राज्यसभा के सभापति (Chairman of Rajya Sabha): संसद तीन घटकों से मिलकर बना है; राष्ट्रपति (President), लोकसभा (Lok Sabha) और राज्यसभा (Rajya Sabha)।
लोकसभा के पीठासीन अधिकारी को अध्यक्ष (Speaker) और राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी को सभापति (Chairman) कहा जाता है।
इस लेख हम राज्यसभा के सभापति पर चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझेंगे; तो अच्छी तरह से समझने के लिए लेख को अंत तक जरूर पढ़ें, साथ ही संबन्धित अन्य लेख भी पढ़ें।
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राज्यसभा (Rajya Sabha) क्या है?
राज्यसभा अप्रत्यक्ष रूप से राज्यों को प्रतिनिधित्व देने वाला एक संस्था है। अनुच्छेद 79 के तहत, देश के सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था के रूप में संसद की व्यवस्था की गई है। इस संसद के दो सदन है जिसमें से निचले सदन को लोकसभा और ऊपरी सदन को राज्यसभा कहा जाता है।
इसके सदस्यों का चुनाव जनता सीधे नहीं करती है बल्कि ये लोग अप्रत्यक्ष रूप से चुनकर आते हैं। अभी फिलहाल 245 सीटें राज्यसभा में प्रभाव में है जिसमें से 233 सदस्यों को चुनने के लिए चुनाव होते हैं जबकि 12 सदस्यों को राष्ट्रपति मनोनीत करते हैं।
जिस तरह लोकसभा के कार्य संचालन के लिए एक अध्यक्ष होता है उसी तरह से राज्यसभा के कार्य संचालन के लिए भी एक अध्यक्ष होता है जिसे सभापति कहा जाता है। [राज्यसभा↗️ के बारे में विस्तार से जानें]
राज्यसभा का सभापति (Chairman of Rajya Sabha):
राज्यसभा के पीठासीन अधिकारी या फिर अध्यक्ष को ही सभापति (Chairman) कहा जाता है। जो भी देश का उपराष्ट्रपति बनता है वह स्वतः ही राज्यसभा का सभापति भी बन जाता है।
यानी कि लोकसभा की तरह यहाँ सदस्यों के बीच से अध्यक्ष का चुनाव नहीं किया जाता। बल्कि उप-राष्ट्रपति ही सभापति के रूप में अपनी भूमिका निभाता है। हालांकि उप-राष्ट्रपति जब राष्ट्रपति बन जाता है तब वह वह राज्यसभा के सभापति के रूप में काम नहीं करता है।
राज्यसभा के सभापति भारतीय संसद में एक महत्वपूर्ण पद है। राज्यसभा भारतीय संसद का ऊपरी सदन है, जिसका अर्थ है कि राज्यसभा का सभापति उच्च सदन का पीठासीन अधिकारी होता है।
सभापति राज्यसभा की कार्यवाही के संचालन और सदन में व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होता है। सभापति दिन की कार्यवाही का एजेंडा भी तय करता है और सदस्यों को विभिन्न मुद्दों पर बोलने के लिए बुलाता है।
राज्यसभा के सभापति की अर्हताएं (Qualifications of Chairman of Rajya Sabha):
सभापति बनने के लिए निम्नलिखित अर्हताएँ पूरा करना आवश्यक होता है-
1. वह भारत का नागरिक हो
2. कम से कम 30 साल की आयु हो
3. घोषित अपराधी या दिवालिया न हो। अर्थात उसे कर्ज में नहीं होना चाहिए और उसे अपने वित्तीय खर्चों को पूरा करने की क्षमता होनी चाहिए।
4. भारत सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।
राज्यसभा के सभापति को पद से हटाना
जैसा कि ऊपर ही बताया गया है सभापति वही बनता है जो उपराष्ट्रपति हो, तो जाहिर है अगर उसे उप-राष्ट्रपति पद से हटा दिया जाये तो सभापति के पद से भी हट जाएगा।
यानी कि राज्यसभा के सभापति को तब ही पद से हटाया जा सकता है जब उसे उपराष्ट्रपति पद से हटा दिया जाये। दूसरी बात कि अगर वे खुद ही उप-राष्ट्रपति पद से त्यागपत्र दे दे तो वे सभापति भी नहीं रहेंगे।
जब उपराष्ट्रपति को सभापति पद से हटाने का संकल्प राज्यसभा में विचारधीन हो या उस पर वोटिंग चल रहा हो तो वे राज्यसभा का पीठासीन अधिकारी नहीं होगा हालांकि वह सदन में उपस्थित रह सकता है, बोल सकता है और सदन की कार्यवाही में हिस्सा भी ले सकता है, लेकिन मत नहीं दे सकता।
◾ वहीं जब लोकसभा के अध्यक्ष को हटाने का संकल्प विचारधीन हो तो लोकसभा अध्यक्ष पहली बार मत दे सकता है।
राज्यसभा के सभापति से संबन्धित तथ्य
◼ एक पीठासीन अधिकारी होने के रूप में राज्यसभा के सभापति की शक्तियां व कार्य लोकसभा के अध्यक्ष के समान ही होती हैं बस लोकसभा अध्यक्ष के पास निम्नलिखित विशेष शक्तियाँ होती है, जो सभापति के पास नहीं होती है।
(1) लोकसभा अध्यक्ष के पास यह तय करने की शक्ति होती है कि कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं और इस संबंध में उसका निर्णय अंतिम होता है। सभापति के पास ऐसी कोई शक्तियाँ नहीं होती।
(2) दोनों सदनों के संयुक्त बैठक के दौरान लोकसभा अध्यक्ष ही पीठासीन अधिकारी हो सकता है, सभापति नहीं।
◼ लोकसभा अध्यक्ष सदन का सदस्य होता है जबकि सभापति सदन का सदस्य नहीं होता है। लेकिन वोटिंग के दौरान अगर दोनों पक्षों का मत बराबर हो जाये तो लोकसभा अध्यक्ष की तरह राज्यसभा सभापति भी अपना मत दे सकता है।
◼ लोकसभा अध्यक्ष की तरह सभापति का वेतन और भत्ते भी संसद निर्धारित करती है, जो भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं।
◼ जब उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है तो उसे राज्यसभा से कोई वेतन या भत्ता नहीं मिलता है। यानी कि जब वे राष्ट्रपति होते हैं तो राष्ट्रपति के वेतन और भत्ते प्राप्त करते हैं।
राज्यसभा का उप-सभापति (Deputy Chairman of Rajya Sabha):
राज्यसभा अपने सदस्यों के बीच से ही अपना उपसभापति चुनती है। जब किसी कारण से उपसभापति का स्थान रिक्त हो जाता है तो राज्यसभा के सदस्य अपने बीच से नया उप सभापति चुन लेते हैं।
उपसभापति आमतौर पर अपना पद निम्नलिखित तीन में से किसी एक कारण से छोड़ता है:-
1. यदि राज्यसभा से उसकी सदस्यता समाप्त हो जाय।
2. यदि वह सभापति को अपना लिखित इस्तीफा सौप दे।
3. यदि राज्यसभा में बहुमत द्वारा उसको हटाने का प्रस्ताव पास हो जाए।
लेकिन इस तरह का कोई भी प्रस्ताव 14 दिन के पूर्व नोटिस के बाद ही दिया जा सकता है।
सदन में सभापति का पद खाली होने पर या सभापति की अनुपस्थिति में उप-सभापति ही सभापति के रूप में कार्य करता है। जब ऐसा होता है तो दो उसके पास सभापति की सारी शक्तियाँ आ जाती हैं।
◾ एक बात का ध्यान रखिए कि उपसभापति सभापति के अधीनस्थ नहीं होता बल्कि वह राज्यसभा के प्रति सीधे उत्तरदायी होता है।
◼ सभापति की तरह ही उपसभापति भी सदन की कार्यवाही के दौरान पहले मत नहीं दे सकता लेकिन दोनों ओर से बराबर वोट पड़ने की स्थिति में वह अपना मत दे सकता है।
◼ सभापति की ही तरह जब उसे हटाने का प्रस्ताव विचारधीन हो या वोटिंग चल रहा हो तो वह सदन की कार्यवाही में पीठासीन नहीं होता, हालांकि वह सदन में उपस्थित हो सकता है, बोल भी सकता है।
◼ जब सभापति राज्यसभा की अध्यक्षता कर रहा होता है तब उपसभापति एक साधारण सदस्य की तरह होता है। वह बोल सकता है, कार्यवाही में भाग ले सकता है तथा मतदान कि स्थिति में मत भी दे सकता है।
◼ सभापति की तरह ही उपसभापति को भी संसद द्वारा तय किया गया वेतन और भत्ता मिलता है, जिसका भुगतान भारत की संचित निधि पर भारित होता है।
राज्यसभा के उप-सभापतियों की तालिका
राज्यसभा के नियमों के तहत, सभापति इसके सदस्यों के बीच से 10 उपसभापतियों को मनोनीत करता है और एक पैनल बनाता है। जब असली सभापति एवं उपसभापति सदन में अनुपस्थिति हों तब इनमें से कोई भी सदन की अध्यक्षता कर सकता है। जब ऐसा होता है तो उसे सभापति के समान ही अधिकार एवं शक्तियाँ प्राप्त होती है।
लेकिन जब इस पैनल में से भी कोई उपसभापति सदन में उपस्थित न हो तो दूसरा व्यक्ति जिसे सदन निर्धारित किया हो, बतौर सभापति कार्य करता है।
यहाँ पर एक बात याद रखिए कि यदि सभापति और उप-सभापति का पद रिक्त हो तो तब इस पैनल के सदस्य उस कार्यवाही का संचालन नहीं कर सकता। इस रिक्त स्थान को भरने के लिए जितना जल्द हो सकें, चुनाव कराया जाता है।
Dr. Sarvepalli Radhakrishnan | 13.5.1952 to 12.5.1957 and 13.5.1957 to 12.5.1962 |
Dr. Zakir Husain | 13.5.1962 to 12.5.1967 |
Shri Varahagir Venkata Giri | 13.5.1967 to 3.5.1969 |
Shri Gopal Swarup Pathak | 31.8.1969 to 30.8.1974 |
Shri Basappa Danappa Jatti | 31.8.1974 to 30.8.1979 |
Shri M Hidayatullah | 31.8.1979 to 30.8.1984 |
Shri R. Venkataraman | 31.8.1984 to 24.7.1987 |
Dr. Shanker Dayal Sharma | 3.9.1987 to 24.7.1992 |
Shri K. R. Narayanan | 21.8.1992 to 24.7.1997 |
Shri Krishan Kant | 21.8.1997 to 27.7.2002 |
Shri Bhairon Singh Shekhawat | 19.8.2002 to 21.7.2007 |
Shri Mohammad Hamid Ansari | 11.8.2007 to 10.8.2017 |
Shri M. Venkaiah Naidu | 11.8.2017 to 10.8.2022 |
Shri Jagdeep Dhankhar | 11 August 2022 onwards |
कुल मिलाकर, राज्य सभा के सभापति का पद एक महत्वपूर्ण पद होता है क्योंकि वह सदन की मर्यादा और गरिमा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उसे निष्पक्ष होना होता है और यह सुनिश्चित करना होता है कि सदन के सभी सदस्यों को अपने विचार व्यक्त करने का समान अवसर मिले।
सभापति के पास उस सदस्य को निष्कासित करने की शक्ति होती है जो सदन की कार्यवाही को बाधित करता है या नियमों और विनियमों का पालन करने से इनकार करता है। यदि स्थिति की मांग हो तो वह सदन को स्थगित भी कर सकता है।
सदन की कार्यवाही की अध्यक्षता करने के अलावा, राज्य सभा के सभापति सदन के प्रशासन के लिए भी जिम्मेदार होते हैं। उसे यह सुनिश्चित करना होता है कि सदन में सुविधाएं स्तर के अनुरूप हैं और सदस्यों को सभी आवश्यक सुविधाएं प्रदान की जाती हैं।
अंत में, राज्यसभा के सभापति भारतीय संसद में एक महत्वपूर्ण पद है। वह सदन में व्यवस्था बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार होता है कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से संचालित हो।
उम्मीद है यह लेख समझ में आया होगा, विस्तार एवं गहराई से समझने के लिए संबन्धित अन्य लेखों को भी अवश्य पढ़ें; लिंक नीचे दिया हुआ है।
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