इस लेख में हम मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे, एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे;
इस लेख को समझने से पहले आप ये सुनिश्चित कर लें कि आपने मूल अधिकार एवं राज्य के नीति निदेशक तत्व (DPSP) को अच्छे से समझा है। ये लेख थोड़ा लंबा है पर आप इसे धैर्य के साथ अंत तक जरूर पढ़ें, ऐसा करने से आपके सारे डाउट खत्म हो जाएँगे।

मूल अधिकारों एवं निदेशक सिद्धांतों में टकराव
मूल अधिकार की बात करें तो ये प्रवर्तनीय या न्यायोचित है यानी कि उसका हनन होने पर सीधे उच्चतम न्यायालय जाया जा सकता है और मूल अधिकारों के संरक्षण की मांग की जा सकती है,
वहीं अनुच्छेद 37 के तहत राज्य के नीति निदेशक तत्व गैर-प्रवर्तनीय या गैर-न्यायोचित है लेकिन यही अनुच्छेद राज्य पर एक नैतिक बाध्यता भी आरोपित करता है कि राज्य विधि बनाते समय इन तत्वों को उसमें शामिल करेगा।
और यहीं से टकराव की स्थिति शुरू हुई क्योंकि बहुत सारे निदेशक तत्व ऐसे है जो मूल अधिकारों से मेल नहीं खाती। इसे उदाहरण से समझते हैं-
टकराव का उदाहरण
अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है। खासकर के अनुच्छेद 15 की बात करें तो ये राज्य द्वारा, लिंग, जाति, धर्म, जन्मस्थान या मूलवंश के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है।
अनुच्छेद 16 की बात करें तो ये कहता है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति के लिए सभी के पास समान अवसर उपलब्ध रहेंगे एवं राज्य, यहाँ भी धर्म, जाति, लिंग, जनस्थान, या मूलवंश के आधार पर नागरिकों के साथ कोई विभेद नहीं करेगा।
वहीं राज्य के नीति निदेशक तत्व के अनुच्छेद 46, मुख्य रूप से अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को समाज के मुख्य धारा में लाने के लिए उसके आर्थिक और शैक्षणिक हितों को प्रोत्साहन देने की बात करता है।
यहाँ अंतर्विरोध ये है कि – एक तरफ अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 समानता की बात करता है तो वहीं दूसरी तरफ अनुच्छेद 46 एससी और एसटी वर्ग के लिए विशेष प्रकार की सुविधा या यूं कहें कि आरक्षण की बात करता है।
अब फिर से यहाँ भी एक समस्या आती है अगर समानता की रक्षा करेंगे तो निचले तबके के लोग कभी भी मुख्य धारा में नहीं आ पाएंगे और अगर आरक्षण देंगे तो फिर समानता नहीं बचेगा।
⚫ दूसरा उदाहरण देखें तो अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत संपत्ति के अधिकार को सुनिश्चित किया गया था। यानी कि यह अनुच्छेद सार्वजनिक और निजी दोनों उद्देश्यों के लिए सरकार या राज्य द्वारा निजी संपत्ति की मनमानी जब्ती से व्यक्तियों की रक्षा करता है।
वहीं दूसरी ओर राज्य के नीति निदेशक तत्व के तहत आने वाली अनुच्छेद 39 (ख) सामूहिक हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों के सम वितरण पर बल देता है, और 39(ग) धन और उत्पादन के संकेन्द्रण को रोकने पर बल देता है।
कहने का अर्थ है कि अनुच्छेद 39 राज्य पर यह नैतिक कर्तव्य डालता है कि राज्य लोगों के हित में भौतिक संसाधनों का सम वितरण (Equal distribution) करें, और किसी एक ही व्यक्ति या सिर्फ कुछ ही व्यक्ति के पास धन के इकट्ठा होने से रोकें।
वहीं मौलिक अधिकार कहता है कि जितना मन हो संपत्ति रखो, क्योंकि संपत्ति रखना मौलिक अधिकार है।
⚫ अब सरकार के पास यही समस्या थी कि करें तो करें क्या बोले तो बोले क्या। क्योंकि देश की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति ठीक नहीं थी। और अगर सरकार के द्वारा कुछ एक्सट्रा अफ़र्ट नहीं लगाया जाता तो स्थिति सुधरने वाली भी नहीं थी।
इसी से संबन्धित एक दिलचस्प मामला है चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास राज्य का मामला। इस मामले पर अप्रैल 1951 में फैसला आया था। क्या था वो आइये देखते हैं।
चंपकम दोराइराजन बनाम मद्रास सरकार का मामला 1951
दरअसल चंपकम दोराइराजन नामक लड़की को मद्रास के एक मेडिकल कॉलेज में सिर्फ इसीलिए एड्मिशन नहीं मिला क्योंकि वहाँ सरकार के एक ऑर्डर से सीटों को समाज के अलग-अलग सेक्शन के लिए आरक्षित कर दिया गया था। जो कि कुछ इस तरह था।
हरेक 14 सीटों में से Non-Brahmin (Hindu) के लिए 6 सीटें, Backward Hindu के लिए 2 सीटें, Brahmin के लिए 2 सीटें, Harijan के लिए 2 सीटें, Anglo-Indians और Indian Christians के लिए 1 सीट और Muslims के लिए 1 सीट।
चंपकम दोराइराजन एक ब्राह्मण लड़की थी और उसके लिए सीटें कम होने के वजह से उसका एड्मिशन नहीं हो पाया। तो उसने मद्रास उच्च न्यायालय में अपने मूल अधिकारों के हनन को लेकर एक याचिका दायर की।
चंपकम दोराइराजन का पक्ष
उन्होने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि अनुच्छेद 15 और 16 के तहत ऐसा नहीं किया जा सकता है। इसके साथ ही उन्होने एक और अनुच्छेद 29(2) की भी बात की जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि राज्य निधि (State fund) से सहायता प्राप्त किसी संस्था में किसी नागरिक को धर्म, जाति, मूलवंश, लिंग एवं जन्मस्थान के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा।
इस आर्गुमेंट के आधार पर तो ये बिल्कुल कहा जा सकता है कि सीटों का आरक्षण गलत था। लेकिन फिर सरकार के तरफ से भी आर्गुमेंट दिया गया।
सरकार का पक्ष
सरकार ने DPSP के अनुच्छेद 46 का हवाला देते हुए कहा कि चूंकि उसके आधार पर सीटों को आरक्षित किया जा सकता है, इसीलिए किया गया। और अनुच्छेद 37 भी तो यहीं कहता है कि इसे लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।
अब जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट गया तो सुप्रीम कोर्ट के सामने यही सवाल था कि क्या DPSP के आधार पर मूल अधिकार के हनन को जायज ठहराया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समुदाय के आधार पर दिया गया आरक्षण मूल अधिकारों का हनन करता है इसीलिए राज्य एड्मिशन के मामले में जाति या धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं कर सकता है, क्योंकि इससे अनुच्छेद 16(2) और अनुच्छेद 29(2) का हनन होता है।
इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने एक और बड़ी बात कही कि जब भी कभी मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्वों में टकराव होगा तो उस स्थिति में मूल अधिकार को ही प्रभावी माना जाएगा न कि DPSP को।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ये स्पष्ट कर दिया कि मूल अधिकारों को संसद द्वारा संविधान संशोधन प्रक्रिया के माध्यम से संशोधित जरूर किया जा सकता है।
⚫ इसी तरह से दूसरा मामला है, कामेश्वर सिंह बनाम बिहार प्रांत (1951)
बिहार सरकार ने बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 लाया ताकि जमींदारों से उसकी संपत्ति लिया जाए और गरीबों में बांटा जाए या उस संपत्ति का इस्तेमाल समाज सुधार में किया जाए।
लेकिन कामेश्वर सिंह (दरभंगा राज 1929-52) को अच्छा नहीं लगा कि संपत्ति रखना एक मौलिक अधिकार है तो सरकार इसे छीन क्यों रही है! इसीलिए कामेश्वर सिंह ने इस कानून को पटना हाइ कोर्ट में चुनौती दी।
और कामेश्वर सिंह बनाम बिहार प्रांत (1951) के मामले में 12 March 1951 को पटना उच्च न्यायालय ने इस कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि इसने मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया था।
कुल मिलाकर 1951 के अप्रैल माह में ये फ़ाइनल हो चुका था कि अब DPSP के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। और दूसरी बात कि DPSP के आधार पर भूमि सुधार नहीं किया जा सकता है।
क्योंकि हर बार न्यायालय मूल अधिकारों को बचाने के लिए आ जाएगा। लेकिन सरकार को तो आरक्षण देना था, भूमि सुधार तो करनी थी।
उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जो कि एक समाजवादी विचारधारा के नेता थे, समझ गए कि अगर समाज के वंचित तबके को मुख्य धारा में लाना है तो संविधान में संशोधन करना ही पड़ेगा।
क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया तो सुप्रीम कोर्ट हर बार टांग अड़ाएगा और समाज के वंचित हमेशा वंचित ही रह जाएँगे। इस तरह से पहला संविधान संशोधन अस्तित्व में आया।
पहला संविधान संशोधन [18 जून 1951]
पंडित नेहरू ने 1951 में ही संविधान में पहला संशोधन करवाया जो कि कुछ इस प्रकार था;
अनुच्छेद 15 में एक नया क्लॉज़ 4 जोड़ दिया गया जिसमें लिखवा दिया गया कि अनुच्छेद 29(2) में चाहे कुछ भी क्यों न लिखा हो राज्य अगर चाहे तो सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों को या एससी और एसटी वर्ग के उत्थान के लिए कोई विशेष उपबंध बना सकता है।
दूसरा संशोधन अनुच्छेद 31 में किया गया। इसमें एक नया क्लॉज़ अनुच्छेद 31क जोड़ा गया जिसके माध्यम से जमींदारों एवं अन्य से लोक हित में जमीन अधिग्रहण करना आसान कर दिया गया।
इसके अलावा अनुच्छेद 31ख भी जोड़ा गया जिसके तहत नौवीं अनुसूची बनाया गया और लिखवा दिया गया कि अगर नौवीं अनुसूची में डाला गया कोई प्रावधान मूल अधिकारों का हनन भी करता है तो उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
इसीलिए 1951 का पहला संविधान संशोधन इतना महत्वपूर्ण बन गया क्योंकि इसने आरक्षण एवं जमींदारी प्रथा को समाप्त करना यानी कि भूमि सुधार का रास्ता साफ कर दिया था।
नोट – यहाँ यह याद रखिए जब पहला संविधान संशोधन 1951 में आया था तब तक पहला आम चुनाव भी नहीं हुआ था। पहला आम चुनाव 25 October 1951 से 21 February 1952 के बीच चला।
पहला संविधान संशोधन को चुनौती
जब इस पहले संविधान संशोधन के माध्यम से बहुत से जमींदारों की जमीने सरकार द्वारा अधिगृहीत किए जाने लगे तब बिहार के एक जमींदार शंकरी प्रसाद ने अक्टूबर 1951 में इस पहले संविधान संशोधन को इस आधार पर चुनौती दिया गया कि ये मूल अधिकारों का हनन करता है,
क्योंकि अनुच्छेद 13 में साफ-साफ लिखा है कि मूल अधिकारों को कम करने वाली कोई भी विधि उतने मात्रा में खारिज हो जाएंगी, जितनी मात्रा में वे मूल अधिकारों का हनन करती है। इसीलिए अनुच्छेद 368 के आधार पर की गई संशोधन को असंवैधानिक माना जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने की शक्ति है, क्योंकि अनुच्छेद 13 में ”विधि” शब्द का जिक्र है ”संविधान संशोधन” शब्द का नहीं।
जब 17वें संविधान संशोधन 1964 के माध्यम से राजस्थान में भी भूमि सुधार को लागू किया गया और वहाँ के जमींदारों से जमीने ली जाने लगी तो वहाँ के एक जमींदार सज्जन सिंह इस मामले को लेकर न्यायालय पहुँच गया।
इन्होने भी न्यायालय में वहीं बातें कहीं जो शंकरी प्रसाद ने कही थी। यानी कि अनुच्छेद 13 के आधार पर मूल अधिकार को कम करने वाली विधियों को असंवैधानिक घोषित करना।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में भी वहीं फैसला सुनाया जो शंकरी प्रसाद मामले में सुनाया था। यानी कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन के माध्यम से मूल अधिकार में भी संशोधन कर सकती है।
गोलकनाथ मामला 1967
ये भी जमीन अधिग्रहण का ही मामला है। पंजाब में जब हेनरी गोलकनाथ और विलियम गोलकनाथ की ज़मीनें छीनी गई तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए।
दरअसल हुआ ये था कि पंजाब सरकार के अधिनियम Punjab Security of Land Tenures Act, 1953 के तहत इन दोनों भाइयों की ज़मीनें छीनी गई थी।
और फिर इस अधिनियम को 17वें संविधान संशोधन अधिनियम 1964 के माध्यम से नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया था ताकि इसे न्यायालय में चुनौती न दी जा सके।
तो गोलकनाथ ने उस अधिनियम को चुनौती दी और साथ ही इसे नौवीं अनुसूची में डाले जाने की वैधता को भी चुनौती दी। कुल मिलाकर इन्होने भी लगभग वहीं मुद्दा उठाया जो कि शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह मामले में उठाया गया था।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
इस बार सुप्रीम कोर्ट का फैसला चौकाने वाला था क्योंकि इन्होने अपने जजमेंट में कहा कि
(1) किसी भी स्थिति में संसद अनुच्छेद 368 का उपयोग करके मूल अधिकार के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकती है क्योंकि संविधान में संशोधन करना भी एक विधि ही है।
(2) अब तक जो भी कानून इस संबंध में बन चुके है और जिस किसी का भी जमीन छीना जा चुका है उसको तो वापस नहीं किया जा सकता लेकिन अब से ये कानून अवैध हैं और इसका इस्तेमाल अब और नहीं किया जा सकता।
इस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने पहले दिये गए अपने ही फैसले को बदल दिया और एक नयी व्यवस्था ला दी। जो कि सरकार के लिए बहुत ही निराशाजनक था क्योंकि अगर जमींदारों से या अन्य से जमीन नहीं ली जाती तो फिर विकास कार्य कैसे करती।
उस समय इन्दिरा गांधी सत्ता में तो थी लेकिन काफी कमजोर स्थिति में। इसका पता आर. सी. कूपर बनाम भारत सरकार मामला 1970 से भी चलता है। ये बैंकों का राष्ट्रीयकरण से संबन्धित मामला था। क्या था वो आइये इसे समझते हैं।
आर. सी. कूपर बनाम भारत सरकार मामला 1970
उस समय की इन्दिरा गांधी की सरकार बैंकिंग सुविधाओं को देश के दूर-दराज के इलाकों या बैंकिंग सुविधाओं से वंचित क्षेत्रों तक पहुंचाना चाहती थी। ऐसा वो कर सकती थी क्योंकि
अनुच्छेद 39 के ‘b’ और ‘c’ ऐसा करने की वजह भी देता है। अनुच्छेद 39 ‘b’ जहां – सामूहिक हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों के सम वितरण पर बल देता है अनुच्छेद 39 ‘c’ – धन और उत्पादन के संकेन्द्रण को रोकने पर बल देता है।
1969 में इन्दिरा गांधी सरकार ने Banking Companies (Acquisition and transfer of undertaking) Ordinance लाया। जिसके तहत सरकार ने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।
इन 14 बैंकों को डिपॉज़िट के आधार पर चुना गया था यानी कि जिन बैंकों का डिपॉज़िट उस समय 50 करोड़ से ज्यादा था उन्ही बैंकों को चुना गया था।
इन्ही 14 बैंकों में से 2 बैंकों (बैंक ऑफ बड़ौदा और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया) के शेयरहोल्डर आर सी कूपर थे।
आर सी कूपर की मुख्य समस्या क्षतिपूर्ति व्यवस्था से थी। दरअसल सरकार द्वारा लाये गए अध्यादेश में एक प्रावधान ये था कि बैंकों के अधिग्रहण के बाद उसके शेयरहोल्डर को जो क्षतिपूर्ति मिलेगी वो आपसी समझौते पर आधारित होगा। अगर ये समझौता विफल रहता है तो ये मामला अधिकरण को सौंप दिये जाएँगे और फिर वहाँ जो रकम तय की जाएंगी वो शेयरहोल्डर को 10 साल बाद दिया जाएगा।
जबकि अनुच्छेद 31(2) के तहत ऐसे मामलों में क्षतिपूर्ति का प्रावधान ये था कि जब भी सरकार किसी की संपत्ति को अधिगृहीत करेगा तो उस संपत्ति के मालिक या शेयरहोल्डर को सरकार द्वारा उतना क्षतिपूर्ति दिया जाएगा जितना उस समय के बाज़ार भाव के हिसाब से बनता है।
ऐसी स्थिति को देखते हुए, 1970 में आर. सी. कूपर ने भारत सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर दिया।
सरकार का पक्ष ये था कि हमने तो राज्य के नीति निदेशक तत्व के तहत ये काम किया है जबकि आर सी कूपर का ये कहना था कि इससे मेरा मौलिक अधिकार हनन हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 10:1 से फैसला देते हुए कहा कि
(1) सरकार द्वारा बनाया गया कानून अनुच्छेद 14 का हनन करता है। क्यों? क्योंकि सरकार ने सिर्फ 50 करोड़ डिपॉज़िट वाले बैंक को लिया, अन्य को छोड़ कर उसने भेदभाव किया।
(2) ये कानून अनुच्छेद 31(2) का हनन करती है क्योंकि इस कानून में बताया गया क्षतिपूर्ति व्यवस्था अनुच्छेद 31(2) से असंगत है।
1970 में आर. सी. कूपर वो केस जीत गया और सरकार केस हार गयी। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से मौलिक अधिकारों को राज्य के नीति निदेशक की जगह वरीयता दिया।
इन्दिरा गांधी का 1971 में दोबारा सत्ता में आना
1971 के चुनाव में इन्दिरा गांधी जब पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आई तो सबसे पहले उन्होने इन्ही सब को निपटाया। कैसे?
गोलकनाथ जजमेंट को पलटना
इन्दिरा गांधी ने संविधान में 24वां संविधान संशोधन करके गोलकनाथ मामले को पलट दिया। जिसमें कहा गया था कि संसद अनुच्छेद 368 के आधार पर मूल अधिकार में कोई बदलाव नहीं कर सकती है, अगर ऐसा किया गया तो उसे अनुच्छेद 13 के आधार पर शून्य किया जा सकता है।
सरकार ने 24वां संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 13 में संशोधन करके क्लॉज़ 4 जोड़ दिया और उसमें लिखवा दिया कि – इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के किसी संशोधन पर लागू नहीं होगी।
इसी तरह अनुच्छेद 368 में भी ये लिखवा दिया गया कि – संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद संविधान के किसी भी भाग का संशोधन कर सकती है।
इस तरह से गोलकनाथ मामले को शून्य किया गया और फिर से वही स्थिति लागू हो गई जो गोलकनाथ मामले 1967 से पहले था।
आर सी कूपर मामले को पलटना
गोलकनाथ फैसले को पलटने के बाद, 25वां संविधान संशोधन के माध्यम से आर. सी. कूपर मामले के फैसले को पलट दिया गया। ये कैसे किया गया?
अनुच्छेद 31 ‘ग’ में ये लिखवा दिया कि –
(1) अनुच्छेद 13 में किसी बात के होते हुए भी, कोई विधि जो राज्य के नीति निदेशक तत्वों को ध्यान में रखकर बनायी जाती है तो उसे इस आधार पर शून्य नहीं मानी जाएगी कि वो अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19 का हनन करती है।
(2) ऐसी नीति को प्रभावी बनाने की घोषणा करने वाली किसी भी विधि को न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि यह ऐसी नीति को प्रभावित नहीं करता है।
इस तरह से इन्दिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।
[फिर आगे चलकर 1978 में 44वें संविधान संशोधन के माध्यम से संपत्ति के अधिकार को जो अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत वर्णित था। उसे वहाँ से हटा दिया गया और अनुच्छेद 300 ‘क’ के तहत इसे एक संवैधानिक अधिकार बना दिया गया]
अनुच्छेद 300क कहता है कि – किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से विधि के प्राधिकार से ही वंचित किया जा सकता है, अन्यथा नहीं। यानी कि अब विधि के तहत किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से वंचित किया जा सकता है।
केशवानन्द भारती मामला 1973
ये मामला भी भूमि अधिग्रहण से ही संबन्धित है। केरल के मठ के संचालक केशवानन्द भारती के मठ की भूमि का केरल भूमि सुधार (संशोधित) अधिनियम 1969 के तहत अधिग्रहण (Acquisition) कर लिया गया। और इस कानून को 29वें संविधान संशोधन 1972 द्वारा 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया।
केशवानन्द भारती ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली और उन्होने अनुच्छेद 25, 26, 14, 19(1)(f) और अनुच्छेद 31 के तहत मिलने वाली मौलिक अधिकारों की रक्षा की मांग की।
इसके साथ ही उन्होने 24वें संविधान संशोधन एवं 25 वें संविधान संशोधन को भी इस मामले में शामिल किया और कहा कि इस संशोधन के माध्यम से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है, खासकर के अनुच्छेद 19(1)(f) के तहत मिलने वाली संपत्ति का अधिकार।
सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न
1. क्या अनुच्छेद 368 के तहत, संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित है? दूसरे शब्दों में, क्या संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है यहाँ तक सभी मौलिक अधिकारों को छीनने की सीमा तक भी संविधान के किसी भी हिस्से को बदल सकती है?
2. क्या 24वां और 25वां संविधान संशोधन वैध है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की बेंच ने (जो अब तक की सबसे बड़ी बेंच है) 24 अप्रैल 1973 को 7:6 के बहुमत से एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि –
1. 24वां और 25वां संविधान संशोधन पूरी तरह से सही है।
हालांकि 25वें संविधान संशोधन के माध्यम से जो अनुच्छेद 31ग में संशोधन किया गया था उसके दूसरे भाग (जिसमें ये बताया गया था कि उसके तहत बनाए गए नीति को न्यायालय में चैलेंज नहीं किया जा सकता है) को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके तहत न्यायालय ने कहा कि – न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल विशेषता है और इसीलिए इसे छीना नहीं जा सकता है।
2. संसद, संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित कर सकती है चाहे वो मूल अधिकार ही क्यों न हो। लेकिन संसद को ये हमेशा याद रखना होगा कि संविधान संशोधन की शक्ति, संविधान को फिर से लिखने की शक्ति नहीं है।
तब सुप्रीम कोर्ट ने ‘संविधान की मूल संरचना‘ व्यवस्था को सबके सामने रखा। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि संसद अनुच्छेद 368 की मदद से संविधान में हर प्रकार का संशोधन कर सकता है पर संसद संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता।
क्या मूल ढांचा होगा और क्या नहीं, इसे सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर बताता रहेगा। [ये क्या है, इसके लिए संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure of the Constitution) को पढ़ सकते है।]
42वां संविधान संशोधन 1976
केशवानन्द भारती मामले के फैसले (1973) आने के 2 साल बाद पूरे देश में आपातकाल लगा दिया गया। इसी आपातकाल के बीच 1976 में 42वां संविधान संशोधन किया गया। इस संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान में इतनी बड़ी मात्रा में संशोधन किया गया कि इसे लघु संविधान (Mini constitution) कहा जाने लगा।
केशवानन्द भारती मामले द्वारा सुप्रीम कोर्ट द्वारा जो तय किया गया था उसे इस 42वें संविधान संशोधन मामले से उल्लंघन किया गया। जैसे कि – सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक समीक्षा की शक्ति को छीनने की शक्ति संसद को नहीं दी गई थी लेकिन फिर भी इस संशोधन अधिनियम से ऐसा किया गया।
इसके तहत अनुच्छेद 368 में संशोधन करके क्लॉज़ 4 और 5 जोड़ दिया गया, जिसका मूल भाव ये था कि अनुच्छेद 368 के तहत जो संविधान में संशोधन किए जा रहे हैं या जो किए गए है उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती।
दूसरी बात कि केशवानन्द भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद, संविधान में संशोधन कर सकती है लेकिन संविधान को पुनः लिख नहीं सकती है। 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से तो संविधान में इतने बदलाव किए गए कि वो एक तरह से संविधान लिखने जैसा ही था।
कुल मिलाकर राज्य के नीति निदेशक तत्व को मूल अधिकारों पर प्रभावी बनाया गया। खासकर के उन अधिकारों पर जिसका उल्लेख अनुच्छेद 14, 19 और 31 में है।
इन्ही प्रावधानों को मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त किया गया। (यहाँ ये याद रखिए कि 42वें संविधान संशोधन के कुछ प्रावधान को 44वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा भी निरस्त किया गया था।)
मिनर्वा मिल्स मामला 1980
मिनर्वा मिल्स एक टेक्सटाइल मिल था जो कि कर्नाटक में अवस्थित था। 1970 के आसपास सरकार को लगा कि इस मिल में उत्पादन कम हो गया है। इसकी जांच के लिए Industries Development Act 1951 के तहत एक समिति गठित कर दिया गया।
1971 के अक्तूबर में समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी (1971 के मार्च में ही चुनाव हुआ था जिसमें इन्दिरा गांधी भारी बहुमत से सत्ता में आयी थी)। सरकार को जैसे ही रिपोर्ट मिली सरकार ने Industries Development Act 1951 के तहत मिनर्वा मिल्स के प्रबंधन को National Textile Corporation Ltd. को सौंप दिया गया।
बाद में Sick Textile Undertakings (Nationalisation) Act, 1974 के तहत सरकार इसे राष्ट्रीयकृत करके टेकओवर कर लिया। और 39वें संविधान संशोधन के माध्यम से उसे नौंवी अनुसूची में डाल दिया गया ताकि उसकी न्यायिक समीक्षा न हो सके।
[लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं थी क्योंकि इन्दिरा गांधी बनाम राजनारायन केस में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के द्वारा 1971 में लड़े गए चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था। आइये थोड़ा इसे समझ लेते हैं।]
इन्दिरा गांधी बनाम राजनारायन मामला
1971 के चुनाव में इन्दिरा गांधी रायबरेली से चुनाव जीती थी लेकिन उपविजेता राजनारायन ने इन्दिरा गांधी के जीत को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी की, इन्होने सरकार में रहते हुए अपने चुनावी फायदे के लिए सरकारी अधिकारी और सरकारी संसाधन का इस्तेमाल किया। जो कि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 123(7) का उल्लंघन है।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे सही माना और इन्दिरा गांधी के इस चुनाव को रद्द कर दिया साथ ही अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी।
इसका मतलब ये था कि अब इन्दिरा गांधी को सरकार से त्यागपत्र देना पड़ता और सरकार गिर जाती। लेकिन श्रीमती गांधी ने ऐसा नहीं किया उन्होने इसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया (इसकी एक वजह ये भी थी कि उस समय मुख्य न्यायाधीश ए एन रे थे और उन्हे श्रीमती गांधी का मनपसंद न्यायाधीश माना जाता है)।
खैर जो भी हो उन्होने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लगा दिया और अगस्त 1975 में 39वां संविधान संशोधन किया। जिसके तहत मिनर्वा मिल्स के मामले को तो नौंवी अनुसूची में डाला ही गया साथ ही कुछ अन्य बदलाव भी संविधान में किए गए।
जैसे कि – अनुच्छेद 329 में संशोधन करके एक नया भाग अनुच्छेद 329A जोड़ा गया, जिसके तहत 6 क्लॉज़ थे। जिसमें मुख्य रूप से यही कहा गया था कि प्रधानमंत्री के चुनाव को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
खासकर के इसका चौथा क्लॉज़ काफी विवादित था जिसमें मूल रूप से ये लिखा हुआ था कि संविधान के 39वें संशोधन से पहले संसद द्वारा बनाया गया कोई भी कानून जो चुनाव के विरुद्ध में याचिका दायर करने से संबन्धित हो, इस तरह के चुनाव को शून्य करार नहीं दे सकता।
सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट के सामने यही प्रश्न था कि (1) क्या अनुच्छेद 329A का क्लॉज़ 4 संवैधानिक है? (2) क्या इन्दिरा गांधी के चुनाव को शून्य करार दिया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
नवम्बर 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए इन्दिरा गांधी के चुनाव को तो वैध करार दे दिया लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद 329ए के चौथे क्लॉज़ को अवैध करार दिया गया और साथ ही कहा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संविधान का मूल ढांचा है। (हालांकि 1978 के 44वें संविधान संशोधन के तहत इस पूरे अनुच्छेद 329ए को ही निरस्त कर दिया गया)
दूसरी बात उन्होने कानून के शासन को संविधान का मूल ढांचा माना और ये स्थापित करने की कोशिश की कि कानून से ऊपर कोई भी नहीं है।
तो कहने का अर्थ ये है कि संविधान में 42वां संशोधन करके इतनी सारी चीजों को बदलने के पीछे एक कारण ये भी था। अब मिनर्वा मिल्स मामले पर आते हैं
मिनर्वा मिल्स…….
हमने ऊपर देखा कि किस तरह से सरकार ने मिनर्वा मिल्स को राष्ट्रीयकृत किया और उसे अपने कब्जे में ले लिया।
मिनर्वा मिल्स का पक्ष
इन्होने मिनर्वा मिल्स के राष्ट्रीयकरण के ऑर्डर को चैलेंज किया, साथ ही इनकी तरफ से Sick Textile Undertakings (Nationalisation) Act, 1974 के कुछ प्रावधानों को भी चैलेंज किया गया जैसे कि धारा 5(b), 19(3), 21, 25 आदि।
42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के धारा 4 और धारा 55 को चैलेंज किया गया
इसके अलावा मौलिक अधिकार के ऊपर नीति निदेशक तत्वों की सर्वोच्चता को भी चैलेंज किया गया।
सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रश्न
42वें संविधान संशोधन के धारा 4 के तहत अनुच्छेद 31C में और धारा 55 के तहत अनुच्छेद 368 में जो परिवर्तन किया गया है, क्या वो संविधान के मूल ढांचे को हानि पहुंचाता है?
क्या राज्य के नीति निदेशक तत्व को मौलिक अधिकार के ऊपर सर्वोच्च माना जा सकता है?
42वें संविधान संशोधन की धारा 4
इस संशोधन अधिनियम के धारा 4 के माध्यम से अनुच्छेद 31C में परिवर्तन कर दिया गया था। जहां पहले ये लिखा हुआ था कि – अनुच्छेद 39 ख और ग के आधार पर बनाया गया कोई विधि इस आधार पर शून्य करार नहीं दिया जा सकता कि वो अनुच्छेद 14 या 19 का उल्लंघन करती है।
अब इसमें बदलाव करके ये लिखवा दिया गया था कि राज्य के नीति निदेशक तत्व के किसी भी प्रावधान के तहत अगर कोई विधि बनायी जाती है तो उसे इस आधार पर खारिज नहीं किया जाएगा कि वो अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19 का हनन करती है। इसी को मौलिक अधिकार पर DPSP की सर्वोच्चता कहा गया।
42वें संविधान संशोधन की धारा 55
इस धारा के माध्यम से अनुच्छेद 368 में क्लॉज़ 4 और 5 जोड़ा गया, जिसके प्रावधान निम्न थे –
4 – संविधान का कोई भी संशोधन (मूल अधिकारों में संशोधन सहित) जो अनुच्छेद 368 के तहत संशोधित किया है भले ही वो धारा 55 के आने से पहले का हो या उसके बाद का हो; न्यायालय में उसको किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है।
5 – संदेह को दूर करने के लिए, यह घोषित किया गया है कि अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के प्रावधान में संशोधन या निरस्त करने के लिए संसद की घटक शक्ति पर कोई सीमा नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 से फैसला सुनाते हुए कहा कि (1) 42वें संविधान संशोधन अधिनियम की धारा 4 और 55 असंवैधानिक है। संसद की संविधान संशोधन करने की शक्ति असीमित नहीं है, क्योंकि संसद की संविधान संशोधन करने की सीमित शक्ति ही संविधान का मूल ढांचा है। (2) Nationalization Act 1974 के वैधता को सही माना गया।
इस तरह से फिर से एक बार मौलिक अधिकारों के महत्व को राज्य के नीति निदेशक तत्व से ज्यादा माना गया और मौलिक अधिकारों एवं नीति निदेशक सिद्धांतों के बीच सौहार्द एवं संतुलन को संविधान का मूल ढांचा माना गया।
ये रहा मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव के कुछ सबसे महत्वपूर्ण मामले, उम्मीद है समझ में आया होगा। संविधान की मूल संरचना का लिस्ट देखने के लिए दिये गए लिंक को विजिट करें।
मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्वों में टकराव Practice Quiz
Important links,
मूल संविधान भाग 3↗️ भाग 4↗️
The case that saved Indian democracy
Keshvananda Bharati v State of Kerala, (1973)
Kesavananda Bharati … vs State Of Kerala And Anr on 24 April, 1973
R. C. Cooper Vs Union of India ( Bank Nationalization Case)
The State Of Madras vs Srimathi Champakam … on 9 April, 1951
Minerva Mills Ltd. & Ors vs Union Of India & Ors on 31 July, 1980
Minerva Mills vs Union of India
Indira Nehru Gandhi vs Shri Raj Narain & Anr on 7 November, 1975
THE CONSTITUTION (FORTY-SECOND AMENDMENT) ACT, 1976
The Constitution (Thirty-ninth Amendment) Act, 1975