई हैं। केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 सभी केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान करता है। आइये इसके बारे में मुख्य बातें समझ लेते हैं;

🔹 The Central Educational Institutions (Reservation in Admission) Act, 2006

केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 भारत की संसद का एक अधिनियम है जो अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित छात्रों के लिए सीटों के आरक्षण का प्रावधान करता है।

अधिनियम में सीटों के आरक्षण का प्रावधान इस प्रकार है:

अनुसूचित जाति: 15%
अनुसूचित जनजातियाँ: 7.5%
अन्य पिछड़ा वर्ग: 27%

यह अधिनियम विश्वविद्यालयों, डीम्ड विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों सहित सभी केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों (CEIs) पर लागू है। हालाँकि, अधिनियम में कुछ अपवाद हैं, जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए संस्थान पर यह लागू नहीं होता है और अनुसंधान संस्थानों, राष्ट्रीय और रणनीतिक महत्व के संस्थानों आदि पर लागू नहीं होता है।

यह अधिनियम महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सुनिश्चित करता है कि वंचित समूहों के छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त हों। आरक्षण ने सीईआई में एससी, एसटी और ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाने में मदद की है और उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार करने में भी मदद की है।

🔹 The Central Educational Institutions (Reservation in Teachers’ Cadre) Act, 2019

केंद्रीय शैक्षिक संस्थान (शिक्षक संवर्ग में आरक्षण) अधिनियम, 2019 भारत की संसद का एक अधिनियम है जो केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों (CEIs) में शिक्षक संवर्ग में शिक्षकों की सीधी भर्ती (स्वीकृत संख्या में से) में पदों के आरक्षण का प्रावधान करता है।

फिलहाल लागू किसी भी अन्य कानून में किसी बात के बावजूद भी इस कानून के तहत केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान में शिक्षकों के संवर्ग में स्वीकृत संख्या में से सीधी भर्ती में पदों का आरक्षण उस सीमा तक और उस तरीके से होगा जैसा कि केंद्र द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है।

और दूसरी बात ये कि पदों के आरक्षण के प्रयोजन के लिए, एक केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (Central Educational Institution) को एक इकाई माना जाएगा। [इस Act को लाने के पीछे भी अपना एक दिलचस्प कारण है जिसे कि हम आगे समझने वाले हैं;]

🔹 2019 में 103वां संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 15(6) जोड़ा गया और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।

इसके लिए अनुच्छेद 15(6) में लिखवा दिया गया कि अनुच्छेद 15 की कोई बात और अनुच्छेद 29(2) एवं अनुच्छेद 19(1)(g) की कोई बात, EWS को शिक्षण संस्थानों में प्रवेश से रोकेगा नहीं। इस तरह से EWS लिए प्रवेश में 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई।

आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EWS) को मिलने वाले आरक्षण की पृष्ठभूमि
अनुच्छेद 15(6) के तहत EWS को प्रवेश में, और अनुच्छेद 16(6) के तहत नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था 103वें संविधान संशोधन अधिनियम 2019 के तहत की गई। इसके बारे में आगे हम थोड़ी और बात करेंगे पर कुछ बाते आप याद रखिए ;
* 1991 में पी वी नरसिम्हाराव की काँग्रेस सरकार ने आर्थिक आधार पर भी आरक्षण देने की थी। पर इसे इन्दिरा साहनी द्वारा चैलेंज किया गया। और सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात को खारिज कर दिया, इस आधार पर की एक तो संविधान में सिर्फ सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने की बात कही गई है, आर्थिक आधार पर नहीं। और दूसरी बात ये कि इससे कुल आरक्षण 50 प्रतिशत के ऊपर चला जाता।
* 2006 में काँग्रेस सरकार ने सामान्य वर्ग में आर्थिक पिछड़ेपन का अध्ययन करने के लिए मेजर सिन्हो आयोग का गठन किया। 2019 में बीजेपी सरकार द्वारा EWS को आरक्षण देने के पीछे इस आयोग के सिफ़ारिशों को भी एक आधार माना जाता है।
* 2012 में हरियाणा के काँग्रेस नेता अजय सिंह यादव ने भी आर्थिक आधार पर आरक्षण ओबीसी वर्ग के साथ-साथ उच्च वर्ग के जातियों को देने की बात की थी।
* इसके अलावा 2008 में केरल सरकार द्वारा गरीब छात्रों को सरकारी कॉलेज में 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया था। जिसे कि मुस्लिम पक्ष द्वारा उच्च न्यायालय में चैलेंज किया गया। पर 2010 में केरल उच्च न्यायालय ने आर्थिक आरक्षण को सही ठहराया। कोर्ट ने यहाँ तक कहा कि धर्म एवं जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था से निकलते हुए योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया जाए।
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[यहाँ पर ये याद रखिए कि EWS में वही शामिल होंगे, जिसे कि सरकार द्वारा समय-समय पर पारिवारिक आय एवं अन्य आर्थिक सूचकों पर निर्धारित किया जाएगा।] [और EWS के लिए भी सरकारी शिक्षण संस्थानों के साथ-साथ निजी शिक्षण संस्थान शामिल है, (अनुच्छेद 30(1) के तहत के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को छोड़कर)]

[नोट- अनुच्छेद 15 (3) में ये लिखा हुआ है कि राज्य स्त्रियों एवं बालकों के लिए विशेष उपबंध कर सकता है। इसे स्त्रियों को आरक्षण या वरीयता से जोड़ कर देखा जा सकता है।]

🔹 नियोजन या नियुक्ति में आरक्षण का विकास क्रम (Evolution of reservation in Appointment and Employment)

15 अगस्त 1947 को भारतीयों के पास सत्ता आने के एक महीने बाद (21 सितंबर 1947 को) ही एक निर्देश जारी किया गया, जिसके तहत SC को 12.5 % आरक्षण, खुली प्रतियोगिता के माध्यम से होने वाले भर्तियों में दिया गया। जबकि बिना खुली प्रतियोगिता के द्वारा होने वाली भर्तियों में 16.66 % आरक्षण SC को दिया गया।

खुली प्रतियोगिता (open competition)
खुली प्रतियोगिता (open competition) के द्वारा भर्ती का मतलब है, किसी भर्ती संस्था (UPSC, SSC आदि) द्वारा लिखित परीक्षा या इंटरव्यू या फिर दोनों के आधार पर भर्ती करना।
वहीं जब इस तरीके के अलावे भर्ती की जाती है तो उसे गैर-खुली प्रतियोगिता (other than open competition) कहा जाता है। यानि कि जब UPSC या SSC जैसी संस्थानों द्वारा बिना भर्ती परीक्षा लिए भर्ती कर दी जाती है।

[खुली प्रतियोगिता (open competition) और गैर-खुली प्रतियोगिता (other than open competition) के लिए लेख के अंत में दिये गए FAQ Pdf देखें]
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▪ सितंबर 1950 में एक संकल्प द्वारा ST को भी 5% का आरक्षण दे दिया गया। यानी कि 1950 से एससी और एसटी दोनों को आरक्षण मिलने लग गया।

▪ 1961 के जनगणना से पता चला कि एससी की जनसंख्या 14.64 % और एसटी की 6.80 % है। इसी जनसंख्या को आधार बनाकर एससी और एसटी को मिलने वाले आरक्षण प्रतिशत को क्रमशः 15 % और 7.5 % कर दिया गया।

▪ आगे 1971 की जनसंख्या की समीक्षा नहीं की गई और 1981 के जनगणना का सही परिणाम सामने नहीं आ पाया क्योंकि अवैध प्रवासियों के चलते उत्पन्न हुई राजनीतिक अस्थिरता के कारण असम में जनगणना हो नहीं पाया।

हालांकि उसके बाद भी एससी और एसटी की जनसंख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग क्रमशः 15-16 % और 7-8 प्रतिशत ही रहा। इसीलिए आज भी एससी और एसटी को क्रमशः 15 % और 7.5 % ही आरक्षण मिलता है।

पर 1992-93 में जो खास हुआ वो था OBC की एंट्री। और उसके बाद नियोजन एवं नियुक्तियों में आरक्षण के संदर्भ में एक के बाद एक संशोधन होता चला गया जो अभी भी चल ही रहा है, तो इसे समझने के लिए हम मंडल आयोग से इसकी शुरुआत कर सकते हैं।

ओबीसी आरक्षण और मंडल आयोग (OBC Reservation and Mandal Commission):

SC एवं ST के लिए आरक्षण में कोई दुविधा नहीं थी क्योंकि संविधान में ठीक-ठाक मात्रा में इसकी चर्चा की गई है। लेकिन SC एवं ST के अलावा जो अन्य पिछड़ा वर्ग है उसके मामले में स्पष्टता नहीं थी।

पहला संविधान संशोधन अधिनियम की मदद से अनुच्छेद 15 में चौथा खंड जोड़ा गया जिसमें कि सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग का जिक्र किया गया। इसके अलावा अनुच्छेद 16 का चौथा खंड भी पिछड़े वर्ग के पक्ष में आरक्षण की बात करता है। लेकिन पिछड़ा वर्ग कौन होगा इसके बारे में बहुत ज्यादा स्पष्टता नहीं थी।

जाहिर है अगर पिछड़े वर्ग के पक्ष में कुछ सकारात्मक कार्रवाई करनी है तो पहले ये तो पता हो कि पिछड़ा वर्ग कौन है, या उसके तहत कौन-कौन आता है।

संविधान में एक अनुच्छेद है, अनुच्छेद 340, इसके तहत यह व्यवस्था किया गया है कि पिछड़े वर्गों की दशाओं की अन्वेषन के लिए राष्ट्रपति एक आयोग को नियुक्त कर सकता है।

संविधान के इसी अनुच्छेद 340 का प्रयोग करते हुए सरकार ने साल 1953 में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (First Backward Classes Commission) का गठन किया जिसकी अध्यक्षता काका कालेलकर को दी गई।

काका कालेलकर ने साल 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी और इस रिपोर्ट के माध्यम से कुछ महत्वपूर्ण बातों को उन्होने सामने रखा; जो कि कुछ इस प्रकार है;

पहली बात इन्होने बताई कि देश का 32% जनसंख्या जाति के आधार पर पिछड़ा हुआ है; और,

दूसरी बात इन्होने बताई कि देशभर में ऐसी 2399 जातियाँ है जो कि पिछड़ा हुआ है।

हालांकि इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया गया और इसके पीछे की वजह के रूप में कहा गया कि पिछड़ेपन की गणना जाति (Caste) के आधार पर करने के बजाय सिद्धांतों (Principles) के आधार पर होना चाहिए था।

🔹 मोरारजी देशाई की जनता पार्टी की सरकार ने 1979 में द्वितीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन बी. पी. मण्डल की अध्यक्षता में की।

इस आयोग का मकसद था पिछड़े वर्ग के लोगों की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का पता लगाना और इसके लिए क्या किया जा सकता है इसका सुझाव सरकार को देना। आयोग ने 1980 में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपी जिसकी मुख्य बातें कुछ इस प्रकार थी;

▪ आयोग ने 3743 पिछड़ी जातियों (Backward castes) की पहचान की जो कि देश की आबादी का लगभग 52 प्रतिशत था।

▪ इन पिछड़े जातियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफ़ारिश की।

जैसा कि हम जानते हैं जनता पार्टी की सरकार 1979 में गिर चुकी थी और फिर से 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार सत्ता में आ गई थी। 1980 से 1989 तक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की काँग्रेस सरकार ने आयोग की रिपोर्ट पर कोई सुधि नहीं ली।

दिसम्बर 1989 में जनता दल की सरकार की सरकार की फिर से वापसी हुई और 13 अगस्त 1990 को एक कार्यालयी ज्ञापन (OM) द्वारा वी. पी. सिंह की सरकार ने मंडल आयोग द्वारा की गई सिफ़ारिश यानी कि 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर दी। घोषणा होते ही देशभर में (खासकर के उत्तर भारत में) एक हिंसक आंदोलन शुरू हो गया।

और यह आंदोलन लगभग तीन महीने तक चला, जिससे भारी जन-धन की हानि हुई, कई स्टूडेंट्स ने खुद को आग लगा लिया। ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने सरकार के इस निर्णय की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिया और इस पर रोक लगाने की मांग की।

और न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने मामले पर अंतिम सुनवाई होने तक सरकार के 13 अगस्त को लिए गए फैसले पर रोक लगा दी।

अक्तूबर 1990 में राम जन्मभूमि विवाद होता है जिसमें मुलायम सिंह सरकार द्वारा कारसेवकों पर गोली चलवाया जाता है और इस कारण से नेशनल फ्रंट की सरकार से बीजेपी ने अपना समर्थन वापस ले लिया और वी. पी. सिंह की सरकार गिर गई।

फिर कुछ समय के लिए चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बनते हैं और फिर जून 1991 में काँग्रेस सत्ता में आती है और 25 सितंबर 1991 में पी. वी. नरसिंहराव की काँग्रेस सरकार ने इसमें दो परिवर्तन प्रस्तुत किया

(1) इस 27 % OBC आरक्षण में गरीब लोगों को आर्थिक आधार पर प्राथमिकता, और

(2) सामान्य वर्गों के गरीब या आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10 % अलग से आरक्षण।

कहने का अर्थ है कि इस सरकार ने पहले ही देख रखा था कि उच्च जातियाँ इस OBC आरक्षण से खुश नहीं है इसीलिए उन्होने 27% कोटा में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (EWS) को प्राथमिकता देकर आरक्षण देने के लिए अब एक आर्थिक मानदंड शामिल कर दिया गया, और उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए अतिरिक्त 10% का आरक्षण अलग से देने का प्रावधान किया।

इधर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सुनवाई के लिए 9 जजों की एक बेंच तैयार की। इंदिरा साहनी नामक एक वकील भी इस केस में एक Petitioner था, जिन्होने कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए थे और इसीलिए यह मामला इंदिरा साहनी और अन्य बनाम भारत सरकार के नाम से फ़ेमस हुआ।

इंदिरा साहनी मामला और उसकी दलील (Indira Sawhney case and its arguments)

इंदिरा साहनी ने निम्नलिखित बातों को सुप्रीम कोर्ट में उठाया;

  • आरक्षण का मुख्य आधार जाति नहीं हो सकता है।
  • आरक्षण 50 % से अधिक नहीं हो सकता है।
  • आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं हो सकता है क्योंकि अनुच्छेद 15(4) और 15(5) में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की बात कही गई है न कि आर्थिक आधार की।
  • क्या अनुच्छेद 16(1), अनुच्छेद 16(4) से संगत है क्योंकि एक जगह वही काम करने से मना किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर वही काम करने को कहा जा रहा है।
  • सार्वजनिक संस्थानों की कार्यक्षमता (Efficiency) खतरे में आ जाएगी।

इस पर 9 जजों की बेंच बैठी और 6:3 से फैसला सुनाया गया जो कि कुछ इस प्रकार था-

◼ सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आरक्षण का आधार जाति हो सकता है और अनुच्छेद 16(1), 16(4) से असंगत नहीं है बल्कि दोनों एक दूसरे की मदद से लागू होते हैं।

◼ अनुच्छेद 16(4) में पिछड़े वर्ग अनुच्छेद 15(4) में उल्लिखित सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों से भिन्न थे। अनुच्छेद 16(4) पिछड़े वर्गों को पिछड़े और अधिक पिछड़े में वर्गीकृत करने की अनुमति देता है।

संविधान के अनुच्छेद 16 के तहत खंड (4) में “सामाजिक और शैक्षिक रूप से” शब्द शामिल नहीं हैं, जैसा कि अनुच्छेद 15 के खंड (4) में है। इसीलिए अनुच्छेद 16 के खंड (4) के तहत “नागरिकों का पिछड़ा वर्ग” टर्म के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और नागरिकों के सभी अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी), एवं सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग भी शामिल हैं।

इस व्याख्या से फर्क यह पड़ा कि अगर कुछ वर्ग अनुच्छेद 15(4) के तहत योग्य नहीं हो सकते हैं, तो वे अब अनुच्छेद 16(4) के तहत अर्हता प्राप्त कर सकते हैं।

इस तरह से, बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1963) मामले में दिया गया निर्णय खारिज हो गया, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 16 के खंड (4) में उल्लिखित नागरिकों का पिछड़ा वर्ग अनुच्छेद 15(4) में उल्लिखित सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, एससी और एसटी के समान है।
Evolution of Reservation

◼ यह निर्धारित किया गया था कि संविधान का अनुच्छेद 16(4) पिछड़े वर्गों को “पिछड़े और अधिक पिछड़े” के रूप में वर्गीकृत करने की अनुमति देता है।

◼ सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण को खारिज कर दिया लेकिन 27 % OBC आरक्षण को कुछ शर्तों के साथ बनाए रखा।

शर्तें कुछ इस प्रकार थी –

(क) ओबीसी के क्रीमीलेयर से संबन्धित व्यक्तियों को आरक्षण की सुविधा से वंचित रखा जाना चाहिए।

[यहाँ यह याद रखिए कि क्रीमी लेयर एक ऐसी व्यवस्था है जिसके तहत कुछ खास आय वाले व्यक्तियों को आरक्षण से वंचित किया जाता है। कितने आय वाले व्यक्तियों को इसके तहत शामिल किया जाता है इसके लिए आप इस लेख को पढ़ें; क्रीमी लेयर (Creamy Layer) : पृष्ठभूमि, सिद्धांत, तथ्य…]

(ख) आरक्षण की व्यवस्था केवल नियुक्ति के लिए होनी चाहिए प्रोन्नति (Promotion) के लिए नहीं।

(ग) असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, कुल आरक्षित कोटा 50 % से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

(घ) आरक्षण वाली सीटें अगर नहीं भर पाती है तो उसे आगे भरा जा सकता है, यानी कि कैरी फॉरवर्ड नियम यहाँ काम करेगा लेकिन इसमें भी 50 प्रतिशत के सिद्धांत का पालन किया जाना चाहिए।

कुल मिलाकर यही था इंदिरा साहनी का मामला जिसे कि आरक्षण के मामले में एक लैंडमार्क जजमेंट माना जाता है। पर यहाँ ये बात याद रखिए कि vertical (ऊर्ध्वाधर) और horizontal (क्षैतिज) आरक्षण की व्यवस्था इसी जजमेंट के तहत की गई थी। जिसके तहत एससी, एसटी एवं ओबीसी को वर्टिकल और दिव्याङ्गजन एवं महिलाओं को हॉरिजॉन्टल आरक्षण की श्रेणी में रखा गया। इसे विस्तार से समझने के लिए – वर्टिकल और हॉरिजॉन्टल आरक्षण का कॉन्सेप्ट↗ को पढ़ें।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए इस व्यवस्था के बाद सरकार ने कुछ कदम उठाए ;

🔹 OBC में क्रीमीलेयर की पहचान के लिए राम नंदन प्रसाद (Justice R N Prasad) समिति का गठन किया, 1993 में उनकी रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया और क्रीमीलेयर व्यवस्था को शुरू किया गया। [क्रीमी लेयर के पूरे कॉन्सेप्ट को विस्तार से समझने के लिए दिए गए लेख को पढ़ें]

🔹 1993 में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (National Commission for Backward Classes) का गठन किया गया, जिसका मुख्य काम आरक्षण लिस्ट में नाम जोड़ने एंव घटाने का था।

🔹आपको याद होगा कि इंदिरा साहनी मामले में प्रोन्नति (Promotion) में आरक्षण देने को मना किया गया था। इसी सरकारी सेवा में पदोन्नति में आरक्षण न होने के मुद्दे पर न्यायालय के फैसले को खारिज करने के लिए संसद ने संविधान का 77वां संशोधन अधिनियम, 1995 लागू किया।

77वां संविधान संशोधन अधिनियम 1995 की मदद से प्रमोशन में आरक्षण को लागू करना;

प्रोन्नति (Promotion) के मामले में 77वें संविधान संशोधन 1995 के माध्यम से अनुच्छेद 16 में एक नया क्लॉज़ अनुच्छेद 16 (4A) जोड़ा गया, जिसके तहत राज्यों को शक्ति प्रदान की गई कि राज्य की नजर में, राज्य सेवा में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं होने पर प्रोन्नति (Promotion) में आरक्षण दे सकता है।

इससे हुआ ये कि एक ही पोस्ट पर काम करने वाले दो व्यक्तियों (जिसमें से एक एससी और एक सामान्य वर्ग के व्यक्ति है) में से SC वर्ग के व्यक्ति को पहले प्रोन्नति (promotion) मिल जाएगा और वो सामान्य वर्ग के व्यक्ति से सीनियर हो जाएगा।

इसमें सामान्य वर्ग के व्यक्ति को असमानता दिखा और उसने न्यायालय में इस प्रावधान को चैलेंज कर दिया। [आगे क्या हुआ यह जानने से पहले, दिए गए बात को याद रखें;]

प्रोमोशन में आरक्षण देना कोई नई बात नहीं थी बल्कि ये 1960 के दशक में शुरू हो चुका था। The General Manager, Southern … vs Rangachari मामला 1961 में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को माना था कि अनुच्छेद 16(4) में इस्तेमाल किया गया शब्द ‘पद (posts)’ न केवल ‘प्रारंभिक नियुक्ति (initial appointment)’ के पद की परिकल्पना करता है, बल्कि ‘पदोन्नति पद (promotion post)’ की भी परिकल्पना करता है। इसीलिए Promotion में आरक्षण हो सकता है।

1963 में ग्रुप सी और ग्रुप डी में चयन द्वारा पदोन्नति में आरक्षण प्रदान किया गया था और उसी वर्ष विभागीय प्रतियोगी परीक्षा में आरक्षण तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के जॉब तक सीमित किया गया।

1968 में स्थिति में थोड़ा बदलाव किया गया और सीमित विभागीय परीक्षा में श्रेणी II, III और IV के जॉब में आरक्षण और श्रेणी III और IV में चयन द्वारा पदोन्नति (Promotion by selection) इस शर्त के अधीन किया गया कि सीधी भर्ती का तत्व 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।

1974 में, ग्रुप सी से ग्रुप बी में, और ग्रुप बी से ग्रुप ए के सबसे निचले पायदान पर चयन द्वारा पदोन्नति में आरक्षण इस शर्त के अधीन किया गया था कि सीधी भर्ती का तत्व, (यदि कोई हो तो) 50 % से अधिक नहीं हो।

इसी आरक्षण में प्रमोशन वाली व्यवस्था को (जो कि लगभग 30 सालों से चली आ रही थी) इन्दिरा साहनी मामले 1992 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया था। और इसी को फिर से लागू करने के लिए सरकार द्वारा 77वां संविधान संशोधन लाया गया था।
Evolution of Reservation

विरपाल सिंह बनाम भारत सरकार 1995 और अजित सिंह जांजूआ बनाम पंजाब सरकार मामला 1996 इसी से संबंधित है, जिसके तहत आरक्षण में प्रमोशन को चैलेंज किया गया था।

Union of India & Ors v. Virpal Singh Chauhan & Ors मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि जिन एससी/एसटी को पदोन्नति का लाभ दिया गया है, उन्हें परिणामी वरिष्ठता (consequential seniority) नहीं मिलेगी।

इसी तरह से Ajit Singh Januja & Ors vs State Of Punjab मामले के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा ये व्यवस्था दिया गया कि – SC या ST वर्ग को प्रमोशन में आरक्षण दिया जाता है और वो सामान्य वर्ग के व्यक्ति से सीनियर हो जाता है; ये ठीक है, पर इसके बाद जब फिर से सामान्य वर्ग को प्रोन्नति मिलेगी तो फिर से वो अपनी स्थिति (position) को फिर से प्राप्त कर लेगा। यानी कि अगर सामान्य वर्ग का व्यक्ति पहले से SC वर्ग के व्यक्ति का सीनियर था तो वे फिर से उसका सीनियर हो जाएगा। इसे Catch up Rule कहा गया।

लेकिन सरकार को यह मंजूर नहीं था इसलिए, तत्कालीन सरकार द्वारा पचासीवाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 द्वारा अनुच्छेद 16(4-A) में एक और संशोधन किया, जिसके तहत अनुच्छेद 16(4A) में परिणामी वरिष्ठता (consequential seniority) शब्द को डाला गया। और इस तरह से SC एवं ST वर्ग को परिणामी वरिष्ठता का लाभ मिला।

[यानी कि Catch up Rule को इस प्रावधान के तहत खत्म कर दिया गया।]

कुल मिलाकर स्थिति ये हो गई कि 77वें संविधान संशोधन के माध्यम से एससी एवं एसटी वर्ग को प्रोमोशन में आरक्षण मिला ही था अब 85वां संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से पारिणामिक वरिष्ठता का लाभ भी मिल गया।

[अब आपके मन में यह सवाल आ सकता है कि ये परिणामी वरिष्ठता (consequential seniority) क्या होता है?]

परिणामिक वरिष्ठता (Consequential seniority) – मान लीजिये एक सामान्य वर्ग का आदमी सरकारी नौकरी में लेवल 3 पर है। अनुसूचित जाति (Schedule caste) के एक आदमी को उसी लेवल पर लेकिन सामान्य वर्ग के आदमी से जूनियर नियुक्त किया जाता है। चूंकि प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था है इसीलिए अनुसूचित जाति के आदमी को सामान्य वर्ग से पहले प्रोन्नति मिल जाता है और वो अब उस सामान्य वर्ग के आदमी से सीनियर हो जाता है।

परिणामिक वरिष्ठता (Consequential seniority) कहता है कि अब अगर वो सामान्य वर्ग के आदमी को प्रोन्नति मिल भी जाता है तो भी वो अनुसूचित जाति के आदमी से जूनियर ही रहेगा।

| Carry Forward Rule & Evolution of Reservation

हमने पीछे समझा है कि इन्दिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कैरी फॉरवर्ड नियम को स्वीकृति दे दी लेकिन उसमें भी एक शर्त ये लगा दी कि ये 50% से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

हुआ ये कि 77वें संविधान संशोधन की मदद से प्रमोशन में आरक्षण तो निश्चित हो गया लेकिन SC एवं SC वर्ग का उतना Candidate है नहीं था कि उन सारी सीटों को भरा जा सके, इससे हुआ ये कि Backlog बढ़ता गया। और उस Backlog को पूरा भरा भी नहीं जा सकता था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 50% ऊपरी सीमा तय कर दी थी।

ऐसे में Carry Forward Rule पर फिर से विचार करने का समय आ गया था, ताकि सभी Backlog सीटों का सही से निष्पादन हो सके। ये जो Carry Forward Rule था ये कोई नया नहीं था बल्कि 1955 से ही कैरी फॉरवर्ड का नियम चलता आ रहा था लेकिन वो कुछ अलग ढंग से काम करता था;

इसे उदाहरण से समझिए – मान लीजिए किसी साल कुल 50 सीटों पर रिक्तियाँ निकली है और उसमें से 10 सीटों को SC वर्ग के व्यक्तियों से भरा जाना है। अगर किसी कारण से मान लीजिए कि 10 में से 8 सीटें खाली रह गया। तो वो 8 सीटें अगले साल कैरी फॉरवर्ड हो जाएंगी।

अब मान लीजिए कि अगले वर्ष फिर से 50 सीटों पर रिक्तियाँ निकलती है और उसमें से 10 सीटें SC वर्ग के व्यक्तियों से भरा जाना है तो अब वे सीटें 18 हो जाएंगी क्योंकि 8 सीटें पिछले साल वाला भी खाली है।

इसमें समस्या ये थी कि अगर किसी कारणवश कुछ साल SC के सभी सीटों को नहीं भरा जाता है तो फिर ऐसा वक्त आएगा जब सारी की सारी सीटें सिर्फ SC को ही चली जाएंगी और अन्य वर्ग के लिए कोई रिक्तियाँ बचेगी ही नहीं।

इसीलिए इन्दिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कैरी फॉरवर्ड नियम के लिए 50 % की ऊपरी सीमा तय कर दी ताकि किसी भी स्थिति में 50 % सीटें अन्य वर्गों के व्यक्तियों के लिए उपलब्ध रहे।

पर सरकार इससे खुश नहीं था क्योंकि वो चाहता था कि कैरी फॉरवर्ड के तहत चाहे जितनी भी सीटें क्यों न हो उसपर कोई ऊपरी सीमा नहीं रहनी चाहिए।

इसीलिए तत्कालीन सरकार ने 81वां संविधान संशोधन 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 16 में एक नया क्लॉज़ 4 ‘B’ जोड़ दिया और और उसके तहत ये व्यवस्था कर दिया गया कि अनुच्छेद 16 (4) एवं 16 (4A) के तहत दिये गए आरक्षण में अगर किसी वर्ष सीटें खाली रह जाती और उसे अगले साल के लिए कैरी फॉरवर्ड किया जाता है तो अगले साल उसे पृथक (separate) सीटों के रूप में देखा जाएगा न कि उस साल निकले रिक्तियों में जोड़कर।

इसे उदाहरण से समझिए – मान लीजिए कि किसी वर्ष कुल 100 सीटों में से 15 सीटें SC वर्ग के व्यक्तियों से भरा जाना था लेकिन उस वर्ष सिर्फ 5 ही सीटें भर पायी और 10 सीटें खाली रह गई।

मान लीजिए फिर से अगले साल 100 सीटों पर रिक्तियाँ निकलता है और 15 सीटें SC वर्ग के व्यक्तियों के लिए है तो पिछले साल वाली 10 सीटें इसमें नहीं जुड़ेंगे बल्कि ये 15 ही रहेगा और उन 10 सीटों को उससे अलग काउंट किया जाएगा। उम्मीद है यहाँ तक ये बातें आपको समझ में आ गया होगा।

आगे कि बात….

इसी से संबंधित एक अनुच्छेद है, अनुच्छेद 335, जिसके तहत ये कहा गया है कि SC एवं ST को मिलने वाले आरक्षण से प्रशासनिक दक्षता पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। पर होता ये था कि SC एवं ST वर्ग के व्यक्ति को क्वॉलिफ़िकेशन मार्क्स में छूट दिया जाता था या उनके मानकों को घटा दिया जाता था।

इसी को ध्यान में रख कर सुप्रीम कोर्ट ने विनोद कुमार बनाम भारत सरकार मामला 1996 में प्रशासनिक दक्षता को ध्यान में रखकर इस तरह के छूट को रद्द कर दिया।

सरकार को ये भी पसंद नहीं आयी और इसे फिर से लागू करने के लिए 82वां संविधान संशोधन 2000 के माध्यम से अनुच्छेद 335 में लिखवा दिया कि एससी या एसटी वर्ग के पक्ष में किसी पद के संबंध में या प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए, ली जाने वाली परीक्षाओं में क्वॉलिफ़िकेशन मार्क्स घटाया जा सकता है या फिर मूल्यांकन मानक में कमी की जा सकती है।

M. Nagaraj vs Government of India case 2006 and the evolution of reservation after that

अब तक हमने पढ़ा, 77वें संविधान संशोधन अधिनियम 1995 के द्वारा प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था की गई, 85वें संविधान संशोधन अधिनियम 2001 के द्वारा प्रोन्नति में पारिणामिक वरिष्ठता को स्थापित किया गया, 81वें संविधान संशोधन 2000 द्वारा कैरी फॉरवर्ड नियम को स्थापित किया गया और 82वें संविधान संशोधन अधिनियम 2000 द्वारा एससी एवं एसटी वर्ग के लिए क्वॉलिफ़िकेशन मार्क्स में छूट देने की बात कही गई।

इन सभी मामलों को एम. नागराज (जो कि सवर्ण वर्गों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे) ने साल 2002 में चैलेंज किया। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने इस पर 2006 में अपना फैसला सुनाया और ऊपर बताए गए सभी संविधान संशोधन को वैध करार दिया लेकिन एससी एवं एसटी को प्रोमोशन में मिलने वाले आरक्षण के लिए तीन पैमाने तय कर दिये। जो कि कुछ इस प्रकार है;

  1. पिछड़ापन का मात्रात्मक आंकड़ा होना चाहिए (There should be quantitative data of backwardness); यानी कि एससी एवं एसटी का सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होना जरूरी है और सरकार के पास उसका डेटा होना जरूरी है, कि वास्तव में कितने लोग ऐसे हैं।
  2. अपर्याप्त प्रतिनिधित्व जरूरी है (inadequate representation is necessary); यानी कि एससी एवं एसटी वर्गों का सरकारी पदों पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं होना चाहिए।
  3. प्रशासनिक कार्यक्षमता प्रभावित नहीं होना चाहिए (Administrative Efficiency should not be affected); यानी कि इस तरह की आरक्षण नीति से प्रशासनिक दक्षता को कोई नुकसान नहीं पहुँचना चाहिए।

कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने ये स्पष्ट कर दिया कि सरकार प्रोमोशन में आरक्षण दे सकती है लेकिन उसे इन तीन शर्तों को मानना होगा। केंद्र एवं राज्य सरकारें इन पैमानों के खिलाफ हो गई क्योंकि ये उन्हे सूट नहीं करता था।

ऐसा इसीलिए क्योंकि अब उन्हे पहले एससी एवं एसटी के पिछड़ेपन का मात्रात्मक आंकड़ा (quantitative data) जुटाना पड़ता, फिर प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है; उसको सिद्ध करने के लिए मात्रात्मक आंकड़े जुटाने पड़ते और अंत में ये भी ध्यान रखना पड़ता कि इस सब से प्रशासनिक कार्यक्षमता (अनुच्छेद 335) तो प्रभावित नहीं हो रहा है।

इन्ही तीन प्रावधानों के कारण, केंद्र और कई राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के प्रति उदासिनता जाहिर कि और बताया कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के कारण कई नियुक्तियाँ रुकी हुई है। यानी कि सरकार चाहती थी कि इस पर सुप्रीम कोर्ट फिर से सुनवाई करे।

🔹 इस क्रम में अगला बड़ा फैसला सुप्रीम कोर्ट ने जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण मामले में सितंबर 2018 में दिया। जिसमें सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक पीठ ने एम नागराज 2006 के फैसलों पर पुनर्विचार करने से इंकार कर दिया पर इसके साथ ही एम नागराज मामले में दिया गया जो पहला शर्त था उसे हटा दिया। [कोर्ट ने यह माना कि एम नागराज का निर्देश, कि राज्य को एससी और एसटी के पिछड़ेपन का मात्रात्मक डेटा एकत्र करना है, इंद्रा साहनी निर्णय के विपरीत था, इसीलिए यह अमान्य है।]

यानी कि पिछड़ेपन के लिए मात्रात्मक डाटा का संग्रह करने की शर्त को हटा दिया गया। लेकिन साथ ही एक और शर्त जोड़ दिया जिसके तहत अब क्रीमीलेयर के तहत आने वाले एससी एवं एसटी वर्ग के व्यक्ति को प्रोमोशन में आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

[यहाँ से समझेंक्रीमी लेयर का पूरा कॉन्सेप्ट]

हालांकि आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट ने बी. के. पवित्रा बनाम भारत सरकार मामला 2 के तहत फैसला सुनाते हुए मई 2019 में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने तर्क दिया कि जरनैल सिंह ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर सिद्धांत पेश किया, न कि पारिणामिक वरिष्ठता के लिए।

विशेष रूप से, उन्होंने माना कि पारिणामिक वरिष्ठता पदोन्नति में आरक्षण का परिणाम है न कि अतिरिक्त लाभ। इसलिए, उन्होंने माना कि क्रीमी लेयर टेस्ट केवल पदोन्नति में आरक्षण के स्तर पर लागू किया जा सकता है, न कि बाद में परिणामी वरिष्ठता के लिए।

2022 में आरक्षण का विकास क्रम…

दरअसल सितंबर 2018 में जो जरनैल सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था, जिसके तहत पिछड़ेपन के मात्रात्मक आंकड़े जुटाने की बाध्यता को समाप्त कर दिया गया था लेकिन उसके अलावे अन्य दोनों शर्तें लागू थी।

यानी कि एससी और एसटी को प्रोमोशन में आरक्षण देने के लिए सार्वजनिक रोजगार में उसके प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता का प्रदर्शन करने वाले मात्रात्मक डेटा जमा करना और ये सुनिश्चित करना कि इस सब से अनुच्छेद 335 के तहत प्रशासनिक दक्षता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

राज्य सरकारों ने जरनैल सिंह मामले के इसी फैसले फैसले के कार्यान्वयन पर सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण मांगने के लिए ग्रुप पिटिशन दायर किया था।

उसी मामले में जनवरी 2022 में फिर से सुप्रीम का एक फैसला आया। इसे जरनैल सिंह द्वितीय मामला कहा गया। इस मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने विचार किया।

सरकार की ओर से नए सिरे से दलील दी गई कि मात्रात्मक डेटा तक पहुंचने का पैमाना न्यायालय द्वारा तय किया जाना चाहिए। सरकार ने न्यायालय से प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता (inadequacy of representation) का निर्धारण करने के लिए एक परीक्षण निर्धारित करने का भी अनुरोध किया।

हालाँकि, न्यायालय ने माना कि इन मुद्दों को राज्यों के विवेक पर छोड़ देना बेहतर है, क्योंकि वे कई कारकों पर निर्भर करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी एवं एसटी की अपर्याप्तता की मात्रात्मक डेटा जमा करने के लिए राज्य को बाध्य किया गया। और ये भी कहा गया कि इस डेटा को एकत्र करने का जो मानदंड होगा उसे राज्य सरकार को ही बनाना पड़ेगा।

इसके साथ ही जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल था कि मात्रात्मक डाटा कैसे इकट्ठा किया जाये; इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि काडर (cadre) को मात्रात्मक डेटा संग्रह करने के लिए इकाई (unit) के रूप में माना जाना चाहिए न कि सम्पूर्ण सेवा (full service) को।

[कुल मिलाकर ये है,आरक्षण का विकास क्रम और 2022 तक की स्थिति यही है। हालांकि ये ध्यान रखिए कि जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायन मामला अभी भी पेंडिंग है।]

कुल मिलाकर ये इतना विवादित मुद्दा है कि कई राज्यों के लिए भी सुप्रीम कोर्ट के अलग से निर्णय है और कई मामले अभी भी सुप्रीम कोर्ट में चल ही रहे हैं। आइये अब आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के आरक्षण के बारे में समझते हैं;

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के आरक्षण का विकासक्रम (Evolution of Reservation for Economically Weaker Section):

हमने पीछे समझा है कि किस तरह से पी वी नरसिम्हाराव की सरकार ने 25 सितंबर 1991 को वी पी सिंह द्वारा दिए गए 27% आरक्षण में दो महत्वपूर्ण बदलाव कर दिए।

उन्होने 27% कोटा में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (EWS) को प्राथमिकता देकर आरक्षण देने के लिए अब एक आर्थिक मानदंड शामिल कर दिया गया, और उच्च जातियों के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए अतिरिक्त 10% का आरक्षण अलग से देने का प्रावधान किया।

लेकिन इन्दिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए 10% अतिरिक्त आरक्षण को खारिज कर दिया। लेकिन सरकारें इसका भी तोड़ निकालने में लगी रही।

साल 2006 में UPA1 सरकार ने मेजर सिंहो आयोग का गठन किया जिसे कि सामान्य वर्ग में आर्थिक पिछड़ेपन का अध्ययन करने के लिए गठित किया गया था। दिलचस्प बात ये है कि इसी को आधार बनाकर NDA सरकार ने साल 2019 में संविधान में 103वां संशोधन करके आर्थिक आधार पर आरक्षण का संवैधानिकरण कर दिया।

हालांकि इससे पहले भी आर्थिक आधार पर आरक्षण की ठीक-ठाक आवाज उठाई गई थी, और एक प्रकार से ठीक-ठाक मत निर्माण हो चुका था। जैसे कि साल 2012 में काँग्रेस के एक नेता (अजय सिंह यादव) ने हरियाणा में जाट गतिरोध के बीच कहा था कि अब वक्त आ गया है कि सामाजिक न्याय के लिए भविष्य में आरक्षण का लाभ आर्थिक आधार पर OBC के साथ-साथ उच्च वर्ग के जातियों को भी मिले।

इसी तरह से साल 2008 में केरल सरकार ने गरीब छात्रों को सरकारी कॉलेजों में 10% और University स्तर पर 7.5% सीटें आरक्षित की। जब इसे मुस्लिम पक्ष द्वारा उच्च न्यायालय में चैलेंज किया गया तो साल 2010 में केरल उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के इस फैसले को सही ठहराया था। और इस बात पर सहमति जतायी थी कि धर्म एवं जाति आधारित आरक्षण से बाहर निकलकर योग्यता आधारित प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया जाए और साथ ही अगड़ी जाति के गरीब प्रतिभाशाली छात्रों को मौका दिया जाए।

लेकिन जब जनवरी 2019 को NDA सरकार ने 103वां संविधान संशोधन की मदद से अनुच्छेद 15(6) और 16(6) को जोड़ दिया और EWS के लिए नौकरियों एवं प्रवेश में 10% आरक्षण को लागू किया तो इस पर काफी विवाद हुआ था।

विवाद का मुख्य कारण कुछ इस प्रकार था;

पहली बात) चूंकि यह एक vertical Reservation था इसीलिए इसे देने का मतलब था कि General Category का 10% का खत्म होना।

दूसरी बात) चूंकि इन्दिरा साहनी मामले में 50% की एक ऊपरी सीमा लगा दी गई थी इसीलिए इसे देने का मतलब था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करना।

Youth For Equality नामक एक NGO ने इसे चैलेंज किया। उसका भी आधार यही था कि 50% की ऊपरी सीमा को क्रॉस क्यों किया जा रहा है और दूसरी बात कि अगर आर्थिक आधार पर आरक्षण देना ही है तो 27% OBC को जो आरक्षण जाति के आधार पर मिलता है उसे ही आर्थिक आधार पर बदल दो।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 25 जनवरी 2019 को सरकार के इस फैसले पर Stay लगाने से इंकार कर दिया। 6 अगस्त 2020 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के लिए एक 5 जजों की एक बेंच का गठन किया। यह मामला Janhit Abhiyan vs Union Of India के नाम से जाना गया।

सुप्रीम कोर्ट के सामने उपरोक्त प्रश्न के अलावे भी कई अन्य प्रश्न थे जैसे कि कहीं ये मौलिक अधिकार में संशोधन करके संविधान के मूल ढांचे को नुकसान तो नहीं पहुंचा रहा है। आर्थिक आधार पर SC, ST एवं OBC को आरक्षण न देना कहीं इन समाजों से साथ भेदभाव तो नहीं है, इत्यादि।

सुप्रीम कोर्ट ने 7 नवम्बर 2022 को 5:3 के बहुमत से फैसला सुनाया और आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण को वैध (Valid) करार दिया। और इससे जुड़े सारे सवालों पर विराम लगा दिया। 50% के ऊपरी सीमा के उल्लंघन को भी उन्होने वैध ठहराया और कहा कि 50% की अधिकतम सीमा गैरलचीली (inflexible) नहीं है।

आगे हम आरक्षण के पीछे के कॉन्सेप्ट को समझेंगे जो कि रोस्टर व्यवस्था पर आधारित है; जैसे कि 13 पॉइंट रोस्टर एवं 200 पॉइंट रोस्टर। तो उसे भी अवश्य समझें।

यहाँ से समझें रोस्टर व्यवस्था : आरक्षण के पीछे का गणित [4/4]

| आरक्षण से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य

🔹 ओबीसी के आरक्षण की पात्रता संबंधी क्रीमी लेयर के निर्धारण में केवल परिवार के आय को आधार बनाया जाता है, जबकि EWS के आरक्षण की पात्रता तय करने में उसके परिवार के साथ-साथ उसके खुद के आय को भी आधार बनाया जाता है।

🔹 EWS के आरक्षण की पात्रता में कृषि आय और कृषि भूमि एवं व्यावसायिक भूमि जैसी संपत्ति को भी जोड़ा जाता है जबकि OBC के क्रीमी लेयर के निर्धारण में कृषि आय और संबन्धित सम्पत्तियों को नहीं जोड़ा जाता है।

🔹 OBC की तरह एससी एवं एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान नहीं है।

🔹 एससी एसटी एवं ओबीसी को सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर उप-विभाजन नहीं किया गया है। रोहिणी आयोग के सिफ़ारिशों का संबंध इसी से है। उसमें उप-विभाजन की बात कही गई है।

🔹 आरक्षण का लाभ ले चुके व्यक्तियों के आगामी पीढ़ियों को आरक्षण से वंचित करने का अभी कोई प्रावधान नहीं है।

🔹 भारत की जो आरक्षण व्यवस्था है वो जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था है।

इससे संबन्धित अन्य प्रश्नों के समाधान के लिए नीचे दिए गए पीडीएफ़ का इस्तेमाल करें;

Scope of Reservation FAQs (pdf)

More FAQs on Evolution of Reservation [pdf]

आरक्षण : आधारभूत समझ[1/4]
आरक्षण का संवैधानिक आधार[2/4]
आरक्षण के पीछे का गणित यानी कि रोस्टर सिस्टम[4/4]
Evolution of Reservation

Evolution of Reservation References,
S.Vinod Kumar And Anr vs Union Of India And Ors on 1 October, 1996
the Judgment in B.K. Pavitra v Union of India-II
Reservation in Promotion Jarnail Singh v Lacchmi Narain Gupta
Reservation in Promotion (Clarifications) Jan 2022
Indra Sawhney & Others v. Union of India
M. Nagaraj & Others vs Union Of India & Others on 19 October, 2006
Department of public enterprise, document released in 2016
Virpal Singh v. Government of India 1995
Ajit Singh Janjua Vs Punjab Government Case 1996
Constitution of India revised 2020
https://legislative.gov.in/sites/default/files/COI.pdf
https://dopt.gov.in/sites/default/files/ch-11.pdf
Reservation in India
https://persmin.gov.in/DOPT/Brochure_Reservation_SCSTBackward/Ch-01_2014.pdf
https://socialjustice.nic.in/UserView/index?mid=76663
Constitution of India
Commentary on constitution (fundamental rights) – d d basu
https://en.wikipedia.org/wiki/Reservation_in_India
FAQs Related to Reservation
https://dopt.gov.in/sites/default/files/FAQ_SCST.pdf
National Commission for Scheduled Castes [NCSC
National Commission for Scheduled Tribes [NCST]
National Commission for Backward Classes (NCBC)
Right to Equality
Fundamental Rights Introduction : Article 12 & 13
Conflict Between Fundamental Rights and DPSP
THE CENTRAL EDUCATIONAL INSTITUTIONS (RESERVATION IN TEACHERS’
CADRE) ACT, 2019 [https://www.indiacode.nic.in/bitstream/123456789/11008/1/A2019-10.pdf]
Mandal commission Report
https://www.barandbench.com/columns/reservation-in-promotion-the-ball-is-again-in-the-governments-court
https://en.wikipedia.org/wiki/Economically_Weaker_Section
https://vikaspedia.in/education/career-guidance/reservation-for-ews

Evolution of Reservation